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Saturday, December 29, 2012

पैदा करना बेटियों को है रेयरेस्ट ऑफ रेयर जुर्म!


आज भी लोग बलात्कार के लिए ठहरा रहे हैं लड़कियों को दोषी।
कोई उनकी नज़रों को
कोई छोटे, खुले, तंग कपड़ों को
कोई घूँघट को,
कोई पर्दे को,
कोई साड़ी को,
कोई बिकनी को,
कोई दोस्ती को,
कोई प्यार को,
कोई उनके खुले व्यवहार को,
कोई उनके बंद जकड़न को,
कोई मोबाइल को
कोई नेट को।
अब हम थक गए हैं अपने लिए बचाव करते-कराते।
अब हम भी मानते हैं, हम हैं सबसे दोषी।
हे इस समाज के इतने महान विचारक,
नियामक
एक ही उपाय कर दें आपलोग,
निकाल दें ऐसा कानून,
जुर्म है बेटियों का पैदा होना,
उससे भी बड़ा जुर्म है उसके माँ-बाप का
उसे धरती पर लाने का दुस्साहस करना
आप हे हमारे माई-बाप!
घोषित कर दें पैदा करना बेटियों को
है रेयरेस्ट ऑफ रेयर जुर्म!
हम अभी गला घोंट आते हैं अपनी बेटियों का
साथ-साथ अपना भी।
क्या करेंगे हम जीवित रहकर,
जब हमारी बेटियाँ ही नहीं रहेंगी इस धरती पर।
रहो साफ, पाक, पवित्र बेटी-विहीन धरा पर,
लेकिन, यह धरती भी तो है बेटी ही,
कैसे रहोगे इस पर,
इसलिए बसेरा बनाओ कही और, किसी और खगोलीय दुनिया में,
चाँद, मंगल, शनि, बुध, सूरज- कहीं भी
बस, अब छोड़ दो हमें और हमें धारण करनेवाली धरा को।

Wednesday, December 19, 2012

देवी और बलात्कार


लड़की,
मत निकलो घर से बाहर।
देवियों की पूजावाला है यह देश।
हम बनाते है बड़ी-बड़ी मूर्तिया, देवी की-
सुंदर मुंह,
बड़े- बड़े वक्ष
मटर के दाने से उनके निप्पल,
भरे-भरे नितंब
जांघों के मध्य सुडौल चिकनाई।
उसके बाद ओढा देते हैं लाल-पीली साड़ी।
गाते हैं भजन- सिर हिला के, देह झूमा के।
लड़की,
तुम भी बड़ी होती हो इनही आकार-प्रकारों के बीच।
दिल्ली हो कि  बे- दिल
तुम हो महज एक मूर्ति।
गढ़ते हुए देखेंगे तुम्हारी एक-एक रेघ
फिर नोचेंगे, खाएँगे,
रोओगी, तुम्ही दागी जाओगी-
क्यों निकली थी बाहर?
क्यों पहने तंग कपड़े?
क्यों रखा मोबाइल?
लड़की!
बनी रहो देवी की मूर्ति भर
मूर्ति कभी आवाज नही करती,
बस होती रहती है दग्ध-विदग्ध!
नहीं कह पाती कि आ रही है उसे शर्म,
हो रही है वह असहज
अपने वक्ष और नितंब पर उनकी उँगलियाँ फिरते-पाते।
सुघड़ता के नाम पर यह कैसा बलात्कार?
लड़की- तुम भी देवी हो-
जीएमटी हो कंचक,
पूजी जाती हो सप्तमी से नवमी तक
लड़की-
कभी बन पाओगी मनुष्य?




Sunday, December 9, 2012

हम हमेशा शिवरानी - वे हमेशा प्रेमचंद


हे भगवान! आज मैं बहुत खुश हूँ कि मैं महुआ माजी की तरह खूबसूरत नही। हिन्दी जगत में खूबसूरत लेखिका होना मतलब- उसके चरित्र की धज्जियों का उड़ जाना है।  हिन्दी जगत में स्त्री का होना ही फांसी पर चढ़ा जानेवाला अपराध है। खूबसूरत लेखिका होना भयंकरतम अपराध है। इसकी सज़ा उसके चरित्र की खील -बखिया उधेड़ कर दी जा सकती है। ऐ औरत! एक तो तू हव्वा!। सारे फसादात की जड़! दूसरा फसाद- कि तू सुंदर भी है। यह ऊपरवाला भी- बहुत हरामी है। उसकी कमीनगी देखिये कि वह इस दो टके की औरत को दिमाग नाम की चीज़ भी दे देता है। अब भला कहिए तो! रूप दे दिया तो दे दिया। उससे हमारा मन सकूँ पाता है। आँखों को ठंढक पहुँचती है। दिल को राहत मिलती है। अगर वह पट गई तो देह की पोर-पोर खिल जाती है। नहीं भी पाती तो उसे गाली देकर, बदनाम करके हमारी जीभ और रूह सकून पाती है। ए कम अक्लों ! कितने खुश हैं हम यह स्थापित करते हुए कि ऐसों-ऐसों की अक्कल घुटने में होती है। घुटने पर साड़ी अच्छी लगती है। दिमाग को भी हमने घुटने पर देकर हमने उनकी इज्ज़त ही बढाई है। असल में उनके पास दिमाग तो होता ही नही! और ज़रूरत भी क्या है भला! वे रूपसी है, कामिनी हैं, दामिनी हैं, मतवारी हैं, छममकछल्लो हैं, छमिया हैं। ये सब हमारे रस-रंजन के लिए हैं। उनकी खुशकिस्मती कि हम उन्हें अपने साथ होने-सोने-खोने के लिए रख लेते हैं। अब इनकी यह मजाल कि लिखने भी लगें, बोलने भी लगें, हुंकारने भी लगें। दुर्गा-काली कैलेंडरों और शास्त्रों में अच्छी लगती हैं। जीवन में नही। महुआ हो कि कमलेश, गीता हो कि विभा- जो बोलेगी, भाड़ में जाएगी। यह भाड़ हमने बनाया है, इसमें हिंसा, कामुकता, रासलीला की आग हम सदा जला के रखते हैं। हम एक छींटे से अपने ही अन्य लोगों का भी खात्मा करने की ताकत रखते हैं, जिनकी नज़र में स्त्री सम्माननीय है। अरी ऐ औरत!  संभाल जा! तू मादा है, मादा रहेगी। मादा बनकर हमारे साथ रहेगी तो तेरे रूप पर तनिक दिमाग का दान भी कर देंगे।
इसलिए हे भगवान! अबतक अपनी कुरूपता से दुखी आज मैं बहुत खुश हूँ। पर, क्या सचमुच खुश हूँ? नहीं। रूप तो एक और विशेषण है। हमारे लिए तो औरत का होना ही अपराध है। हम औरत बनकर सेवाभाव से दासी बने रहें, तो किसी को कोई आपत्ति नही होगी, न किसी गोस्वामी जी की आत्मा में किसी प्रकाश का पुंज लहराएगा, न किसी के मन में किसी के प्रति राग-रंजन का अनिल या अनल बहराएगा। न किसी रण का बांका छलिया रूप अंधेरगर्दी मचाएगा। हमें कहा जाता है कि ना, ना, ना! हमारे विमर्श को नारीवादी रूप मत दीजिए। हम भी कहते हैं कि ना जी ना, हम तो अपने को रूप-अरूप से अलग-विलग रखकर सिर्फ और सिर्फ अपने कर्म और अपने लेखन और अपने प्रोफेशन पर ध्यान देते हैं। तब भी पेट में मरोड़ होने लगती है।
हे भगवान! अब हम तुमको गरिया रहे हैं। क्यों, तूने हमें बनाया? दिन-रात की इस इज़्ज़तपोशी के लिए! एक बार इन इज़्ज़तदानों को भी औरत बना दे और ऐसे ही विभूषणों से विभूषित कर दे। हमारी साड़ी, हमारी देह, हमारी नाक, हमारी आँख, हमारी चितवन, हमारी गढ़न! सब उनमें भर दे! सुनने दे उन्हें भी ये सब कुछ! फिर हम भी पूछें कि 'आब कहू, मोन  केहेन लगइए।"
वैसे हिन्दी में किसी की किसी भी उपलब्धि पर पड़ोसी के पेट में दर्द उठाना स्वाभाविक है। हमारी भिखारी और लोलुप प्रवृत्ति किसी को खुश, और परवान चढ़ा नही देख सकती। उसे यह रोने में अच्छा लगता है कि हिन्दी में पैसा नही, नाम नहीं, और जैसे ही किसी को यह मिलता है, हम उसके खिलाफ लामबंद होने लगते हैं। मतलब साफ है कि उसकी साड़ी कि उसकी कमीज मेरे से सफ़ेद कैसे? वह चाहे महुआ माजी हो या सुरेन्द्र वर्मा। हमें कभी भी अपने नाम, दाम, काम का चाँद नही चाहिए। न न न! हमें तो चाहिए, किसी महुआ को या किसी सुरेन्द्र वर्मा को नहीं। हमें मिले तो हमी सबसे लायक, कोई और है तो घनघोर नालायक!
महुआ का उपन्यास अच्छा नही है, तो उसे अपनी मौत मर जाने दीजिये। चोरी का है तो चोरी का इलज़ाम लगाये। उपन्यास के लिखने, घटिया या बढ़िया होने का उसके रूप या उसकी साड़ी -शृंगार से क्या वास्ता! वैसे हम भी ना! हम हिंदीवालों को सजने-सँवरने से भी बहुत परहेज है। एक मंत्री जी भी चार बार कपड़े बदलते हैं तो सुर्खियों में आ जाते हैं। टीवी उनके काम पर नही, उनके कपड़ों पर उतर आता है। हमारी यह फितरत है। महुआ कि कमलेश कि गीता कि विभा कि मैत्रेयी कि शीला कि मुन्नी कि इमरती कि जलेबी- हमारे काम पर नहीं, हमारे रूप पर जाइए। अगर हमने कुछ कर लिया तो हम शिवरानी हो जाएंगे, जिनकी कहानी प्रेमचंद ही लिखते थे। हमारे तो घर के मर्दों में भी इतनी ताब नही कि वे कहें कि हाँ जी हाँ! उनकी पत्नी एक शख्स नहीं, एक शख्सियत है। मन के भीतर इतना डर और कहने को इतने रणबांकुरे!

Saturday, December 8, 2012

मंडी- रंडी, देह -दुकान....!


कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!

सबकी मौत का एक मुअईन है
लेकिन मैं.....
मरती हूँ हर रात... (प्रतिमा सिन्हा)
(इसमें अपनी बात जोड़ रही हूँ- )

घर -बाहर, दुकान दफ्तर-चौराहा-पार्क
हर जगह हम हैं केवल मंडी- रंडी, देह -दुकान....!
हम कहते रहें की हमने उन्हें देखा
मित्रवत, पुत्रवत, भतृवत, मनुष्यवत....
लेकिन, जिन्हें हम ये सब कहते हैं, वे ही हमें बताते हैं-
कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!
अब हम भी कह रहे हैं, कि आओ और उपयोग करो- हमारा-
कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!
आँसू बहते हों तो पी जाओ।
दर्द होता हो तो निगल जाओ।
सर भिन्नाता हो तो उगल आओ अपने देह का दर्द, जहर, क्रोध -
अपनी ही माँद में।
कहीं और जाओगी तो सुनेगा नहीं कोई
अनहीन, नहीं, सुनहेगे सभी,
फिर हँसेंगे, तिरिछियाएंगे और
फिर फिर छेड़ेंगे धुन  की जंग-
कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!

Monday, December 3, 2012

राजेन्द्र बाबू का पत्र- पत्नी के नाम


राजेन्द्र बाबू का पत्र- पत्नी के नाम -साभार- पुन्य स्मरण- समर्पण- उनके जन्म दिन पर- तेरा तुझको सौंपत, क्या लागे है मोय?एक बार फिर से अपने ही इसी ब्लॉग से।

इस पत्र से पता चलता है कि तब के नेता देश के लिए कितने प्रतिबद्ध रहते थे। घर-परिवार , पैसे उनके लिए बाद की बातें होती थी। मूल भोजपुएरी में लिखा पत्र यहाँ प्रस्तुत है-
आशीरबाद,
आजकल हमनी का अच्छी तरह से बानी। उहाँ के खैर सलाह चाहीं, जे खुसी रहे। आगे एह तरह के हाल ना मिलला, एह से तबीयत अंदेसा में बातें। आगे फिर। पहले कुछ अपना मन के हाल खुलकर लीखे के चाहत बानीं। चाहीं कि तू मन दे के पढी के एह पर खूब बिचार करिह' और हमारा पास जवाब लिखिह''। सब केहू जाने ला कि हम बहुत पढली,  बहुत नाम भेल, एह से हम बहुत पैसा कमाएब। से केहू के इहे उमेद रहेला कि हमार पढ़ल-लिखल सब रुपया कमाय वास्ते बातें। तोहार का मन हवे से लीखिह्तू हमारा के सिरिफ रुपया कमाए वास्ते चाहेलू और कुनीओ काम वास्ते? लड़कपन से हमार मन रुपया कमाय से फिरि गेल बाटे और जब हमार पढे मे नाम भेलत' हम कबहीं ना उमेद कैनीं कि इ सब पैसा  कमाए वास्ते होत बाटे। एही से हम अब ऐसन बात तोहरा से पूछत बानी कि जे हम रुपया ना कमाईं, त' तू गरीबी से हमारा साथ गुजर कर लेबू ना? हमार- तोहार सम्बन्ध जिनगी भर वास्ते बातें। जे हम रुपया कमाईं तबो तू हमारे साथ रहबू, ना कमाईं, तबो तू हमारे साथ रहबू। बाक़ी हमरा ई पूछे के हवे कि जो ना हम रुपया कमाईं त' तोहरा कवनो तरह के तकलीफ होई कि नाहीं। हमार तबीयत रुपया कमाए से फ़िर गेल बातें। हम रुपया कमाए के नैखीं चाहत। तोहरा से एह बात के पूछत बानीं, कि ई बात तोहरा कइसन लागी? जो हम ना कमैब त' हमारा साथ गरीब का नाही रहे के होई- गरीबी खाना, गरीबी पहिनना, गरीब मन कर के रहे के होई। हम अपना मन मी सोचले बानीं कि हमारा कवनो तकलीफ ना होई। बाक़ी तोहरो मन के हाल जान लेवे के चाहीं। हमारा पूरा विश्वास बातें कि हमार इस्त्री सीताजी का नाही जवना हाल मे हम रहब, ओही हल में रहिहें- दुःख में, सुख में- हमारा साथ ही रहला के आपण धरम, आपण सुख, आपण खुसी जनिःहें । एह दुनिया में रुपया के लालच में लोग मराल जात बाते, जे गरीब बाटे सेहू मरत बाटे, जे धनी बाटे, सेहू मारत बाटे- फेर काहे के तकलीफ उठावे। जेकरा सबूर बाटे, से ही सुख से दिन काटत बाटे। सुख-दुःख केहू का रुपया कमैले और ना कमैले ना होला। करम में जे लिखल होला, से ही सब हो ला।
अब हम लीखे के चाहत बानी कि हम जे रुपया ना कमैब त' का करब। पहीले त' हम वकालत करे के खेयाल छोड़ देब, इमातेहान ना देब, वकालत ना करब, हम देस का काम करे में सब समय लगाइब। देस वास्ते रहना, देस वास्ते सोचना, देस वास्ते काम करना- ईहे हमार काम रही। अपना वास्ते ना सोचना, ना काम करना- पूरा साधू ऐसन रहे के। तोहरा से चाहे महतारी से चाहे और केहू से हम फरक ना रहब- घर ही रहब, बाक़ी रुपया ना कमैब। सन्यासी ना होखब, बाक़ी घरे रही के जे तरह से हो सकी, देस के सेवा करब। हम थोड़े दिन में घर आइब,त' सब बात कहब। ई चीठी और केहू से मत देखिह', बाक़ी बीचार के जवाब जहाँ तक जल्दी हो सके, लीखिह'। हम जवाब वास्ते बहुत फिकिर में रहब।
अधिक एह समय ना लीक्हब।
राजेन्द्र
आगे ई चीठी दस-बारह दीन से लीखले रहली हवे, बाक़ी भेजत ना रहली हवे। आज भेज देत बानी। हम जल्दीये घर आइब। हो सके टी' जवाब लीखिः', नाहीं टी' घर एल पर बात होई। चीठी केहू से देखिः' मत। - राजेन्द्र
पाता- राजेन्द्र प्रसाद, १८, मीरजापुर स्ट्रीट, कलकत्ता
(अब आप सोचें कि ऐसे पत्र को पाकर उनकी पत्नी के क्या विचार रहे होंगे और देश को पहला राष्ट्रपति देने में उनकी क्या भुमिका रही होगी?)

Monday, October 8, 2012

ई देस है वीर बलात्कारियों का, इस देश का यारो किया कहेना!


हे लो। फिर हिंदुस्तान के वीर बहादुर लोग सब अपने देश की महान संस्कृति का पालन करते हुए एगो इज्जत लूट गिया। फिर एगो इज्जत लुट गिया। फिर एगो जान चला गिया। फिर टीवी अखबार का मौसम आ गिया। फिर माई-बाप लोग के गरीब के घर आने-जाने का दिन आ गिया। गाँव में मेला लगेगा। ठेला लगेगा। कुछ ठेलाएंगे, कुछ बिकाएंगे, कुछ सेरांगे, कुछ गरमाएंगे। फिर ताबतक में कौनों आउर बात आ जाएगा, फिर सब उसको भुतिया जाएंगे। फिर कोनो एगो माई-बाप के पच्छ में बोल गिया। फिर कोनो चार गो उसके खिलाफ उगिल गिया।
माई-बाप तो माई-बाप है। लोग और को सरमो नहीं आता है उसको उछन्नर करते हुए। आपलोग कहियो अपना बूढ़ा गए माय-बाप को एतना तंग करेंगे? ईहो तहमरे माए-बाप सब है न। एकके गो तो मौका मिलता है अपना माय-बाप भोट दे के अपने से चुनने का। भगवान तो देता नही है। बस, डिक्टेटर जैसा अपना टेंट में से माई-बाप निकालता है आ बाल-बच्चा सबको पकड़ा देता है। ले रे अभगवा, ले!
ई माई-बाप आजकल बहुते - बहुते रूप मे बदल गिया है। मुनसी, मोकदमा, लाट, खाप, बाप। हे, सुने, एगो बाप कह रहा था- लडिका-लड़िकी का बियाह का ऊमीर कम कर दो। हे, हे हे हे...! छम्मकछल्लो का तो खुसी से दमे फूल गिया। कम क्या! जनमते ही कर दो। जनमते ही उसको बता दो, देखो रे बबुआ, तुम्हारा जनम पढ़ने-लिखने, कुछ करने के लिए नही हुआ है। उसके लिए देश-बिदेश में बहुत पगला लोग सब बैठा हुआ है। तुम तो जनमते बियाह रचाओ, आ डूब जाओ रंग-रभस में, जिससे कि तुम्हारे जीसीम की आग सेराती रहे आ आगे तुम किसी के इज्ज़त लूटने जैसा काम मत करना। जैसे एक बेर कोनो एगो बाप बोले थे कि गाँव में सबको टीवी दे दो। लोग देर तक टीवी देखेंगे तो देर से सोएँगे। देर से सोएँगे तो उत्पादन के काम में नहीं लगेंगे। आ देश की जनसंख्या में इजाफा नही होगा। बिदियार्थी सबको जनसंख्या रोकने में टीवी का महत योगदान जैसा बिसय देना चाहिए, निबंध लिखने के लिए।
छम्मकछल्लो को तो अभिए से बियाह का सब गीत मोन पड़ने लगा- बेटा का है तो गाओ- साजहु हो, बाबा मोर बरियतिया। बेटी का है तो पाया के ओटे गे बेटी, क्यों गे खड़ी, अपना बाबा के मुंह देखि, रोने लगी।
बेटी सब का मुंह ऐसे ही बनरचोथ जैसा होता है। जिसको देखती है, रोने लगती है। बाप को भी आ बलात्कारी को भी। एक बाप बनकर बोलता है, लड़की पर सिक्कड़ कस दो। फिलिम में ताला मार दो। छम्मकछल्लो ताला, सिक्कड़ लेकर हाजिर। हो हमारे बाप-भाई। हम सब तो तुम्हारे ही बाग की चिड़िया हैं। मार दो, काट दो। तनिको न कुछ बोलेंगे। बेटी जनम मुफ़त में थोड़े न लिए हैं।
लबरघोघवा सब जीभ लपलपाता कहता है- लड़की है रे! छम्मकछल्लो हुआं भी कहती है- हाँ रे, हैं ना। अब जो करना है, कर लो। इज्ज़त लूट लो, नंगा नचा दो, कसम धरा लो जो हम कुच्छो बोले तो! हम कुच्छो बोले न तो चाहे जलती चिता में से, चाहे गाड़े गए कबर में से हमरी लाश निकाल कर उसका फिर से इज्ज़त लूट लेना। कमाल है भाई। ऊ सब बड़का लोग सब होता है। हम लड़की सबका औकाते कौन जो कुछो बोलें? ऊ लोग का लूटने का काम- ऊ लोग करे। हमारा लुटने का धंधा- हम करें। मामिला एकदम फरीच्छ! बूझे कि नहीं? धुर रे बुड़बक। लगता है तू भी किसी का इज्ज़त उतारिए के आवेगा अभागा नहितन!  
एगो बोलता है- साजिश है। छम्मकछल्लो कहती है, जी माई-बाप, एकदम है। एगो बोलता है, राजा को गद्दी से उतार दो। छम्मकछल्लो कहती है, ना माई-बाप। क्या फायदा? आप गेरन्टी दोगे कि आप राजा बनकर आओगे तो हमारी इज्ज़त हिफाजत से रहेगी। अपने लिए तो तुलसी बाबा कहिए गए हैं- कोऊ नृप होही, हमें का हानी, चेरी छांड़ि की होयब रानी?
लेकिन, ई इज्ज़त का भी ग्रेडेसन होता है, छम्मकछल्लो को पता चलता है। इसलिए, जब –जब इज्ज़त लूटने का बात आता है वो लड़की का बिशेषन लगाना नाही भूलता- मुसलमान लड़की, दलित लड़की। छम्मकछल्लो को अककिल तो है नहीं। उसको लगता है, ज़रूर इज्ज़त उतारने का तरीका या इज्ज़त जाने का तरीका ई सब बिशेषन लगाने से बदल जाता है। औरत का इज्ज़त तो आइयसे जाता है सो तो जाता अही है, ई सब बिशेषन लगा के और क्या मिलता है, छम्मकछल्लो यही पूछना चाहती है- इज्ज़त उतारनेवाले से भी और उस इज्ज़त का चीर-फाड़ करवाले से भी।   

Saturday, October 6, 2012

विचारों के चरित्र पर वीर्य का शीलहरण!

      शास्त्रों में दान की बड़ी महिमा है- स्वर्णदान, जीवनदान, गुप्तदान, कन्यादान से लेकर देह और अस्थिदान तक। अस्थिदान से ऋषि दधीचि महान बन गए और शूरवीर कर्ण दानवीर कहलाने लगे। शास्त्रों की दान- महिमा को मेडिकल साइंस ने भी तरह –तरह से  गाया- नेत्रदान, रक्तदान, गुर्दादान, देहदान। भाई लोगों की नज़र में ये सभी दान महाधर्म और महाकर्म हैं, मानवीयता के क्षेत्र में एक महान कार्य! लेकिन एक दान पर आते ही भाई लोग नैतिकता के भंवर में डोलने लगे। दान-धर्म पर फिल्में भी बनती रही हैं। लेकिन ये फिल्ल्मवाले भी ना! हरदम विषय के भुक्खड़! हर समय सबजेक्ट का टोटा। दान-धर्म पर दर्द का रिश्ता से लेकर आनंद और जय संतोषी माता तक। टीवी तो बताकर ही रहेगा कि भारत का धर्म कितना महान है।
      तो लीजिये, इससे क्या हो गया? पागल फिल्ल्मवाले! उसी पागलपन में बना डाली- विकी डोनर। हिंदुस्तान में धर्म, सिनेमा, देह, रज और वीर्य जैसे विषयों पर सभी भाइयों की सरस्वती चरम जाग्रत हो जाती है। ऊपर लिखे सभी दान- महादान! मगर वीर्यदान- अनैतिक, महापाप। भूल जाइए अपने शास्त्रों की तथाकथित नियोग पद्धति। उससे उत्पन्न अपने महान मिथकीय चरित्र- महामुनि वेदव्यास से लेकर धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर तक। पसीने से वीर्य तक की वीर यात्रा और उस वीर्य से मीन तक के गर्भ धारण की बात। धर्म में केवल भाव होता है, तर्क नहीं। छम्मकछल्लो भी कहाँ तर्क कर रही है। वह तो यही कह रही है कि जो धर्म इतने साल पहले इन सबका प्रयोग कर इन्हें तार्किक, उन्नत और आधुनिक बना गया, उसी को लेकर भाई लोग इतने संकुचित क्यों?
      विकी डोनर के वीर्यदान से सभी की नैतिकता छनछनाने लगी। मरदवादी अहं ठाठ मारने लगा। ज़ोर दे-देकर लिखा जाने लगा- सोचिए, आपकी आँखों के सामने आपकी बीबी किसी गैर मर्द का वीर्य अपने पेट में लेकर घूमती रहेगी और आप उसे लेकर डॉक्टरों के चक्कर लगा रहे होंगे। उसकी इच्छा-अनिच्छा का ख्याल रख रहे होंगे। माने, आप एक ऐसे बच्चे के महज केयरटेकर हैं, जो दूसरे का है। वह बच्चा जनम लेकर जीवन भर आपकी छाती पर मूंग दलता रहेगा। आप उसे अपना बच्चा कहने पर मजबूर होते रहेंगे। बोलिए, कैसे बर्दाश्त करेंगे आप?”
      सचमुच जी, कैसे बर्दाश्त करेंगे हम? बच्चा तो केवल मर्द का ही होता है। औरत की तो कोई भूमिका होती ही नही। वह तो महज केयरटेकर है, अपने मर्द के वीर्य की। वह उसे नौ महीने तक पेट में पाले, फिर उसे जनम देकर जीवन भर उसकी देखरेख करती रहे। बदले में कभी कुछ बुरा हो तो सुनती भी रहे- कैसी माँ हो?” बस जी, इसके आगे कुछ नहीं। बीबी के बदन में दूसरे का रक्त या गुर्दा या नेत्र हो, कोई बात नही। मगर उसकी कोख में किसी दूसरे का वीर्य- पापं शान्तम!  
      भाई साहब ने लगे हाथो समाधान भी दे दिया- “मर्द अगर बंजर है और औरत उर्वर तो औरत बंजर मर्द को तलाक देकर उर्वर मर्द से ब्याह रचा ले।“
      छम्मकछल्लो वारी-वारी गई इतनी महान सोच पर। आखिर औरत को इतनी आज़ादी दे दी कि वह भी मर्द की तरह तुरंत ऐलान कर दे कि देख लो जी, तुम तो ठहरे बंजर। सो ये लो, मैं तो चली उर्वर की तलाश में। भाड़ में जाए शास्त्र-वास्त्र का कहना कि पति-पत्नी का संबंध जन्म-जन्मांतर का होता है। वे एक-दूसरे के सुख-दुख के अनंत साझीदार हैं। ना जी। भाई साहब की बात से तो छम्मकछल्लो की ज़ात कमोडिटी में तब्दील हो गई- जबतक फायदे का सौदा है, साथ रहो, भोगो। बच्चे जन या जनवा सकते हो तो जनो या जनवाओ, वरना भैया! नही, ओ बहना! अपना रास्ता नापो।“
      कूढ़मगज छम्मकछल्लो की समझ में ही नही आता कि क्या पत्नी अपने पति को इस बिना पर छोड़ दे कि उससे उसके बच्चा नहीं हो रहा? वह उसके प्रेम को बच्चे की तराजू पर तोलकर उसे वजन में कम पाकर छोड़ दे? उसकी बायालोजिकल अक्षमता का सिला पति-पत्नी के रिश्ते को खतम करके दे? फिर तो ऐसे हर माँ-बाप को भी खतम कर दिया जाना चाहिए, जो दूसरे के बच्चों को गोद लेते हैं। ऐसी हर माँ को निकाल दिया जाना चाहिए, जो अपने पति या यूं कह लें कि अपनी सौत की संतान को अपना मानकर उसपर अपना प्रेम लुटाती है। भाई साहब! ऐसी औरतों को भी नसीहत दें कि तुम्हारी आँखों के सामने तुम्हारी कोख के जाए का हक़ तुम्हारी सौत की औलाद हड़प रही है। लेकिन, वे नहीं कहेंगे। यह औरत-मर्द और उनकी मरदवादी सोच का फर्क है, जिसमें औरत महज एक सामान है। घर देखने के लिए भी और गर्भ धारण के लिए भी। औरत महज एक देह है, जिसपर केवल उसके अपने मर्द का ही हक़ है। वह माँ बनना चाहती है, तो पहले अपने पति को छोड़े, चाहे वह पति उससे कितना भी प्रेम क्यों ना करता हो? आखिर, कोई तो ऐसी वजह बताएं, जिससे यह तर्क छम्मकछल्लो के गले उतर सके कि ऊपर लिखे सभी दान नैतिक और धार्मिक हैं और वीर्यदान अनैतिक, अधर्म? माँ -बाप बनने की चाहत पर ऐसी नपुंसक सोच?

Thursday, September 20, 2012

दिनेश ठाकुर- नकारात्मकता की सकारात्मक भूमिका।


दिनेश ठाकुर अब हमारे बीच नहीं हैं। हिन्दी थिएटर जगत उनका ऋणी रहेगा। मुंबई के चंद प्रसिद्ध थिएटर ग्रुप्स में से एक उनका भी अंकग्रुप था। ज़ाहिर है, थिएटर की ओर लपकनेवाली सभी नई पौध इन नामों के पीछे भागती है। थिएटर का यह अपना ग्लैमर है।
दिनेश ठाकुर से मेरी मुलाक़ात मुंबई में ही हुई। मैंने नाटक लिखना शुरू किया था। पारिवारिक कारणों से मैं तब एक्टिव थिएटर से दूर थी। मेरा पहला नाटक था- दूसरा आदमी दूसरी औरत। उसे सबसे पहले एक्सपेरिमेंटल थिएटर फ़ाउंडेशन, मुंबई ने किया। बाद में राजेन्द्र गुप्ता और सीमा विश्वास ने। अब इसे रास कला मंच, हिसार कर रहा है। नाट्य लेखक के लिए एक बड़ी उपलब्धि होती है- उसके लिखे नाटकों का मंचन। मंचन ही लेखक और नाटक दोनों की सार्थकता है। एक्सपेरिमेंटल थिएटर फ़ाउंडेशन द्वारा दूसरा आदमी दूसरी औरत के मंचन के बाद नाटक लिखने का उत्साह और बढ़ा और फटाफट कुछेक नाटक और लिख डाले। उसी में एक नाटक था- मदद करो संतोषी माता। बेरोजगारी को आधार बना कर हास्य-व्यंग्य में लिखा गया था यह नाटक। एक्सपेरिमेंटल थिएटर फ़ाउंडेशन ने ही इसका रंग- पाठ रखा। मुख्य अतिथि के रूप में बुलाए गए –दिनेश ठाकुर।
दिनेश जी ने बड़े धीरज के साथ रंग पाठ को सुना। और भी कई नामचीन लोग थे- सत्यदेव त्रिपाठी, हरी मृदुल, गोपाल शर्मा, रमेश राजहंस, फिरोज अशरफ, डॉ चंद्र प्रकाश द्विवेदी, बबिता रावत। रंग-पाठ कभी अंक में ही काम कर चुकी राजेश्वरी पंडित और आज के हिन्दी-भोजपुरी फिल्मों और टीवी के अभिनेता प्रणय नारायण ने किया था।
रंग-पाठ के बाद सभी ने अपने अपने तरीके से नाटक पर चर्चा की। सबसे बाद में दिनेश जी ने बोलना शुरू किया और अंत में कहा कि यह नाटक बहुत कमजोर है। मुझे लगा कि अरे, यह क्या ये बोल रहे हैं, क्योंकि अपनी तो आदत होती है तारीफ सुनने की। खासकर तब, जब कार्यक्रम आपके लेखन या आप पर आयोजित हो। मुझे लगा कि यह आदमी तो बड़ा नेगेटिव है।
आम तौर पर लेखक को अपनी रचना पर चर्चा के समय कुछ बोलते नहीं देखा-सुना था, लेकिन उस दिन मैं अपने ही नाटक पर उनसे इसे कैसे प्रभावी तरीके से लिखा जाए, पूछ बैठी। बाद में इसकी काफी आलोचना हुई। लेकिन मुझे लगता है कि यदि किसी की रचना पर कोई समीक्षा हो रही है तो रचनाकार को यह पूछने का मौका दिया जाना चाहिए ताकि उसकी रचना में और निखार आ सके। मैंने यह भी पूछा कि यदि इस पर और काम करके इसे आपके पास लाऊं, तो क्या आप इसे करेंगे? वे पहले मुसकाए, फिर बोले- “हम नाटक के इतने सारे पक्षों पर काम करते हैं कि  स्क्रिप्ट पर काम करना संभव नहीं। मैंने फिर पूछा, ‘फिर लोग हिन्दी में नाटक कैसे लिखेंगे, यदि उसे कोई मंचित ही ना करे? कविता-कहानी तो कही ना कहीं छप ही जाती है। उपन्यास अंश या कभी कभी तो पूरा उपन्यास भी छप जाता है, मगर नाटक की बात आने पर सभी जगह की कमी की बात कहकर परे कर देते हैं।
साहित्य जगत के लोग नाटक से आमतौर पर कोई बाबस्ता नही रखते। उन्हें लगता है कि नाटक दृश्य विधा है, इसलिए हमारा इसमें क्या काम? नाटक के लोग साहित्य से सरोकार रखते हैं, क्योंकि उन्हें उन साहित्यों को पढ़ कर ही अपने लिए नाटक चुनने होते हैं। मुझे उस दिन दिनेश जी की बातें बड़ी नागवार लगी थी। कई दिनों तक मूड खराब रहा था। लेकिन, धीरे-धीरे उनके कहे पर सोचना शुरू किया, तब लगा कि वे ठीक कह रहे हैं।  
दिनेश जी ने बड़ी सादगी से कहा, ‘नाटक ऐसे नहीं लिखा जाता है। नाटक लिखने के लिए नाटक के रिहर्सल में जाना ज़रूरी है। अपनी सदाशयता में उन्होने मुझे खुला आमंत्रण दिया कि मैं उनके रिहर्सलों में कभी भी जा सकती हूँ। अपनी व्यस्तताओं के कारण ही उस समय एक्टिव थिएटर से दूर रही थी, इन्ही कारणों से उनके रिहर्सलों में भी कभी नहीं जा सकी, मगर उनके कई नाटक मैंने देखे। उन्होने खुद ही कई बार फोन करके मुझे बुलाया। कई बार मैं फोन करके उनके नाटक देखने गई- हमेशा, हम दोनों, कमली, जिन लाहौर नई वेख्या ... आदि। एक दो नाटकों की नवभारत टाइम्स में समीक्षा भी लिखी।
जीवन में नकारात्मक ऊर्जा भी सकारात्मकता लेकर आती है। उस दिन यदि दिनेश जी ने बात उतनी साफ-साफ नही रखी होती तो आज मैं नाटक और अभिनय- दोनों के क्षेत्र में शायद इस रूप में नहीं रहती, जितनी आज हूँ।  
हालांकि दिनेश जी ने फिल्में भी कीं, करते रहे। लेकिन, नाटक उनका प्रमुख कार्य क्षेत्र रहा। दिनेश जी ने मुख्यत: नाटक को ओढा, बिछाया, सहेजा। हर अक्तूबर में वे अपने ग्रुप अंक का थिएटर फेस्टिवल कराते थे। उनकी नज़रों में विजय तेंदुलकर भारतीय नाट्य जगत के सबसे बड़े लेखक थे। उनके कई नाटक अंक ने किए थे। अपनी श्रद्धा विजय तेंदुलकर पर प्रकट करने के लिए उन्होने एक साल अपना थिएटर फेस्टिवल विजय तेंदुलकर लिखित नाटकों पर ही किया। किसी के जाने से जो शून्य भरता है, वह बना ही रहता है। कोई किसी का विकल्प नही होता। सभी अपने अपने रूप में काम करते हैं, अपनी पहचान बनाते हैं। इस रूप में दिनेश ठाकुर ने अपने रूप में काम कर के अपनी पहचान बनाई है, जो थिएटर जगत में हमेशा याद की जाती रहेगी।    

Monday, September 17, 2012

अवश्य देखें- ‘मौनक कुरम’




चेन्नै आने के बाद, तमिल नाटकों के बारे में जितना सुना, जाना, और देखा भी, उससे तमिल नाटक देखने की इच्छा को पाला मार गया। लेकिन हाल ही में ए. मंगई निर्देशित नाटक मौनक कुरम’ (मौन की भविष्यवाणी) देखने के बाद तमिल नाटकों के प्रति मेरी धारणा एकदम बदल गई।  
ए. मंगई तमिल नाटक का एक बहु प्रतिष्ठित नाम है। लगभग 20 नाटक उन्होने निर्देशित किए हैं। मैंने उनका कन्नड में एक एकपात्रीय नाटक संचारी 2010 के डबल्यूपीआई यानि विमेन प्लेराइट इंटरनेशनल सम्मेलन के दौरान मुंबई में देखा था। संगीत के रागों की आत्मकथा बड़े ही प्रयोगात्मक, प्रतीकात्मक और अभिनव तरीके से चित्रित की गई थी। रागों की आत्मकथा, यह विषय ही इतना चौंकनेवाला था कि उसे देखने का लोभ मैं रोक नहीं पाई थी। मंगई के प्रति मेरी धारणा को और बल मिला मौनक कुरम से।
मौनक कुरम 19में 'मौनक कुरम' ग्रुप द्वारा प्रो. रामानुजम के निर्देशन में 1994 में पहली बार मंचित हुआ था। उसके तकरीबन 18 साल बाद, मंगई ने इसे चेन्नै के सुप्रसिद्ध स्टेला मारिस कॉलेज की लड़कियों के माध्यम से प्रस्तुत किया। इस नाटक के स्क्रिप्ट की यह विशेषता है कि इसे नाट्य कार्यशाला के दौरान तैयार किया गया। जात्रा और कथकली से मिलते-जुलते तमिल फोक- कोटुकी विशुद्ध शैली- नाच, गान और अभिनय के द्वारा इसे तैयार किया गया है। कहानी एक जिप्सी स्त्री कुरति के माध्यम से आगे बढ़ती है, जो प्रकृति के साथ पलती-बढ़ती-चलती है।
नाटक यह कहता है कि यह नाटक संसार में स्त्री –पुरुष की स्थिति-अवस्थिति पर आधारित नहीं है, बल्कि यह पहाड़ पर रहनेवाली कुरति की कहानी है। कुरवन कुरति की खोज में है। वह उसे शहर, सिनेमा, स्टेशन, राशन की दुकान पर खोजता है। वापस जंगल की ओर लौटते हुए वह कुरति के बारे में घास, बंदर, चट्टान, कोयल आदि से पूछता है। दोनों मिलते हैं और एक-दूसरे के प्रेम में पड़ जाते हैं। कुरवन उससे उसके धारण किए हुए गहनों के बारे में पूछता है। कुरति स्त्रियों के आगत जीवन को देखती है, जहां वह पौराणिक महिलाओं की त्रासद स्थितियां पाती हैं। एक ओर चंद्रमती है, जिसे उसका पति बेच देता है तो दूसरी ओर द्रौपदी है, जो नाना तरह के अधर्मों की शिकार होती है तो तीसरी ओर सीता है, जिसे अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए अग्नि- परीक्षा देनी पड़ती है। ये मात्र इन तीन स्त्रियों का ही जीवन नहीं है, बल्कि ये अनंत स्त्रियों के जीवन का निर्धारक है। जंगल की ओर लौटते हुए कुरवन और कुरति पाते हैं कि सौभाग्य से स्त्रियों को निम्नतर समझनेवाली परंपरा या परिस्थियाँ उनके यहाँ नहीं हैं।
यह तो मैंने सिनोप्सिस के आधार पर लिख दिया। देखने के आधार पर अब लिख रही हूँ। उसमें सबसे पहले तो मैं यह बता दूँ कि पूरे नाटक में चंद्रमती, द्रौपदी और सीता के अलावा चौथा शब्द भी नहीं समझ पाई। लेकिन, नाटक कि बुनावट इतनी कसी हुई, भाषा इतनी सधी हुई, निर्देशन इतना मंजा हुआ, अभिनय इतना सधा हुआ कि बस मुंह से वाह वाह ही निकलता रहा। थिएटर की कोई पृष्ठभूमि न रखनेवाली कॉलेज की लड़कियां इस नाटक को कर रही थीं। लेकिन, उनके अभिनय ने यह एहसास नहीं होने दिया कि वे नाटक के क्षेत्र की नई-नवेलियाँ हैं। पुरुष किरदार निभाती ये लड़कियां अपने मेक- अप सहित वेषभूषा और देह व भाव भंगिमा से पुरुष लग रही थीं। मंच सज्जा बेहद मौलिक और प्रयोगात्मक था। डंडे द्वार, दीवार के साथ-साथ झूला भी बन जा रहे थे। एक रस्सी के सहारे द्रौपदी के चीरहरण को अत्यंत प्रभाव के साथ दिखाया गया, वहीं, कमर से झूलते ताले के सहारे चंद्रमती की कैद को और सीता की अग्नि परीक्षा को प्रकाश और झालरों के सहारे। मंच पर के सभी प्रोप्स संतुलित और सटीक और सही समय पर विविध अनुभूति कराने में माहिर। विविध पात्रों को जीती सभी युवती कलाकार पूरी आश्वस्त और विश्वस्त दिखीं, जिनका असर मंचन में दिखा। यह पहला शो था और पहले शो की कोई घबडाहट कलाकारों में नहीं था। इसका श्रेय मंगई के साथ साथ सभी कलाकारों को जाता है। चूंकि नाटक की प्रस्तुति में फोक का सहारा लिया गया था, इसलिए संगीत इसका बेहद प्रधान पक्ष था। मगर वाद्य यंत्रों की भरमार नहीं थी। महज एक कलाकर डफली और ढ़ोल के सहारे पूरे नाटक को समुचित संगीत देता रहा। संगीत का ताम - झाम भी था और संगीत की सादगी भी। कलाकारों की वेश-भूषा पर भी बहुत कलात्मक तरीके से काम किया गया था।
इस नाटक को देखते हुए भाषा न समझ पाने का एक ओर अफसोस हो रहा था, वही दूसरी ओर संतोष भी। भाषा से अपने को पहले ही अलग कर लेने के कारण पूरा ध्यान नाटक के अन्य पक्ष पर था। शाब्दिक भाषा न होते हुए भी रंगमंच की अपनी एक भाषा होती है और यही भाषा नाटक को दर्शकों से जोड़ती है। इसके पहले भी सुवीरन निर्देशित मलयालम नाटक आयुष्यती पुस्स्यनतेदेखते हुए यही अनुभूत किया था और इस बार मौनक कुरमदेखते हुए भी। इस नाटक को देखते हुए एक बात और ध्यान में आ रही थी कि इस नाटक को देखने का आनंद और भी बढ़ जाता, अगर इसे किसी सही प्रोसिनयम थिएटर में किया जाता, जहां लाइट की सारी व्यवस्थाएं होती है। चेन्नै में प्रकाश-व्यवस्था नाट्यकारों के लिए बड़ी समझौतापरक स्थिति है। लेकिन, मेरी समझ से प्रकाश व अन्य तत्व नाटक में सजावट का काम करते हैं- शरीर पर आभूषण की तरह। नाटक का स्क्रिप्ट, निर्देशन और अभिनय सही हो तो प्रकाश व अन्य तत्व गौण पड़ जाते हैं। इस नाटक को देखते हुए मुझे वामन केंद्रे याद आते रहे। और एक बात- यह नाटक और इस तरह के दूसरे अहिंदीभाषी नाटक हिन्दी थिएटरवालों को अवश्य देखना चाहिए।
   

Saturday, September 8, 2012

खुले मंच पर अपना एकांत रचती ये अभिनेत्रियाँ

सोलो थिएटर की 3 नेत्रियों - विभा रानी, असीमा भट्ट और मोना झा को पढ़िये आउटलुक (हिन्दी) के सितंबर, 2012 के अंक में पृष्ठ- 62-63 पर। आपकी राय और विचार जानकर अच्छा लगेगा। धन्यवाद आउटलुक! धन्यवाद गीताश्री ! एकपात्रीय थिएटर आंदोलन को आगे बढ़ाने में आपका सहयोग अमूल्य है। आप सब अपनी राय दें, शेयर करें, थिएटर जगत के लोगों तक पहुंचें, पहुंचाएं।



Saturday, September 1, 2012

क्लोज्ड फ़ाइल


हैलो! हाऊ आर यू? रिकग्नाइज़ नहीं किया? आज पहली तारीख है ना! हर साल इसी मंथ में तो आती हूँ। फुल वन मंथ रहती हूँ। कोई अपने यहाँ मुझे एक दिन के लिए इनवाइट करता है तो कोई वन वीक के लिए तो कोई वन फ़ोर्टनाइट के लिए तो कोई- कोई फुल वन मंथ के लिए।वैसे मेरा दिन इस मंथ का फोर्टींथ डे है। आफ्टर 2 मंथ, एक और फोर्टींथ डे आयेगा। उस दिन जिस अंकल का जन्म हुआ था, उन्होने ही हमारी बैंड बाजा दी। नाऊ, हमारा बैड इस रूप में बजता है कि ऑल न्यूज पेपर्स में मेरे न्यूज एंड फोटो रहते हैं। टीवीवाले भी मेरे एवेंट्स की कवरेज कराते हैं। गवर्नमेंट भी और उनके दर्शन में भी अपने दर्शन होते हैं। ऑल पोएट्स, राइटर्स, जर्नलिस्ट और थोड़ा बहुत भी मुझे जाननेवाले इस फुल मंथ बिजी रहेंगे- अगहन मास में धनकटनी जैसा। सभी को अपने यहाँ के फंक्शन के लिए गेस्ट, चीफ गेस्ट चाहिए होते हैं। एंटरटेनमेंट चाहिए। एंड इन इंडिया, मुझसे बढ़कर एंटरटेनर कौन है? इस मंथ में घूरे के दिन भी लौट आते हैं। मेरे कभी नहीं लौटते, यह एनदर टोपिक है।
अब से एक फुल मंथ तक मैं रहूँगी। मेरे नाम पर कम्पीटीशन्स होंगे, अवार्ड होंगे। पार्टीसिपेट करनेवाले ऐसे पार्टीसिपेट करेंगे, जैसे पार्टीसिपेट करके मुझ पर बड़ा एहसान किया है। मैं वेरी हम्बली उनके आने पर स्माइल पास करूंगी, उन्हें थैंक्स बोलूँगी। मेरे लिए सभी आका लोग स्पीच देंगे। सब सालों भर हमारी सेवा में लगे हमारे सेवकों से कहेंगे- इट्स योअर डेज नो। सालो भर अपने काणे पूत की तरह हमारी देखभाल करनेवाले इस बात के लिए रोएँ या हंसें, समझ नहीं पाएंगे।
जो हमें नहीं समझ पाते, वे एक मंथ के लिए हमारे एडमायरर्स बन जाते हैं। हार्ट से नहीं, ड्यूटी से। बड़े लोग सैंक्शन में थाउजेंड क्वेरीज़ निकालेंगे। रिव्यू करते समय कहेंगे- ये नहीं हुआ। वो नहीं हुआ। यू पीपल आजस्ट डुइंग नथिंग। हमारे सेवक सबसे कहते रहेंगे, सबके लिए ग्रेटीट्यूड फील करते रहेंगे। उनके लिए, जिन्होंने हमारी कम्पीटीशन में पार्टीसीपेट किया। उनके लिए, जिन्होंने अवार्ड जीता, उनके लिए, जिनके अप्रूवल से प्रोग्राम्स हुए, उनके लिए, जो जोक्स जैसे पोएम्स सुनाकर सबको हंसा गए, उनके लिए, जो हमारे ताबेदार के हाथों लिखे स्पीच पढ़ कर सुना गए, उनके लिए, जो हमारे गरीब ताबेदारों को धमका गए- “आई शुड बी सिम्पल”। मेरी समझ मे ही नहीं आता कि मैं कितनी सिम्पल बनूँ। ज्यादा बनती हूँ तो बहन जी टाइप हो जाती हूँ। फिर सब मुझ पर हँसते हैं। तनिक सँवरने का ट्राइ करती हूँ तो सभी कहते है - टू टफ! हमारे सेवकों के ऊपर एवरी 2-3 ईयर्स में नए आका आ जाते हैं। वे भले मुझे नही जानते, कभी मेरी खोज खबर नहीं ली, कभी मुझे तवज्जो नहीं दिया, मगर मेरे सेवक के आका बनते ही उन्हें हम पूरे शीन- काफ के साथ नज़र आने लगते हैं। आई रीयली डोंट नो कि मेरा क्या होनेवाला है! मैं केवल बाहरवाली से ही नही भगाई जाती, अपनी बहनों के नाम पर भी सब मुझी पर तलवार चलाते हैं। आई नो कि हमारी बहनें हमसे प्रेम करती हैं और हम भी उनसे उतना ही। मगर आजकल इस कंट्री का रूप ही बदल गया है।
जो मेरे साए में पैदा हुए, पले, बढ़े, वे भी मेरी ओर से मुंह फेर लेते हैं। मैं उनके भीतर बनाना, एप्पल, मदर, फादर बनकर जर्मिनेट होने लगती हूँ। मैं कहने लगती हूँ, कहती रहती हूँ, कहती रहूँगी- फॉरगेट मी नॉट। बट वे हमें फॉरगेट करते रहेंगे। मैं भी उन सबको फॉरगिव कहती रहूँगी और नेक्स्ट ईयर इसी मंथ के लिए फिर से क्लोज्ड फ़ाइल हो जाऊंगी।  

Wednesday, July 25, 2012

एक सुपर स्टार एक्टर राजेश खन्ना और एक सुपर स्टार डायरेक्टर चेतन आनंद के बीच की खींचातानी.” -सोराब ईरानी

सुपर स्टार राजेश खन्ना को गुजरे अभी चंद रोज ही हुए हैं. उनकी सम्पत्ति को लेकर खींच- तान शुरु हो गई है. हम भारतीयों का स्वभाव है- सुपर डुपर लोगों को महिमा मंडित करना।  राजेश खन्ना भी महिमा मंडित हो रहे हैं. उनके महिमा मंडन में हम भूल गए कि डिम्पल के साथ उन्होने क्या क्या किया? भूल गए कि उनके कितनों के साथ अवांतर प्रेम प्रसंग थे. भूल गए कि अपने जीवन के उत्तरार्ध में वे प्रेस, मीडिया और आम जनों के साथ कैसा व्यवहार करते थे. भूल गए कि हाल में ही बांद्रा की एक दुकान में उन्होने कुछ बालिकाओं के साथ कैसी अभद्रता की थी. मेरा मकसद उनको नीचा दिखाना नहीं, बल्कि उनके जाने के बाद उनके व्यक्तित्व को एक आम आदमी की हैसियत से देखे जाने की जरूरत पर बल देना है. यह ना हो कि ‘अरे, अब तो वह चला गया. अब उसके ऊपर गलत बोलने से क्या होगा?’ व्यक्ति की महानता यदि कहीं है तो उसके साथ उसकी दुर्बलता भी होगी। उसे भी सामने लाना है। यह हो रहा है। ऊर्वज़ी ईरानी के ब्लॉग “फिल्म एडुकेशन’ (Film Education) Blog URL: http://oorvazifilmeducation.wordpress.com/ मे सोराब ईरानी का एक लेख है, जिसका सार नीचे प्रस्तुत है. ऊर्वज़ी ने इसके हिंदी में  प्रकाशन और इसे हर आम जन तक पहुंचाने की सहमति दी है. उनका आभार.  
"बहुत कम लोगों को शायद यह पता होगा कि चेतन आनंद की पहली फिल्म “नीचा नगर” को पाम दी’ओरे (सर्वोत्तम फिल्म) पुरस्कार सबसे पहले कांस फिल्म फेस्टिवल में 1946 में मिला था.यह मेरा सौभाग्य रहा कि मैंने चेतन आनंद के साथ काम किया और सिनेमा को सीखा, समझा. वे सचमुच सिनेमा के जीनियस थे.
चेतन आनंद पहले डायरेक्टर थे, जिन्होने राजेश खन्ना को अपनी फिल्म ‘आखरी खत’ के लिए कास्ट किया था. उसके बाद राजेश खन्ना कामियाबी के हिमालय तक पहुंचे. यह सबको पता है. बाद में जब उनका कैरियर डगमगाने लगा, तब उन्हे फिर से एक ऐसे डायरेक्टर की जरूरत पडी, जो उनकी डूबती नैया को पार लगा सके. उन्होने चेतन आनंद से सम्पर्क किया. मैं तब चेतन आनंद की प्रोडक्शन कम्पनी ‘हिमालया फिल्म्स’ में जनरल मैनेजर के रूप मे काम कर रहा था. उन दिनों फिल्में स्टार पावर को लेकर बनती थीं और अगर एक स्टार फिल्म बना रहा है तो यह एक अच्छी बात मानी जाती थी.
चेतन आनंद उन दिनों आर्थिक संकट से गुजर रहे थे. उन्होने राजेश खन्ना से कहा कि उनके पास सब्जेक्ट तो है, पर पैसे नहीं. चेतन आनंद के दिमाग में स्टोरी हमेशा बनी रहती थी. उस मीटिंग में, जहां चेतन आनंद ने राजेश खन्ना को फिल्म ‘कुदरत’ की स्टोरी सुनाई, मैं भी मौज़ूद था.  एक हफ्ते के भीतर ही राजेश खन्ना किसी बी एस खन्ना नाम के प्रोड्यूसर के साथ आए. यह तय हुआ कि बी एस खन्ना फिल्म में पैसे लगाएंगे और उसे प्रोड्यूस करेंगे. चेतन आनंद इसे निर्देशित करेंगे. और इस तरह से फिल्म ‘कुदरत’ का जन्म हुआ.
यह फिल्म ‘कुदरत’ की कहानी के बारे में नहीं, बल्कि उसके बनने के समय चेतन आनंद और राजेश खन्ना के बीच उपजे विवाद के बारे में है.  फिल्म बहुत बढिया थी. म्यूजिक पहले से ही सुपर हिट हो गया था. काका ने एक प्राइवेट शो रखा. अपने चमचो की बातों में आकर उन्होने सारा क्रेडिट खुद लेते हुए विनोद खन्ना, राजकुमार आदि की भूमिकाओं को कतरना शुरु कर दिया. उन्होने फिल्म के एडीटर को अगवा कर लिया और फिल्म की फिर से एडिटिंग शुरु कर दी. एडीटर ने अपनी नैतिकता को बनाए रखते हुए चेतन आनंद साब को इसकी जानकारी चुपके से दे दी. वे चेतन आनंद की प्रतिभा के कायल थे और इस फिल्म में एक साल से अधिक समय से जुडे हुए थे. मेरे पास परेशान चेतन आनंद साब का फोन सुबह 6 बजे आया. वे बोले कि मैं एडीटर के घर जाकर उन्हें चेतन आनंद साब के पास ले कर आऊं. मै खुद बहुत डिस्टर्ब था कि कैसे कोई चेतन आनंद साब जैसे डायरेक्टर की एडिट की हुई फिल्म के साथ छेडखानी कर सकता है!
सुबह लगभग 7.30 बजे मै एडीटर के माटुंगा स्थित घर पहुंचा. मगर वह घर पर नही था. मैं वापस लौटा तो चेतन आनंद साब भडके हुए थे. न काका और ना ही बी एस खन्ना उनके फोन उठा रहे थे. साजिश खुल चुकी थी. अब हम क्या करें! मैं चेतन आनंद साब के साथ नवरंग लैब जाकर उसके मालिक से मिला. मगर मालिक ने अपनी असहायता जताई कि उसे प्रोड्यूसर की बातों को ही फॉलो अप करना है. प्रोजेक्ट में प्रोड्यूसर का ढेर सारा पैसा लगा हुआ है. हमने फिर अपनी शिकायत ‘फिल्म एडीटर एसोसिएशन‘ और ‘फिल्म प्रोड्यूसर एसोसिएशन‘ में दर्ज कराते हुए फिल्म को रोकने का अनुरोध किया. रात से मेरे पास धमकी भरे फोन आने लगे. किसी ने मेरी पत्नी को फोन करके कहा कि वह सुबह में मुझे मरा हुआ पाएगी. मैं बाहर था और तब कहां मोबाइल फोन होते थे! सो जब मैं घर लौटा तो मेरी पत्नी मुझे देखकर रोने लगी. वह बेहद डरी हुई थी.
मेरे गुस्से का ठिकाना नहीं रहा,. मैं उसी दम बी एस खन्ना के घर गया. वह घर पर नही था. मगर फोन पर मिल गया. मैंने उससे उसकी इस तरह की हरकत के बाबत पूछा. मैंने उससे बडे ही सपाट लहजे में कहा कि “मैं ऐसे-वैसों में नहीं हूं और यदि उसने इस तरह से मेरी बीबी को धमकाना बंद नहीं किया तो मैं पुलिस के पास चला जाऊंगा.” बाद में जब मैंने चेतन आनंद साब को यह बताया तब उन्होने भी कहा कि उनके घर पर भी ऐसे धमकी भरे फोन आ रहे हैं.
अगले दिन प्रोड्यूसर बी एस खन्ना इन सबके प्रति एकदम अंजान बन गया और बोला कि उसे इन सब बातों की कोई भी जानकारी नहीं है और इन सबमें कोई सच्चाई नही है. हमने कहा कि हम फाइनल कट की कॉपी देखना –जांचना चाहते हैं. हमने एडीटर से बात की और कहा कि फाइनल कट में किसी भी तरह का बदलाव करने का अधिकार किसी को नहीं है. उसने बडे ही डिप्लोमेटिकली कहा कि अब बहुत देर हो चुकी है. फिल्म का नेगेटिव रिलीज प्रिंट प्रक्रिया के लिए लैब में जा चुका है.
हमारे दफ्तर में मायूसी छा गई. बी एस खन्ना और राजेश खन्ना ने फिल्म को कब्जिया लिया था. चेतन आनंद साब ने परम्परा के विरुद्ध अपनी ही फिल्म को रिलीज करने से रोकने के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट में जाने का फैसला किया. मामला जज लैंटर्न के पास आया. पूरी फिल्म इंडस्ट्री वहां थी. जज साहब ने भी फैसला हमारे खिलाफ दिया यह कहते हुए कि हमें आपसे पूरी सहानुभूति है, मगर यदि फिल्म रोकी गई तो इसमें इतना ज्यादा पैसा जिसका लगा है, यानी प्रोड्यूसर का, वह फंस जाएगा. और उन्होने मामले को रेगुलर सुनवाई के लिए डाल दिया.
पूरी कहानी का लब्बो-लुआब यह कि इसका उद्देश्य किसी की छवि को धूमिल करना नही है, बल्कि कुछ सवालों को सामने लाना है- फिल्म के फाइनल कट का अधिकार किसे है? डायरेक्टर को या प्रोड्यूसर को? यह कौन तय करेगा कि दर्शक क्या देखना चाहते हैं- फाइनांसर/ प्रोड्यूसर या क्रिएटर/डायरेक्टर? उस क्रिएटर/डायरेक्टर का क्या होगा अगर वह खुद उस फिल्म का फाइनांसर/ प्रोड्यूसर नही है? सोचिए, विचार कीजिए, और बहस में भाग लीजिए.”  

Wednesday, July 11, 2012

मेरे पापा!

मेरे पापा,
मैं आपकी आफरीन, फ़लक, रचना, पूजा, आमना, नाजनीन! आप मुझे अपना न मानें, मगर मैं आपको अपना ही समझती हूँ। कितना बड़ा सहारा होते हैं आप हमारे लिए- बरगद के पेड़ की तरह। सुना है कि बरगद अपने नीचे किसी को फलने-फूलने नहीं देता। यह भी सुना है कि बरगद अपनी जड़ें अपनी डालियों से ही फैलाता-बढ़ाता चलता है। हम तो आपकी ही जड़ें हैं न पापा? लोग कहते हैं कि जब जान दे नहीं सकते तो लेने का कोई अधिकार नहीं। यह शायद गैरों के लिए होता होगा! आप तो हमारे अपने हैं, शायद इसीलिए सोचा होगा कि जान देनेवाले आप, तो उसे ले लेने का पूरा अधिकार भी आपका।

लेकिन मेरी समझ में नहीं आया पापा कि आपने हमारी जान क्यों ली? मैं इतनी नन्हीं! आँखें तक खोलना नहीं आया था मुझे। आपको पहचानना भी नहीं। आप तो साइंस को जानते -मानते होंगे पापा। बाकी में भले न मानें, इलाज- बीमारी में तो मानना ही पड़ता है। तो आप यह भी जानते होंगे कि किसी बच्चे का जन्म भी एक वैज्ञानिक प्रक्रिया ही है। विज्ञान ने साबित कर दिया है कि हम बेटियों का जन्म आपके ही एक्स-एक्स से होता है। अब जब आपने ही हमें एक्स-वाई नहीं दिया तो हम खुद से अपने एक्स को वाई में कैसे बदल लेते? काश, साइंस इतनी तरक्की कर गया होता कि आप खुद ही मेरी माँ को एक्स-वाई दे देते या मैं ही उसे एक्स-वाई में तब्दील कर के आपकी बेटी के बदले बेटा बनकर जनमती और आपकी मुराद पूरी कर देती।  

बताइये पापा कि जब आपको ही नहीं मालूम कि आप अपने अंश से क्या रचनेवाले हैं तो उसका खामियाजा हमारे मत्थे क्यो? बताइये पापा कि हम किसलिए आपकी नाराजगी सहें? क्या इसलिए कि आप हमारे पापा हैं, हमसे अधिक ताकतवर हैं, हमारे पालनहार हैं? यदि आप सचमुच ही हमारे पापा और पालनहार हैं, तो कोई भी बाप इतना निर्दय नहीं हो सकता कि वह अपनी ही संतान को माँर डाले और ना ही कोई माली इतना मूर्ख कि अपने ही लगाए पौधे कि जड़ों में मट्ठा डाले!

शायद आप ताकतवर हैं। दुनिया के आगे भले ना हो, हमारे लिए हैं। भूल गए पापा कि सभी धर्म अपने से कमजोर की रक्षा करने को कहता है। आप सब तो धर्म के बड़े- बड़े पैरोकार हैं। इतनी छोटी बात भूल गए? भूलना ही था। धर्म और मजहब या तो उचारने के लिए है या हम निरीहों को उससे बांधने के लिए।  सभी ताकतवर अपने से कमजोर को दबाकर- कुचलकर चलते हैं। सीधी जबान में कहूँ तो अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है। माफ कीजिएगा पापा ऐसी तुलना के लिए। लेकिन मैं भी क्या करूँ? कभी हमारा लिंग जानकार पेट में ही हमें मार देते हैं, तो कभी तमाचे और जलती सिगरेट हम पर छोड़ देते हैं। बताइये पापा, क्या आपके मर्दाना थप्पड़ को सहने की ताकत हम आसन्न जन्मी जान में है? सोचिएगा पापा! हम तो विदा ले रही हैं, ले चुकी है, लेती रहेंगी। मगर बेटियाँ और भी आएंगी। आपके ही एक्स- एक्स से आएंगी। पहले अपनी कमजोरी पहचानिए पापा! फिर अपनी ताकत हम पर आजमाइए।