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छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

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Friday, November 19, 2010

छठ में जली बीडी और भभका “आई लव यू”

छठ पर्व अभी अभी बीता है. छठ पर्व की बडी महत्ता है. सभी धर्म और सभी पर्व की बडी महत्ता है. आजकल पर्व की महत्ता की जगह महत्वाकांक्षा की महत्ता समाने लगी है. महत्ता हो और महत्ता की राजनीति ना हो, ऐसा कभी भी, किसी भी काल या देश में नहीं होता है.
लोग पर्व की महत्ता गाते हैं और अपनी महत्ता जताते हैं. महत्ता फिर आगे बढ कर ताकत और ताकत प्रदर्शन से जुड जाता है. फिर वह बाहुबली का खेल हो जाता है. जो जितना बडा बलवान, उसकी महत्ता उतनी ही महान. महान की महत्ता में पर्व की महत्ता दम तोड देती है. इससे किसी का कुछ नुकसान नहीं होता. नुकसान भौतिक चीज़ों का होता है तो वह दीखता है. हाथ-पैर टूटने फूटने का नुकसान देखता है. मन के टूटने फूटने का?
बिहार के लोग पहले भी सभी देश, राज्य में बसे हुए हैं. जो जहां रहता है, वहीं अपना पर्व मनाता है. सभी के लिए सम्भव नहीं होता, हर साल गांव घर का रुख करना. पहले बिहारी किसी अन्य प्रवासी की तरह ही जहां हैं, वहीं अपना पर्व मनाते थे, बगैर किसी शोर शराबे के, पूरे आस्था और विश्वास के साथ. फिर अचानक से इसमें महत्ता का बल जुड गया. फिर व्रत को जन साधारण से जोडने की मुहिम चल पडी. मुंबई में जुहू तट भर गया.
अब भीड जमा हुई, तो भीड का मनोरंजन भी चाहिये. श्रद्धा और आस्था गई भाड में. मनोरंजन का स्तर धीरे धीरे कैसे नीचे सरकता है, इसे साल दर साल के प्रोग्राम से समझा जा सकता है. इस बार मुंबई के छठ घाट पर बने बडे स्टेज पर कोई गीत गानेवाली कमर लचका लचकाकर गा रही थी- “बीडी जलाए ले जिगर से पिया, जिगर मां बडी आग है.” वह इशारे भी कर रही थी कि आओ भाई, इस जिगर की आग को बुझाओ, तनिक बीडी जलाओ.
दिल्ली में छठ घाट पर लेजर शो था. उसमें आलिंगनबद्ध युवा थे और उसके बाद सस्ते और फूहड तरीके से दिल में चला हुआ तीर और फिर अंग्रेजी में “I Love You!”
छठ पर्व पर गाए जानेवाले सभी पारम्परिक गीत गुम हो गए. छठ घाट पर मनोरंजन चाहिए या श्रद्धा? छम्मकछल्लो नहीं समझ पा रही. कल को इन घटिया मनोरंजन के कारण छठ जैसे पर्व में भी हल्कापन आयेगा और टिहकारियों-पिहकारियों पर छठ न मनानेवाले लोग नाखुशी ज़ाहिर करेंगे तब मामला सीधा सीधा श्रद्धा से जुड जाएगा. फिर नारे छूटेंगे, गालियां फूटेंगी, बाहुबल के प्रदर्शन होंगे, अखाडेबाज़ी के अड्डे बनेंगे. सबकुछ होगा, केवल श्रद्धा और आस्था नहीं रहेगी. तब श्रद्धा और आस्था यकीन मानिए, भाव से व्यक्ति हो जाएंगी और लोग पूछ बैठेंगे, “ये श्रद्धा और आस्था कौन है? कहां रहती हैं? दोनों बहने हैं? क्या इनका इस छठ पर्व से कोई सम्बंध है? क्या ये सूर्य की पत्नियां हैं या कुछ और लगतीहैं?” उत्तर दीजिए. छम्मकछल्लो को तो नहीं सूझ रहा कुछ भी!

Wednesday, November 17, 2010

सलाह का मुफतिया बाज़ार!

हम आपको सलाह देने आए हैं- मुफ्त के, मानिए. मानने के बडे फायदे हैं. सबसे बडा तो यही कि तब आप भी ऐसे मुफतिया सलाह देने के हक़दार बन जाएंगे. आज के जमाने में जब लोग मुफत में बदन की मैल भी नहीं देते, ऐसे में सलाह! वह भी अपने दिमाग से निकाल कर! एकदम ओरिजिनल!!. अच्छा है कि सलाह पर अमेरिका का पेटेंट नहीं हुआ है. हर अव्वल चीज अपने यहां की अमेरिका ले जाता है. अब एक नौकरी थी, जिसके लालच में हम अपने बच्चों को पैदा होने से पहले ही अंग्रेजी पढाने लगे थे, उसे भी ओबामा आ कर चट कर गए. अपने गोरे लोगों के लिए काम खोजने यहां आए थे. हे भगवान! ये दुर्दिन! भला बताइये? इतने सुकुमार ये गोरे लोग? हम कालों के आगे टिक सकते हैं क्या? और हमारा? जिस अंग्रेजा उअर अंग्रेजी के हम गुन गाते न थकते हैं, अब उसे पढ कर भी हमारे नौनिहाल उनके यहां भागे भागे नहीं जा सकेंगे. कहीं ओबामा को स्वदेश और स्वदेशी की धुन तो नहीं लग गई? वैसे भी ये गांधीके बडे प्रशंसक हैं.
पर बात मुफ्त सलाह की है. दीजिए. सर दर्द है तो सर तोडने की सलाह दीजिए, गले में दर्द है तो गला दबाने की सलाह दीजिए. बुखार है तो सुई लगवाने की सलाह से लेकर हर उसकी सलाह दीजिए, जिसकी सलाहियत आपके पास हो या ना हो. आखिर सलाह देना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसके लिए आप हमें रोक नहीं सकते. नई नई तकनीक है. ठीक है कि अपन कूढ मगज बुड्ढे लोग हैं तो इसका यह मतलब थोडे ना है कि सलाह देने से बाज आ जाएं? आखिर को आज के नए बच्चों से उम्र में बडे हैं. उम्र से बडे हैं तो अनुभव में भी बडे हैं. इसलिए सलाह देना हमारा मौरूसी हक़ बनता है.
अब आप छम्मकछल्लो से सलाह मांग रहे हैं? देने के बदले लेना चाहते हैं? तो भैया, अपनी चिंदी जैसी बुद्धि में यही सलाह आती है कि बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख की तरह बिन मांगे सलाह देना मत शुरु कीजिए.
मगर सलाह पर हम चलने ही लगे तो हम, हम क्या हुए? ये देखिए उन साहब को. उनके पेट में मरोडें उठ रही हैं. और इधर अपन के भी कि जल्दी से उनको सलाह का एक तगडा काढा पिला आएं. फिर वे उलटें, पलटें, अस्पताल भागें, उनकी बला से. अपन ने तो सलाह की तोप दाग दी किसी भारी विजेता की तरह और जीते हुए योद्धा की तरह मुस्कुरा भी रहे हैं. आप भी तनिक मुस्कुरा दीजिए. हमारे पास इसके लिए भी सलाह है. खूब-खूब है-
                                        सलाह नाम की लूट है, लूट सके सो लूट
                                        अंत काल पछताएगा, जब प्राण जाएंगे छूट!
छम्मकछल्लो अपने प्राण गंवाना नहीं चाहती. वह संत है. सलाह लेना भी नहीं चाहती, बस दानी भाव से देना चाहती है. चाहिए तो बोलिए.

Tuesday, November 16, 2010

बच्चा बोला ‘साला’, ‘कमीना’

किसी ने अपने ब्लॉग पर लिख दिया कि उनका बच्चा ‘साला ’बोलना सीख कर आ गया. कम्बख्त आस पास का माहौल! छम्मकछल्लो को कम्बख्त आस पास के माहौल की बात पर हैरानी हुई. गाली किसी खास कौम, जाति, समाज या मोहल्ले की बपौती है क्या? मां-बहन की शुद्ध देसी गालियों से लेकर लोग साला, कुत्ता, कमीना बोलते हैं. फिर एलीट जबान में बास्टर्ड, बिच, फक यू बोलते हैं, और इसी से अपने अधिक पढे लिखे होने का अहसास भी होता है.
गाली तो हमारी फिल्मों का भी हिस्सा है. ‘शोले’ में वीरु कहता है, ‘बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना.’ किसी और फिल्म में कहा जाता है, ‘कुत्ते, कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊंगा”. लोगों को सम्वाद याद रखने में दिक्कत हुई, इसलिए फिल्मों के नाम ही रख दिए गए- ‘गुंडा’, ‘आवारा’, ‘लोफर’, ‘420’, कमीने, ’बदमाश’ और ‘बदमाश’ से मन नहीं भरा तो ‘बदमाश कम्पनी’ भी. इससे भी आगे निकले तो गाने में भर दिया- ‘साला, मैं तो साहब बन गया.’ इसे तब के हमारे आइकन दिलीप कुमार ने गाया था. तो आज के शाहरुख क्यों पीछे रहें? उन्होंने भी गा दिया ’इश्क़ कमीना.’ शाहरुख आज के बच्चों के भी आइकन हैं. छम्मकछल्लो के एक मित्र के बेटे की शिकायत पहुंची पडोसी द्वारा कि बच्चे को ज़रा समझाइये, बैड वर्ड्स बोलता है. बच्चा मानने को तैयार नहीं कि उसके द्वारा बोला गया शब्द खराब है. उसने अपने पापा से यही सवाल किया कि अगर यह बैड वर्ड है तो शाहरुख ने क्यों गाया- ’इश्क़ कमीना’?
बच्चों पर हैरान मत होइए. पहले स्वयं को देखिए कि कहीं हम खुद ही तो बैड वर्ड्स नहीं बोल रहे? फिर जरा अपने आइकन सब से कहिए कि भई, ज़रा ज़बान संभाल के! बच्चे ना केवल सुन और समझ रहे हैं, बल्कि सवाल खडे कर रहे हैं कि आपके द्वारा बोले जानेवाले शब्द बैड वर्ड्स कैसे हो सकते हैं? खुद को तो हम समझा लें. बच्चों को कैसे समझाएं कि कम औकातवाले बोलते हैं तो यह गाली है, ऊंची औकातवाले बोलते हैं तो यह डायलॉग है. ‘दबंग’ में सलमान बोलते हैं, ‘इतने छेद करूंगा शरीर में कि भूल जाओगे कि सांस किधर से लें और पादें किधर से?” कोई बच्चा इसे दुहरा दे तो वह अकारण डांट खा जाएगा.
चलते चलते एक लतीफा- “एक आदमी ने दूसरे आदमी से पूछा कि भाई साब, शहर में कौन कौन सी पिक्चर लगी है?
आदमी ने जवाब दिया- ‘गुंडा’, ‘आवारा’, ‘लोफर’, ‘420’, कमीने, ’बदमाश’
पहले आदमी ने उसे कसकर झांपड लगाया और कहा- ‘मैने फिल्मों के नाम पूछे, अपना परिचय नहीं.”

Friday, November 12, 2010

क्या देवियों को माहवारी नहीं आती?

   छम्मकछल्लो परेशान रहती है. तन की परेशानी तो वह झेल लेती है, मगर मन अहमक बडा बेहूदा है. जब-तब, जिस तिस रूप में उसे परेशान करता रहता है. सबसे बडी परेशानी तो यही है कि वह लडकी बनकर क्यों जन्मी? लडकी नहीं बनती तो लडकी से सम्बंधित परेशानियों से दो चार नहीं होती और ना ही अपने ही कारण अपनी ही परेशानी का सबब बनती.
    छम्मकछल्लो को ऊपरवाले विधाता, नियामक या निसर्ग से कोई परेशानी नहीं है. उसने तो इतना बढिया मनुज तन हमें दे कर भेजा है इस धरती पर. मगर इस धरती के विधाता या नियामक की बडी बडी बातें वह समझ नहीं पाती. क्या करे! औरत जो ठहरी! कम अकल, मूढ मगज!
    ये सभी विधाता या नियामक देवियों की बातें करते हैं. छम्मकछल्लो की समझ में यही आता है कि देवियां तो स्त्री रूप ही हुईं. इन विधाताओं या नियामकों को भी उनको स्त्री मानने से कोई उज़्र नहीं, मगर स्त्रियों की स्त्रियोचित बातों को मानने समझने से है. छम्मकछल्लो की परेशानी बढ जाती है जब ये सभी विधाता या नियामक देवी को अलग और स्त्रियों को अलग करके देखने लगते हैं. स्त्री को देवी के रूप में देखते ही वह सर्वशक्तिमान, समर्थ, दुश्मनों का नाश करनेवाली, सभी दुखों को दूर करनेवाली हो जाती हैं और इसी देवी के स्त्री रूप में परिवर्तित होते ही वह सभी बुराइयों की जड, कमअक्ल, मूरख, वेश्या, छिनाल, वस्तु, नरक की खान और जाने क्या क्या हो जाती है.
    छम्मकछल्लो को लगता है कि कभी भूलवश किसी सिरफिरे संत या विचारक ने स्त्रियों को देवी की परम्परा में डाल दिया, जिसे हमारे महान लोग अबतक आत्मसात नहीं कर पाए, इसलिए उसको कमअक्ल, मूरख, वेश्या, छिनाल, वस्तु, नरक की खान जैसे तमाम विशेषणों से अलंकृत करके छोड दिया कि “ले, बडी देवी बनकर आई थी हमारे सर चढने, अब भुगत!”
    छम्मकछल्लो इस समाधान से खुश हो गई. लेकिन उसके दिमाग में फिर भी एक कीडा काटता रहा. वह यह कि स्त्री से परे देवी की परिकल्पना सुंदर, सुडौल, स्वस्थ रूप में की जाती है. सभी देवियों की मूर्तियां देख लीजिए. सुंदर, सुडौल, स्वस्थ देवी की परिकल्पना से छम्मकछल्लो के कुंद दिमाग में यह भी आने लगता है कि इस सुंदर, सुडौल, स्वस्थ देवी को स्त्री शरीर की रचना के मुताबिक माहवारी भी आती होगी? और यदि माहवारी आती है तब तो उनके लिए भी मंदिरों के पट चार दिनों के लिए बंद कर दिए जाने चाहिए? उन्हें भी अशुद्ध माना जाना चाहिए. अपनी जैवीय संरचना के कारण ऋतुचक्र में आने पर स्त्रियों को अशुद्ध माना जाता है, तो देवियों को क्यों नहीं? वे भी तो स्त्री ही हैं. एक बार कहीं पढा कि देवी के एक मंदिर की चमक अचानक कम पाई गई. एक अभिनेत्री ने अपने अपराध बोध से उबरते हुए कहा कि वह उस मंदिर में अपनी माहवारी के समय गई थी. वो हंगामा बरपा कि बस. छम्मकछल्लो पूछना चाहती थी कि मंदिर देवी का, मंदिर मे माहवारी के दौरान जानेवाली भी स्त्री, तब देवी क्या बिगडैल सास बन गई कि अपनी ही एक भक्तिन से पारम्परिक सास-बहू वाला बदला निकालने लगी और अपनी चमक कम कर बैठी. छम्मकछल्लो को तो यही समझ में आया कि ज़रूर उस समय देवी को भी माहवारी आई होगी, अधिक स्राव हुआ होगा. अधिक स्राव के कारण क्लांत हो कर मलिन मुख हो गई होंगी. विधाताओं या नियामकों ने डॉक्टरों को तो दिखाया नहीं होगा. वैसे भी छोटी छोटी बीमारियों में औरतों को डॉक्टरों के पास ले जाने का रिवाज़ कहां है अपने यहां? बस, प्रचार कर दिया कि वे अशुद्ध हो गईं.
   देवी को पता नहीं किन किन नदियों के जल से शुद्ध किया गया होगा. छम्मकछल्लो फिर से फेर में पड गई कि यह शुद्धि भी किससे? नदियों से. नदियां भी तो स्त्री रूप ही मानी जाती हैं ना! तभी उसके दिमाग की घंटी बजी, नहीं, नहीं, शुद्धि नदियों से नहीं, नदियों के जल से. अब जल, पानी, नीर सभी पुरुष माने गए हैं. तो आ गए न राम की तरह उद्धारकर्ता जल महाशय! ज़रा समझाइये इस मूरख छम्मकछल्लो को. खामखां फितूर पैदा करती रहती है.

Thursday, November 4, 2010

जेल की व्यवस्था (व्यथा)- कथा में भी पचास से पचीस सौ का चमत्कार.

जी नहीं. आज छम्मकछल्लो आपको जेल में आयोजित किसी कार्यक्रम की रिपोर्ट देने नहीं जा रही और ना ही वह जेल के बंदियों की दस्तान बताने जा रही है, बल्कि वह जेल की ही व्यथा-कथा कहने जा रही है. जेल को समझने के लिए सबसे पहले तो हिंदी फिल्मों के तथाकथित जेल के खाके से बाहर निकलना ज़रूरी है, जहां जेल का मतलब नर्क का दूसरा द्वार है. अत्याचार के सारे प्रबंध जहां खुली किताब की तरह दिखाए जाते हैं.
जेल देश की एक बेहद सम्वेदनशील संस्था है, जहां दुनिया के वे तथाकथित सबसे खतरनाक लोग रखे जाते हैं, जिन खतरनाक लोगों से देश की कानून व्यवस्था को सबसे बडा खतरा महसूस होता है. उन खतरनाक लोगों को अपने पास रखनेवाली जेल नामधारी इस संस्था से लोगों की बडी बडी उम्मीदें रहती हैं, नियम कायदे, कानून मानने की, मनवाने की, एकदम छक चौबस्त, चुस्त-दुरुस्त. व्यवस्था के शीर्ष पर बैठा हर ओहदेदार यही चाहता है कि उसके यहां, उसके समय में सबकुछ ठीक ठाक रहे. मगर इस ठीक ठाक रहने के लिए जो कुछ करना होता है , उसके नाम पर काम कम और आश्वासन अधिक होते हैं.
जेलों में काम करते हुए छम्मकछल्लो बार बार जेल के कर्मियों और अधिकारियों से दो चार होती रही है, जेल की व्यवस्था पर अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर करती रही है. जेल के अधिकारी, कर्मचारी हंसते रहे हैं- छम्मकछल्लो के इस मासूम सवाल पर. “बच्चा आपका, मगर बच्चा कैसे खायेगा, कैसे पियेगा, कैसे रहेगा, कैसे पलेगा, कैसे बढेगा, यह सब तय करेगा कोई और. आप बस बच्चे के केयेर टेकर बने रहिए. केयर टेकर भी नहीं बने रहने देते. तब कहते हैं कि बच्चे को अपना ब्च्चा मानकर चलिए. अगर अपना बच्चा माना तो मानने के अधिकार भी तो दीजिए. वो नहीं, बस, बने रहिए. अरे मैडमजी, हमारे हाथ में कुछ हो तब तो हम कुछ करें? हाथ पैर बांध कर कहिए कि दौड पडो मैराथन में. हम क्या करें. नौकरी है, सो दौडते रहते हैं, हाथ पैर बांध कर.”
समझ में नहीं आ रहा ना आपको कुछ भी? छम्मकछल्लो को भी नहीं आया था. जब आया, तब वह आपको भी समझाने आ गई है. समझने की कोई जबर्दस्ती नहीं है. दिल में आए तो समझिए, नहीं तो आप भी दो चार जुमले उछाल दीजिए उनके खिलाफ. बोलने की आज़ादी तो आखिर सबको है ही ना!
1 देश की हर जेल में कैदी उसकी क्षमता के दो से तीन गुना अधिक रखे जाते हैं. यानी, अगर एक जेल में 800 कैदी को रखने की क्षमता है तो उसमें दो से ढाई हज़ार कैदी रखे जाते हैं. कैदी को अपनी मर्ज़ी से रखना या जेल की क्षमता के मुताबिक रखना जेलवालों के हाथ में नहीं है. उन्हें तो जब, जिस समय, जितने कैदी भेजे जाते हैं, उन्हें रखना होता है. जेल हमेशा रिसीविंग एंड पर होता है. उसे जितने लोग भेजे जाएंगे, उन्हें रखना ही है. वह विरोध या प्रतिरोध दर्ज़ नहीं कर सकता. क्षमता से तीन चार गुना कैदी हो तो जेल कैसे उस अव्यव्स्था या कुव्यवस्था से निपटे, इस पर कोई नहीं सोचता. आपके अपने दो कमरे घर में अगर चार के बदले चौबीस लोग रहेंगे तो?
2 जेल को हमेशा प्रोटेक्शन या कोर्ट प्रोटेक्शन के लिए स्थानीय पुलिस पर निर्भर रहना होता है. पुलिस के मिलने पर ही वह कैदी को कोर्ट जाने के लिए छोड सकता है.
3 जेल के भीतर कोई हादसा होने पर भी जबतक पुलिस नहीं आती, जेल अपने से कुछ भी नहीं कर सकती.
4 डॉक्टर या स्वास्थ सेवाओं के लिए जेल को सिविल हॉस्पीटल पर निर्भर रहना होता है. वह अपनी मर्ज़ी से किसी भी मरीज का इलाज नहीं करा सकती. किसी का केस बिगड जाने पर भी जेल डॉक्टर पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकती.
5 जो भी संसाधन हैं, उन पर क्षमता से कई गुना अधिक दवाब है.
6 जेल के भीतर का सारा निर्माण कार्य पीडब्ल्यूडी के अधीन है. जेल अपनी मर्ज़ी या अपनी जरूरत से एक ईंट भी जेल के भीतर नहीं बिठा सकती.
7 जेलों में जो आवक है, वह लगातार बढ रही है. इसका सीधा सम्बध लॉ एंड ऑर्डर से जुडता है.
8 बेल प्रोसेस में खामी की वजह से लोगों को जमानत मिलने में भी काफी देर हो जाती है. जमानत देने दिलाने में जेल की कोई भूमिका नहीं होती. इस कारण भी कई लोग ज़रूरत से अधिक समय तक भीतर रह जाते हैं, जिनका भार जेल को उठाना होता है.
9  स्टाफ की भर्ती जेल की बंदी क्षमता के अनुसार रहती है, बल्कि उससे भी कम और कैदी क्षमता से ढाई-तीन गुना अधिक होते हैं. लिहाज़ा, हर स्टाफ पर बहुत अधिक बोझ पडता है. यह कैसे सम्भव है कि मुट्ठी भर स्टाफ पूरे जेल की निगरानी कर सकें?
10 खाना बनाना यहां की सबसे बडी समस्या है. अगर एक जेल में दो हजार कैदी हैं तो इसका मतलब कि तीन वक्त का खाना मिलाकर छह हज़ार लोगों के लिए खाना बनाना होता है. मगर यहां रसोइये का कोई पद नहीं है. कैदी ही मिल जुल कर खाना बनाते हैं. जेल कोशिश करता रहता है कि ठीक-ठाक खाना पकानेवालो से खाना बनवाया जाए. मगर हर बार ऐसा तो हो नहीं सकता. नतीज़न, सब कुछ होने के बावज़ूद खाने अच्छा नहीं बन पाता.
11 खाने का वजन तय है. 100 मिली दूध, केला के साथ नाश्ता, फिर दिन का भोजन, शाम की चाय और रात का भोजन. जेल में खाना अधिकारियों द्वारा चख कर ही कैदियों को बांटा जाता है.
12 पांच कैदियों को ले कर पन्च कमिटी बनाई जाती है.
13 अच्छे रेकॉर्डवाले कैदियों की सज़ा कम करने के लिए सरकार से सिफारिश की जाती है. यह नियम के अनुसार होता है. सिफारिश का मंज़ूर होना या न होना जेल के हाथ में नहीं है.
14 दिक्कत सबसे बडी यह है कि जेल के पास बहुत से सुझाव हैं, जेल की स्थिति सुधारने के लिए, इसका भार कम करने के लिए, इसकी प्रशासन व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए. परंतु, किसे फुर्सत है जेल की सुनने की? जेल को सुनाने के लिए सबके पास बहुत कुछ है, मगर जेल की सुनने के लिए?
15 नियम, कायदे, कानून बाबा आदम के ज़माने के बने हुए हैं. समय के अनुसार उनमें बदलाव की ज़रूरत है. पर कौन करे यह बदलाव?
16 जेल आग के गोले के बीच रखी संस्था है. इसके ऊपर सभी की निगाहें लगी रहती हैं. जेल में कुछ बुरा हुआ, प्रशासन सहित प्रेस, मीडिया सभी उसके ऊपर चढने के लिए तैयार बैठे रहते हैं. मगर जब जेल में कुछ अच्छा होता है, कैदी अपने प्रयासों से या एनजीओ आदि की सहायता से कुछ करते हैं तो जेल के पास इसे बताने के लिए कोई साधन नहीं है, क्योंकि जेल मैन्युअल के अनुसार जेल के अंदर की कार्रवाई का प्रचार प्रसार वर्जित है. खोजी पत्रकार और स्टिंग ऑपरेशवालेजाने कहां से कहां पहुंच जाते हैं, उसके लिए उसे व्यवस्था से अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं पडती, मगर जेल में अच्छे कार्यक्रम होते हैं तो उनकी भी रिपोर्ट नहीं करने दी जाती. नतीजन, लोगों के पास जेल के केवल नकारात्मक रूप ही सामने आपाते हैं.
17 हर कोई अपने सद्प्रयास प्रेस या मीडिया को बताना चाहता है. मगर जेल यदि अपने सद्कार्यों के लिए मीडिया या प्रेस से सम्पर्क करना चाहे तो वह नहीं कर सकती है. अगर कोई अधिकारी जेल की अच्छाइयां या उसके नियम कानून ही किसी को या मीडिया और प्रेस को बताए तो आन्तारिक व्यवस्था ही उस पर चढ बैठती है कि यह मीडिया सैवी है.
18 इन सबके बावज़ूद कहा जाता है कि जेल सबसे बेहतर निष्पादन दे. ऐसी जगह, जहां सामान्यत: सभी नकारात्मक किस्म के लोग आते हैं, उनके बीच नकारात्मक माहौल में रहते हुए सदैव सकारात्मक परिणाम देते रहने की अपेक्षा हमसे की जाती है.
19 जेल के अधिकारी कहते हैं कि यह तो हमारे लोगों का जादू है कि हम पचास से पचीस सौ को काबू में रख ले पाते हैं. वे तो वीरता का काम करते हैं. जेलकर्मियों को खुद पता नहीं होता कि जेल में राउंड लेते समय या जेल के भीतर काम करते समय कब कोई बंदी उन पर किस बात को ले कर हमला कर दे? आए दिन आप ये खबरें पढते होंगे.
20 अब भी आप कहते हैं कि जेल के लोग कुछ नहीं करते और सारे अनाचार जेलों में ही होते हैं. जेल इनका प्रशिक्षण स्थल है. तो जेल का यही कहना है कि बाहर के सारे अपराध बंद कर दीजिए, उनका यहां आना छूट जाएगा. न वे यहां आएंगे, न वे तथाकथित तौर पर और कुछ सीखेंगे. मगर कैदियों की बढती तादाद कुछ और ही कहते हैं. आप क्या कहते हैं?

Wednesday, November 3, 2010

काम मत कर, काम की फिक्र कर, फिर उस फिक्र का ज़िक्र कर.

छम्मकछल्लो को वे लोग पसंद नहीं हैं जो लगातार काम करते रहते हैं. आखिर कर्म ही जीवन है. ऐसे कर्मवानों के प्रति वह अगाध श्रद्धा व भक्ति भाव से भर उठती है. छम्मकछल्लो को समझ में नहीं आता कि आखिर ये लोग इतनी मेहनत कर कैसे लेते हैं?

छम्मकछल्लो उन पर वारी वारी जाती है जो काम नहीं करते. आखिर मनुज तन एक बार मिलता है. न कोई अगला जनम जानता है, न पिछला. तो एक जो मानुस तन मिला है, उसे भी काम करके नष्ट कर दें तो जीवन में रह क्या जाएगा? अल्हुआ, सतुआ, घडीघंट?

ऐसे लोग काम नहीं करते, काम की फिक्र करते हैं, इतनी कि उस फिक्र में दूसरे के बदन की हड्डियां दिखने लगती हैं, वे खुद काम की चर्बी से इतने दब-ढक जाते हैं कि उनका बदन मांस का थल थल आगार हो जाता है.

वे काम भले ना करें, मगर काम की फिक्र में जी जान एक किए रहते हैं. चूंकि फिक्र में जी जान एक किए रहते हैं, इसलिए इस फिक्र का ज़िक्र भी ज़रूरी है. सो वे फिक्र का ज़िक्र करते हुए अपना अमूल्य मानुस तन सार्थक करते रहते हैं. पत्नी उनके जीवन का अभिन्न अंग और अर्धंगिनी होती है. इसलिए आधा ज़िक्र वे अपने पूरे तन मन से करते हैं और आधे का भार अपनी प्रियतमा पर छोड देते हैं. पतिव्रता पत्नी पातिवर्त्य धर्म निभाती हुए उनके कार्य के अखंड रामायण से सभी को कृतार्थ किए रहती हैं.

श्री भगवद दास- हमेशा देर तक बैठने के हिमायती. दिन भर पी सी पर लगे रहनेवाले. उनकी पत्नी यह कहते न अघाती हैं कि उनके पति के बल पर ही दास साहब की कम्पनी टिकी है, वरना कब की अधोगति में पहुंच गई होती. वे यह नहीं कहतीं कि देर तक बैठने के कई फायदे हैं. सबसे बडा फायदा, बॉस के गुडविल में आ गए. गुडविल में आ गए तो प्रमोशन पक्का, हर जगह तारीफ पक्की. वे रोल मॉडल हो गए. बॉस कहने लगे, देखिए दास साब को, कितने कर्मठ हैं, देर तक बैठ कर काम करते हैं. मतलब, बाकी आप सब कितने अहमक हैं. ऑफिस का समय खत्म हुआ नहीं कि निकल लिए. वे यह क्यों मानें कि काम के आठ घंटे में अगर आप प्लानिंग करके काम करेंगे तो काम हो जाते हैं. देर तक बैठने के दूसरे फायदे में से एक फायदा अर्थ का है. दास बाबू तब तक बैठते, जबतक देर तक बैठने की तय मियाद पूरी ना हो जाती, ताकि उस दिन का ओवरटाइम पक्का हो जाए. काम आधा घंटा पहले भी खत्म हो जाए तब भी मजाल कि वे पहले निकल लें? मगर गाज़ गिरे कम्पनी के नीति नियामक पर. एक सर्कुलर निकाल दिया कि देर तक बैठने का कोई पैसा नहीं मिलेगा. बस जी, दास बाबू घर के दास हो गए. उनके सारे काम आश्चर्यजनक तरीके से 9-5 के भीतर होने लगे.

श्रीमती खान कहती हैं कि उनके शौहर को तो जी खाने की भी फुर्सत नहीं होती. वे नहीं बतातीं कि खान साब घर का खाना खराब नहीं करते, रेस्तरां आबाद करते हैं. विभाग है, जब तब अधिकारी लोग दौरे पर पहुंचते रहते हैं. खान साब उन्हें रेस्तरां ले जाते हैं. इससे उनकी रिपोर्ट भी अच्छी हो जाती है और घर का अपना खाना भी बच जाता है. एकाध बढिया मेंनू घर के लिए भी बंध जाता है.

झा साब बगैर बोले काम करते रहते हैं. नतीजन, तीन से सात साल हो गए, अगले ग्रेड की बाट जोहते. मोहतरमा खान के दावे पर मैडम झा खीझती हैं और कह देती हैं कि हां जी, मेरे झा जी तो काम ही नहीं करते. यह बात फैल जाती है.

यह हिंदुस्तान है और हिंदुस्तान में सफल वही होता है, जो काम के बदले काम की फिक्र करता है और फिर उस फिक्र का जिक्र ढोल, नगाडे के साथ करता है.

आप बहुत काम करते हैं? तो, अहमक हैं, चुगद हैं, परले सिरे के बेवकूफ हैं. हज़रत, दास साब से, खान साब से, उनके बॉस से सीखिए. अपनी जिंदगी हलकान मत कीजिए. बस काम की फिक्र कीजिए और फिक्र का ज़िक्र कीजिए. छम्मकछल्लो तबतक औरों को भी धन तेरस के अवसर पर उपदेश का यह धन दे कर आती है.

Tuesday, November 2, 2010

तन, मन हमारा, अधिकार तुम्हारा!

छम्मकछल्लो को इस देश की परम्परा पर नाज़ है. सारी परम्पराओं में एक परम्परा है, हम स्त्रियों के तन मन पर आपका अधिकार. हमारे द्वारा घर और पति और ससुराल की हर बात को शिरोधार्य करना. हम क्या खाएंगी, पहनेंगी, पढेंगी, इसका निर्णय हम नहीं, आप करेंगे. यह उस महान परम्परा को भी पोषित है कि हमें या तो अक्ल नहीं होती या होती है तो घुटने में होती है. अब जब अक्ल ही नहीं होती या घुटने में होती है, तो हम खुद से क्या और कैसे कर सकती है कुछ भी. छम्मकछल्लो छुटपन में अपनी हम उम्र लडकियों के जवाब सुनती थी,

“क्या पढना चाहती हो?”

“बाउजी बताएंगे.”

“ क्या बनना चाहती हो?

“बाउजी बताएंगे.”

“क्या पहनना चाहती हो?”

“बाउजी बताएंगे.”

“कहां जाना चाहती हो?”

“ बाउजी बताएंगे.”

और बाउजी, प्राउड फादर होते थे या नहीं, पता नहीं, मगर अपना मौरूसी हक़ समझते थे, बेटी की सांस का एक एक हिसाब रखना.

जमाना बदला नहीं है बहुत अधिक. गांव, शहर, कस्बा, महानगर! कुछ नज़ारे ज़रूर बदले मिलते हैं. मगर गहरे से जाइये तो बहुत कुछ बदला नहीं दिखेगा. ना ना न! इसमें अमीर गरीब, छोटे बडे का कोई मामला नहीं है. छम्मकछल्लो अच्छे अच्छे घरों में जाती रही है. खाते पीते समृद्ध लोग. हर माह एकाध गहने गढवा देनेवाले लोग. हर महीने सोना, टीवी, फर्नीचर, अन्य साजो सामान खरीदनेवाले लोग. हर दिन नया नया और अच्छा अच्छा खाने पीनेवाले लोग. वे सब कभी फख्र से, कभी सलाह से, कभी उपदेश से कहते हैं, “मैंने बेटी को बोल दिया है कि “बेटे, जो मर्ज़ी हो, पहन, मगर जींस, टॉप मत पहनना, स्लीवलेस ड्रेस मत पहनना.”

“ मेरे घर में भाभीजी (छम्मकछल्लो), पत्नी को कह दिया है कि बेटी के लिए ड्रेस खरीदते वक्त यह ध्यान रखे कि गला पीछे से भी गहरा ना हो, आस्तीन कम से कम केहुनी तक हो.”

“अभी कितनी उम्र होगी बिटिया की?” भाभीजी (छम्मकछल्लो) पूछ लेती है.

“अभी तो भाभी जी नौंवा चढा है.”

“अरे, तो अभी तो पहनने दीजिए ना उसे. अभी तो बच्ची है.”

“आप नहीं समझती हैं भाभी जी, अभी से आदत लग जाएगी तो बडी होने पर नहीं सुनेगी. लडकियों को कंट्रोल करके तो रखना ही होता है.”

भाभी जी (छम्मकछल्लो) चुप हो जाती है. बेटियों को दिल से, देह से, दिमाग से कंट्रोल करके रखना ही होता है, रखिए, वरना लडकी हाथ से निकल जाएगी, हाथ से निकली तो इज्जत निकल जाएगी. इज़्ज़त का ठेका उन्हें ही तो दे दिया गया है. ढोओ, बेटी, ढोओ.

छम्मकछल्लो अभी अभी एक बहुत बुजुर्ग सज्जन से मिली. बहुत बडे गांधीवादी हैं, जेपी के बहुत बडे भक्त हैं, आज़ादी की लडाई में जेल जा चुके हैं. अभी अपने बलबूते बहुत कुछ अर्जित किया है, धन, मान, नाम, सबकुछ. बात पर बात निकली तो कहने लगे, बेटे की शादी बगैर सोने के किया, अभी पोते की भी कर रहा हूं. ना मैं सोना ले कर जाऊंगा, न लडकीवालों को सोना लाने दूंगा.”

छम्मकछल्लो का माथा श्रद्धा से झुक गया. ऐसे ऐसे लोग समाज में हो तो दहेज की शिकार होने से ना जाने कितनी बहू बेटियां बच जाएंगी. तभी उन्होंने सोने को संदर्भित करते हुए कहा कि जब हम 7वीं 8वीं में थे, हमसे पूछा गया था कि शादी में तुमलोगों को कितना सोना चाहिये? तब देश आज़ाद नहीं हुआ था. सभी ने कहा कि जब शादी होगी, तब देखा जाएगा. मैंने कहा कि मैं वादा करता हूं कि मेरी पत्नी सोना नहीं पहनेगी. और आज तक उसने सोना नहीं पहना.”

पत्नी की ओर से बगैर उसके मन को जाने समझे, उन बुजुर्ग द्वारा की गई प्रतिज्ञा! छम्मकछल्लो को नहीं पता कि उनकी पत्नी को सचमुच सोने से लगाव था या नहीं, मगर आम औरतों की तरह यदि उन्हें भी लगाव रहा होगा तो सोचिए कि इस प्रतिज्ञा का उनके मन पर कितना असर पडा होगा! गांधी जी भी बा को बस ऐसे ही ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ लेते रहे, उन्हें शौचालय की सफाई, गहने दान देने पर विवश किया. मन मार कर बा ने भी सब किया. मन मार कर आज भी लडकियां करती हैं, बाउजी के लिए, पति के लिए, बच्चे के लिए, समाज के लिए.

“अभी कौन बनेगा करोडपति” की एक प्रतिभागी ने बताया कि उसे साडी पहनना बिल्कुल नहीं अच्छा लगता. खाना बनाना तनिक भी नहीं भाता. पढाई में उसकी बहुत रुचि है. वह हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढना चाहती थी. शादी के बाद सबकुछ से उसने समझौता कर लिया है, मगर पढाई से नहीं कर पाई है, वगैरा, वगैरा. अपनी क्लिपिंग देखते समय वह रो पडी. उसने यह कहा कि वह क्लिपिंग में अपनी बेटी को देख कर भावुक हो गई, मगर शो के दौरान वह यह कहती रही कि साडी में उसे फ्रीनेस नहीं लगती, वह अभी भी पढना चाहती है, हर दिन साडी पहनते समय वह यह सोचती है कि साडी किसने बनाई?” साथ में पति और पिता आए थे. पति ने यही कहा कि “उन्हें उसके शलवार सूट पहनने से इंकार नहीं है, मगर साडी में वह ज्यादा सुंदर लगती है.” भई वाह! छम्मकछल्लो या कोई स्त्री अपने घर के पुरुषों या पति से कहे कि वे धोती में अधिक सुंदर और पारम्परिक लगते हैं, तो क्या वे सब इसे मानकर धोती पहनने लगेंगे. ना जी ना, माफ कीजिए, इसे तनिक भी नारीवादी नज़रिये से नहीं पूछा जा रहा.

प्रतिभागी अच्छे खाते पीते घर की युवती थी. मन में सवाल यहीं पर खडे होते हैं कि क्या लडकियों को अभी भी अपने मन से पहनने पढने, कैरियर बनाने की आज़ादी नहीं है? क्या उस युवती की जगह उसका भाई हॉर्वर्ड में पढना चाहता, तो उसके पिता उसे भेजते नहीं? भाई जींस पहनना चाहता तो क्या उसे मना किया जाता? भाई घर का काम नहीं करना चाहे तो क्या उस पर दवाब दिया जाता? भाइयो, इतनी तो आज़ादी उसे दे दीजिए कि वह अपने मन की पहन सके, पढ सके. आपका जींस पहनना अगर बुरा नहीं है तो किसी सविता, कविता, सरोज या रिया द्वारा कैसे हो सकता है? कुछ अगर गलत और बुरा है तो सबके लिए है. हां, बडे और ओछे का मामला है, स्त्री धन है और धन पर उसके मालिकों, यानी बाप, भाई, पति, बेटे का अधिकार है कि वह अपने धन का चाहे जैसा इस्तेमाल करे, आप बोलनेवाले कौन?

Monday, November 1, 2010

‘ताकत’ की भाषा

हमारा देश विद्वानों का देश है. पहले विद्वानों के लिए कोई भाषा निर्धारित नहीं थी. कालिदास, चरक, पाणिनी, सूर, तुलसी, मीरा, महात्मा फुले, तुकाराम, शरत, बंकिम, प्रेमचंद, सुब्रमणियम भारती, सभी विद्वान थे. आज के समय में ये सब विद्वान की सीढी से खींचकर उतार दिए जाते. क्यों? क्योंकि उनको आज के भारतीय विद्वानों की जबान जो नहीं आती. और जिसे यह ज़बान नहीं आती, वह अनपढ कहलाता है या कम अक्ल का. यह इस महान देश की नई बुद्धिजीवी अवधारणा है. देश की सारी बहसें ये सभी बुद्धिजीवी करते हैं और अंग्रेजी में करते हैं. इतने बडे देश में 28 संविधान मान्यता प्राप्त भाषाओं के बावजूद हमारा देश इतना दरिद्र है कि वह अपनी भाषा में बहस नहीं कर सकता, काम नहीं कर सकता, नीति नहीं बना सकता. करेगा, इसे बस योगा उअर अम्र्त्य सेन की तरह पश्चिम से आने दीजिए. यह पश्चिम का पुरस्कार है और उधर से समादृत होनेके बाद ही हम अपनों का आदर करते हैं.

हमारे महान बुद्धिजीवी देश से भारतीयता के खत्म होने की चिंता में दुबले हो रहे हैं. वे इस पर विचार करते हैं, बहस करते हैं, सेमिनार करते हैं, सभी अंग्रेजी में करते हैं, अखबारों में कॉलम दर कॉलम लिखते हैं, अंग्रेजी में लिखते हैं, मगर कहते हैं कि अंग्रेजी उनकी सभ्यता, संस्कृति को खाए जा रही है. इन बुद्धिजीवियों को यही समझ में नहीं आ रहा है कि इस समस्या से कैसे निपटा जाए, जैसे कालिदास को कहते हैं कि यह समझ में नहीं आया था कि जिस पेड की डाल पर बैठे हैं, उसे क्यों ना काटा जाए?

छम्मकछल्लो को एक कहावत याद आती है- सोए को जगाया जा सकता है, जगे हुए को कैसे जगाया जाए?” इतने बडे बडे विद्वान और बुद्धिजीवी और एक इतनी छोटी सी बात नहीं समझ पा रहे? सभी देश की अन्य तमाम भाषाओं की बात करते हैं. हिंदी से सभी भारतीय भाषाओं को खतरा है, इसलिए सभी भाषा, बोलियां अपना अपना अस्तित्व ले कर सामने आ खडी हुई हैं. अभी अभी छम्मकछल्लो ने एक बहुत बडे पत्रकार के लेख से फिर पढा. हिंदी से देश की भाषाओं को खतरा है, इसकी चिंता है, वाजिब है. वे महान नेता के कामराज का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि उन्होंने जीवन भर तमिल के अलावा एक भी शब्द अन्य भाषा के नहीं बोले, मगर वे सबसे अधिक पॉवरफुल नेता थे.

छम्मकछल्लो को यही नही समझ में आया कि पॉवर का भाषा से क्या ताल्ल्कु? छम्मकछल्लो जब पढती थी तो उसका छात्र नेता महाविद्यालय, विश्वविद्यालय के प्रतिनिधियों को बडे ठसके के साथ कहता था कि वह तो हिंदी में ही बोलेगा. समझना आपका काम है. हे प्रखर पत्रकार जी, ताकत की केवल एक ही भाषा होती है- “ताकत”.

छम्मकछल्लो ने कई फोरम में यह बात रखी कि अगर हिंदी से देश को खतरा है, अगर अंग्रेजी देश की सभ्यता, संस्कृति को खाए जा रही है तो इसका उपाय तो दीजिए. आखिर सुझाव बुद्धिजीवी ही दे सकते हैं. सभी बडे लोग यह तपाक से कहते हैं कि क्या ज़रूरत है हिंदी को सभी पर थोपने की? और अंग्रेजी? यह तो ज़रूरी है. यह ना आई तो हम विश्व से बाज़ी नहीं मार सकते. मारिए, बाज़ी. इसके लिए अगर अपना घर होम करना पडे तो कीजिए, अपनी भाषा, संस्कृति, सभ्यता को लात मारनी पडे तो मारिए. हमें यह देखना है कि हम पॉवरफुल हो रहे हैं कि नहीं? पॉवर यानी ताकत तो फिरंगी रूप रंग, वेश भूषा, हाव भाव, अकडन, जकडन, तकडन से ही आता है.

Thursday, October 28, 2010

भ्रष्टाचार का 87वां पादान और हम भारतीय महान!

आहाह! आज छम्मकछल्लो को मज़ा आ गया. यह मज़े वह होश सम्भालने के बाद से ही लेती आ रही है. यह दीगर बात है कि अब वह होश खो बैठी है. आज वह कई बांस ऊपर उछल गई, जब उसे पता चला कि हमारा प्यारा, न्यारा, महान देश भ्रष्टाचार के मामले में 87वें नम्बर पर है. इसका मतलब यह कि हम इस मामले में भी 86 देशों से पिछडे हैं. हाय रे! सारे जहां से अच्छा, सच्चा हमारा यह देश! सौ में से 90 बेईमान, फिर भी मेरा भारत महानवाले इस देश में यार! ये क्या बात हुई! कहीं भी लोग हमें आगे नहीं रहने देते. इतनी मेहनत से कॉमनवेल्थ गेम्स में एक मौका बटोरा. उस पर भी पानी फेर दिया? कितना अच्छा मौका था! मेहनत कम और रिजल्ट ज़्यादा. इंस्टैंट का ज़माना है. फटाफट. ईमानदारी में तो जिंदगी घिस जाती है, और तकदीर भी. बेईमानी की तो प्रेस, मीडिया सभी घर, रास्ते, थाने, जेल के आगे लाइन लगाए बैठे रहते हैं. भूल गए तेलगी और हर्षद मेहता को ना? बडी छोटी याददाश्त है आप सबकी भी.

छम्मकछल्लो को अभी भी याद है, अभी कुछ दिन पहले ही देश की सर्वोच्च न्याय व्यवस्था भ्रष्टाचार के सुरसा रूप पर खीझी थी. दुखी और कातर हुई थी, आम जनता की सोच कर हाल से बेहाल हुई थी. अब छम्मकछल्लो को खुशी है कि अब माननीय लोग परेशान नहीं होंगे. 86 देश हमसे आगे हैं.
इस देश के वासियो! अब आप निश्चिंत रहिए. चिंता की कोई ज़रूरत नहीं. लोग खामखा व्यवस्था को कोसते हैं. व्यवस्था में लोग व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए होते हैं. अगर आपको अपनी वसीयत अपने नाम लिखानी है. जमीन जायदाद खरीदनी बेचनी है, बच्चेका जन प्रमाणपत्र लेनाहै, राशन कार्ड बनवाना है, मसलन पता नहीं, कितने कितने काम करने करवाने हैं. हर काम का एक दस्तूर है जो बिना दस्तूरी के नहीं होता. छोटे से लेकर बडे तक की अपनी अपनी हैसियत है. आपकी नही है तो इसके लिए वे तो ज़िम्मेदार नहीं? लोग नाहक पुलिस और ट्रैफिक पुलिस को बदनाम करते हैं. ट्रैफिक पुलिस तो हमारे द्वारा ट्रैफिक नियम तोडने पर हमें पकडती है. मगर ये जो अलग अलग हैसियतदार लोग हैं, वे तो बस, “कलम से गोली” मारते हैं.

ऊंहू, इनको भी बदनाम मत कीजिए. ये आपका काम करने के लिए बैठे हैं. आपका काम कर भी रहे हैं. छम्मकछल्लो जब अपना घर बेच रही थी, तब उसे एक एजेंट ने आ पकडा. उसने कहना शुरु किया- “ये जो अफसर मैडम है ना, उनकी फीस ही साइन करने की तीन हज़ार है. वो तो मैं आपसे अढाई ही ले रहा हूं. ... वो जो बेचारा तब से आपके 36 पेज के डॉक्यूमेंट पर शुरु से आखिर पेज तक ठप्पा लगा रहा है. कितनी मेहनत कर रहा है आपके लिए? तो उसको उसकी फीस दीजियेगा कि नहीं? और ये जो मैडम है, आपकी फाइल को रिलीज करेंगी, वे खुद से कुछ नहीं लेती. मगर हमारा तो फर्ज़ बनता है कि नहीं उनको देने का. सो आप उनके ड्रॉअर में ये नोट डाल दीजियेगा. अब ये जो मैडम से साइन कराके लाया है. जानती हैं, आज मैडम कितनी बिजी हैं? ये तो अपने ये भाई हैं कि मैडम उनकी बात को कभी खारी नहीं करती. तो उसको कुछ तो दीजियेगा न? बूढा हो गया है, कहां जाएगा बेचारा! ....और अब इन सबके बाद आपको जो लगे, हमको खुशनामा दे दीजिए. हम नहीं होते तो आज आपका काम होता भी नहीं. कौन कराता? मैं आप से जो लिया है, उसमें मुश्किल से दो सौ भी मेरा नहीं बना होगा. आगे आपकी जो खुशी.”

छम्मकछल्लो का बैग खाली हो गया. मन भर गया, लोगों की काम के प्रति निष्ठा और ईमानदारी देखकर. इस बैग के बगीचे में से दसेक हजार पान, पत्ते, फल, फूल के लिए निकल गये तो क्या हुआ? सारी बागवानी आप अपने से तो नहीं कर सकते ना! तो जो करेगा, वह तो लेगा ही ना. बाग के लिए उन्हें नियुक्त किया गया है, इसी अधिकार से तो वे ले रहे हैं. कुर्सी का वह अधिकार नहीं रहता तो आप तो उसे खडे भी नहीं होने देते. इसलिए, पग पग पर पैर पुजाई देनी पडती है तो दीजिए. पैर है तो पूजना ही होगा. नहीं तो अपने पैरों को सालों इस टेबल से उस टेबल तक, इस आसन से उस आसन तक दौडाते रहिए. चप्पल भी घिस जाएगी, तलवे भी, और दिल के साथ दिमाग भी फिर जाएगा. इसलिए, अपने पैरों का ख्याल रखिए, वरना बीमार पडने पर छम्मकछल्लो को मत बताइयेगा. बीमार पडने पर इलाज के लिए जाना होगा और छम्मकछल्लो बताए देती है कि वहां भी अपने पैर और दिल को मज़बूत करके रखना होता है, वरना एक सर्दी खांसी में ही हज़ारो हजार की चपत लगते देर नहीं लगती.

अंत में आप सभी छम्मकछल्लो की तरह ही इस रामनामी चादर में डूब जाइये. डूबने से पहले सोचिए कि आप अपने तई ईमानदार रह सकते हैं, आपको घूस, दहेज नहीं लेने की छूट है. मगर देने पर आपका बस नहीं है. वैसे अपनी भारतीयता में ‘द’ यानी देने, मतलब दान का बहुत महत्व है. घूस, दहेज आदि को दान की श्रेणी में डाल दीजिए और भूल जाइए. मन हो तो कभी कभी प्रार्थना की लाइन की तरह दुहरा लीजिए-

करप्शन की लूट है, लूट सके सो लूट

अंत काल पछताएगा, जब प्राण जाएंगे छूट.

Sunday, October 10, 2010

यह “रेयरेस्ट ऑफ रेयर” क्या है जज साब?

http://mohallalive.com/2010/10/10/vibha-rani-react-on-priyadarshini-mattu-case-verdict/comment-page-1/#comment-15027

ज साब, मैं प्रियदर्शिनी मट्टू। अभी आपके जेहन से निकली नहीं होऊंगी। अभी अभी तो आपने मेरी तकदीर का निपटारा किया है। जज साब, कानून के प्रति मेरी आस्था थी, तभी तो उसकी पढ़ाई कर रही थी। चाहा था कि कानून पढ कर मैं भी लोगों को न्याय दिलाने में अपनी व्यवस्था को सहयोग दूंगी। मेरी अगाध भक्ति और श्रद्धा इस देश पर, इस देश के कानून पर, इस देश के प्रजातांत्रिक स्वरूप पर और इस देश की न्याय व्यवस्था पर है।
लेकिन अपनी तकदीर को ही दोष दूंगी जज साब कि मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। इंसान के साथ जब कुछ उसके हिसाब का नहीं हो पाता, तब वह अंतत: अपनी तकदीर को दोष दे कर चुप बैठ जाता है। मैं भी ऐसा ही कर रही हूं।
नहीं पता जज साब कि किसी केस का “रेयरेस्ट ऑफ रेयर” क्या होता है? शायद किसी काम को कोई बहुत ही क्रूर तरीके से अंजाम देना। शायद इसीलिए रेप जैसे मामले में भी “रेयरेस्ट ऑफ रेयर” की संकल्पना कर ली गयी। जज साब, क्या आपको लगता नहीं कि रेप अपने आप में “रेयरेस्ट ऑफ रेयर” है? एक ऐसा कर्म, जिसमें तन से ज्यादा मन आहत होता है, जिसकी भरपाई उम्र भर मुमकिन नहीं? मैं तो यह भी मान लेती हूं कि किसी के हाथ से खून अनजाने में हो सकता है, मगर किसी के द्वारा रेप अनजाने में किया गया हो, जज साब, मेरी छोटी सी बुद्धि में नहीं आयी आजतक यह बात। फिर, जो अपराध जान-बूझ कर किया गया हो, वह “रेयरेस्ट ऑफ रेयर” की श्रेणी में कैसे नहीं आया साब?
क्या मेरा या मुझ जैसी हजारों अभागनों का मामला तभी “रेयरेस्ट ऑफ रेयर” माना जाएगा, जब वह दरिंदगी की सारी हदें पार कर दे? मेरे या मुझ जैसियों के अंग-प्रत्‍यंग काट कर अलग अलग बिखेर दिये जाते, उन्हें पका कर किसी पार्टी में परोस दिया जाता, हमारे एक एक अंग की भरे बाजार में नीलामी होती, हमारे एक एक अंग का सौदा किया जाता, या उस पूरे घटनाचक्र की फिल्म बनाकर मंहगे दामों में बेचकर उससे घर की छत तक दौलत का अंबार लगा लिया जाता। तब तो प्रकारांतर से संदेशा जाता है लोगों तक कि ऐ इस देश के वीर वासियों, आओ, और इस देश की लड़कियों से खेलो, तनिक सावधानी के साथ, इतना तक कि उसे “रेयरेस्ट ऑफ रेयर” की श्रेणी में मत आने देना। बस, तुम काम को अंजाम देते रहो और मौज मस्ती भी करते रहो, घर परिवार भी बसाते रहो। अगर कहीं ताकतवर की औलाद हो तब तो और भी फिक्र करने की जरूरत नहीं।
जज साब, हमारी तकदीर की लाल चुन्नियां सजने के पहले ही काली पड़ गयीं। फिर भी, झुलसी नहीं थीं। अब उस काली चुन्नी को मैं खुद ही झुलसा आऊंगी।
अब मुझे उन मांओं पर कोई अफसोस नहीं, जो जन्म से पहले या जनमते ही अपनी बेटियों को मार देती हैं। मैं अपने निरीह पिता की आंखों की बेबसी देख भर पा रही हूं। मेरी काली चुनरी भी तब अगर बची रह जाती, तो शायद उनकी आंखों में एक सुकून आता। हर लड़की के मां-बाप यही कहते दुहराते मर जाते हैं कि रेप के मुजरिमों को ऐसी सख्त सजा दी जाए, ताकि अगला कोई भी इस तरह की जुर्रत करने से पहले दस बार सोचे। मगर हर बार हम ही उसे ऐसी ‘महान जुर्रत’ करने के हौसले और बहाने देते रहते हैं।
क्या मैं यह कहूं कि “जाके नाहीं फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई?” तब तो कई और लड़कियों को मेरी जैसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा और यह मैं कैसे चाह सकती हूं जज साब?
माननीय न्याय व्यवस्था पर मेरा पूरा भरोसा है, मैं उसका आदर करती हूं, तो बस जज साब, एक विनती मेरी सुन लीजिए, रेप को ही “रेयरेस्ट ऑफ रेयर” की संज्ञा दे दीजिए और हम प्रियदर्शिनी, प्रतिभा, रुचिका जैसी जाने कितनी अभागनें हैं इस धरती पर भी और इस धरती से ऊपर भी, उन्हें सुकून की एक सांस दे दीजिए। एक भरोसा तो दीजिए कि उनकी पीर को समझनेवाला भी कोई है। बाकी हम परमादरणीय न्याय और न्यायालय की आदर रेखा से अलग तो हैं नहीं।
हां, हमारे जजमेंट के दिन हमारे शहर में बारिश हुई जज साब। यह बारिश नहीं, हम अभागनों के आंसू थे। इसमें मेरे मां-बाप और हमारे शुभचिंतकों के भी सम्मिलित हैं।

Wednesday, October 6, 2010

संजीवनी देता मधुबनी का “हार्ट हॉस्पिटल”







पिछले दिनों मधुबनी जाना हुआ. पता चला कि मधुबनी के नवरतन गांव में एक “हार्ट हॉस्पिटल” खुला है, जो स्थानीय लोगों के लिए संजीवनी का काम कर रहा है. हम अपनी उत्सुकता नहीं रोक पाए और पहुंच गए “हार्ट हॉस्पिटल”. वहां जानकारी मिली कि पटना के मशहूर हार्ट स्पेशलिस्ट डॉ. ए के ठाकुर ने यह अस्पताल बनवाया है. इसके पीछे भी एक कहानी कही जाती है. डॉ. ठाकुर की मां हृदय रोग से पीडित हैं. वे मधुबनी में ही रहती हैं. इलाज के लिए उन्हें बार-बार पटना जाना पडता था. इस बार बार के आने जाने से परेशान हो कर उन्होंने अपने बेटे डॉ. ए के ठाकुर से कहा कि वे क्यों नहीं हार्ट का एक अस्पताल ही मधुबनी में बनवा देते हैं? वे बार बार पटना जाने के चक्कर से बच जाएंगी. माता के प्रति पुत्र का यह प्रेम कहें या डॉ. ए के ठाकुर के अपने विचार कि यदि ऐसा होता है तो जाने कितने लोगों को इससे मदद मिलेगी, ने इस अस्पताल को यहां जन्म दिया.

एक बीघे में इस अस्पताल का निर्माण हुआ है. प्रशासनिक व अन्य व्यवस्था दरभंगा मेडिकल कॉलेज के सेवा निवृत्त प्रोफेसर डॉ. जी सी ठाकुर कर रहे हैं. अस्पताल में हृदय जांच की सभी आरम्भिक सुविधाएं हैं. एक्स-रे, ईसीजी, आईसीयू, ऑपरेशन थिएटर से लेकर सभी कुछ की. मरीजों के लिए विशेष वार्ड भी हैं और जेनरल वार्ड भी. सबसे बडी बात है कि खुद डॉ. ए के ठाकुर सप्ताह में तीन दिन यहां आकर मरीजों को देखते हैं. इससे इस अस्पताल के प्रति लोगों का विश्वास बढा है. दूसरी और सबसे व्यावहारिक खासियत है इसकी फीस. मात्र 100/- की फीस में आप अपनी जांच करवा सकते हैं, 125/- रुपए देकर एम्बुलेंस की सुविधा ले सकते हैं. पटना की फीस का लगभग 25 से 30 %तक ही यहां लिया जाता है. डॉ. जी सी ठाकुर बताते हैं कि इस अस्पताल का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं, यहां के रोगियों की जान बचाना और उनकी मदद करना है. इसलिए नो प्रॉफिट नो लॉस के आधार पर यह अस्पताल चलाया जा रहा है. सूचना मैथिली में भी है और हिंदी में भी.

अबतक इससे कई सौ लोगों की जान बचाई जा चुकी है. अपनी भौगोलिक दूरी से मधुबनी से पटना जाने में ही लगभग सात घंटे लग जाते हैं. अगर आप गांव में हैं तो समय और लगेगा मधुबनी तक ही पहुंचने में. हृदय रोग इतना समय नहीं देता. नतीज़ा यह होता था कि पटना पहुंचने के पहले ही कई मरीज़ दूसरी दुनिया में पहुंच जाते थे. इस अस्पताल से अब यह होने लगा है कि बीमारी की आरम्भिक रोकथाम हो जाती है. अगर मरीज को एंजियोग्राफी, एंजियोप्लास्ट या बाईपास या अन्य इलाज की आवश्यकता है, तभी वह पटना जाए. उसके पहले की स्थिति तक के लिए यह अस्पताल तैयार है. अस्पताल में ही डॉक्टरों और नर्सों के रहने की व्यवस्था है. कैंटीन व्यवस्था भी यहां है.

लोग कहते हैं, यह सब प्रशासन में सुधार और व्यवस्था में सुरक्षा के कारण ऐसा हो सका है. लोगों के पास पैसे हैं, सेवा करने के भाव भी हैं, मगर भय ऐसा करने से रोक रहा था. अब वह भय खत्म हुआ है. लोग सेवा भाव से आगे बढ रहे हैं, जैसे कि यह अस्पताल. अब ज़रूरत है इस अस्पताल को युवा डॉक्टरों, सहृदयों और स्थानीय लोगों के सहयोग की. जीवन की आस का जो पौधा डॉ. ए के ठाकुर ने रोपा है, उसे परवान चढाने का.

Tuesday, October 5, 2010

बच्चे

बच्चे झुक जाते हैं, धान रोपने


बर्तन धोने, पॉलिश करने

उठते हैं जबतक कमर सीधी करने

तबतक आंखें धुंधली और बाल

सफ़ेद हो गए होते हैं

हैरत है कि बच्चे इतनी ज़ल्द तय कर लेते हैं फ़ासला

नहीं पाट पाते केवल दो इंच के मुंह और बित्ते भर के पेट

के बीच की दूरी

बच्चे बोते हैं धान के संग अपनी भी उमर

बालियां और बचपन गुम हैं खोई हुई किताबों की तरह।
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Friday, October 1, 2010

रक्त दान- दादागिरी से.


ग्रहण दान, कन्यादान, रक्तदान, यह दान, वह दान. हम भारतीय हर तरह के दान में विशवास करते हैं. रक्त दान मानवता की दिशा में एक सार्थक कदम है. १८ साल की उम्र पूरी होने पर आप भी रक्तदान कर सकते हैं. 
लगभग सभी अस्पताल्पों में रक्तदान के बारे में अपील मिल जाएगी, अलग अलग भाषा में. मगर मुम्बई के जसलोक अस्पताल के रक्तदान की एक अपील तो मारक है, आप हंसें, आप बिदकें, आप मज़े लें, आप भाषा पर तरस खाएं, मगर यह है तो है. अस्पताल का नाम आप इस अपील में पढ़ सकते हैं. छम्मक्छल्लो को तो पढ़ कर मज़ा आ गया था. आप भी मजे लें, कुछ सुझाना हो तो सुझाएँ. 

Thursday, September 30, 2010

घुटती साँसों का डर

छम्मकछल्लो डरी हुई थी. छम्मकछल्लो भरी हुई थी. यह कौन सी जगह है, यह कौन सा देश है, यह कौन सी आबोहवा है, जिसमें हवा बहरी हो जाती है, सांस थमने लगती है, जीवन की गति शिथिल होने लगती है, काम करने की सारी योजनाएं बदल जाती हैं, समय का दवाब समय को उलट पुलट कर रख देता है
आकस्मिक भय या आकस्मिक घटनाएं परेशान करती हैं, मगर पहले से अनुमानित आशंकाएं साँसों पर पहरा बिठा देती है, मन को बेचैन कर देती है. धड़कन को थाम लेती है. 
आखिर फैसला आ गया.छम्मकछल्लो वैसे भी दिमाग से कमजोर है, अक्ल से पैदल है.माननीयों के निर्णय के आगे वह नतमस्तक है.  मगर वह अपनी अक्ल का क्या करे? उसकी अक्ल में शुरू से यही बात समाती रही कि अगर कहीं कोइ बाँट  बखरा है तो उसे वहीं ख़त्म करो. जगह के बंटवारे का मसला है तो उसे सार्वजनिक कर दो, स्कूल, अस्पताल, पार्क बना दो. इन जगहों पर सभी कोइ समान भाव से आते हैं. आखिर किसी निजी संपत्ति का मसला तो है नहीं. 
छम्मकछल्लो ने अपनी मंशा ज़ाहिर की. उसे कहा गया कि ऐसा हो सकता है, मगर होगा नहीं. 
छम्मकछल्लो को पता नहीं कि क्या होगा? आप ही बताएं. पागल मन अभी भी डरा हुआ है. ये दिल, ये पागल दिल मेरा!  


 . 

Thursday, September 2, 2010

chhammakchhallo kahis: परम्परा की लूट है, लूट सके सो लूट!

chhammakchhallo kahis: परम्परा की लूट है, लूट सके सो लूट!: "छ्म्मकछल्लो को अपने देश के रीति रिवाज़ पर बडा नाज है. जब अपने लोगों को इस रीति नीति के पालन में तत्परता से जुटे देखती है तब उसका दिल बाग-बाग ..."

परम्परा की लूट है, लूट सके सो लूट!

छ्म्मकछल्लो को अपने देश के रीति रिवाज़ पर बडा नाज है. जब अपने लोगों को इस रीति नीति के पालन में तत्परता से जुटे देखती है तब उसका दिल बाग-बाग होने लगता है. आजकल बाग-बाग बोलने में खतरा है, क्योंकि बाग में हरियाली होती है. हरा रंग धरती के सुख समृद्धि का प्रतीक था. मगर अब यह केवल रंग हो गया है. रंग को भी एक खास सम्प्रदाय से जोड दिया गया है. पहले छ्म्मकछल्लो गाती थी- कुसुम रंग साडी, साडी में गोटा लगी. कुसुम रंग का अर्थ केसरिया, चम्पई होता है. राजस्थान में लोग गाते हैं- ‘केसरिया बालमा, पधारो म्हारो देश रे.” अब कुसुम, केसर या चम्पई बोलने में बडा खतरा है. वैसे ही बाग-बाग बोलने में. कब कौन आकर आपको देशद्रोही ठहरा दे, इसका कोई भरोसा नहीं.

देश से, देश की परमपरा से प्रेम करने के अपने तरीके हैं. ढेर सारे. जैसे आज से कोई पचीस साल पहले बिहार में एक परम्परा ने जन्म ले लिया था- पकडौआ विवाह की परम्परा. दहेज के अतिरेक ने कम पैसेवाले बेटीवालों को मज़बूर कर दिया था अच्छे विवाह योग्य वर का अपहरण करके जबरन उसकी शादी करवा देने का. बाद में उसके दुष्परिणाम सामने आने पर धीरे धीरे वह परम्परा खत्म सी हो गई. अभी रोमेन झा ने उस पर एक फिल्म भी बना दी- “अंतर्द्वंद्व”. किसका और कैसा “अंतर्द्वंद्व”., यह फिल्म देखकर आपको पता चलेगा. फिल्म में तो लिख दिया गया कि यह एक सच्ची कहानी पर आधारित है. मगर यह बताना ज़रूरी नहीं समझा गया कि अब यह परम्परा इतिहास का हिस्सा हो गई है. ‘कांजीवरम”’ फिल्म भी सच्चाई पर आधारित है, मगर इसके साथ घटना के काल, पात्र समय सभी का विवरण है और यह भी कि कब इस प्रथा का उन्मूलन हुआ. पकडौआ विवाह की परम्परा भले ही आज की घटना लगे, मगर है तो अब बीती बात. इसे फिल्मकार दिखा सकते थे. न बताने का खामियाजा बिहार को इस रूप में भोगना पडेगा कि बिहार से अलग राज्य और देश के लोग यही समझेंगे कि बिहार में अभी भी वैसी परम्परा है. चेन्नै के हॉल में इस फिल्म को देखते हुए छम्मकछल्लो ने महसूस किया. यानी वैसे ही बिहार को बढिया नाम देने से हम चूकते नहीं हैं, अब उस खाज में एक खुजली यह भी. प्रवेश भारद्वाज ने भी इस विषय पर एक फिल्म बनाई है ”’नियति’”. छ्म्मकछल्लो ने भी इस पर एक कहानी लिखी थी बरसो पहले, जो तब के मुंबई जनसत्ता के ‘सबरंग’ में छपी थी. उसे फिर कभी आपके सामने परोसा जाएगा. लोग कहते हैं, फिल्मकार ज़्यादा तेज हैं, हम कहते हैं, लेखक अधिक. तभी तो आपने देखा कि जिस जिगोलो पर छ्म्मकछल्लो की कहानी तीन साल पहले छप चुकी थी, उस जिगोलो पर रिपोर्ट टीवीवाले आज दे रहे हैं. जिस पकडौआ विवाह पर दस साल पहले कहानी लिख दी गई थी, उस पर आज फिल्म बनी और रष्ट्रीय पुरस्कार पा भी गई. छम्मकछल्लो के साथ तो और भी अजब गजब हो जाता है. उसने छम्मकछल्लोकहिस नाम से ब्लॉग कई साल पहले से चलाया तो ‘देव डी’ में अनुराग कश्यप ने अपनी हीरोइन की चैट ही छम्मकछल्लो के नाम से करवा दी.

यह सब परम्परा है, बौद्धिक परम्परा की अमानतदारी, खयानतदारी हमेशा रहती है जारी. इसलिए छम्मकछल्लो अपने देश की इन सभी परम्पराओं पर नाज़ करती है.

एक परम्परा है, किताबें ले कर दो मत. लौटा ही दिया तो बुद्धिजीवी क्या कहलाए? आज ही छम्मकछल्लो अपने एक सहयोगी से कह रही थी कि किताबें लौटाने के लिए थोडे ना होती हैं. दरअसल वे छम्मकछल्लो की पत्रिका देर से लौटाने के लिए उससे क्षमा मांग रहे थे. वे अच्छे हैं, बेहद अच्छे, मगर अभी तक वे बुद्धिजीवी के स्तर तक नहीं पहुंच सके, इसलिए पत्रिका व किताब दोनों ही लौटा दी.

अपनी एक और परम्परा है, अपना घर साफ हो, गली हमारी थोडे ही है. इस परम्परा का हम जी भर कर पालन करते हैं. अपनी चीज़ हो तो खूब हिफाज़त से रखते हैं, दूसरे की चीज़ पर कैसी मरव्वत? सारा प्रयोग उस पर कीजिए. आपको पूरी छूट है.

वैसी ही एक परम्परा है, अपनी बहन बीबी को घर के अंदर रखिए, मगर दूसरों की बहन बीबी पर अपना पूरा अधिकार जताइए. अपने लिए सीता जैसी बीबी चाहिए, मगर तितली जैसी हसीना पर दिल फिर से बाग-बाग हो जाता है. ओए जी, मेरी रक्षा करना आप पाठको, दिल बार बार बाग-बाग हुआ जा रहा है. अब अपनी परम्पराएं हैं ही ऐसी. तितलियों पर भंवरे की तरह उडनेवाले देश के सच्चे वीर बांकुरों से ज़रा आप पूछकर देखिए कि क्या वे इस तितली को जीवन संगिनी बनाएंगे तो वे ऐसे छूटेंगे जैसे किसी ने जबरन उसी तितली से इनको राखी बंधवा दी हो.

एक परम्परा है, स्त्रियों को हमेशा अपने से कम करके आंको. सामंती सोच की यह धार अभी तक नहीं मिटी है, भले देश 64 साल पहले आज़ाद हो गया. बेटियों को पुश्तैनी ज़मीन में हिस्सा मत दो, भले इसके लिए कानून बन गए हैं. दहेज के नाम पर चाहे जितनी बलि ले लो, कानून के रखवाले आपका कुछ भी नहीं बिगाड सकते. चाहे तो कोई कोरे कागज़ पे मुझसे करा ले सही.

ये सब हमारे देश की कुछ महान परम्पराएं हैं. हम इनके बर-अक्स कुछ भी करना पसंद नहीं करते. करेंगे तो हमारी परम्परा, हमारी संस्कृति खाक में न मिल जाएगी? आखिर हम क्या देंगे अपनी अगली पीढी को? हरी भरी धरती, साफ पानी, साफ हवा, प्रदूषण रहित वातावरण,प्रेम करने, समझने की आज़ादी, स्वस्थ भोजन, खुला आसमान- यह सब कुछ तो दे नहीं सकते. तो यही कुछ चंद परम्पराएं दे आएं? आखिर देने का कुछ तो धर्म निभाएं ना हम परम्परावाले भी.

Wednesday, September 1, 2010

तुम भूल न जाना थूकने को.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. तुम यह मत देखो कि जगह कितनी साफ है, बल्कि यही देखो कि जगह कितनी साफ है और उसे अपने महान थूक से और भी थूकीकृत कर दो.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. तुम यह मत देखो कि तुम्हारे थूकने से जगह गंदी होती है. ये मुंसीपालटीवाले आखिर हैं किसलिए? पगार पाते हैं कि नहीं ये सब के सब हरामखोर? इन्हें रखा किसलिए गया है? साफ सफाई के लिए ना! तो जब हम थूकेंगे नहीं तो जगह गंदी कैसे होगी? जगह गंदी नहीं होगी तो फिर सफाई कैसे होगी? सफाई नहीं होगी तो उनकी नौकरी जस्टीफाई कैसे होगी? जस्टीफाई नहीं होगी, फिर तो छंटनी करनी पड जाएगी ना कामगारों की. और आप तो साहब जानते हैं कि आजकल वैसे ही नौकरी के लाले पडे हुए हैं. ठेकेदार, नौकरीदार सब एक न एक बहाने से लोगों की काम पर से छुट्टी कर रहे हैं. अब तुमने थूकने से भी छुटी कर दी तो इनकी नौकरी चली नहीं जाएगी? इसलिए इनकी नौकरी बचाने के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो ये निकम्मे मुंसीपाल्टीवाले काम नहीं करेंगे. बैठे बैठे खाने से इनकी देह पर धूल जम जम कर बडी बडी तोंद और मोटी मोटी चमडी में बदलती जाएगी. इससे इनकी सेहत पर बडा खतरा आयेगा. आजकल तो इंशुरेंसवाले भी बडी ढीलमढील चलने लगे हैं हेल्थ इंश्योरेंस के मामले में. तो काम नहीं करने से ये बीमार पडेंगे. ठीक से इंश्योरेंस नहीं हुआ तो घर के पैसे दवा दारू में भस्म होने लगेंगे. दारू तो फिर भी ठीक है, इससे मन को, तन को किक मिलती है, मगर दवा पर पैसे? लाहौल विला कूवत. इसलिए लोगों की सेहत बुलंद रखने के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो लोगों को कैसे पता चलेगा कि हमारे अंदर कितनी बडी बडी ताकतें छुपी हैं. एक ताकत तो थूक कर किसी को बेइज़्ज़त करने की है. लोग मुंह पर थूक देते हैं. एक ताकत शान जताने की है. कई लोग शान से कहते हैं कि वे तो उसके दरवाज़े थूकने भी नहीं जाएंगे. एक ताकत है अपने अहम के प्रदर्शन की. कई लोग कहते हैं कि वे उनकी चीज़ लेंगे? उनके मुंह पर थूक ना देंगे लेने से पहले? भाई लोग बडे बडे तालिबानी रास्ता अपनाते हैं बदला लेने का. देखिए अपने यहां कितना शुद्ध शाकाहारी तरीका है बदला लेने का. ना कोई खून ना कोई कत्ल. बस थूको और बदला ले लो. बदला लेने के इस सस्ते, सुलभ और शाकाहारी तरीके के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो पता कैसे चलेगा कि हमारे मुंह के अंदर ही कितना धन छुपा है. कम्बख्त न जाने कौन कौन से देश हैं जो सडक और सार्वजनिक स्थानों पर थूकनेवाली अपनी जनता पर जुर्माने ठोक देती है. इस हिसाब से तो हम लाखों करोडों का रोजाना थूक देते हैं. सरकार की वित्त व्यवस्था को हमारी इस थूक सम्पदा पर गर्व करना चाहिए और अपने बजट में इस सम्पदा से आय का भी प्रावधान कर देना चाहिए. सरकार की आय बढाने के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो गंदगी नहीं फैलेगी. इससे बीमारियों के कीडे मकोडों पर कितना संकट आ जाएगा? हमारा देश तो अहिंसा का हिमायती है ना? संकट सिर्फ इन कीडों मकोडों पर ही नहीं, इस बहाने से इस देश की चिकित्सा व्यवस्था पर भी मुसीबत आ जाएगी. डॉक्टर, कम्पाउंडर, नर्स, नर्सिंग होम, अस्पताल, दवाइयां सभी के धंधे चलने चहिए कि नहीं? इनके धंधे बंद होंगे तो देश के बेरोजगारी में फिर से कितना इज़ाफा हो जाएगा, लभी सोचा भी है? इसलिए, देश के बीमारों का इलाज करनेवालों को बेरोजगारी से बचाने के लिए और देश मेके कीडों मकोडों की सुरक्षा के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो देश की कई- कई स्वयंसेवी संस्थाओं का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा. ये संस्थाएं, स्वास्थ्य, जनता, गरीब और पता नहीं किन किन मुद्दों पर लोगों का ध्यान आकर्षित करती रहती हैं. इनसे मुद्दों को वहीं जस का तस बने रहने में मदद मिलती है, मगर संस्थाओं का उन्नयन होता चला जाता है. इन संस्थाओं के ऊन्नयन के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो हमारे देश की थूकने और थूक कर जगह लाल कर देने की सबसे बडी परम्परा का निर्वाह नहीं हो पाएगा. लोग सफेद थूक फेंकते हैं, जिसका कोई रंग नहीं होता. यह फिर दिखता नहीं. इसी दिखने के पीछे तो दुनिया तबाह है. इसलिए अपनी थूक दिखाने के लिए हम पान का इस्तेमाल करते हैं. ‘ये लाल रंग, कभी नहीं छोडेगा. पान की बिक्री भी रोजगार से जुडी हुई है. मेंहदी भी लाल रंग छोडती है, मगर वह यह कभी नहीं कहती कि लाल रंग छोडने के लिए वह घरों, दफ्तरों की दीवारें रंगेगी या सडक को लाल कर देगी. गनीमत है कि ये सिर्फ पान की लाली से सडक को रंगने की बात कर रहे हैं, खून की लाली से नहीं. इसलिए जन कल्याण और जीवन रक्षा के लिए पान खा खा कर हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो इस देश के सभी धर्मों के देवताओं को भी रोजगार मिलना बंद हो जाएगा. आपने देखा है ना कि लोगों के थूकने की इस कला से कुछ नासपीटे लोग खब्त खा खा कर घरों, दफ्तरों की दीवारों पर भगवानवाली टाइल्स चिपका देते हैं. यहीं और सिर्फ यहीं पर सर्व धर्म सम भाव दिख जाता है. राम, शिव, साईंबाबा, गुरु नानक देव, सभी, मतलब सभी. अब राम पर थूकोगे तो गुरु नानक देव पर भी छींटा गिरेगा, ईशू मसीह पर थूकोगे तो मक्का मदीना पर भी थूक की फुहारें पडेंगी. इसलिए, कोई किसी पर नहीं थूकता. जगह भी साफ, साम्प्रदायिक सद्भावकी भी स्थापना और देवी देवताओं को रोजगार भी. स्वर्ग में बैठे बैठे अपनी देह पर जंग लगा रहे थे. बिना काम धंधे के इन्हें रोज छप्पन भोग चाहिये. बहुत तंगी का ज़माना है भाई. बच्चे लोग बडे होने तक मा-बाप का खाते हैं, बुढापे में जब उन्हें खिलाने की बात आती है तो वे बोझ हो जाते हैं. मा-बाप ने खिलाया, तब भी बदले में खिलाने के लिए बच्चों के पास पैसे नहीं हैं, और तुम तो भगवान हो. रोज रोज बिना काम के कैसे खिलाएं भाई? इसलिए, भगवान को रोजगार देने के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको और जी भर कर थूको.

इसके बावज़ूद अगर आपमें से कुछ भले मानुसों की मति फिर गई हुई हो और वे थूकने से सकुचा रहे हों तो उनके लिए छम्मकछल्लो का यह स्नेह भरा आमंत्रण है, ठुकराइयेगा मत, प्लीज़!!!!!!!!!

“भेज रही हूं नेह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें थुकाने को,

हे मानस के राजहंस, तुम भूल न जाना थूकने को.”

Wednesday, August 25, 2010

आंटी मत कहो ना.

जिगोलो पर पिछले हफ्ते एक टीवी चैनल ने स्टोरी की थी. जिगोलो को सीधे शब्दों में पुरुष वेश्यावृत्ति कह सकते हैं. छम्मकछाल्लो को 4 साल पहले इसी विषय पर लिखी अपनी एक काहनी याद आई- "ला ड्रीम लैंड". यह कहानी 'हंस' के सितम्बर, 2007 के अंक में छपी थी. बाद में इसे रेमाधव पब्लिकेशन से छपे मेरे कथा संग्रह "इसी देश के इसी शहर में" संकलित भी किया गया. इसे आपके लिए नीचे दिया भी जा रहा है. देखिए 3 साल पहले की छपी कहानी पर आज की रिपोर्ट.
जिगोलो हो या वेश्यावृत्ति, यह धंधा निंदनीय है तो है. इसपर कोई दो राय नहीं. मगर जब महिलाओं की वृत्ति या प्रवृत्ति  के बारे में कुछ कहा जाता है तो नज़रिया बडा संकुचित हो जाता है. उस पूरी स्टोरी में एंकर महोदय महिलाओं के बारे में "ये आंटियां" ही बोलते रहे. क्या ऐसा हुआ है कि जब वेश्यावृत्ति पर री बनी हो तो एंकर महोदय ने 'ये बुड्ढे' या 'ये अंकल' कहा हो. आप कथा कह रहे हैं तो तटस्थ होकर कहिये ना. दर्शकों पर छोड दीजिए कि वे क्या कहना पसंद करेंगे. महिलाओं के साथ यह पूर्वाग्रह वैसे ही रहता है. किसी स्त्री ने यदि अपने प्रेमी या पति का तथाकथित खून कर दिया तो देखिए एंकर की ज़बान! बिना कोर्ट के फैसले के ही उसे हत्यारिन, कुलटा, दुश्चरित्रा और जितने भी ऐसे विशेषण हों, सभी से उसे विभूषित कर दिया जाता है.महोदय, ज़रा अपनी ज़बान पर लगाम दीजिए. माना कि हम आंटी हो गए तो इसका यह तो मतलब नहीं कि आप सारे समय आंटी आंटी की माला फेरते रहेंगे और हमें उम्र का इतना शदीद अहसास दिलाते रहेंगे कि हम उम्र के आगे कुछ सोचना समझना ही बंद कर दें?


सपनों की एक दुनिया है। सपनों की एक धड़कन है। सपनों की एक आहट है। सपनों की एक चाहत है। सपने, सपने नहीं हो सकते, गर जिंदगी में हक़ीकत न हो। हक़ीकत, हक़ीकत नहीं रह सकती, गर सपनों की सरज़मीन न हो। ख्वाब और हक़ीकत, गोया एक सिक्के के दो पहलू, जैसे दूध-शक्कर, जैसे सूरज - धूप, जैसे चांद - चांदनी। एक नहीं तो दूजा भी नहीं।

ज़मीन चाहिए हक़ीकत के लिए - भले ही पथरीली हो, खुरदरी हो, सख्त, ठंढी और बेजान हो। ज़मीन सपनों के लिए भी चाहिए - सब्ज़, खुशबूदार, रंगीन, खुशमिजाज और ज़न्नत जैसी हसीन। जमीन सख्त, खुरदरी और पथरीली भी हो सकती है। लेकिन कौन चाहेगा कि सपने में भी ऐसी ही जमीन मिले?

इन्हीं रंगीन, हसीन, खुशगवार सपनों की तिजारत में लगे हुए हैं सभी - आओ, आओ, देखो, देखो - हम व्यौपारी हैं, सपनों के किसान - सपनों की खेती करते हैं, भावों, इच्छाओं और आवेगों के बीज, खाद, पानी डालते हैं। सपनों की फसल लहलहाती है तो अहा, कितना अच्छा लगता है!

सपने और सपनों की तिज़ारत - ला ड्रीमलैंड। सपनों की सरजमीन - ला ड्रीमलैंड। सपनों की खेती - ला ड्रीमलैंड। रंग-बिरंगी, चमकदार रोशनियों का बहता सैलाब, तैरती रंगीनियां - कहकशां उफान पर, महफिल शबाब पर। तेज संगीत का बहता दरिया - फास्ट, फास्ट, और फास्ट। गति धीमी पड़ी तो सपने टूट जाएंगे, उत्तेजना बिखर जाएगी, धड़कनें थम जाएंगी, जीवन रूक जाएगा... नहीं, यह रिस्क नहीं लिया जा सकता - जीवन के रूकने का खतरा - ऊँहूँ!

मेघ शब्द बन-बनकर गरजते हैं - आह... हा... हूह... की बारिश में सभी तर-ब-तर है -'ओह गॉड! आ' विल डाइ। डोंट लेट मी अलोन। आ' विल डाइ चेतन। चेतन, कम टू मी, कम टू मी माई जान, माई डार्लिंग... माई बास्टर्ड।'

शब्द अवचेतन से चेतन में निकलकर फिजां में खो जाते हैं। तेज शोर के बीच गुम हो जाते हैं, भीड़ में अकेले छूट गए बच्चे की तरह। चेतन उन शब्दों से परे हटने की कोशिश करता है। वह अवचेतन में है, अवचेतन में ही बने रहना चाहता है। उसके जिस्म में हरक़त है, जिसमें मन साथ नहीं देता। बेमन की हरक़त। बिजली की तेजी से नाचता उसका जिस्म और उससे भी तेज गति से भागकर कहीं और जा पहुंचता उसका मन - फ़ास्ट, फास्ट और फास्ट... कम, बास्टर्ड कम, हग मी, किस मी, फ़क मी।

सुन्दर, जवान चेतन। शरीर से सौष्ठव फूटता हुआ। कसा हुआ जिस्म। बाँहों की फड़कती मछलियाँ। होठों के कोनों पर मुस्कान। ऑंखों में आमंत्रण के अटूट तार। रस्सी सा लहराता, बलखाता बदन। वह सबका चहेता है। उसके घुसते ही हॉल मदहोश चीख-पुकार से भर उठता है। हॉल की रोशनी मध्दम पड़ जाती है। औरतें, लड़कियाँ सभी उसे अपने में भर लेने को बेताब हो उठती हैं। चीख-पुकार, आह-ओह, हूह की चीख-पुकार मचाते उनके चेहरे। कोई-कोई तो बेहोश हो जाती हैं - वेटर उन्हें उठाकर उनके कमरे या कार में छोड़ आते हैं। होश में आने पर फिर वे भागती है - चेतन, चेतन, व्हेयर आर यू? डोंट लीव मी अलोन माई जान। आ विल डाइ। प्लीज, चेतन, प्लीज।

कोई उसे अपनी बाँहों में जकड़ लेती है - 'यू आर माइन। यू आर ऑनली फॉर मी। कोई और देखेगा तुम्हारी तरफ तो आ विल किल दैड ब्लडी बिच!'

दूसरी औंरतें, लड़कियाँ इसे सह नहीं पातीं।र् ईष्या से वे सब की सब अंगारा हो जाती हैं - लाल-लाल अंगारे, लाल-लाल भड़कीले, चमकीले कपड़े, लाल-भड़कती तेज रोशनी, लाल चेहरे। हॉल की रोशनी और धीमी हो जाती है। सभी औरतें-लड़कियाँ उस लड़की पर टूट पड़ती है - ब्लडी बिच होगी तू, तेरी माँ। वे सब नागन की तरह फुफकारती हैं। नागन की तरह दंश मारती हैं। चेतन नीला पड़ जाता है। नीला, बेहद नीला।

'तुम दिन की डयूटी क्यों नहीं ले लेते?' नीला चिढ़कर, रूठकर, तंग आकर कहती है।

चेतन के नीले पड़े शरीर में हवा की गुलाबी खनक और रंगत घुलने लगती है। जबरन चौड़े किए हुए होठ अब स्वाभाविक रूप में फैलते हैं। हाथ के मशीनी दवाब अपनी कोमल और प्यारी छुवन से भर उठते हैं। नीला की हथेली उसकी दोनों हथेलियों के बीच है और मन के भीतर नीला खुद। नीला चिढ़ती है, 'बोलो न, दिन की डयूटी क्यों नहीं ले लेते?'

'नहीं ले सकता।'

'क्यों?'

'मिलेगी नहीं।'

'पर क्यों?'

'मजबूरी है।'

'कैसी मजबूरी है।'

'मैनेजमेंट की। सिस्टम की। फ़ैसला है मैनेजमेंट का कि अधेड़ और बूढ़े दिन की डयूटी करेंगे और यंग ब्लड नाइट शिफ्ट में। रात में कस्टमर्स ज्यादा होते हैं। यंग बल्ड ज्यादा देर तक खड़े रह सकते हैं, ज्यादा भागदौड़ कर सकते हैं, दिन में बिजनेस क्लास आता है, बिजनेस डील करने। रात में लोग दिन की थकान उतारने आते हैं। यंग फेस उन्हें सुकून पहुँचाते हैं, उनके भीतर खुद के जवान हो जाने का अहसास दिलाते हैं।'

'कहाँ से सीख लीं इतनी बातें? तुम तो इतने बातूनी नहीं थे। रात के कस्टमर्स ने सिखा दिया क्या?' नीला चिढ़ाती है, मुस्कुराती है। उसके मुस्काने से पेड़ पर बैठी चिड़ियाँ चूँ-चूँ कर कोई गीत गाने लगती हैं।

'यह मेरी बात नहीं, मैंनेजमेंट का लेसन है। ट्रेनिंग का हिस्सा।'

'शादी के बाद भी तुम यूँ ही नाइट डयूटी करते रहोगे?' नीला का दिल डूबने लगता है। चेतन उसके हाथों का सर्दपन महसूस करता है और अपनी हथेलियों का दवाब बढ़ा देता है।

'तब की तब...' वह टालना चाहता है।

'मुझे तुम्हारे अधेड़ होने तक इंतजार...' नीला का दुख चेहरे पर उभर आता है।

'अभी से क्यों इतना सोचती हो?' सिनेमा हॉल की रोशनी जग जाती है। चेतन नीला का हाथ छोड़ देता है। नीला ने कौन सी फिल्म देखी? याद नहीं। हाँ याद आया, अपने जीवन की, अपने सपनों की। सपनों का जीवन, जीवन का सपना - ला ड्रीमलैंड।

नीला नागन नहीं बन सकती। नागन का उसे पता नहीं। उसने तो बस तस्वीरों, सिनेमाओं और टोकरों में कुंडली मारे बैठे साँप ही देखे हैं। पता नहीं, नाग होते हैं या नागन। उसे साँप देखकर डर लगता है। भय से उसका बदन झुरझुरा जाता है। वह मारे डर के चुहिया बन जाती है। चेतन के आने पर वह नन्हीं चुहिया से मुस्कुराते फूल में तब्दील हो जाती है। चेतन का मन करता है, उस फूल को हथेली में भर ले। उसे सूँघे, उसकी खुशबू में अपने को खो दे। उस सुगंध में सराबोर वह जोर-जोर से पुकारे - नीला, नीला... नीला... इतने जोर से कि पूरे ब्रह्मांड में नीला फैल जाए। वह चाहता है, नीला नीले आसमान की तरह एक अनंत आकाश बन जाए और अपनी नीली चादर में उसे छुपा ले... हाँ नीला हाँ, देखो, मेरा बदन कैसा नीला पड़ गया ह,ै उन नागिनों के दंश झेल-झेलकर...मगर दिखाऊं कैसे? यही तो फ़र्क़ है, सपने और हक़ीक़त में।

नागनों का जोश ठंढा पड़ता है - शराब का नशा, बदन को झकझोर कर रख देनेवाला तेज डाँस, देह को चूर-चूर कर, पीस-पीसकर रख देनेवाला चेतन का साथ... फक मी बास्टर्ड, फक मी... ड्राइवरों और उनके साथ गाड़ी में बैठी आयाएं बाहर निकलती है। उन्हें दुलार कर, पुचकार कर, उठा-पुठाकर लाती हैं। गाड़ी में लिटा देती हैं - उन्हें संभालते हुए, उनके कपड़े संभालते हुए... वे बड़बड़ाती हैं, हरामजादी सब, एक बित्ते का चिथड़ा लटका के घूमेंगी और वो चिथड़ा भी ठीक से बदन पर नहीं रहने देंगी। नाचो न फिर नंगे होकर ही... वे उनके बदन से छूट गए, खिसक आए चिथड़ों को फ़िर से उनके बदन पर सजाती हैं... नागनें मदहोशी में चिल्लाती है - चेतन... चेतन... किल मी चेतन... माई जान... माई बास्टर्ड.... फक मी... कम ऑन, फक मी...

चेतन कभी खुले में नहीं नहाता... कॉमन संडास तो ठीक है... मगर खुले नल के नीचे?... आजू-बाजूवाले छेड़ते हैं... साला, छोकरी है क्या रे तू? एक बोलता है, अरे स्टेंडर मेन्टेन कर रहेला है। साब हो गएला है न। फाइव स्टार में काम करता है बाप! एक बोलता है, 'ऐ चेतन, अपुन को भी ले चल न वहाँ। दिखा दे न रे फाइव स्टार का मस्ती... क्या सान-पट्टी होता होएंगा न रे...'

'पण तू करता क्या रे वहाँ?'

'हॉल मैंनेजर हूँ।'

'वो क्या होता है?'

'पूरा हॉल मेरे कब्जे में होता है। वहाँ आए हर कस्टमर का ख्याल रखना होता है। एक भी कस्टमर नाराज हुआ तो अपना बैंड बज जाता है।'

'फिर तो भोत टेंसन वाला काम है रे बाप! अपुन से तो ये सब नईं होने का। अपुन को तो कोई एक बोलेगा तो अपुन उसकू देंगा चार जमा के... इधर... एकदम पिछाड़ी में... साले, समझता क्या है मेरे को तू, तेरा औरत का यार...'

चेतन नहाने का पानी लेकर अंदर आ जाता है। पहले छोटा आईना था। अब आलमारी में ही आदमकद आईना लगवा लिया है। दरवाजा बंद करके, बत्ती जला के वह बदन का कोना-कोना देखता है... खराशें, जगह-जगह, कहीं हल्की, कहीं गहरी... कहीं सूखकर काला पड़ गया खून, कहीं नाखूनों से नोचे जाने के लाल-लाल निशान, दाँतों से काटे जाने के बड़े-बड़े चकत्ते...

नीला की ऑंखों में ढेर सारे सपने हैं... अभी तो वह काम कर रही है। चार पैसे जमाहो जाएंगे तो गृहस्थी की चीजें जुटाने में मदद मिलेगी... चेतन भी तो इत्ती मेहनत करता है... ज्यादा पैसे जमा हुए तो दो-एक कमरे का फ्लैट... जिंदगी इस एक आठ बाई दस की खोली में कट गई... वहीं माँ-बाप, वहीं भाई-भाभी... कोई कितना बचाव करे? चाहकर भी भाई-भाभी अपनी तेज साँसों की आवाज नहीं दबा पाते। चाहकर भी नीला सो नहीं पाती। उसकी भी साँसें तेज होती हैं। उसका मन करता है, भागकर चेतन के पास पहुंच जाए... वह ख्यालों की हवा में उड़ती-उड़ती चेतन के पास पहुंच जाती है - 'ले चलो न मुझे भी अपने होटल में। एक रूम ले लेना थोड़ी देर के लिए... तुम्हारी तो पहचान के होंगे सब...'

चेतन काँप जाता है। ख्वाब दरकते, ढहते महसूस होने लगते हैं... नीला जिस दिन देखेगी, ये दाग, यें खराशें, शिथिल पड़ी यह देह... सपनों का महल बनने से पहले ही भरभराकर टूट जाएगा... वह देखता है... भूकंप में गिर रहे मकानों की तरह गिर रही हैं उसके सपनों के महल की मीनारें, गुंबद, दीवारें... नहीं नीला, क्या करोगी होटल में जाकर। थोड़ा और सब्र करो। मैं दूसरी नौकरी की तलाश में हूँ। मिलते ही इसे छोड़ दूँगा। नहीं होता मुझसे अब यह सब...

'क्या सब्र?' नीला अभी भी सपनों की नदी में तैर रही है, मछली की तरह। मछली जैसी ऑंखें में मछली जैसी ही चपलता भरकर पूछती है। होठों के कोनों पर शरारती मुस्कान का दूजी चाँद तिरछे लटक गया है।

'यही, रात की नौकरी।' नीला के होठों के दूज के चाँद से बेखबर अपनी ही अमावस में घिरा चेतन कहता है -'देखो न, कहीं घूमने-फिरने भी नहीं जा सकते हम लोग। कोई एक शाम तक तुम्हारे साथ नहीं बिता सकता। एक फिल्म देखने नहीं जा सकते हम।'

'क्या हो गया अगर यह सब नहीं हो पाता है तो।' नीला दिलासे की ओढ़नी तले उसे ढँक देती है- 'हम कौन सा बूढ़े हुए जा रहे हैं अभी। ओढ़नी तले कोमल-कोमल, नन्हें-नन्हें बिरवे जैसी अभिलाषाएं उसे सहलाती है - 'मन जवान तो तन जवान। कुछ दिनों की ही तो बात है। जब तुम्हें दूसरी नौकरी मिल जाएगी या यहीं पर दिन की शिफ्ट... सारी मुश्किलें आसान हो जाएंगी।'

नहीं होगा न नीला। मुश्किलों का कोई ओर-छोर नहीं है। जाने कितने धागे, कितने छोर-सब उलझे-पुलझे... एक ओर घर का अंधेरा, अंधेरे में फूटते माँ-बाप के सपने, नीला के अरमान, उसके हौसले... दूसरी ओर थिरकती, नाचती, बलखाती कृत्रिम दुनिया, मध्दम पड़ती रोशनी, उत्तेजित होती सीत्कारें, शांत पड़ता चेतन। इन सबसे लड़ते-भिड़ते, अपने को बचाने की जद्दोजहद में चेतन... दिल से, दिमाग से... उसका मन पुकार पुकार उठता है - नीला, तुम कहाँ हो नीला, मुझे बचा लो, वरना मैं मर जाऊँगा, नीला... नीला... नीला ....

मां, बाप, नीला, चेतन- सबके सपने एक-दूसरे में अनायास घुसने लग गए... सपनों के बीज माँ-बाप ने बोए थे... तोते की तरह एक ही रट लगाई थी -'पढ़ोगे, लिखोगे, बनोगे नवाब, खेलोगे, कूदोगे, होगे खराब।' अच्छे और खराब की इस साफ और स्पष्ट परिभाषा में उसकी कबड्डी, वॉलीबॉल, फुटबॉल सब मर गए। रह गई केवल और केवल पढ़ाई, परीक्षा, रिजल्ट और सत्यनारायण भगवान की पूजा। लोगों की शाबाशियां चेतन को भातीं। उसके सपनों के महल में एक और फानूस लग जाता।

मगर आज? सवालों के बीहड़ जंगल में वह भटकता है - क्या सपने देखना गुनाह है? माँ-बाउजी ने कोई अपराध किया, जो उसके मन में भी सपनों की एक नींव चुपके से रख दी, जिस पर साल दर साल तरह-तरह के रिजल्टों की ईंट, गारा, सीमेंट, चूना डालकर, कंक्रीट बिछाकर, तस्वीर सजाकर उसने एक महल खड़ा किया था? लेकिन अब उस सुन्न पड़े महल का वह क्या करे? कहाँ से उसमें सुख-सुविधाओं के हीरे-मोती जड़े, तख्ते ताऊस बिछाए और झाड़-फानूस लगाए?

हक़ीकत अपने कारूं का सख्त, खुरदरा पहरा लेकर सामने है और चेतन को चेता रही है - इस देश के संविधान में सपने देखने का कोई प्रावधान नहीं है, और इस प्रावधान के बिना जो ऐसा करता है, उसे उसके इस संगीन जुर्म के लिए कड़ी से कड़ी सजा दी जाती है। ना... ना, सजाए मौत नहीं। रोज-रोज के सपने, रोज-रोज की मौत - अ डेथ ऑफ द ड्रीम, अ डेथ ऑफ अ पर्सन! रोज-रोज की मौत के लिए रोज-रोज की जिंदगी भी, मगर ऐसी, जिसका हमराज़, जिसका राज़दार किसी को बनाते हुए तुम्हारी रूह तक काँपे। हाँ, यही है सपने देखने की तुम्हारी सजा, तुम सबकी सज़ा। समझे?

राजदार न माँ-बाप बन सके, न नीला। कैसे बनाए! कैसे समझाए? बाप ने अपने हिस्से के दूध को चाय में तब्दील करते हुए उसे बादाम, किशमिश, छुहारे मुहय्या कराए। माँ मजबूरी में दूध पीती रही, किशमिश, छुहारे भी खाती रही। मगर जैसे ही चेतन ने उसका दूध पीना छोड़ा, उसने अपने लिए सूखी रोटी मुकर्रर कर ली। वह बड़ा होता गया, अर्जुन सा सुदर्शन, बलिष्ठ, चौड़ा-चकला। जभी तो नीला को उस पर नाज़ है - मेरा चेतन, इत्ता सुंदर! इत्ता बांका! वह कभी-कभी मुर्झा भी जाती है। वह चेतन जैसी सुंदर नहीं। कहने को वह जवान है, मगर जवानी का ज्वार बदन में ज़रा भी नहीं। मनचलों के ताने सुनती, आजू बाजूवालियों के मजाक़ सहती वह बड़ी हो गई । उसे डर लगता है। कहीं चेतन ने भी उसकी इस हड़ीली देह का मजाक़ उड़ाया तो? उसका मजाक़ वह कैसे सह पाएगी? डरते डरते एक दिन वह अपना डर खोल ही देती है चेतन के सामने। चेतन उसे समझाता है - 'पगली, देह की सुंदरता से कहीं प्यार मापा-तौला जाता है। तुम जैसी भी हो, मेरी अनमोल धरोहर हो। नीला, क्या मैं भरोसा करूं कि तुम हर अच्छे-बुरे वक्त में मेरा साथ दोगी। मुझे छोड़कर कहीं भी नहीं जाओगी। कभी बीच रास्ते में साथ छोड़ भी गया तो भी माँ-बाउजी का ख्याल ...'

नीला बीच में ही मुंह बंद कर देती है। बिगड़े मूड को बनाने की गरज से तुनकती है। बात को हँसी में उड़ाने की कोशिश करती है -'औरतों को हमेशा शूली पर मत चढ़ाया करो। मैं कुछ नहीं करने-धरने वाली। न अपने लिए, न तुम्हारे माँ-बाप के लिए। जो करना है, खुद करो। हाँ, बीच में टाँग नहीं अड़ाऊँगी, ये पक्का वादा जान लो।'

मैनेजर ने एक हफ्ते की छुट्टी का वादा किया था, मगर मुकर गया -'कस्टमर के बीच तुम्हारी डिमांड पीक पर है। आई कांट लूज माई वैल्यूएवल कस्टमर्स। यू हैव टू बी हेयर।'

'हेयर माई फुट!' मन में गाली निकालता चेतन ऊपर से बोला -'यस सर!'

सपनों की मीनारों पर रंग-बिरंगी रोशनियों के बड़े-बड़े लट्टद्न नाचते हैं। रोशनी की झिलमिल बारिश हो रही है। हॉल के बाहर चाहे जितने कार्य-व्यापार हों, हॉल के भीतर एक ही क्रिया-प्रतिक्रिया - तेज संगीत, तेज रोशनी, तेज डाँस, तेज सांसें, तेज सीत्कार - सब कुछ तेज ... फास्ट ... रूकना नहीं। रूके कि किस्सा खतम।

फिर भी रेकॉर्ड मिनट भर को थमता है। चेतन अंधेरे में गायब हो जाता है। हॉल हठात कुछ खो जानेवाली चीखों, चिल्लाहटों से भर जाता है। वेटर फुर्ती से सर्व करने लग जाते हैं - वोदका मैम? मैम जिन? ओह, ओनली बकार्डी। नो प्रॉब्स! जस्ट गिव मी टू मिनट्स मैम! ... मैम, व्हाई डोंट यू ट्राइ अवर टुडेज स्पेशल? वाँट? ओ के मैम.., थैंक यू मैम!

होटल पर बहार है। इस बहार पर निसार है सारा रंग, सारी उमंग, सारा जोश, सारी जवानी, सारा धन। वेटर हँसते हैं - ताड़ की देसी ताड़ी में तरबूजे और पाइनएप्पल का जूस विथ फ्री पोटैटो एंड बनाना वेफर्स और हो गया टुडेज स्पेशल... हाई डिमांड, हॉट सेल। बाजार है, बाजार भाव है, खुद को बेचने आना चाहिए बस! तैयार रहिए बेचने को, बिकने को। अजीबोगरीब घालमेल में - ताड़ी के साथ तरबूजे के जूस में। खूब बिकेगा यह अजीबोगरीब घालमेल... एकदम नया है, एक्साइटिंग है...

चेतन भी बिक रहा है, क्योंकि काँसेप्ट नया है। उनका फेमिनिज्म संतुष्ट हो रहा है - बहुत भोगा हमें। अब हमारी बारी है। जो चोट तुमने हमें दी, वही अब हम तुम्हें - खून का बदला खून... यह जानने-समझने की किसे पर्वाह है कि भुक्तभोगी तो भुक्तभोगी ही होता है, उसमें लिंग और वर्ग कहाँ से आ जाता है? ये सब विचार हैं और उपभोक्तावादी समाज में विचार प्रतिबंधित है। इसलिए चेतन सिल्क के चमकते, भड़कीले मगर ढीले-ढाले लिबास में है। शरीर को कसो नहीं, रोशनी को दबाओ नहीं। सबकुछ खुला, सबकुछ तेज - और खुला, और तेज - ज्ािस्म खुला, लिबास खुले, रोशनी तेज, धुन तेज... स्पेशल हॉल, स्पेशल एंटरटेनमेंट... ओनली फॉर गर्ल्स एंड लेडीज। नो मेन अलाउड। वेटर हँसते हैं -'एक्सेप्ट वेटर्स एंड चेतन।'

हॉल का उन्माद शवाब पर है। लड़कियों का एक झुंड चेतन से चिपट जाता है। चेतन को सख्त ताकीद है कि वे उन्हें उत्तेजित तो करे, मगर बगैर हाथ लगाए। उत्तेजित मुर्गी खुद आ फँसे तो बड़ी नर्मई से, शिष्टाचार से उसे अपने से अलग करे... हाँ, ताकि उसे उसमें कोई बेअदबी नजर न आए। वह दिखाए कि वह तो उसी के साथ रहना चाहता है, मरता है उस पर। मगर, क्या करे! मजबूरी है - इत्ते सारे लोग जो हैं यहाँ पर।

मैनेजर बोली लगाता है - ऊँची कीमत... ऊंची .. और ऊंची..। वह गिनती करता है - एक, दो, तीन... छह! बस- बस! इससे ज्यादा नहीं। सॉरी मैम, यू हैव टू वेट फॉर टुमॉरो। दैट ओल्सो यू मस्ट थिंक अबाउट यो पेमेंट प्लान... पेमेंट केपासिटी नहीं बोल सकता - ऐसी बेअदब ज़ुबान की यहां कोई जगह नहीं। हर चीज तहज़ीब के चमकते रैपर मेेंं लपेटकर परोसो। लेनेवाले की तहज़ीब मत पूछो... देनेवालों को तहज़ीब मत सिखाओ। बस, अपनी मांग और शर्तों का ध्यान रखो। उसमें कोई समझौता नहीं। आखिर को घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? मैनेजर स्ट्रिक्ट है- नो मैम, आ'एम सॉरी, एक्स्ट्रीमली सॉरी। यू विल हैव टू वेट। वी कांट हेल्प यू। हां, इफ़ यू वांट सम अदर गाय..

नो नो, आई वांट हिम ओनली। नो रिप्लेसमेंट।

देन यू हैव टू वेट मैम। ऑफ्टर ऑल, ही इज अ ह्यूमन बीइंग, नॉट आ मशीन...

ह्यूमन बीइंग ।.. क्या सचमुच? कहाँ है संवेदनाएँ, अगर उसे वास्तव में इंसान समझा जा रहा हैे? दो-तीन घंटों का उन्मादी नाच और उसके बाद छह-छह को... नहीं, ग्राहक नहीं, ग्राहिकाएं। लेडी कस्टमर्स... छि: ये सब लेडी कहलाने लायक है? कुतिया हैं साली, सुअरनी... रंडी से भी बदतर...

चेतन अपनी संवेदनाएं जीवित रखना चाहता है। इसलिए पूरे नाच के दौरान वह ख्वाबों की मालाएं गूँथता जाता है और सारी मालाएं नीला को पहनाता जाता है। सारी लड़कियाँ नीला में बदल जाती हैं। वह नीला में डूब जाता है। विदेशी परफ्यूम की महक, मँहगे कपड़ों की सरसराहट, अंँगेजी में उछाले गए शब्द कहीं खो जाते हैं - रह जाती है नीला की सूती साड़ी में से आती घर की धुलाई की गंध, हिंदी-मराठी के शब्द। सभी कहती हैं - वह डूबकर मुहब्बत करता है। इसीलिए उसकी माँग सबसे ज्यादा है।

माँग और पूर्ति - मैनेजर अर्थशास्त्र के इस सिध्दांत को समझता है। उसने चेतन के पैसे बढ़ा दिए हैं - 'टेक गुड एंड हेल्दी फूड माइ ब्यॉय। गो टू जिम। टेक केयर।' मैनेजर मुस्कुराता है। सपने अचानक बिंध जाते हैं, घायल हो जाते हैं। लेकिन जिंदगी में, वास्तविक जीवन में भी अभिनय करना पड़ता है - 'थैक्यू सर! सो नाइस ऑफ यू सर!' मैनेजर की मुस्कान उसका हौसला बढ़ाती है -'सर, एक रिक्वेस्ट है... कल मुझे कहीं जाना है। छुट्टी चाहिए एक दिन की।'

'दिन की न! दिन की तो रहती ही है तुम्हारी छुट्टी।'

'आई मीन, सर, मेरा मतलब है... शाम की... '

'नो, एन ओ, नो, नेवर।'

'सर, प्लीज!'

'आई सेड नो, एन ओ नो। मालूम है तुम्हें, कल मिस क्यू आनेवाली हैं एंड यू नो, हाऊ फाँड ऑफ यू शी इज... जिसके पीछे उसके चाहनेवालों की लंबी क्यू लगी रहती है, उसी मिस क्यू की नजरों में, उसके दिल में तुम बसे हुए हो डियर।'

'सर सिर्फ एक शाम!'

'तुम्हें पता है, उसका नाम मिस क्यू क्यों पड़ा?'

'सर मेरी बात तो सुनिए सर।'

'इसलिए कि उसके चाहनेवालों की एक लंबी क्यू होती है। है न वेरी फ़नी... हा... हा... हा... हा... एंड माइंड इट माइ डियर कि शी इज वेरी-वेरी प्रॉस्पेरस कस्टमर फॉर अस। वी जस्ट कांट लूज हर।'

'तो क्या मैं अपनी लाइफ लूज कर दूँ?'

'दैट इज नन ऑफ माई बिजनेस।' मैनेजर कंधे उचका देता है।

चेतन का मन किया, मारे एक लात कसकर इस मैनेजर की पीठ पर और थूक दे अपनी इस तथाकथित नौकरी पर, जो उसे एक शाम तक मुहय्या नहीं करा सकती। कल नीला का जन्मदिन है। वह उसके साथ रहना चाहता है। पूरा दिन, पूरी शाम। हो सका तो रात भी... वह झुरझुरा जाता है। पूरे बदन में जलतरंग सा कुछ बजता है। यह जलतरंग तब कभी नहीं बजता है, जब वह अपने ग्राहकों के साथ होता है। नीला के साथ आत्मीय पल गुजारने के ख्याल से ही यह जलतरंग... लेकिन यहाँ तो...

लेकिन क्या करेगा वह नीला को यहाँ लाकर? मैनेजर मान भी ले तो भी? आखिर एक रेस्ट रूम जैसी चीज तो होती ही है न उन लोगों के लिए। उसी में गुंजाइश... लेकिन वह और नीला - नीला और वह... खुद तो उलझा रहेगा दूसरों में। नीला क्या यहाँ कमरे की दीवारें या उसकी सजावट देखती रहेगी? सपने यूँ और इसतरह हक़ीकत से टकराते हैं। बार-बार, ऐसे कि आप आह भी नहीं भर सकते। मैनेजर का काम ही है ना करना। उसे सबकुछ मैनेज करना है... लिहाज़ा, चेतन को भी कर लिया - कहा, दिन में ले लो...एक के बदले दो।

लेकिन दिन में नीला को छुट्टी नहीं मिली। ऑफिस का रिव्यू चल रहा था। बॉस ने तो यह भी कह दिया कि देर शाम तक बैठना पड़ सकता है। सब बैठेंगे। वह कैसे मना कर सकती है? और मना करके भी क्या होगा? किसके लिए वह जल्दी जाए?

दोनों ने एक-दूसरे को दिलासे दिए। दोनों ने अच्छे कल की उम्मीदों के दिए जलाए। दिए की हल्की नीम अंधेरी रोशनी में दोनों सोने चले गए। परंतु दोनों ने सोने का नाटक किया। बिस्तर अलग अलग थे, जगहें अलग अलग थीं। लेकिन ख्वाब फिर भी आते रहे - जागी ऑंखों के सपने, जो अलग अलग नहीं थे।

जागी ऑंखों के इन्हीं ख्वाबों को झटककर दोनों अपने-अपने काम पर थे। चेतन ने देखा, आज हॉल की पूरी सज धज ही एकदम से नई है। मैडम क्यू आनेवाली हैं - अपने ग्रुप के साथ। मैडम क्यू - यहाँ की वन ऑफ द मोस्ट प्रॉस्पेरस कस्टमर्स, जिसे लुभाने के लिए हर चीज बदल दी गई है। पेपर से लेकर लाइट, स्टेज डिजाइनिंग, क्रॉकरी, मेजपोश, यहाँ तक कि वेटर्स भी। नहीं बदला गया तो सिर्फ चेतन -'यू आ' इन हाई डिमांड माई डियर। हाऊ कैन वी स्किप यू। वी जस्ट कांट अफोर्ड टू लूज़ यू माई ब्यॉय। मैडम क्यू के साथ सुंदरियों की पूरी फौज रहेगी। एन्जॉय, यंग ब्यॉय, एन्जॉय!'

'आप ही करो न एन्जॉय!' न चाहते हुए भी चेतन का मुंह नीम से भर गया। मुंह में थूक भर आया, मगर निगल गया। मैनेजर मैडम क्यू के सपनों में खोया हुआ था। उसे उस नीम में भी बर्फी का स्वाद मिला -'काश कि कोई मुझे भी पसंद कर लेती। बट आई नो कि ये बिग ब्यूटीज मेरे हाथ से पानी का एक ग्लास तक लेना पसंद नहीं करेंगी। किसी और चीज की तो बात ही क्या है?'

चेतन के मन में घिन का बड़ा सा लोंदा फँसता है, जिसे वह तुरंत बाहर निकाल फेंकता है। प्रोफेशन इज गॉड - गॉड से नफरत नहीं। और फ़िर, जिस मन में नीला है, उसमें घिन के बलगम को वह कैसे जगह दे सकता है। मैडम क्यू - मैनेजर की सबसे ज्यादा प्रॉस्पेरस कस्टमर। सारी लड़कियों और महिलाओं में तो वह नीला की प्रतिमा स्थापित कर लेता था। लेकिन इस मोटी, भीमकाय, काली सुअरनी में कैसे वह नीला का तसव्वर करे! काले चेहरे पर लाल लिपस्टिक। शोख रंगों और डिज़ाइनवाले कपड़े। उसे कोयले की अंगीठी याद आती है। उसे हँसी आ जाती है। मैडम क्यू उत्तेजित होती है - तेज, और तेज, मूव, मूव फास्ट।

आज की थकान से वह निढाल हो जाता है। इतना कि नीला को याद भी नहीं कर पाता ढहने से पहले। मन में गुस्से का गुबार फूटता है - क्या समझता है यह मैनेजर मुझे! कमजोर? लाचार? बेबस? होटल के गुदगुदे बिस्तर से निकलकर अपनी चौकी के फटे पुराने तोशक पर ढहते हुए वह फूट पड़ता है, नहीं करेगा वह ऐसी नौकरी।

मैनेजर समझाता है, 'माना कि तुम्हारे पास आला डिग्री है, फर्स्ट क्लास का सर्टीफिकेट है, मगर नौकरी तो नहीं है न! तो इस एक बित्ते की डिग्री को चाट-चाटकर भूख-प्यास मिटाओगे? उसी से देह ढँकोगे? उसी को सर पर छाँव की तरह बिछाओगे? और वह भी कबतक? रह गया मै। तो मैं तो शर्तिया कमीना हूँ। पैसे के आगे सबकुछ बेकार। मैं तो डियर, तेल देखता हँ, तेल की धार देखता हूँ। पैसों की जित्तीे मोटी धार तुम्हें मिल रही है न, उत्ती मोटी धार तो तुमने कभी छोड़ी भी नहीं होगी अपने कस्टमरों के भीतर।'

'ओक... आ... आक... थू...!' चेतन उल्टियाँ करने लगता है। उसे लगता है, किसी ने उसी के वीर्य को उसी की हथेली में भरकर उसे ही पिला दिया है। वह ओकता जा रहा है, ओकता जा रहा है। उल्टियाँ हैं कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही। ओकते-ओकते वह थक जाता है। थक जाता है तो नीला सामने आ जाती है।

नीला! नीला कहाँ हो नीला! उसका मन करता है, बस उड़ चले नीला के पास। उसके चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों में भर ले। उसकी दोनों पलकों को गुलाब की पंखुड़ियों से भी ज्यादा नर्मई से चूमे। सामने नीला है, उसे सुकून मिलता है - ढीली सी एक चोटी, सूती लिबास और प्रसाधन रहित चेहरा, जैसे गंगा के पानी से धोया हुआ चेहरा - साफ, निर्मल, सुबह खिले ओस में भींगे गेंदे जैसा भरा-भरा, प्रस्फुटित, सुगंधित चेहरा। नीला-भव्य है, शांतिमय है, निष्पाप है। चेतन उसे अपनी बाहों में भरना चाहता है। वह आगे बढ़ता है। लेकिन पाता है कि उसकी पूरी की पूरी देह वीर्य में सनी पड़ी है। पूरे बदन से बदबू के भभूके उठ रहे हैं। इतने गंदे हाथ और गंदी देह से वह इस निष्पाप, भव्य नीला को कैसे छुए? बदबू और मजबूरी के बीच फ़ंसा वह अकबका उठता है और मारे अकबकाहट के वह फिर से उल्टियाँ करने लगता है।

रोशनी के चाँद सितारों से पूरी दुनिया नहा रही है। चेतन अब अवचेतन में बदल रहा है। संगीत तेज से तेजतर होता जाता है। आहों, चीखों, चिल्लाहटों, सीत्कारों का बाजार पूरे उफान पर है। खट्टा, बासी और बदबूदार उफान। एक ने उस उफान में बहकर उसकी शर्ट की ज्ािप खोल दी। हॉल ठहाकों और तालियों से गूँज उठा। दूसरी दबंग ने थोड़ी और हिम्मत की उसके गाल पर अपने दाँत गड़ा दिए - शराब और जवानी के नशे में बहकी अपनी देह उसके ऊपर ढीली कर दी। गाल पर निशान पड़ गया। थूक से वह लिथड़ गया। पोछ भी नहीं सकता। पोछना बेअदबी है, कस्टमर का अपमान। उसे तो हँसते रहना है। उनकी हरकतों पर हाऊ क्यूट, वेरी स्वीट बोलते रहना है। कल नीला गाल पर निशान देखेगी तो उसे जवाब भी देना है।

लड़की ने अब उसका दूसरा गाल लेकर दाँत से काटना शुरू कर दिया। एक ही लड़की उससे इत्ती देर तक चिपकी रहे, दूसरियों के लिए यह कैसे मुमकिन था। दूसरी ने उसे धक्का देकर परे कर दिया और खुद उसकी लुंगी की गांठ खोल दी। यह एक गेम था। शो का आखिरी गेम, जिसके लिए चेतन और उसकी पूरी टीम को ऐसे ही मँहगे, चटकीले, भड़कीले सरसराते सिल्क की ज्ािप लगी ढीली शर्ट और लुंगी दी जाती थी, जो उंगली के एक इशारे का भी बोझ न सह पाए। पाँच-दस मिनट के अत्यधिक उत्तेजना भरे नृत्य-संगीत के बाद घुप्प अंधेरा।

मैंनेजर काले दाँत सहित मुस्कुराता है -'अपन तो जी, सबका भला चाह कर ही अंधेरा कर देते हैं। लो भई, जित्ते मजे चाहो, जिससे चाहो, ले लो। कभी-कभी अपन भी इस अंधेरे का फायदा उठा लेते हैं। वेटर भी मुस्कुराते हैं... फायदा? हाँ, जी, अपन लोग भी, कभी-कभी... बेहयाई के नशे में धुत इन रंडियों को क्या पता कि कौन क्या है?'

चेतन फिर से उल्टी करता है। सपने जब फलते नहीं, तब वे सूखने लग जाते हैं, झड़ने लगते हैं। तब जमा होता है कूड़ा, कर्कट। तब फैलती है बदबू। नीला पूछती रहती है -'आखिरकार तुम्हारे काम का नेचर क्या है? बताते क्यों नहीं? फ्लोर मैनेजर, हॉल मैनेजर... क्या होता है यह सब? बताओगे, तब तो जानूंगी न।'

चेतन बचता है। बात करने से कतराता है। वह नीला को बहलाता है, इधर उधर की बातों से उसे फ़ुसलाता है। इस सवाल पर वह बचना चाहता है नीला से। बचना चाहता है ग्राहकों से - बचाव चाहता है, किसी अनिष्ट की आशंका से... कहीं कुछ हो गया तो क्या नीला को यही तोहफा देगा शादी का? अपने साथ-साथ उसकी भी जिंदगी तबाह करेगा? वह बचाव के उपाय खरीदता है। साथ भी रखता है। मान-मनुहार भी करता है, कभी-कभार बचाव करने में सफल भी हो जाता है। लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं। मदहोशी और नशे में उत्तेजित इनलोगों के सामने उसकी एक भी नहीं चलती। मैनेजर की सख्त हिदायत अलग से है - कस्टमर इज़ गॉड और गॉड को नाराज नहीं करना है, यह ध्यान रहे।

चेतन के पास जमा होते जाते हैं - पैकेट दर पैकेट... घर में ढेर लगता जा रहा है। अच्छा है, नीला को वह यही उपहार देगा - शादी का। नीला कैसे शर्मा जाएगी न इन्हें देखकर? शर्माकर उसके सीने में अपना चेहरा छुपा लेगी। पीठ पर प्यार भरी मुक्कियाँ बरसाएगी और मुक्कियों की इस प्यारी सी बरसात में वह भीगता चला जाएगा - तन-मन-प्र्राण से।

चेतन फिर से घबड़ाता है - वह फिर से ख्वाब देखने लगा। उसने अपने ऊपर पाबंदी लगाई थी कि या तो वह सपने नहीं देखेगा या फ़िर इस हकीकत से दूर हो जाएगा। दोनों एक साथ नहीं चल सकते। चेतन चला नहीं सकता। मन सरगोशी करता है, मगर कैसे? उसका मन ही एक घरेलू सा जवाब दे देता है - जैसे झगड़ालू सास-ननद के साथ-साथ उसकी सीधी साधी बहू भी रहती है। नीला भी रहेगी इसी तरह से, इस भंयकर हक़ीकत के साथ। उसी दिन तो नीला कह रही थी -'चल, अब लगन कर लेते हैं। बोलो तो मेरे अम्मा बाउजी आकर बात करें। थोड़े पैसे जमा किए हैं मैंने। तुम्हारी तो अच्छी नौकरी है। अच्छे पैसे होंगे। बहनों का भी बोझ नहीं है। बाउजी अपना कमाते हैं। रिटायरमेंट के बाद पेंशन मिलेगी ही। तो ऐसा करो न, कहीं देख-सुनकर कोई फ्लैट बुक करवा लेते हैं?'

देखना-सुनना तो पड़ेगा ही। चेतन अब पूरी तरह से चेतन है। यथार्थ और सपने यदि एक साथ रहते हैं तो रहें। बस, दोनों के लिए चाहिए एक ठोस, पुख्ता जमीन। चेतन के यथार्थ का पक्ष चाहे जितना भी काला हो, उसे अब और अंधेरे में नही रखना है। नीला की नीली प्यार भरी रोशनी में सबकुछ उजागर कर देना है। उसके ख्वाब टूटते हैं, तो बेहतर है, समय से टूट जाए। चेतन दरकता है तो अच्छा है, गीली मिट्टी पर दरार आए, ताकि वक्त जरूरत उसे मिटाया जा सके। वह डरता है, नीला, जब तुम सपनों के ऊँचे गुंबद से उतर कर मेरे यथार्थ की पथरीली, काँटों भरी जमीन पर खड़ी होओगी तो इसका सख्तपन, इसका दर्द, इसकी ठेस, इसका बहता खून बर्दाश्त कर पाओगी? क्या करोगी जब तुम्हें पता चलेगा कि मेरे इस फ्लोर मैनेजर या हॉल मैनेजर की असलियत क्या है? जवाब दो नीला! तुम्हारे जवाब पर मेरी पूरी ज्ािंदगी टिकी हुई है।

कैसा जवाब? सवाल तो पूछे पहले वह? और सवाल से पहले पूरी कहानी भी तो कहनी होगी। बगैर कहानी के सवाल कैसे और बिना प्रश्न के उत्तर कैसे? चेतन तैयार है - अपनी परीक्षा के लिए - उसी तरह से, जिस दिन हॉल मैनेजरी की परीक्षा में उतरा था। आज भी एक परीक्षा है। चलो, नीला के प्यार की गहराई भी देख लें? लेकिन नहीं। पहले वह अपनी गहराई तो माप ले! यदि यह सब सुनकर नीला उसे छोड़कर चली गई तो भी क्या वह सामान्य बना रह सकेगा? एकदम आम आदमी की तरह- हंसता, गाता, अपने सपनों के साथ खेलता, झूमता, नाचता, मुस्काता? सपनों की इस ज़मीन से उस सरज़मीन तक जाने के लिए सबसे पहले उसे खुद को पहले तैयार करना होगा। नीला तो बाद की बात है।####

Thursday, August 19, 2010

कथा कहो राम!

सब कह्ते हैं तुम्हें मर्यादा पुरुषोत्तम

तुम रहे वंशज बडे बडे सूर्यवंशियों के

देव, गुरु, साधु ऋषि सभी थे तुम्हें मानते

फिर क्यों रहे चुप, जब जब आई तुम पर आंच?

जब जब लोगों ने किये तुम पर प्रहार?

इतना आसान नहीं होता सुख सुविधाओं को छोड देना

तुमने सब त्याग धर लिया मार्ग वन का

इतना आसान नहीं होता अपने ही भाई और भार्या को कष्ट में देखना

तुमने धारी कुटिया और धारे सभी कष्ट

इतना आसान नहीं होता पत्नी पर किसी और द्वारा आरोप लगाना

और उस आरोप को शिरोधार्य करना

शिरोधार्य करके पत्नी को अग्नि में झोंक देना

जन के आरोप पर पत्नी का त्याग

राज काज के लिए अपने हित की तिलांजलि

न भार्या का विचार ना अजन्मी संतान के भविष्य की चिंता

मात्र जनता के लिए, राजकाज के निष्पादन के लिए

कितना कष्टकर होता है राजधर्म का निर्वाह

जब त्यागने पडते हैं अपने समस्त सुख-सम्वेदनाओं के सिंहासन, चन्दोबे

सभी को दिख गई सीता की पीर

सभी ने बहाए सीता के आंसू अपने अपने नयनों से

देखे, समझे लव कुश का बिन पिता का बचपन

समझो ज़रा राम की भी पीर

सहो तनिक उसकी भी सम्वेदना

बहो तनिक उसके भी व्यथा सागर में

बनो तनिक राम

कथा कहो राम

कथा कहो राम की.

Wednesday, August 18, 2010

हम!

धरती की हरियाली पर मन उदास है,

कोई फर्क़ नहीं पडता

कि आपके आसपास कौन है, क्या है?

आप खुश हैं तो जंगल में भी मंगल है

वरना सारा विश्व एक खाली कमंडल है.

इतने दिनों की बात में

जब हम कुछ भी नहीं समझ पाते

कुछ भी नहीं कर पाते,

तब लगता है कि जन्म लिया तो क्या किया?

तभी दिखती है धरती, चिडिया, हवा, चांदनी

और मौन का सन्नाटा कहता है कि

हां, हम हैं, हम हैं, तभी तो है यह जगत!

खुश हो लें कि हम हैं

और जीवित हैं अपनी सम्वेदनाओं के साथ

प्रार्थना करें कि पत्थर नहीं पडे हमारी सम्वेदनाओं पर!

Thursday, August 12, 2010

क्या कुछ भी नहीं था हमारे पास?

तब हमारे पास फोन नहीं था,

बूथ या दफ्तर से फोन करके

तय करते थे- मिलना-जुलना

पहुंच भी जाते थे, बगैर धीरज खोए नियत जगह पर

अंगूठे को कष्ट पहुंचाए बिना.

घरवालों को फोन करना तो और भी था मंहगा

चिट्ठी ही पूरी बातचीत का इकलौता माध्यम थी

तब हमारे पास गाडी नहीं थी,

घंटों बस की लाइन में लगकर पहुंचते थे गंतव्य तक

पंद्रह मिनट की दूरी सवा घंटे में तय कर

तब गैस चूल्हा नहीं था हमारे पास

केरोसिन के बत्तीवाले स्टोव पर

हाथ से रोटियां ठोक कर पकाते-खाते

सोने के लिए तब हमारे पास होता एक कॉट, एक चादर

तौलिए को ही मोड कर तकिया बना लेते

पुरानी चादर, साडियां, दुपट्टे

दरवाज़े, खिडकियों के पर्दे बन सज जाते

क्रॉकरी भी नही थी

तीस रुपए दर्ज़नवाले कप में पीते-पिलाते थे चाय

कॉफी तो तब रईसी लगती

बाहर खाने की तो सोच भी नहीं सकते थे

न डिनर सेट, न फ्रिज़, न मिक्सी, न टीवी

बस एक रेडियो था और एक टेप रेकॉर्डर- टू इन वन

चंद कपडे थे- गिने-चुने

चप्पल तो बस एक ही- दफ्तर, बाज़ार, पार्टी सभी के लिए

कुछ भी नहीं था हमारे पास.

क्या सचमुच कुछ नहीं था हमारे पास?

ना, ग़लत कह दिया

तब नहीं थी हमारे पास सम्पन्नता

हमारे पास थी प्रसन्नता!

Friday, August 6, 2010

हां जी हां, हम तो छिनाल हैं ही! तो?

http://baithak.hindyugm.com/2010/08/haan-ji-haan-ham-chhinal-hain.html


http://www.janatantra.com/news/2010/08/06/vibha-rani-on-chhinal-vibhuti-kand/

लोग बहुत दुखी हैं. एक पुलिसवाले लेखक ने हम लेखिकाओं को छिनाल क्या कह दिया, दुनिया उसके ऊपर टूट पडी है. इनिस्टर-मिनिस्टर तक मुआमला खींच ले गए. अपने यहां भी ना. लोग सारी हद्द ही पार कर देते हैं. भला बताइये कि जब हम बंद कमरे में किसी को गलियाते हैं, तब सोचते हैं कि हम क्या कर रहे हैं? जब एक भद्र महिला किसी अन्य पुरुष के साथ सम्बंध बनाती है तो वह छिनाल कहलाती है, मगर जब भद्र पुरुष किसी अन्य भद्र-अभद्र महिला के साथ सम्बंध बनाते हैं तब? निश्चित जानिए, ये छिनालें भी भद्र मानुसों के पास ही जाती होंगी. लेकिन छिनाल के बरअक्स उनके लिए कोई शब्द नहीं होता, तब कहा जाता है कि मर्द और घोडे कभी बुढाते हैं भला? और अपने हिंदी जगत में ऐसे भद्र लेखकों की कमी है क्या? और ‘ज्ञानोदय’ का तो नया नाम ही है, “नया ज्ञानोदय” तो इसमें कुछ नई बातें होनी चाहिये कि नहीं? प्रेम और बेवफाई के बाद अब छिनालपन आया है तो आपको तो उसे सराहना चाहिए.

अपने शास्त्रों में तो कहा ही गया है कि मन और आत्मा को शुद्ध रखो. इसका सबसे सरलतम उपाय है अपने मन की बात उजागर कर दो, मन को शान्ति मिल जाएगी. सो पुलिसवाले ने कर दिया. वह डंडे के बल पर भी यह कर सकता था. आखिर रुचिका भी तो लडकी थी ना.

अब अपने विभूति भाई स्वनाम धन्य हैं. अपने कुल खान्दान के विभूति होंगे, अपनी अर्धांगिनी के नारायण होंगे, अपनी पुलिसिया रोब से कभी कभार उतर कर कुछ कुछ राय भी दे देते होंगे. अब इसी में एक राय दे दी कि हम “छिनाल” हैं तो क्या हो गया भाई? कोई पहाड टूट गया कि ज्वालामुखी फट पडी.

छम्मकछल्लो तो खुश है कि उन्होंने इस बहाने से अपनी पहचान भी करा दी. नही समझे? भई, गौर करने की बात है कि हमलोगों को छिनाल या वेश्या या रंडी कौन बनाता है? हमसे खेलने के लिए, हमसे हमारे तथाकथित मदमाते सौंदर्य और देह का लुत्फ उठाने के लिए, हम पर तथाकथित जान निछावर करने के लिए हमारे पास क्या किसी गांव घर से कोई लडकी या औरत आती है? ये भद्र मानुस ही तो बनाते हैं हमें छिनाल या रंडी. तो अपने इस सृजनकारी ब्रह्मा के स्वरूप को उन्होंने खुद ही ज़ाहिर किया है भाई? पुलिसवाले आदमी हैं, इसलिए कलेजे में इतना दम भी है कि इसे बता दिया. वरना अपने स्वनाम धन्य लेखक लोग तो कहते -कहते और करते- करते स्वर्ग सिधार गए कि “भई, दारू और रात साढे नौ बजे के बाद मुझे औरतों की चड्ढियां छोडकर और कुछ नहीं दिखाई देता. इतने ही स्वनाम धन्य लेखकों की ही अगली कडी हैं अपने विभूति भाई. छिनालों के पास जाने के लिए तो पैसे भी नहीं खर्चने होते भाई! आनंद ही आनंद.

इतना ही नहीं, अपने लेखकों की जमात जब एक दूसरे से मिलती है तो खास पलों में खास तरीके से टिहकारी-पिहकारी ली जाती है, “क्यों? केवल लिखते ही रहे और छापते ही रहे कि किसी को भोगा भी? और साले, भोगोगे ही नहीं तो भोगा हुआ यथार्थ कहां से लिख पाओगे?”

मूढमति छम्मकछल्लो को इसके बाद ही पता चल सका कि भोगे हुए यथार्थ की हक़ीक़त क्या है? वह तो अपने लेखन की धुन में सारा आकाश ही अपने हवाले कर बैठी थी और मान बैठी थी कि भोगा हुआ यथार्थ लिखने के लिए स्थितियों को भोगने की नहीं, उसे सम्वेदना के स्तर पर जीने की ज़रूरत है. वह तर्क पर तर्क देती रहती थी कि भला बताइये, कि कातिल पर लिखने के लिए किसी का कत्ल करना ज़रूरी है? बलात्कृता पर लिखने के लिए क्या खुद ही बलात्कार की यातना से गुजर आएं? छम्मकछल्लो ने अपनी कायरता में इन लोगों से सवाल नहीं किए. अब समझ में आया कि नहीं जी नहीं, पहले अपना बलात्कार करवाइये, फिर उस पर लिखिए और फिर देखिए, भोगे हुए यथार्थ के दर्द की सिसकी में उनकी सिसकारी भरती आवाज़! आह! ओह!

छम्मकछल्लो तो बहुत खुश है कि पुलिस के नाम को उन्होंने और भी उजागर कर दिया. छम्मकछल्लो जब भी पुलिस पर और उसकी व्यवस्था पर विश्वास करने की कोशिश करती है, तभी उसके साथ ऐसा-वैसा कुछ हो जाता है. छम्मकछल्लो के एक फूफा ससुर हैं. दारोगा थे. अब सेवानिवृत्त हैं, कई सालों से. वे कहते थे कि रेप करनेवालों के तो सबसे पहले लिंग ही काट देने चाहिये, फिर आगे कोई कार्रवाई होनी चाहिये.” छम्मकछल्लो के एक औए रिश्तेदार आई जी हैं. वे कहते हैं कि बलात्कार से घृणित कर्म तो और कोई दूसरा हो ही नहीं सकता.

छम्मकछल्लो के कुछ मित्र जेल अधीक्षक हैं. वे सब भी कहते हैं कि हमें सोच कर हैरानी होती है कि लोग कैसे ऐसा गर्हित कर्म कर जाते हैं. वे बताते हैं कि जेल में जब इसका आरोपी आता है तो सबसे पहले तो अंदर के दूसरे ही कैदी उसकी खूब ठुकाई कर देते हैं. कोई भी उससे बात नहीं करता. रेप के अक्यूज्ड को दूसरे कैदी भी अच्छी नज़रों से नहीं देखते.” छम्मकछल्लो ने जब रेप पर एक लेख लिखा था तो एक सह्र्दय पाठक ने बडे ठसक के साथ उससे पूछा था, “आप जो ऐसे लिखती हैं तो क्या आपका कभी बलात्कार हुआ है?” और अगर नहीं हुआ है तो कैसे लिख सकती हैं आप इस पर?” मतलब कि फिर से वही भोगा हुआ यथार्थ.

अब छम्मकछल्लो सगर्व कह सकती है कि हां जी हां, उसके साथ बलात्कार हुआ है. भाई लोग उसे लेखिका मानें या न मानें वह तो अपने आपको मानती ही है. वह यह भी मानती है कि जिस तरह से घरेलू हिंसा दिखाने के लिए शरीर पर जले, कटे या सिगरेट के दाग के निशान ज़रूरी नहीं, उसी तरह बलात्कार करने के लिए किसी के शरीर पर जबरन काबू करना जरूरी नही. इस मानसिक बलात्कार से विभूति भाई ने तो एक साथ ही साठ हज़ार रानियों और आठ पटरानियों का सुख उठा लिया. भाई जी, हम आपके नतमस्तक हैं कि आपने अपने करतब से हम सबको इतना ऊंचा स्थान बख्श दिया. जहां तक बात चटखारे लेने की है तो जब स्वनाम धन्य लेखक भाई लोग सेक्स पर लिखते हैं तब क्या लोग चटखारे नहीं लेते? सेक्स को हम सबने अचार, पकौडे, मुरब्बे की तरह ही चटखारेदार, रसीला, मुंह में पानी ला देनेवाला बना दिया है तो सेक्स पर कोई भी लिखेगा, मज़े तो लेगा ही. सभी मंटो नहीं बन सकते कि उनके सेक्स प्रधान अफसाने बदन को झुरझुरा कर रख दे और आप एक पल को सेक्स को ही भूल जाएं या सेक्स से घृणा करने लग जाएं.

इसलिए हे इस धरती की लेखिकाओं, माफ कीजिए, हिंदी की लेखिकाओं, अब इन सब बातों पर हाय तोबा करना बंद कीजिए. अपने यहां वैसे भी एक कहावत है कि “हाथी चले बाज़ार, कुत्ते भूंके हज़ार.” तो बताइये कि उनके भूंकने के डर से क्या हाथी बाज़ार में निकलना बंद कर दे? हिंदी के, जी हां हिंदी के ये सडे गले, अपनी ही कुंठाओं और झूठे अहंकार में ग्रस्त ये लेखक लोग इस तरह की बातें करते रहेंगे, अपना तालिबानी रूप दिखाते रहेंगे. हर देश में, हर प्रदेश में, हर घर में फंदा तो हम औरतों पर ही कसा जाता है ना! इससे क्या फर्क़ पडता है कि आप लेखिका हैं. लेखिका से पहले आप औरत हैं महज औरत, इसलिए छुप छुप कर उनकी नीयत का निशाना बनते रहिये, उनके मौज की कथाओं को कहते सुनते रहिये. बस अपने बारे में बापू के तीन बंदरों की तरह ना बोलिए, ना सुनिए, ना कहिए. हां, उनकी बातों को शिरोधार्य करती रहिए. आखिरकार आप इस महान सीता सावित्रीवाले परम्परागत देश की है, जहां विष्णु और इंद्र जैसे देवतागण वृन्दा और अहल्या के साथ छल भी करते रहने के बावज़ूद पूजे जाते रहे हैं, पूजे जाते रहेंगे. आखिर अपनी एक गलत हरक़त से सदा के लिए बहिष्कृत थोडे ना हो जा सकते हैं? यह मर्दवादी समाज है, सो मर्दोंवाली प्रथा ही चलेगी. हमारे हिसाब से रहो, वरना छिनाल कहलाओ.