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Thursday, February 11, 2016

यारों के यार और दिलदारों के दिलदार- निदा फाजली!

मुंबई साहित्य की दुनिया में निदा फाजली एक फाहे की तरह थे। सभी के लिए उनके दरवाजे खुले रहते। मेरी उनसे पहचान अपने ऑफिस में कवि सम्मेलन करवाने के सिलसिले में हुई। जैसा कि आम तौर पर होता है, हिन्दी अधिकारी महज एक हिन्दी अधिकारी मान लिया जाता है, मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। तब जनसत्ता और उसका साहित्यिक परिशिष्ट “सबरंग” छपता था। जनसत्ता में लेख और सबरंग में कहानियाँ आती रहती। उन दिनों राहुल देव जनसत्ता के और धीरेन्द्र अस्थाना सबरंग के फीचर संपादक थे। नवभारत टाइम्स में भी लेख आ जाते थे। निदा साब इतना ज़्यादा पढ़ते और याद रखते थे कि मैं हमेशा हैरत में पड़ जाती थी कि इन्हें इतना सब पढ़ने के बाद इतना सब लिखने, लोगों से मिलने-जुलने के साथ साथ बाकी सभी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए वक़्त कैसे मिल जाता है?

जनसत्ता, सबरंग और नवभारत टाइम्स ने मुझे मुंबई के साहित्य परिदृश्य पर खड़ा कर दिया था। निदा साब की नज़रों से भी मैं ओझल न रह सकी। यह जानने पर कि मैं हिन्दी के साथ साथ मैथिली में भी लिखती हूँ, उनकी खुशियाँ कई गुना बढ़ गई। वे तब जुहूवाले घर में रहते थे। मैं वहाँ भी जा चुकी हूँ। उसके बाद वे वर्सोवा शिफ्ट हो गए। हमारे यहाँ वे कम से कम चार बार आए कवि सम्मेलन में। कभी मानधन पर कोई सवाल खड़े नहीं किए। इतना ही कहते, “मैं आपके दफ्तर में इसलिए नहीं जाता कि वहाँ से मुझे पैसे मिलेंगे। मैं इसलिए जाता हूँ कि वहाँ आप हैं। इसलिए, वहाँ सुनने और सुनाने का संस्कार होगा।“ वे हमेशा कहते, “बहुत कम ज़हीन महिलाओं से मिलना हो पाता है। आपसे मिलकर इसीलिए अच्छा लगता है।“ कार्यक्रम में बुलाने के लिए फोन करना एक ओर रह जाता और फोन पर हिन्दी, उर्दू, गुजराती, अँग्रेजी साहित्य के साथ साथ जाने कितनी और कहाँ की बातें होती रहतीं। एक-एक घंटा निकल जाता। मगर, उनसे बात करने के बाद जितना हासिल होता था, वह कई कई दिनों तक मुझमें ऊर्ज़ा भरता रहता।

 मेरा पहला कहानी संग्रह “बंद कमरे का कोरस” आनेवाला था। मैं बहुत घबड़ाई और डरी हुई थी। तब सभी की किताबों पर बड़े-बड़े नामवालों की भूमिकाएँ देखती थी। मुझे लगता कि शायद यह ज़रूरी है। अब मैं बड़ा नाम कहाँ खोजूँ? मैंने हिचकते हुए निदा साब से कहा और छूटते ही वे मान गए। आज उनकी भूमिका मेरी बहुत बड़ी थाती है। उन्होने संग्रह की भूमिका में लिखा, “बंद कमरे का कोरस” विभा रानी के अपने अंदाज़ और सोच का आईना ही नहीं, उनके अंदर छुपी हुई स्त्री का हमराज भी है। ....वह न कहीं दार्शनिक का रूप धरती हैं और न ही नेता की तरह भाषण बघारती हैं। वह हर बात खुद ही नहीं कह देतीं, पाठक से भी बीच-बीच में अपना कुछ जोड़ने का आग्रह करती हैं। इस फनकाराना रवैये की वजह से उनकी कहानियाँ नई-नवेली दुल्हन के नकाब की तरह धीमे-धीमे खुलती है, एक साथ बेहिजाब नहीं हो जाती।“

वे मज़ाक में कहते- “मैं कवि सम्मेलनों में सुनाने के नहीं, सुनने के पैसे लेता हूँ।“ सलीके से शराब पीनेवालों में मैंने निदा साब को पाया। अन्य लोग जहां नाली में लुढ़कने लगते, वहीं निदा साब मय को पूरी इज्ज़त बख्शते। बाद के दिनों में मेरी यारी उनकी पत्नी और महबूबा मालती जोशी से हो गई, जो खुद बहुत अच्छी गायिका और कवि हैं। निदा साब ने अपनी बिटिया का नाम तहरीर रखा। सुनकर ही लगा कि निदा और मालती की बिटिया के लिए इससे प्यारा नाम और कुछ नहीं हो सकता था। अपनी आत्मकथा “दीवारों के बीच” पढ़ने की इच्छा जाहिर करते ही उन्होने तुरंत उसे मंगवाकर मेरे पास भिजवा दिया।

 बहन, माँ, बेटी, धर्म, आस्था पर उन्होने बहुत लिखा और ये सब बेहद पॉपुलर हुएन। वे जहां भी जाते, लोग इन रचनाओं को सुनाने की फरमाइश ज़रूर करते। मुंबई के 1992 के दंगों ने उन्हे बहुत तोड़ दिया था। फिर भी, उन्होने जीवन का जैसे मूलमंत्र दे दिया-

      उठ के कपड़े बदल, घर से निकल, जो हुआ सो हुआ,
      दिन के बाद रात, रात के बाद दिन, जो हुआ सो हुआ!

एक बार भोपाल के जामा मस्जिद से टैक्सी लेते समय मेरे मुंह से निदा साब का यह शेर निकल गया-   
 “बच्चा बोला देखकर, मस्जिद आलीशान,
अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान!”

टैक्सी ड्राईवर सुलेमान या ऐसा ही कुछ नाम था ने कहा, “मैडम! उन शाइर जनाब से कहें कि इसमें तरमीम कर लें, ‘इतना बड़ा नहीं, इतने सारे मकान कहें।“ तब मोबाइल का ज़माना नहीं था, वरना उसी दम उनसे सुलेमान की बात करा देती। मुंबई पहुँचने के बाद मैंने फोन पर उन्हे सारी डिटेल्स बताई। सुनकर वे बहुत हँसे। तब से जितने भी धार्मिक स्थल देखती हूँ, यही जेहन में घूमता रहता है- अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान! इसमें भगवान, ईश्वर, वाहेगुरु सभी शामिल हैं।

 हिन्दी –उर्दू के सवाल पर वे बहुत खीझते- “विभा जी, ये सवाल मुझसे इसीलिए पूछे जाते हैं ना कि मैं एक मुसलमान हूँ? ...मेरे लिए हिन्दी और उर्दू दो आँखों की तरह है।“ हिंदुस्तान-पाकिस्तान मसले पर अक्सर वे अपना ये शेर सुनाते-

      “इंसान में हैवान यहाँ भी हैं, वहाँ भी
      अल्लाह निगहबान, यहाँ भी हैं, वहाँ भी!”

वे कहते कि जब दोनों ओर हर नुक्कड़-गली-मोहल्ले में भीख ही मांगनी थी, तो अलग ही क्यों हुए? साथ-साथ भीख मांग लेते?

 निदा साब ने फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। वे कहते, “मैं फिल्मों में अश्लील नहीं लिखूंगा।“ वे हँसते- “विभा जी, साहित्य में मेरी पूछ फिल्मों की वजह से है और फिल्मों में साहित्य की वजह से।“ मुझे लगता है कि उनकी पूछ उनके अपने व्यक्तित्व, उसकी सादगी और अपने उम्दा लेखन के कारण रही है, जो पूछ उनके बाद भी बनी रहेगी। निदा साब का जाना विश्व साहित्य के लिए तो नुकसानदेह है ही, मुंबई के लिए तो एक और सरपरस्त के उठ जाने जैसा है। ####  

 



 

निदा फाजली : तंज और तड़प है उनके लेखन में

निदा फाजली अब हमारे बीच नहीं रहे। छम्मकछल्लो पर उनका बहुत स्नेह था। उनके बारे में छम्मकछल्लो की कलाम से अगली बार। फिलहाल उनके रिश्ते सभी लोगों और साहित्य से कैसे थे, इसके बारे में जानें जाने-माने पत्रकार और सुनेमा विशेषज्ञ अजय ब्रह्मात्मज से। अपने विचार या अपने संस्मरण आप यहाँ साझा कर सकते हैं।

निदा फाजली : तंज और तड़प है उनके लेखन में
 



-अजय ब्रह्मात्‍मज
खार दांडा में स्थित उनका फ्लैट मुंबई आए और बसे युवा पत्रकारों और साहित्‍यकारों का अड्डा था। न कोई निमंत्रण और ना ही कोई रोक। उनके घर का दरवाजा बस एक कॉल बेल के इंतजार में खुलने के लिए तैयार रहता था। आप किसी के साथ आएं या खुद पहुंच जाएं। उनकी बैठकी में सभी के लिए जगह होती थी। पहली मुलाकात में ही बेतकल्‍लुफ हो जाना और अपनी जिंदादिली से कायल बना लेना उनका बेसिक मिजाज था। बातचीत और बहस में तरक्‍कीपसंद खयालों से वे लबालब कर देते थे। विरोधी विचारों को उन्‍हें सुनने में दिक्‍कत नहीं होती थी, लेकिन वे इरादतन बहस को उस मुकाम तक ले जाते थे, जहां उनसे राजी हो जाना आम बात थी। हिंदी समाज और हिंदी-उर्दू साहित्‍य की प्रगतिशील धाराओं से परिचित निदा फाजली के व्‍यक्तित्‍व, शायरी और लेखन में आक्रामक बिंदासपन रहा। वे मखौल उड़ाते समय भी लफ्जों की शालीनता में यकीन रखते थे। शायरी की शालीनता और लियाकत उनकी बातचीत और व्‍यवहार में भी नजर आती थी। आप अपनी व्‍यक्तिगत मुश्किलें साझा करें तो बड़े भाई की तरह उनके पास हल रहते थे। और कभी पेशे से संबंधित खयालों की उलझन हो तो वे अपने अनुभव और जानकारी से सुलझा कर उसका सिरा थमा देते थे। मुंबई में पत्रकारों और सात्यिकारों की कई पीढि़यां उनकी बैठकी से समझदार और सफल हुईं। हम सभी उनकी जिंदगी में शामिल थे और हमारी जिंदगी में उनकी जरूरी हिस्‍सेदारी है।
1992 के मुंबई के दंगों ने उनकी मुस्‍कारहट छीन ली थी। उन्‍हें अपना फ्लैट छोड़ कर एक दोस्‍त के यहां कुछ रातें बितानी पड़ी थीं। और फिर उन्‍होंने अपनी जिंदगी का एक बड़ा दर्दनाक फैसला लिया था कि वे मुस्लिम बहुल बस्‍ती में रहेंगे। उन दंगों ने मुंबई के बाशिंदों को धर्म के आधार पर बांटा था। अनेक हिंदू और मुस्लिम परिवारों ने अपने ठिकाने बदल लिए लिए थे। मजबूरी में उन्‍हें अपनी धार्मिक पहचान ओढ़नी पड़ी थी। निदा फाजली ताजिंदगी नई रिहाइश और पहचान में बेचैन रहे। उन्‍होंने मस्जिद,अल्‍लाह,मुसलमान सभी पर तंज कसे। भारत पाकिस्‍तान बंटवारे के बाद अपने दोस्‍तों को खो देने के डर से पाकिस्‍तान नहीं गए निदा फाजली अपने चुने हुए शहर के नए बंटवारे के शिकार हुए। उन सभी के प्रति उनके दिल में रंज था, जो इस बंटवारे के जिम्‍मेदार थे। उन्‍होंने उन्‍हें कभी माफ नहीं किया। उनकी तड़प और नाराजगी गजलों,नज्‍मों,दोहों और संस्‍मरणों में व्‍यक्‍त होती रही। मुशायरों में वे अपनी बातें करते रहे। अपने मशहूर कॉलम अंदाज-ए-बयां और में उन्‍होंने साहित्‍यकारों को याद करने के साथ ही उस परंपरा को भी रेखांकित किया,जिसकी आखिरी कड़ी के रूप में हम उन्‍हें देख सकते हैं। हिंदी फिल्‍मों के गीतकारों की साहित्यिक जमात के वे मशहूर नाम हैं। साहित्‍य में उनकी दखल बराबर बनी रही।
खोया हुआ सा कुछ के लिए साहित्‍य अकादेमी पुरस्‍कार से सम्‍मनित निदा फाजली की गद्य और पद्य में समान गति रही। उनकी आत्‍मकथात्‍मक कूतियों दीवारों के बीच और दीवारों के बाहर में हिंदी-उर्दू मिश्रित भाषा की रवानी और अमीरी दिखती है। निदा साहब हमारे समय के कबीर हैं। उन्‍होंने दोनों ही धर्मो के कट्टरपथियों को आड़े हाथों लिया। बच्‍चो,मेहनतकशों,फूलों और पक्षियों के पक्ष में लिखा औा सुनाया। हिंदी फिल्‍मों में कमाल अमरोही की रजिया सुल्‍तान से उनका आगमन हुआ। उन्‍होंने अपनी शर्तों पर ही गीत लिखे। उन गीतों में साहित्‍य की सादगी और गंभीरता बरती।