दौड़ती भागती भोपाल पहुंची थी संतोष चौबे जी आयोजित विश्व रंग के आयोजन में। शाम में नाटक "चांडालिका" का मंचन था। नाटकवाले तो बस ग्रीन रूम में सबसे पहले मिलते हैं। मैं भी लपकी। शो में अभी देर थी।
"अरे विभा!" कहते हुए लपककर वे उठीं और गले से लगाया। पूरे ग्रुप से परिचय करवाया- "जानो तुमि, खूब बड़ो आर्टिस्ट। सोलो कोरे....." शो की तैयारी के बीच बीच सभी कलाकार, खासकर महिला कलाकार आती गईं, फोटो खिंचवाती गईं मेरे साथ।
"अरे विभा!" कहते हुए लपककर वे उठीं और गले से लगाया। पूरे ग्रुप से परिचय करवाया- "जानो तुमि, खूब बड़ो आर्टिस्ट। सोलो कोरे....." शो की तैयारी के बीच बीच सभी कलाकार, खासकर महिला कलाकार आती गईं, फोटो खिंचवाती गईं मेरे साथ।
उषा दी बोलीं- "मुम्बई आनेवाली हूँ। तुम्हें फोन करूँगी।"
"आने से पहले, ताकि मैं आपके लिए वहां रह सकूँ।"
वे हंसीं। प्यार से थपकी दी और बोली- "निश्चय।"
अद्भुत नाटक था #चांडालिका। दीदी खुद करती थीं। इस बार अस्वस्थता के कारण खुद नहीं किया। लेकिन, जिस कलाकार ने काम किया था (नाम याद नहीं आ रहा) , उनकी पहली प्रस्तुति थी। बांग्ला में कहते हैं न- "की दारुण।"
उषा दी का नाटक सबसे पहले मैंने कोलकाता में देखा था- मन्नू भंडारी का #महाभोज। उसके बाद उनसे मिलना न हो सका। कोलकाता का मेरा पूरा प्रवास अनिश्चय, नई नौकरी का दवाब, नए शहर का दवाब, जहां रहती थी, ससुराली घर का एक अप्रत्यक्ष दवाब, शहर के मिजाज को समझने का दवाब, अपनी आर्थिक स्थिति का दवाब, तीन माह की बच्ची को गाँव में छोड़कर यहाँ आकर रहने का मानसिक और मनोवैज्ञानिक दवाब, अपना खुद का संकोच- एक छोटे कस्बे से महानगर में आई लड़की का- इन सब ऊहापोह में रही और वहाँ न तो बादल सरकार दादा से मिल पाई न उषा गांगुली दी से। आज सोचती हूँ कि अकेले ही तो रहती थी कोलकाता में। चली गई होती। उनका ग्रुप जॉइन कर लिया होता तो आज कुछ और समृद्ध हुई होती।
उसके बाद उन्हें गौतम घोष की फिल्म पार में देखा तो ऐसा लगा, जैसे अपने घर की दीदी हैं। आप सबने भी देखा ही होगा।
मुंबई में उनके दो-तीन बार नाटक देखने का मौका मिला- रूदाली, शोभा यात्रा। बीच-बीच में उनसे एकाध बार बात हुई थी। whatasapp के किसी ग्रुप पर भी वे मेरे बारे में जानकारी दे रही थीं। किसी -किसे ने बताया कि सोलो नाटक की चर्चा होने पर उन्होने मेरा नाम लिया था।
महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे आने के लिए कई-कई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है। रंगमंच में महिला निर्देशक अभी भी बहुत कम हैं। ऐसे में अपने बलबूते निर्देशन, अभिनय और ग्रुप को चलाने का माद्दा रखनेवाली जांबांज रंगकर्मी रहीं उषा दी। कोलकाता के हिन्दी रंगमंच का आधार जैसे ढह गया उनके जाने से। उनके ग्रुप में बंगाली कलाकारों की बहुतायत है। मंच पर वे सब ऐसी साफ-शफ़्फ़ाक हिन्दी बोलते कि लगता ही नहीं कि उनकी भाषा हिन्दी नहीं है। इसतरह से थिएटर के माध्यम से जाने कितनों को वे हिन्दी का प्रशिक्षण दे गईं, वैसे समय में, जब कोलकातावासी हिन्दी नहीं बोलते थे। मेरे बांग्ला इस फुर्ती से सीख लेने के पीछे यह भी एक वजह रही होगी।
आपका मुम्बई आना रह ही गया। फिर फिर मिलना भी रह ही गया। आप सब हम जैसे रंग संघर्षियों के लिए प्राण आधार हैं। ऐसे अचानक थोड़े न जाते हैं दी!
"आने से पहले, ताकि मैं आपके लिए वहां रह सकूँ।"
वे हंसीं। प्यार से थपकी दी और बोली- "निश्चय।"
अद्भुत नाटक था #चांडालिका। दीदी खुद करती थीं। इस बार अस्वस्थता के कारण खुद नहीं किया। लेकिन, जिस कलाकार ने काम किया था (नाम याद नहीं आ रहा) , उनकी पहली प्रस्तुति थी। बांग्ला में कहते हैं न- "की दारुण।"
उषा दी का नाटक सबसे पहले मैंने कोलकाता में देखा था- मन्नू भंडारी का #महाभोज। उसके बाद उनसे मिलना न हो सका। कोलकाता का मेरा पूरा प्रवास अनिश्चय, नई नौकरी का दवाब, नए शहर का दवाब, जहां रहती थी, ससुराली घर का एक अप्रत्यक्ष दवाब, शहर के मिजाज को समझने का दवाब, अपनी आर्थिक स्थिति का दवाब, तीन माह की बच्ची को गाँव में छोड़कर यहाँ आकर रहने का मानसिक और मनोवैज्ञानिक दवाब, अपना खुद का संकोच- एक छोटे कस्बे से महानगर में आई लड़की का- इन सब ऊहापोह में रही और वहाँ न तो बादल सरकार दादा से मिल पाई न उषा गांगुली दी से। आज सोचती हूँ कि अकेले ही तो रहती थी कोलकाता में। चली गई होती। उनका ग्रुप जॉइन कर लिया होता तो आज कुछ और समृद्ध हुई होती।
उसके बाद उन्हें गौतम घोष की फिल्म पार में देखा तो ऐसा लगा, जैसे अपने घर की दीदी हैं। आप सबने भी देखा ही होगा।
मुंबई में उनके दो-तीन बार नाटक देखने का मौका मिला- रूदाली, शोभा यात्रा। बीच-बीच में उनसे एकाध बार बात हुई थी। whatasapp के किसी ग्रुप पर भी वे मेरे बारे में जानकारी दे रही थीं। किसी -किसे ने बताया कि सोलो नाटक की चर्चा होने पर उन्होने मेरा नाम लिया था।
महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे आने के लिए कई-कई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है। रंगमंच में महिला निर्देशक अभी भी बहुत कम हैं। ऐसे में अपने बलबूते निर्देशन, अभिनय और ग्रुप को चलाने का माद्दा रखनेवाली जांबांज रंगकर्मी रहीं उषा दी। कोलकाता के हिन्दी रंगमंच का आधार जैसे ढह गया उनके जाने से। उनके ग्रुप में बंगाली कलाकारों की बहुतायत है। मंच पर वे सब ऐसी साफ-शफ़्फ़ाक हिन्दी बोलते कि लगता ही नहीं कि उनकी भाषा हिन्दी नहीं है। इसतरह से थिएटर के माध्यम से जाने कितनों को वे हिन्दी का प्रशिक्षण दे गईं, वैसे समय में, जब कोलकातावासी हिन्दी नहीं बोलते थे। मेरे बांग्ला इस फुर्ती से सीख लेने के पीछे यह भी एक वजह रही होगी।
आपका मुम्बई आना रह ही गया। फिर फिर मिलना भी रह ही गया। आप सब हम जैसे रंग संघर्षियों के लिए प्राण आधार हैं। ऐसे अचानक थोड़े न जाते हैं दी!
5 comments:
हिन्दी और बंगला भाषा के संघर्ष के साथ रंगकर्मियों का चित्रण बहुत सुन्दर सहयोग है। हार्दिक साधुवाद ।
- बीजेन्द्र जैमिनी
bijendergemini.blogspot.com
धन्यवाद बीजेन्द्र जी।
उनके कदमों पर आप जो चल रहीं हैं , पथ रिक्त न रहे ।
जी दी। परंतु, किसी का स्थान कोई नहीं ले सकता। हम सब अनुकरण ही कर सकते हैं।
उन्हें नमन विनम्र श्रद्धांजलि ,आपके माध्यम से उन्हें जानने का अवसर प्रदान हुआ ,इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद
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