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Thursday, January 19, 2012

सुंदरकांड का पाठ और ढोल गंवार

अरुण कुमार झा छम्मकछल्लो के मित्र हैं. यह लेख डॉ. शिवशंकर मिश्र का है. अरुण जी ने इसे छम्मकछल्लो के ब्लॉग पर डालने का अनुरोध किया. लेख आपके सामने है. फिर भी प्रश्न छोडता है कि उस बेचारी महिला का ही क्या 99.99% महिलाओं का यही हाल है. जबतक पति महोदयगण अपने खोल से बाहर नहीं आएंगे, महिलाएं ऐसे ही सुंदरकांड का पाठ करने और ढोल गंवार कहलाए जाने और प्रताडित होने को अभिशप्त रहेंगी. घर से निकली औरत को कौन कितना सहारा देता है, आप सब अच्छे से जानते हैं. बहरहाल, लेख पढिए और अपनी राय से अवगत कराइए.

ऐसा फिर आज देखा कि औरत सुन्दर है, पढ़ी-लिखी है, अच्छी नौकरी में है, घर भी बढ़िया सँभाल रही है, अपनी कमर के दर्द को भी समझती, न कभी बोलती है कि ‘ओह, आज बहुत थक गयी, फिर भी पति की नागफनी जैसी भाषा में रोम-रोम बिंध्कर लहूलुहान हो गयी।  मैं उसे जानता हूँ और यह भी जातना हूँ कि ऐसा उस के साथ कोई पहली बार नहीं नहीं हुआ है। वह भी चाहती है कि कझ्छ करे, लेकिन करे क्या? सोचती है, समझती है, लेकिन सदियों पोषित अपने आत्महंता संस्कारों को झटक नहीं पाती, लड़ नहीं पाती। डर जाती हैऋ रोज-रोज मरती है अपना ही खून पीकर। पतिको छोड़ने के खयाल से ही देह झुरझुरा जाती है, कि छोड़ी हुई होकर तो मर ही जाएगी।
फिर क्या शादी भी कर पाएगी? क्या करेगी बच्चों का? या, क्या गारंटी है कि आगे सब अच्छा-अच्छा ही होगा? हो सकता है इसे से भी बुरा हो, बल्कि ज्यादा तो वैसा ही मानो। उस की भी अपनी कमजोरियाँ होंगी, तभी तो वह परंपरा के सभी मान और मानकों को भूलकर उस के आगे, प्राथनाशील खड़ा हुआ होगा। लेकिन क्या सचमुच ही वह सब कझ्छ को भूल जाएगा? फिर कितने पतियों से वह कितनी संतानों को जन्म देगी? कितने ऐसे घर बसाएगी, जिन को मानेगी कि वह उस का अपना घर है? क्या बच्चे भी सब उसे अपने ही लगेंगे, कि सब की माँ वह एक जैसी ही होगी?
सोचते-सोचते मैं आज फिर तुलसीदास की बदनाम चौपाई से टकरा गया। वर्तमान समय में, ‘अधिकारी’ शब्द का क्या अर्थ होता है? जिस में अधिकार निहित हों, जिसे अधिकार प्रदत्त हों, जो अधिकार से युक्त हो, जिस में उस अधिकार के लिए आवश्यक सक्षमता हो, कि उसी अनुरूपता में वह योग्य हो। लेकिन अपनी प्राचीन-सुसंस्कृत भाषा में कोई व्यक्ति मार और धिक्कार के भी योग्य होता है। हाँ वैसे ही है यह... ताड़ना के अधिकारी, जिस में ढोल, गवाँर, शूद्र और पशु के बाद स्त्राी आखिरी नम्बर पर हैऋ शायद सर्वाध्कि योग्य हो, इसलिए।
किसी भी पौराणिक-प्रागैतिहासिक देश-संस्कृति की कथा में प्रायः ऐसी बातें मिल जाती हैं, जो सामान्य तकक् की कसौटी पर सही नहीं उतरतीं, लेकिन न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित का उन का पक्ष फिर भी अपनी एक विश्वसनीयता बनाता है। ग्रीक ट्रेजडियों से लेकर शेक्सपीयर तक गलत पक्षध्रता के उदाहरण न के बराबर ही मिलते हैं। ऐसा इस तरह संभव हो पाता है कि समय और समाज से सापेक्ष होकर भी साहित्य मूलतः एक ‘पोयटिक जजमेंट’; शाश्वत नैतिक मानवद्ध का आधर लेकर चलता है जो मानवीय संवेदनाओं की ऐ अनिवार्य, प्रकृत और जैविक पारदर्शिता में तय होती है। उसी में बनता है कला-मात्रा का आश्रयऋ यही होता है साधरणीकरण। यहाँ गैर का दुख भी अपना हो जाता है और पाठक की आँखों के आँसू उस न्यायपत्रा पर सब से उजले हस्ताक्षर होते हैं।
इसीलिए, लेखक की ओर से कभी किसी गलत के पक्ष में प्रयुक्त तर्क भी हमें संतुष्ट नहीं कर पाते। ऐसे ही कुछ प्रसंगों में सीता का घर-निकाला भी है। रामलीलाओं में भी सैकड़ों रूð कंठ इस प्रसंग के प्रति अपनी अप्रियता की जताते हैं। बंबईया फिल्मों का कुंठित, क्रोधी, हाइपर, अस्थिर्बुद्धि; शायद दारू पीकर मत्त भीद्ध, अर्धरात्रि में अपनी पत्नी को लांछित कर भद्दी गालियाँ बकने,  निर्ममता से पीटने वाले, उसे घर से निकालने को उद्यत रजक द्वारा बोले गए शब्दों को स्वयं के ही प्रमाणों से आगे रखकर भगवान राम, देवी सीता को भी राम से निकाल देते हैं। महर्षि वाल्मीकि के-‘पुरवासी’ सीता के चरित्रा को लेकर राम के सद्विवेक को प्रश्नविð कर देते हैं, उस के बावजूद कि वे राम के प्रशंसक हैं, उपासक हैं और उन के शब्द और आचरण में पूरी श्रðा रखते हैं।
यह सब जो ऐसा हुआ, हमारे समाज में ऐसा होता रहा है और इस में आश्यर्च की कोई बात नहीं, फिर भी विडंबना की बात यह है कि तब भी न सिर्फ ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ की मर्यादा को उच्चतर स्थापित किया जाता है, बल्कि इस को भी उन की मार्यादाध्वज का एक डंडा बना लिया जाता है। वाल्मीकि के राम अपने भाईयों से कहते हैं, ‘हे नरश्रेष्ठ बंधुओं मैं लोक-निंदा के भय से अपने प्राणों को और तुम सब को भी त्याग सकता हूँ, फिर सीता को त्यागना कौन बड़ी बात है?’ लोक-निंदा का एक ऐसा अनर्थकारी भय शायद ही कहीं देखने को मिले, वह भी एक अविचल-चित्त, न्यायनिष्ठ , धर्मप्राण व्यक्ति में। तुलसी को लोक मानस का अवश्य ही पता था, जिस से अंततः वह एक पूरे ‘कांड’ को ही खा गए। राम की कीमत पर वह सीता के पक्षधर नहीं हो सकते थे। संभवतः ‘सियाराममय सब जब जानी’ के बावजूद तुलसी के राम में सीता अपेक्षया कम है।
गर्भवती सीता के साथ कपट किया जाता है, उसे जंगल में बेसहारा छोड़ दिया जाता है, जंगल में ही वह अपने बच्चों को जन्म देती है और  राम से अपने विरोध् के रूप में वह पुनः आयोध्या लौटने की बजाय अतलांत भूमि में डूबकर अपना अंत कर लेती है- और तब भी वह राम की मार्यादा को ऊँचा ही उठाती है, लेकिन कहने की आवश्यकता नहीं कि सत्य को थोड़े समय के लिए विस्थापित किया जा सकता है, लेकिन मारा नहीं जा सकता। र्ध्म-मत से लोक-भावना बड़ी हैऋ मनुष्यता का उस का पक्ष कहीं बड़ा और निर्विवाद है। समुद्र प्रसंग मंे तुलसीदास की यह चौपाई भी, जो स्त्री से ही संबंध्ति है, स्त्री के प्रति उन के दृष्टिकोण को अकारण ही विवादास्पद नहीं बनाती है-
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
समय बदला तो व्याख्याएँ बदलीं और राम के बाद, इध्र तुलसी को भी पर्याप्ताध्कि बचाया गया, लेकिन सुना किसी ने नहीं। जहाँ तक मुझे भी प्रतीत होता है, ‘ताड़ना’ की नयी व्याख्याओं से तो संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता, लेकिन एक अन्य संभावना पर विचार किया जा सकता है। मुझे बल्कि आश्यर्च भी हो रहा है कि आज तक किसी ने ऐसा क्यांे नहीं सोचा-बताया, यह पूरी चौपाई प्रक्षिप्त भी तो हो सकती है। उसी जगह कझ्छ और पंक्तियाँ प्रक्षिप्त हो सकती हैं, जिन में छंद की गड़बड़ी भी ऐसी आशंका को बल देती हुई लगती है। किसी की बदमाशी ही कहिए। असंभव भी तो नहीं है, क्योंकि जहाँ पर यह चौपाई आयी है, वहाँ ऐसे किसी वक्तव्य की दूर-दूर तक कोई आवश्यकता नहीं थी, न उस से कहलावाया है, बल्कि उगलवाया है। वह तुलसीदास नहीं, कोई चुरकीदास हैं। और इस में नया क्या है?  प्रसिð पांडुलिपियों, ग्रंथों के साथ ऐसी छेड़छाड़ होत रही है।
नहीं, मैं तुलसीदास के बचाव में नहीं सोच रहा हूँ, बल्कि मुझे विश्वास नहीं होता कि जो व्यक्ति काव्य-भाषा की बारीकी से बारीकी माप-तोल में माहिर हो, एक-एक जीवन प्रसंग और संबंध् की मार्यादा से परिचित हो, वह अचानक इस तरह अपनी ही सारी अपेक्षाओं के विपरीत, इतना  अशोभन और असहिष्णु क्यों हो गया? वह भी उस सुन्दरकांड में, जिसे संपूर्ण रामचरितमानस के बराबर का स्वतंत्रा मान प्राप्त है?
जैसा कि प्रायः अब लोक-रूद्ध हो गया है, क्या वाकई यह पत्नी से प्राप्त अनादा के विरूद्ध  स्त्री-मात्रा के लिए उन की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया थी? क्या उन्हें वाकई एहसास नहीं था कि अनतिदूर भविष्य में ही यह चौपाई उन्हें अधूरी दुनिया से बाहर कर देगी? क्या वाकई वह इतना ओछा और अचिंतित लिख सकते थे? क्या स्त्राी-मात्रा को वह इतनी गर्हित मानते...? लेकिन उन की परंपरा में ही तो कहा जाता था... यत्रा नर्यास्तु पूज्यन्ते...? फिर ऐसा क्यों?
और सोचिए तो, ‘पंच अधिकारियों’ को अपनी पाँत में लाने से समुद्र को कोई लाभ मिला क्या? सच ही क्या इस की कोई आवश्यकता थी? क्या उचित नहीं होगा कि इन प्रश्नों को सुलझाने के लिए एक प्रबुð, साहित्यिक, विद्वत्-समिति बैठायी जाए। ऐसे विवादास्पद साहित्यिक अंशों की जाँच विश्व में पहले भी हुई है। लेकिन तब तक, या उस के बाद भी, यह प्रश्न बना ही रहेगा कि सभ्य-शिष्ट  स्त्रियाँ अपने ढोल-गवाँर पतियों से कैसे निबटें?
एक दिन उसी औरत के घर में सुन्दरकांड का पाठ चल रहा था। अड़ोस-पड़ोस की कई स्त्रियाँ, टेक लेकर, अभ्यस्त पेशेवर अंदाज में, गाकर पढ़ रही थीं। कार्यक्रम समाप्त हुआ और सब खा-पीकर चली गयीं तो मैं ने उस से पूछा, ‘तुम तो पढ़ी-लिखी हो, तुम्हें इस चौपाई... पर ध्यान नहीं जाता?’ उस का बड़ा बेचारा-सा जवाब था, ‘जाता है... लेकिन क्या कर सकती हूँ?’
              327/बी, कडरू, राँची-834002, मो0 9430116631  >