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Monday, June 30, 2014

उपन्‍यास और शीर्षक का संबंध!

छम्मकछल्लो ने एक व्यंग्य 'बिंदिया' को भेजा। जुलाई, 2014 के अंक मे छप गया। देखिये तो इसकी संपादक का कमाल!। झेल लिया व्यंग्य हँसते-हँसते! आप भी झेलिए। क्या कीजिएगा! मन हो तो कहिएगा। व्यंग्य की एकाध धार आप पर भी छोड़ दी जाएगी।
उपन्‍यास और शीर्षक का संबंध- एक-दूजे के लिए!

हे मेरे मन की गीतिके! हे मेरे दिल की प्रीतिके। हे विचारों की रंजिके! हे रिवाजों की भंजिके!
तुम्‍हारे लिए मेरे मन में बड़ा मीत-भाव है! दिल में बड़ा प्रीत भाव है। ऊपर की पंक्तियों से साफ हो  गया होगा। सो, नो रिपीटीशन।
       सुना है, तुम उपन्‍यास लिख रही हो! वह भी एक नहीं, दो-दो। गज्जब्ब यार, गज्जब्ब! अरे, हमको ये तो पता है कि तुम जगजगाती, चिलचिलाती धाकड़ लेखिका होआग उगलती हो आग- कहानी से लेकर किसी की किर्रकिरी खींचने तक, साहित्‍य से लेकर फेसबुक तक, स्‍त्री से लेकर दलित तक, मजदूर से लेकर सिनेमा तारक और तारिकाओं तक तुम सब पर लिखती हो बिंदास, बेधड़क, बेबाक!

तुम्‍हारे ढेरों प्रशंसक हैं, हे प्रशंसिके! तुम्‍हारी एक-एक रचना और एक-एक बात और विचार से तुम्हारे  प्रशंसकों की प्रशंसा के बरगद झूम जाते हैं, हे झूमिके! तुम्‍हारे एक फेसबुक स्‍टेटस पर लाइकों और कमेंटों की सूनामी, कोसी, उत्‍तराखंड सभी आ जाते हैं, हे सुनामिके!
हे नीति नियामके! कहते हैं, तुम्हारे माप-डंडों की अपनी रीति-नीति हैं और इस नीति के तहत तुम अपने आलोचकों का मुंह साम, दाम, दंड, भेद, नेग, नाद सभी से बंद कर देती हो।
      फिर भी इसमें दो राय नहीं है हे मेरे मन की मीतिके, कि तुम लिखती खूब हो! इतना कि मेरे मन में तुम्हारे लेखन के लिए एक गीत की पैरोडी बन गई। सभी की अपनी अपनी औकात है- तुम्हारी वह, मेरी यह!  
                        क्‍या खूब लिखती हो,
                        बड़ी सुंदर लिखती हो।
मुझे पता है, तुम इस पर कहोगी हे सुंदरिके!  
                        फिर से कहो, कहती रहो
                              अच्‍छा लगता है,
                              जीवन का हर सपना
                              अब सच्‍चा लगता है।
इसी सपने को सुना, तुम फिर हकीकत में बदल रही हो हे स्‍वप्निके! सपने मुझे भी आते हैंइसी सपने में एक दिन, हाँ, आजकल मैं रात में सो नहीं पाती, सो दिन में ही....! दिवास्वप्न! हाँ, देखा कि तुम उपन्‍यास लिख रही हो, वह भी एक नहीं, दो-दो। बाप रे बाप! मेरा तो गला बैठ गया, हलक सूख गया, पसीना छलक आया, बुखार चढ़ आया- एक साथ दो-दो उपन्यास! क्या खा-पी के या पी-खा के तुम लिखती हो, हे पेयकी! 
      तुम बहुत व्‍यस्‍त रहती हो, क्योंकि तुम औरत हो! मैं ये नहीं कहती कि मर्द व्यस्त नहीं होते। वे तो ज़्यादा व्यस्त रहते हैं। अब उनकी व्यस्तता न गिनवाओ! ऐसे ही वे सब कहते हैं कि हम औरतें उनकी कमियाँ निकालती रहती हैं। बस, जान लो कि वे व्यस्त रहते हैं! व्यस्तता की डिटेल्स कभी उन्हीं से मिल-बैठकर ले लेंगे। न हुआ तो कोई इंटरव्यू ही कर लेंगे हे, साक्षात्कार-कारिके!
तुम औरत हो, इसलिए, औरतों के साथ उसका घर, परिवार, बाल-बच्‍चे त्‍वचा में रोम की तरह बसे  रहते हैं। इन पर कभी वैक्सिंग करा लो तो भी क्‍या! वैक्सिंग है तो अननैचुरल और टेम्‍पररी ही न! फिर नौकरी है, लेखन है, लोगों और लेखन बिरादरी से मेल-जोल, राग-द्वेष, उठा-पटक है।
फिर भी, इन व्‍यस्‍तताओं के बीच भी तुम उपन्‍यास लिख रही हो, हे व्‍यस्तिके! तुम्हीं क्या, सभी लिख रहे और रही हैं। कहते हैं कि हिन्दी में उपन्यास लिखे बिना आप हिन्दी के साहित्यकार कहला ही नहीं सकते/ती। सब लिख रहे हैं और मेरी सरस्वती पर मंथरा बैठी हुई है। या हो सकता है, यह मेरा खयाली पुलाव हो! सरस्वती ही नहींहै, तो मंथरा हो या पूतना, कौन आएगी और कौन बैठेगी! इसलिए, मेरा मन-मयूर चैन-बेचैन है। वह नाचना चाहता है पंख पसार-पसार कर कहना चाहता है कि हां, मैं भी उपन्‍यास लिखने की सोच रही हूं। आखिर मैं भी हिन्दी की अमर साहित्यकार कहलाना चाहती हूँ! आप सब यकीन कीजिये! सब तैयार है- प्‍लॉट भी, शैली भी, ट्रीटमेंट भी! साकी भी है, शाम भी, उल्फत का जाम भी की तरह! यहां तक कि शीर्षक तो पहले से ही तैयार है। वह भी, एक नहीं, दो-दो उपन्‍यासों के। आप मानें या न मानें, मेरा वैसे मानना है कि चूंकि शीर्षक मेरे पास है, सो उपन्‍यास मेरे पास है। कोई मामूली बात है शीर्षक लिखना! आप बड़े धाकड़ लेखक होंगे, लेकिन बिना कथा, उपन्यास के शीर्षक लिखकर दिखाओ! हम अपनी शीर्षक लिखने की परंपरा ही तज देंगे।
मुझे पूरा यकीन है, हे यकीनिके कि तुम्‍हारे पास अभी तक अपने उपन्‍यासों के शीर्षक नहीं होंगे। समझीं न हे शीर्षके! तुम तो अभी उपन्‍यास लिखने में व्‍यस्‍त हो। दरअसल, मजदूर और रईस में यही तो फर्क होता है। मजदूर रुके बिना काम करता जाता है, रईस पलक के एक बाल भर से काम निकाल लेता है। निस्‍संदेह तुम मेहनतकश वर्ग से खुद को कहलाना पसंद करोगी हे, मजूरिके! हिंदी के लेखक अमीर होने की नहीं सोचते। सोचते ही गिल्‍ट में मरने लगते हैं। किसी को तनिक रॉयल्टी मिल गई तो सभी उसे पूंजीवादी मान कर उसकी सीवान-बखिया उधेड़ने लगते हैं। इसलिए पिछले पचासों बरस से हिंदी लेखक कलम के मजदूर बने रहते हैं। हल-फाल, ईंट-पत्‍थर के मजूरों को दिन-भर मजूरी के बाद दिहाड़ी मिलती है। हिंदी के कलम के मजूरों को अभी तक तथाकथित भविष्यकालीन मजूरी का झुनझुना भर दिखाया जाता है। प्रकाशकों और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशकों सम्‍पादकों की कोठियां बन जाती हैं। सेकेंड क्‍लास के बदले वे हवाई यात्रा करने लगते हैं, धर्मशालाओं के बदले पांचताराओं में ठहरने लगते हैं, लेकिन लेखकों को असली रॉयल्‍टी या सही पारिश्रमिक देते समय वे सदा बजट का रोना रोने लगते हैं। यह बात कला के हर क्षेत्र में है। लेखन के साथ रंगकर्म भी इसी का रोना रो रहे हैं। रोने के लिए भी ताकत चाहिए और ताकत के लिए दो रोटी, जिसे देने में सभी अपने रोटी और ताकत का रोना रोने लगते हैं।
अपन तनिक रईस किस्‍म के लेखक हैं, इसलिए बहुत ज्‍यादा काम नहीं करते। तुम्‍हें बता दें कि उपन्‍यास तो हम भी लिख रहे हैं। आखिर, कई पंचवर्षीय योजनाओं के बीच में हमने अने दोनों उपन्‍यासों के शीर्षक लिख ही लिए हैं न!
अब चलो, कुछ काम की बातें कर लें। मैं तुम्‍हें एक शीर्षक दे देती हूं, और तुम एक उपन्‍यास मुझे दे दो। कितना अच्‍छा है, बैठे-बिठाए तुम्‍हें शीर्षक मिल गया! कोई मेहनत नहीं, कुछ मगजमारी नहीं। शीर्षक तो ताज है, कोहिनूर है, हिमालय है, हर किसी के बस का नहीं लिखने से पहले शीर्षक सोच लेना। मजूर लोग लिखते पहले और शीर्षक बाद में खोजते हैं जो बाबा जी के बेल में कांटों की तरह उगता है। हम जैसा साध्‍य लेखक शीर्षक पहले सोचते ही नहीं, रजिस्‍टर्ड करा लेते हैं। यह गुप्‍त ज्ञान है और गुप्‍त धन भी!

तुम मेरे भाव की भाविके हो, इसलिए हम अपनी सहायता के मोती का राजहंस बिन मांगे तुम्‍हें देने को तैयार हैं- अपना यह गुप्‍त ज्ञान और गुप्‍त धन दोनों, क्‍योंकि तुम्‍हारी कलम- मजूरी पर हमें नाज है हे नाजिनी! इसलिए, आओ और एक शीर्षक ले लो। मेरा दावा है, इस शीर्षक से तुम उपन्‍यास जगत की शीर्षस्‍थ बन जाओगी! नहीं बनी तो मेरे नाम पर कुत्‍ता.... नहीं, कोई चिडि़या पोस लेना! दिन रात चहचहाकर वह तुम्‍हारा मन खुश करेगी और इसके आगे भी कई उपन्‍यास लिखने, उन्‍हें छपाने, उन्‍हें प्रचारित करने, उपर समीक्षाएं लिखवाने, चर्चाएँ करवाने की प्रेरणा देती रहेगी। मेरा भी वादा है कि तुम्‍हारे हर दो उपन्‍यास के लिए मेरे पास दो शीर्षक रहेंगे। लेन-देन जारी रहे, इसलिए, तुम लिखती जाओ और खुश होती जाओ कि तुम्‍हारे पास बिना मेहनत के शीर्षक आते जाएंगे हे खुशिके! हे शीर्षके! हे उपन्‍यासिके! रूकोगी नहीं न साधिके!!! ###

Thursday, June 26, 2014

मुल्ला का क्या है एजेंडा!

                    "नेट ने हो राम जी, बड़ा दुख दीना। 
                    दिन भर गायब रहकर मोरा सुख छीना।"
इस देरी के लिए छम्मकछल्लो की ओर से सिर-से पैर तक की बार-बार मुआफ़ी। बहरहाल, ज़्यादा वक़्त ने लेते हुए आज सलमान हैदर की कविता, जो पाकिस्तान के “फातिमा जिन्ना महिला विश्वविद्यालय, रावलपिंडी के जेंडर स्टडीज़ विभाग में पढ़ाते हैं। उर्दू में इनका ब्लॉग dawn.com में प्रकाशित होता है। कवि, व्यंग्यकार, नाट्य लेखक व रंगमंच अभिनेता हैं। “सियासत @ 8 pm” इनका लिखा राजनीतिक व्यंग्य नाटक है। “दगाबाज” और  “वेटिंग फॉर गोदो” में अभिनय किया है।
सलमान हैदर की एक कविता "काफिर-काफिर" छम्मकछल्लो ने पेश की थी, जिसे आप सबने बहुत पसंद किया। यहाँ उनकी एक और कविता पेशे-खिदमत है। उम्मीद है, यह भी आपको उतनी ही पसंद आएगी। आए, तो एक लाइन का कमेन्ट देते जाइयेगा। हम लिखनेवालों का यही सबसे बड़ा इनाम है। 

मुल्ला का क्या है एजेंडा!
हर औरत की  
आठ साल की उम्र में शादी,  
बाक़ी उम्र, सिरों पर बुर्के,  
पेट में बच्चे,  
बुर्के पहने, बच्चे थामे,
एक दूजे के आगे-पीछे,  
चलता-फिरता, गिरता-पड़ता,  
अंधा रैवर
फूले पेटोंवाले  
उस रैवर के आगे  
इक रखवाला, पगड़ीवाला,  
दाढ़ीवाला,  
हर बंदे का एक हाथ  
नेफे के अंदर  
कंधे पर बंदूक,  
बदन बारूद,  
और दूसरे हाथ में,  
मुल्ला का क्या है एजेंडा!
घुटनों से कुछ नीचा कुर्ता
टखनों से ऊंची शलवार  
पीठ पे कोड़े,
हलक पे छुरियाँ,  
सिर पर हैबत की तलवार  
रोज सड़क पर बम धमाका  
फौज की चौकी, पुलिस का नाका  
बच्चे लंगड़े,  
भूख के भंगड़े,  
जंगों के मैदान गरम
और चूल्हा ठंढा,

मुल्ला का क्या है एजेंडा! 
                     -सलमान हैदर