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छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

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Wednesday, July 29, 2009

हे भीष्म पितामह! काश कि यह नपुंसक भीड़ आपने खड़ी न की होती!

मोहल्ला लाइव पर पढ़े एक छाम्माक्छाल्लो का एक और आलेख। लिंक है-http://mohallalive.com/2009/07/29/dialog-with-mr-bhishm-pitamah/
हे भीष्म पितामह, आपने बहुत से काम किये। अपनी खिलती जवानी में अपना यौवन पिता को दे दिया। आप तो पितृभक्त बन गये, मगर इस तरह से एक बुड्ढे, खूसट को जवानी के और अधिक उपभोग के लिए, उसे खुला खेल फर्रुखाबादी के लिए छोड़ दिया। पता नहीं, यह कारण है या क्या कि आज छेड़खानी के जितने भी मामले आते हैं, उनमें से अधिकतर अधेड़, बूढों द्वारा की गयी छेड़खानी के मामले आते हैं। यह इस देश की लगभग हर स्त्री का, हर लड़की का अनुभव है। मुझे लगता है कि अगर आपने अपना यौवन अपने पिता को न दिया होता, तो बुढ़ापे में काम-भाव को ज़रूरत से अधिक भुनाने की कोशिश न की गयी होती। और तब से चली आ रही इस परंपरा से हमारी आज की कितनी लड़कियों का बचाव हो गया होता।
हे भीष्म पितामह, काश कि आप माता सत्यवती के कहने पर उनके रोगग्रस्त पुत्र के लिए एक तो छोड़‍िए, तीन-तीन कन्याओं का अपहरण कर न लाये होते कि भाई, जिसे मर्जी, उसे चुन लो। आखिर मर्द हो। और जब उनमें से एक अंबा ने कह दिया कि वह तो पहले ही किसी को वरण कर चुकी है, तब अपनी महानता दिखाते हुए उसे छोड़ भी आये। हे भीष्म पितामह, आपको अपने ही इस महान आर्यावर्त की परंपरा का नहीं पता कि नारी एक बार घर से निकली क्या कि बस वह दूषित, जूठन और न जाने क्या-क्या हो जाती है? उसमें भी अपहृत नारी? अपने भावी पति से दुत्कारे जाने के बाद जब वह आपके पास आयी, तब आपने भी उसे अस्वीकार कर दिया। आप तो अपने वचन के पक्के थे, सो कह दिया कि भई, मैं तो अपनी प्रतिज्ञा के साथ जियूंगा, मरूंगा। इसे गांव की भाषा में कमर कस के या लंगोट कसके रहना कहा जाता है। पर हे भीष्म पितामह, इस परंपरा पर आपका ही समय बीतते न बीतते उस पर धूल छा गयी।
हे भीष्म पितामह, काश कि आपने तथाकथित वंश परंपरा की रक्षा के लिए, हस्तिनापुर की गद्दी की रक्षा और अपने वचन की पूर्ति के लिए अपने जीवन की बलि न दी होती। इस सत्ता से बंधे रहने का लाभ भारत देश को कितना मिला, यह तो सभी देख ही रहे हैं, मगर इस सत्ता से बंधे रहने के तर्क के कारण सही-ग़लत की परिभाषा ही समाप्त हो गयी। यह स्थापित हो गया कि राजा जो करे, सब सही, और उसके सभासदों का यह दायित्व है कि वह उसके हर हां और ना में अपना सर हिलाता रहे।
नतीजा, आज का सता-प्रबंध भी आपके ही चरण-चिन्हों पर चल रहा है। विश्वास न हो तो कभी आकर देख लें।
हे भीष्म पितामह, यह सत्ता से कैसा बंधना हुआ कि आपके और आपके समस्त सभासदों, बड़ों और आदरणीयों के बीच आपकी ही कुलवधू द्रौपदी आपके ही घर के एक सदस्य के हाथों नग्न की जाती रही और आप समेत आपकी पूरी सभा मूक बनी रही। इससे तो अच्छा आज का समय है कि आज लोग स्त्रियों को नग्न तो करते हैं, मगर दूसरे के घरों की।
हे भीष्म पितामह, काश कि द्रौपदी को नग्न करते समय आपने अपनी ज़बान खोली होती, अपना विरोध दर्ज़ किया होता तो एक नपुंसक भीड़ की परंपरा का जन्म न हुआ होता। आज उस नपुंसक भीड़ का खामियाज़ा हर देशवासी को भुगतना पड़ रहा है। आज किसी को खुलेआम मारा-पीटा जाता हो, उसकी दिन-दहाडे़ हत्या की जाती हो, उसे सरे बाज़ार नग्न किया जाता हो, मारा-पीटा जाता हो, पूरी की पूरी जनता ख़ामोश खड़ी तमाशा देखती रह जाती है। पितामह, उसे एक डर व्यापे रहता है कि अगर उसने मुंह खोला, तो कहीं उसी की जान पर न बन आये। हे भीष्म पितामह, कहीं आपने भी तो उसी डर से मुंह् बंद नहीं रखा था? दुर्योधन के गुस्से का आपको तो पता था ही। अब वह दुर्योधन गली-गली में मौजूद है। जिसमें जितनी ताक़त, वह उस स्तर का दुर्योधन।
हे भीष्म पितामह, काश कि आपने भाई-भाई के बीच के झगडे़ को पनपने न दिया होता। धृतराष्ट्र लाख राजा थे, मगर थे तो आपसे छोटे। आप उन्हें समझा सकते थे। और उसके बाद दुर्योधन को तो आप डांट-फटकार सकते थे। अब देखिए कि इस परंपरा के कारण आज भाई-भाई में कोई एका नहीं रही। भाई-भाई की यह दीवार हस्तिनापुर् के तख्त तक पहुंची और इस देश के दो टुकडे़ करा गयी।
हे भीष्म पितामह, काश कि अपने भावी पति द्वारा दुत्कारे जाने पर लौटी अंबा को आपने पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया होता। तब शायद आज लड़कियां सामान और भोजन की तरह उपभोग की वस्तु ना मानी जातीं। उन्हें घर की इज़्ज़त के नाम पर कहीं भी डूब मरने को विवश न किया जाता।
हे भीष्म पितामह, इन सबसे ऊपर यह कि काश, जिस देश की सता से बंधे रहने को आप जीवन भर विवश रहे, उसी देश के रक्षार्थ आपने अपने वचन को तोड़ दिया होता। जिस माता सत्यवती के कारण आपने आजन्म अविवाहित रहने का वचन अपने पिता को दिया था, उसी माता सत्यवती के आग्रह पर आपने अपना वचन भंग कर दिया होता और माता की आज्ञा से विवाह कर लिया होता। आपकी महानता पर तब भी कोई आंच ना आती, क्योंकि तब आप अपनी माता की आज्ञा का पालन कर रहे होते, जिस माता की आज्ञा पर श्री राम वन को चले गये थे। परंतु, तब यह होता कि आप देश के प्रहरी भर न होते, इस देश के राजा होते। देश पर आपका राज होता। आपकी कर्मठता, कुशलता की छाप से यह देश और समृद्ध और बलवान हुआ होता। तब आपकी अपनी संतान हुई होती, जो निश्चित रूप से आपकी ही तरह स्वस्थ, बलवान और अधिक विवेकशील होती। तब इस आर्यावर्त का स्वरूप कुछ दूसरा होता। तब महाभारत न हुआ होता, तब किसी दूसरे ही भारतवर्ष की नींव रखी गयी होती और उस नींव पर खडे़ भारतवर्ष की कोई दूसरी ही तस्वीर हम सबके सामने होती।

Monday, July 27, 2009

नारी को निर्वस्‍त्र करना तो हमारी परंपरा रही है

mओहाल्ला लाइव पर पढ़े एक छाम्माक्छाल्लो का एक और आलेख। लिंक है- http://mohallalive.com/2009/07/27/naked-women-n-our-tradition/

लोग खामखां चिल्ला रहे हैं, शोर मचा रहे हैं! अख़बारों में लेख लिख रहे हैं, धरने-प्रदर्शन कर रहे हैं, कानूनी जाच और कार्रवाई की मांग कर रहे हैं! क्‍यों भई, तो महज एक नारी को निर्वस्त्र करने के लिए! यह भी कोई बात हुई? यह कोई इतना बड़ा मसला है कि लोग उसके लिए सत्ता पर बरस पड़ें!
सुना कि छत्तीसगढ़ में एक महिला शिक्षक को निर्वस्त्र करके उसके साथ होली खेली गयी। फिर सुना-देखा कि पटना में भी किसी महिला को निर्वस्त्र कर दिया गया। यह तो मूल प्रवृत्ति की ओर जाने की बात है। आखिर में हम पैदा तो नंगे ही होते हैं न! तो फिर इस नंगी को बार-बार देखने की जुगुप्सा हमसे यह काम करवा देती है। दरअसल हम चाहते नहीं हैं। मगर हो जाता है, क्या कीजिएगा… यह दिल की बात है, दिल से सीए-वैसे काम हो जाते हैं।
बात नारी को निर्वस्त्र करने की रही है। यह इसलिए होता आ रहा है, क्योंकि हमने नारी को ही घर की इज्ज़त मान लिया है। यह भी मान लिया है कि उसके वस्त्र उतरते ही उसकी और उसके पूरे खानदान की मान-प्रतिष्ठा भी उतर जाती है। कभी सुना कि किसी ने किसी पुरुष को निर्वस्त्र कर दिया? जी नहीं, यह मान लिया जाता है कि ऐसा कर भी दिया जाए, तो उसकी इज्ज़त नहीं जाएगी। और जब इज्ज़त ही नहीं गयी तो उस पर मेहनत कर के फायदा? इंसान का स्वभाव है, कम मेहनत में ज़्यादा लाभ हासिल करना। नारी को निर्वस्त्र कर देना सबसे सस्ता, सरल, सुहावना और कम मेहनत का काम है। लो जी, हमने काम भी कर दिया और फल भी एकदम चंगा मिल गया।
लोग यूं ही परेशान होते रहते हैं, इन सब बातों पर। यह तो हमारी परंपरा में आता है। कहते हैं कि तीनों देवता यानी ब्रह्म, विष्णु और महेश सती अनुसूया के रूप पर बड़े मोहित थे। एक दिन वे तीनों अनुसूया के पास पहुंचे। अनुसूया ने तीनों की आवभगत की और फिर आगमन का उद्देश्य पूछा। तीनों ने कहा कि वे उन्हें निर्वस्त्र देखना चाहते हैं। अब घर आये अतिथि की मांग पूरा करना धर्म माना जाता था। अनुसूया में शायद वो तेज रहा हो, इसलिए कहते हैं कि उन्‍होंने अपने ताप के बल पर तीनों को बाल रूप में परिवर्तित कर दिया और खुद निर्वस्त्र हो गयीं। बच्चे के सामने मां जिस भी रूप में रहे, वह मां ही रहती है।
महाभारत में आ जाइए। दुर्योधन की जीवट इच्छा थी कि वह पांचाली को निर्वस्त्र करे। कह सकते हैं आप कि पांचाली ने उसका अपमान किया था, तो किसी के अपमान की सज़ा उसे निर्वस्त्र करना तो नहीं है। लेकिन यह हुआ।
आज भी यही हो रहा है। नारी को निर्वस्त्र दो कारणों से किया जा रहा है। या तो उसके प्रति नफ़रत हो या उससे या उसके घरवालों से बदला लेना हो। नारी बदला लेने का औज़ार बन गयी है। यह महाभारत काल से चला आ रहा है। युद्ध में भी बलात्कार युद्ध की रणनीति का एक अघोषित पहलू हुआ करता है, जो आज तक बदस्तूर कायम है।
मैं यह नहीं समझ पाती कि एक ओर तो समाज नारी को कमज़ोर, अबला दुर्बल समझता है, दूसरी ओर अपनी विजय का हेतु भी उसे ही बनाता है। यह सोचने की बात है कि एक कमज़ोर पर विजय हासिल कर के हम कौन सी जीत हासिल करते हैं?
दूसरी बात कि बदलाकारियों के लिए सबसे आसान होता है घर की इज्ज़त नारी की मर्यादा का भंगन। तारीफ़ है कि इससे हम सभी अभी तक उबरने की कौन कहे, इसकी ओर सोचते तक नहीं हैं।
तीसरी बात है – नंगेपन की ओर हमारा आकर्षण। हम चाहे जितने भी सभ्‍य हो लें, हो लेने का दावा करें, मन में एक आदम प्रवृत्ति छुपी रहती है और यह आदम प्रवृत्ति यह काम करवाती है। मुझे लगता है कि निर्वस्त्र करनेवालों से यह सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि ऐसा करके आप अपने भीतर कैसा संतोष और खुशी महसूस करते हैं। और अगर करते हैं, तो क्या वे तब भी यही महसूस करेंगे, अगर कोई उनके घर की स्त्रियों के साथ ऐसा करे? और अगर नहीं तो फिर वे दूसरों की स्त्रियों के साथ ऐसा क्यों करते हैं?
बहरहाल। एक जवाब तो यह लगता है कि वे यह ज़रूर कहेंगे कि ऐसा कर के हम अपनी परंपरा का पालन कर रहे हैं। आखिर हजारों साल पुरानी, समृद्ध परंपरा को छोड़ा भी कैसे जा सकता है? आइए, हम भी इसी परंपरा के हवन में कुछ समिधा डाल आएं। कुछ और को निर्वस्त्र कर आएं। परंपरा का निर्वहन पुण्य का काम है और आइए, इस पुण्य के हम सब सहभागी बनें।

Saturday, July 25, 2009

सेक्स? माइंड इट प्लीज!

मोहल्ला लाइव पर पढ़ें छाम्माक्छाल्लो का यह आलेख। लिंक है-http://mohallalive.com/2009/07/25/sex-mind-it-please/

आजकल सेक्स पर इस देश में बहुत चर्चा चल रही है। एक वर्जित फल, खाएं कि न खाएं, एक छुपी-छुपी सी चीज़, दिखाएं कि ना दिखाएं। बहुत बहस चल रही है कि इस “सच का सामना” किया जाए या नहीं। लोग बाग इसे निजता पर चोट मान रहे हैं। कितनी अच्छी बात है। हम इतने खुले तो। पर यह तो देखें कि निजता है क्या? निजता तो अपने खाने, पहनने, रहने, फिल्म देखने, भोजन करने, बहस करने तक सभी में है। मगर इन सब पर बातों के चलने पर उसे निजता पर प्रहार नहीं माना जाता है। सेक्स पर बात कर दी तो निजता पर प्रहार हो गया।
कहावत है, बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा? छम्मक्छल्लो भी इसे मानती है। सुना है कि एक चैनल द्वारा दिखाया जानेवाला रियैल्टी शो का मामला लोकसभा तक पहुंच गया है। जगह-जगह ब्लाग पर तो लोग चर्चा कर ही रहे हैं। चैनल को लानत-मलामत भेज ही रहे हैं।
आज सेक्स सबसे बडा सच है। सेक्स है तो दुनिया है, दुनिया की रीति-नीति है। सेक्स नहीं है तो जीवन में कुछ भी नही है। लेकिन सेक्स तो करो, उसे महसूस भी करो, उसका आनंद भी उठाओ, मगर उस पर किसी को बोलो नहीं, वरना वह अश्लील हो जाएगा। इस अश्लीलता की क्या सीमा है, किसी को नहीं पता। हमारी नज़र में तो भद्दे तरीके से खानेवाला, भद्दे तरीके से बोलने वाला, भद्दे तरीके से हरक़त करनेवाला भी अश्लील है। मगर जैसे पंकज का मतलब केवल कमल ही मान लिया जाता है, वैसे ही अश्लील का मतलब भी केवल यौनजनित प्रक्रिया ही मान ली जाती है।
यह यौनजनित प्रक्रिया भी कैसे अलग-अलग सांचे मे ढल कर निकलती है, वह देखिए। एक ही क्रिया-प्रक्रिया एक समय में जायज़ और दूसरे समय में नाजायज़ बन जाती है। अब देखिए न, हम सबकी पैदाइश इस सेक्स की ही बदौलत है। अगर किसी को इस पर कोई शक है तो बेशक वह विज्ञान का सहारा ले सकता है। लेकिन चूंकि हमारी–आपकी पैदाइश एक मान्य सीमा रेखा के तहत हुई है, इसलिए हम नाजायज़ नही हैं, हमारे आपके बच्चे भी नहीं हैं, मगर यही मान्यता जब किसी और के साथ नहीं होती तो उसकी संतान को अवैध मान लिया जाता है। उसकी इज़्ज़त, उसके खानदान की प्रतिष्ठा पर आंच आ जाती है। वह किसी को अपना मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह जाता। देखिए न, कुंती ने अपने पति की सहमति या अनुमति से अन्य देवताओं के संयोग से पुत्र पैदा किये तो उसे सभी ने हाथोहाथ लिया, मगर वही कुंती कर्ण को अपना पुत्र नहीं कह सकी। द्रौपदी को पांच पतियों की पत्नी बना दिया गया, यह समाज की मर्यादा के साथ हुआ, मगर सीता को रावण के यहां से आने पर अग्नि परीक्षा के लिए कहा गया। किसी ने यह नहीं कहा कि 14 साल तक तो राम और लक्ष्मण भी जंगल में रहे, वे भी तो कहीं जा सके होंगे, मगर नहीं। यौन शुचिता की परीक्षा पुरुषों के लिए नहीं होती। जिस दिन यह सब होने लगे, यक़ीन मानिए, उस दिन यौन शुचिता की परिभाषा ही बदल दी जाएगी।
आज लोगों के लिए यौन संबंध ही सबसे बड़ा सच हो गया है। अब देखिए न, अगर घर की लक्ष्मी अपने पति के अलावा किसी और का ध्यान न करे तो वह देवी की तरह पूजनीया हो जाती है। मगर वही लक्ष्मी अपनी सारी ज़‍िम्मेदारियों को पूरा करते हुए भी अगर यौन इच्छा से प्रेरित हो कर कहीं किसी ओर मुड़ गयी तो उसके लिए लोगों के मनोभाव देख लीजिए। क्या यह संभव नहीं कि कोई स्त्री अपने पति से संतुष्ट न हो? पति से इस बाबत कहने पर भी इसका उस पर कोई असर ना पड़े, उल्टा पति उसे अपने अहम पर चोट मान ले और तब और भी ज्यादा अपने ही मन की करे? ऐसे में अगर वह किसी और जगह अपने मन की संतुष्टि की तलाश करे तो इसे ग़लत क्यों मान लिया जाना चाहिए? भले ही वह घर की तमाम ज़िम्मेदारियों को पूरे तन-मन से निबाहती आ रही हो? क्यों आज भी “भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है” पर ही उसे टिके रहना चाहिए? और क्यों समाज की सारी शुचिता का ठीकरा औरतों, लड़कियों पर ही फूटना चाहिये? क्यों समाज में सेक्स ऐसा तत्व मान लिया जाना चाहिए कि उसके ही ऊपर घर का सारा शिराज़ा टिका दिया जाये? क्यों एक स्त्री अपने अन्य संबंधों की बात करे तो उसे निर्लज्ज, यहां तक कि वेश्या सरीखा मान लिया जाए? संबंधों की सबसे मज़बूत कड़ी सेक्स को ही क्यों मान लिया जाए?
इसका जवाब भी है। हम देख रहे हैं कि मन से तो हम अब पवित्र रहे नहीं। छल, कपट, धोखा, झूठ, बेईमानी हमारे चरित्र में रक्त की तरह घुल-मिल गये हैं। एक वाक़या याद आता है। पड़ोस में एक बार डकैती पड़ी थी। डाकू सभी कुछ ले गये थे। यहां तक कि महिलाओं की नाक की कील भी छीन कर ले गये थे। मगर उन लोगों ने उस घर की जवान बेटी-बहुओं पर निगाह नहीं डाली। बस जी, वे तो देवता की तरह पवित्र हो गये। उनके सारे अत्याचार छुप गये। सभी जगह उसके इसी सौदार्य की चर्चा होती रही। मतलब कि देह ही और देह की पवित्रता ही हमारे चरित्र का एकमात्र पैमाना हो गया है।
तो आइए साहबान, अगर यही है तो आज से हम यह कसम खाते हैं कि देह की इस शुचिता को बनाये रखने के लिए हम हरसंभव प्रयास जारी रखेंगे। आइए और सबसे पहले महामुनि वेदव्यास को अपने शास्त्र से निकाल फेंकें। सभी कोई मिल जुल कर खजुराहो, कोणार्क आदि की मूर्तियों को नष्ट कर दें। याद रखें, इसे किसी विधर्मियों ने नहीं, हमी लोगों ने बनाया है। संभोग, सेक्स आदि शब्द को अपने जीवन से ही निकाल दें। भूल जाएं कि यह हमारे जीवन का एक अनिवार्य तत्व भी है। मनोवैज्ञानिक चाहे लाख कहें कि यह लोगों को स्वस्थ रखता है, हम तो इसे अश्लील ही मानते हैं भई. आखिर अपने धर्म, अपनी मर्यादा की रक्षा का सवाल है।
हम यह कतई नहीं कहते कि आप सारे समय सेक्स और सेक्स ही करते और कहते रहें। लेकिन सेक्स को आप हौआ न बनाएं, उसे एक मर्यादित रूप में रहने दें। मर्यादित से मतलब, छुपी चीज़ नहीं। यह जीवन की अन्य क्रियाओं की तरह ही उतनी ही सामान्य प्रक्रिया हो कि जब भी आपकी ज़रूरत हो, आप उसे उजागर कर सकें। खराब मानेंगे तो खराब बात तो सडक पर थूक फेंकना और कचरा फेंकना भी है। मगर हममें से कितने लोग इसे अश्लील मानते हैं और दुबारा ऐसा न करने की सोचते हैं?

Friday, July 24, 2009

गोत्र के रक्षको, हम आपकी पूजा करते हैं.

छाम्माक्छाल्लो को अपने देश के धर्म, जाती, वर्ग, वर्ण आदि पर पूरी श्रद्घा है और वह इसे पूजती है. वह यह मानती है कि देश के कण- कण का, इसके अनु-अनु का विकास हो. यह तभी संभव है, जब देश के कण- कण का, इसके अनु-अनु का अलग-अलग विवेचन हो. यह क्या बात हुई कि आप कहेंगे कि देश में एका हो जाय और सभी एक हो कर रहें. रहेंगे तो अपना अस्तित्व कहाँ जाएगा. और जब अस्तित्व ही नही रहा तो दुनिया में क्या भाड़ झोंकने आये हैं? देखिये, देश जबतक अलग-अलग रहेगा, देश का विकास होगा। धर्म के नाम पर विकास होगा, जाति के नाम पर विकास होगा, वर्ण के नाम पर विकास होगा, स्त्री के नाम पर विकास होगा, दलित के नाम पर विकास होगा। और तो और, गोत्र के नाम पर विकास होगा. यह सब समाज को मजबूत बनाने के लिए किया गया था. देखिये, हम कहते हैं कि लोग भाई-भाई की तरह रहें, सभी स्त्री, लड़की को माँ-बहन की तरह देखें. गोत्र की स्थापना इसीलिए तो की गई कि शुचिता बनी रहे. कितना अच्छा है, किसी तरह की गंदगी नहीं फ़ैल सकती. देश का सनातन सपना भी इसके झंडे तले सच होता है. अरे भाई, प्रेम का, एका का. लेकिन कूढ़ मगज, आज के लोग इसमें पलीता लगाने की सोचते रहते हैं. सोचते हैं, देश में टीवी आ गया, सिनेमा आ गया, देश चाँद पर पहुँच गया तो अपने सनातन व्यवस्था को आग के हवाले कर देंगे? इतना कमजोर समझ रखा है? नहीं, इसलिए छाम्माक्छाल्लो सभी के प्रति भक्ति भावः से नत मस्तक है. धर्म, गोत्र, जाती सभी व्यवस्था की पूजा करती है. अब इस पूजा की आंच में कोई जल जाता है तो जले. धर्म के नाम पर दंगे फूटते हैं तो फूटे. जाती न मिलाने पर या दूसरी जाती में शादी कर लेने पर जाती से बाहर कर दिए गए तो किये गए. जोडों की जान ले ली गई तो ले ली गई. सामान गोत्र में शादी करने पर दूल्हे को मार डाला गया तो मार डाला गया। जाती, गोत्र, धर्म के नाम पर इतनी बलि तो होती ही रहती है, होनी ही चाहिए. आख़िर इताना पुराना समाज है। यह सब तो हवं कुंद है, जिसमें किसी न किसी को समिधा तो बनाना ही पङता है. समान गोत्र में सभी भाई- बहन तो किसी के प्रति किसी के मन में मलिन भाव नहीं आयेंगे। अब आए और शादी भी कर ली तो सज़ा तो मिलनी ही चाहिए ना। सो मिली। अब इस पर इतनी चीख पुकार मचाने की क्या ज़रूरत? औअर मचाने से ही क्या हमें न्याय मिल जाएगा? क्या रूप कुनार को न्याय मिल गया? खैरलांजी को मिल गया? अभी-अभी सविता नाम की टीचर को निर्वस्त्र कर के घुमाया गया, उसको न्याय मिल गया? कितनी दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, कितनों को मौत के घाट उतार दिया गया, सभी को न्याय मिल गया? रहने देन। हमारी यद् दाश्त वैसे भी बहुत कमजोर है। लोगों के सामने भी बहुत सी प्राथमिकताएं हैं। अभी कल कोई नया, ज़्यादा सनसनीखेज़ समाचार मिलेगा, सब उस तरफ़ को लपक लेंगे। गोत्र-वोटर चला जाएगा चूल्हे में।

इसलिए छाम्माक्छाल्लो बहुत खुश है. हे धर्म, जाती, वर्ण, गोत्र के रक्षकों, आपसे छाम्माक्छाल्लो की गुजारिश है कि अनंत -अनंत काल तक ऐसा करते रहें, चाहे दुनिया कही से कही तरक्की कर ले, चाहे विज्ञान कितना भी आगे बढ़ जाए, चाहे तकनीक के बल पर हम इंटरनेट और बेतार के तार से संचार करने लगें, आप सब अपनी मान्यताओं के संग बने रहे, प्लीज. आखिर देश के अनु-अनु के विकास का सवाल है. इस विकास के रास्ते में जो भी आये, उसे चीर कर रख दें. हमें आपकी व्यवस्था पर बड़ा भरोसा है- सचमुच.

Thursday, July 23, 2009

आइये खेलें पुरस्कार- पुरस्कार

भाई, छाम्माक्छाल्लो की नज़र में पुरस्कार की बड़ी कीमत है. पुरस्कार ना हो तो लोगों का कद वैसे ही कम हो जाता है, जैसे हाई हील की सैंडिल ना पहनने पर लड़कियों का कद. जिस किसी ने भी जीवन में कोई पुरस्कार नही जीता, समझिये, उसकी तो वाट ही लग गई. खेल हो, फिल्म हो, नाटक हो, लेखन हो या और कोई विधा, जबतक आप पुरस्कार नहीं हासिल करते हैं, लोग आपको अं वें ही समझते रहते हैं. अब देखिये ना, जबतक सत्यजित रे को आस्कर के लिए नामित नहीं किया गया, तबतक उन्हें भारत रत्न के लायक नही समझा गया. अमर्त्य सेन को नोबल पुरस्कार मिलाने से पहले कौन जानता था? लेखन के क्षेत्र में तो पुरस्कार की महिमा अपरम्पार है. कई लेखक तो लिखते ही इसलिए हैं की उन्हें अपने हर लेखन पर दो-चार पुरस्कार लेने हैं. ऐसे लेखक छपने से पहले ही चर्चित हो जाते हैं. उन्हें सही पता होता है की उनकी कृति कब छपेगी, कहा से छपेगी, कौन उसे विमोचित करेगा, कौन उस पर चाय-पानी पिलाएगा, कौन खाने-पीने या पीने-खाने का आयोजन करेगा, किस सस्न्था के द्वारा उसकी २००-३०० प्रतिया खरीद कर हित-मित्रों को भेंट की जायेंगी. सब तय रहता है. पुरस्कार की यह महिमा राजभाषा हिन्दी के साथ भी है. यहाँ मुम्बई में कई अनेक संस्थाएं हैं जो हर साल राजभाषा पुरस्कार का वितरण करते हैं. बड़ी जनतांत्रिक और ईमानदार व्यवस्था है इनके पास. वे पहले सभी दफ्तरों से पुरस्कार के लिए प्रविष्टियाँ मंगाते हैं, फिर उनके पास पहुंचाते हैं -" आप हमें इतने का बैनर या विज्ञापन सपोर्ट कर देंगे तो हम आपको इस पुरस्कार से नवाजेंगे. मसलन, उनकी पहली मांग पूरी तो आपको पहला पुरस्कार. छाम्माक्छाल्लो कई बार पुरस्कार लेनेवालों से पूछ चुकी है, "गुरु, कितने में मिला?' वे कभी -कभी मुस्कुरा देते हैं, कभी-कभी बड़ी साफगोई से बता भी देते हैं. एक बार तो एक संस्था ने ७ ट्राफी के बल पर ५७ कार्यालयों को पुरस्कृत कर दिया. मंच से विजेता (?) जैसे ही ट्राफी ले कर परदे के पीछे पहुंचे थे, उनसे ट्राफी ले ली जाती थी और मंच से पुकारे गए दूसरे विजेता को दे दी जाती थी. बाद में सूना ट्राफी के सभी दावेदार इसके लिए लड़ पड़े थे. भाई, फोटो तो खिंच गई, अब दफ्तर ट्राफी मांगेगा तो कहा से देंगे? और पैसे दिए हैं सो अलग। लेखन के क्षेत्र में भी कुछ ऎसी ही स्थिति है. किताबों से ज़्यादा पुरस्कार की संख्या है।एक संस्था है जो लेखकों को १०००, ७०० और ५०० रूपए के पुरस्कार देती है. पुरस्कार अखिल भारतीय स्तर का है (?) इसलिए पुरस्कार की प्रविष्टि के आमंत्रण पर ही लिख दिया जाता है की विजेता को अपने खर्चे पर मुम्बई आकर पुरस्कार लेना होगा. छाम्माक्छाल्लो कोपता नहीं की यह पुरस्कार लेने कौन आता है, मगर हर साल प्रविष्टि के लिए आमंत्रण छपता है. अभी हाल में एक लेखक को सम्मानित किया गया. पर देखिये दुर्भाग्य लेखक का की हिन्दी का की उसे पुरस्कार लेने के लिए अपने दफ्तर से अनुमति नही मिल सकी. अब हिन्दी का लेखक कोई विक्रम सेठ तो हैनहीं की उसे तीन साल बाद की किताब के लिए आज करोडों के अग्रिम मिल जाए. यहाँ तो एक बार सुरेन्द्र वर्मा की "मुझे चाँद चाहिए" के लिए कुछ लाख का अग्रिम मिला था तो हमारी देवदास सरीखी लेखक बिरादरी उदास हो गई थी. कुछ चुन्नीलाल स्टाइल से उसकी मीन मेख निकालने लगे. बहरहाल, हिन्दी का लेखक अपनी किताब के बल पर जीवन क्या, अपनी लेखनी भी नही चला सकता, लिहाजा उसे कहीं ना कही, कोई ना कोई रोजगार, धंधा, नौकरी-पानी तो करनी ही पड़ेगी. अब नौकरी में ना करी तो होता नही, सो नियोक्ता जो कहेगा, कर्मचारी को मानना पडेगा. किसी ने बताया की उसके खिलाफ करोडों के गबन का मामला चल रहा है. सुनकर छाम्माक्छाल्लो का मन मयूर नाच उठा. हिन्दी का लेखक और गबन? हिन्दी का तो हर लेखक मार्क्स को घोंटकर आगे बढ़ा हुआ होता है। उसकी नज़र सर्वहारा पर होती है। उसकी बेचारगी का वर्णन वह मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह करता है। प्रेमचंद का उपन्यास गबन याद आ गया. लेकिन उसमे और इसमे फर्क है। पहला फर्क तो यही है की हिन्दी का लेखक अब बहादुर हो गया है। उसे खतरों से खेलने आने लगा है। अब करना ही है तो करोडों का करो. कितनी तरक्की कर गया है अपना लेखक. संस्था ने कहा की हम लेखक का नहीं, उसकी कृति का सम्मान कर रहे हैं. छाम्माक्छाल्लो का कलेजा गर्व से फूल उठा. हाँ, सही तो. व्यक्ति से क्या मतलब? मतलब तो कृति से है. अब अपने यहाँ ही तो रत्नाकर हो गए- डाकू, जिसने न जाने कितनों को लूटा होगा, कितनों की जानें ली होंगी. अगर हम उनके इस रूप को ही याद करते तो उनके बाल्मीकी रूप और उनकी रामायण को तो गतालाखाते में ही डाल आये होते ना की नहीं?। छाम्माक्छाल्लो को गर्व है की हम अपनी परम्परा का पालन बहुत निष्ठा और ईमानदारी से कर रहे हैं. अब से हम शपथ भी ले सकते हैं की किसी भी लेखक या किसी भी व्यक्ति को पुरस्कृत करने से पहले उसकी जाती जिंदगी से कोई वास्ता नहीं रखेंगे। वह स्मगलर हो, दादा हो, कातिल हो, धोखेबाज हो, मगर लिखता हो तो उसे पुरस्कार दिया जा सकता है. आखिर यह हमारा देश है. इसी देश में रत्नाकर हुए हैं और हम भी इसी देश के निवासी हैं.

Wednesday, July 22, 2009

आइये, हम बलात्कार के लिए प्रस्तुत हैं.

आइये, हम बलात्कार के लिए प्रस्तुत हैं. छाम्माक्छाल्लो फिर से बहुत प्रसन्न है. वह प्रसन्न है की माननीय उच्चतम न्यालालय ने एक मानसिक रूप से विकलांग लड़की के माँ बनाने के अधिकार को सुरक्षित रखा. वह लड़की माँ इसलिए नही बन रही है की उसकी शादी हुई है और विवाह बंधन में बंध कर वह माँ बनने जा रही है. जी नहीं, हमारा समाज इतना उदार नही है की वह किसी ऎसी लड़की से अपने होनहार, बीरावान के हाथ पीले कर दे, न ही हमारे ऐसे वीर-बाँकुरे हैं जो इस तरह की लड़कियों के हाथ थाम ले. गिने-चुने उदाहरण हो सकते हैं. मगर यह हमारा देश और इसके नागरिक जबरन कुछ भी लेने में अपनी वी़रता समझते हैं. चाहे वह किसी का कुमारी हो, किसी का मान हनन हो या कुछ और. अखबार में छपी खबर के मुताबिक वह लड़की चंडीगढ़ के नारी-निकेतन में रहती थी और वहा उसके साथ रैप किया गया. यह कितनी खुशी की बात है. रक्षण स्थाlii पर शिकार. शिकारी कितने वीर-भाव से वहा गया होगा औए उसने उस लड़की को अपना निशाना बनाया होगा. वह उतने ही उन्नत भाव से वहां गया होगा की वह लड़की तो मानसिक रूप से विकलांग है. अगर उसकी अपनी भाषा में कहें तो पागल. पागल लड़की को पत्नी नही बना सकते, मगर उसे भोग तो सकते ही हैं. उसने यह भी दया दिखाई होगी की उस बिचारी से कोई शादी तो करनेवाला है नही, तो बिचारी जन्म भर ऐसे ही इस एक सुख से वंचित रह जायेगी. तो क्यों न एक पंथ दो का किये जाएँ. उस लड़की की आत्मा की भी शान्ति और अपनी वासना की भी पूर्ती. अब यह दूसरी बात हो गई की उन महानुभाव के कृत्य के कारण लड़की बिचारी गर्भवती हो गई. लड़कियां भी बड़ी उर्वरक होती हैं. (सरकार कोकही तो रोक लगानी चाहिए). जहां रोक लगाने की बात है, सरकार इतने एड्स के दर दिखाती है, उससे बचने के किये कंडोम के इस्तेमाल की सलाह देती है. अप्रत्यक्ष रूप से वह यह भी कहती है की इससे अनचाहे गर्भ से बचाव हो सकता है. मगर लोग हैं की वह सभी के नेक इरादे पर पानी फेरते रहते हैं. छाम्माक्छाल्लो को उस भाई साहब पर बड़ा तरस आता है. अब रह गई बात उस लड़की की. मानसिक रूप से अपांग है, इसलिए लोगों ने सोचा की वह माँ बनाए लायक नहीं. उपभोग के लायक है. यह समाज का जाने कौन सा वर्ग है, लोग हैं, जो एक स्त्री की कुदरती पूर्ती को नकारते हैं. उसे रैप किया जा सकता है, मगर उसे माँ नहीं बनने दिया जा skataa. छाम्माक्छाल्लो को इस बात पर भी hairaanii होती है की आज कल लोग हर बात के लिए सुप्रीम कोर्ट की गुहार लगाने लगते हैं. माँ बनाना किसी भी लड़की का जन्म सिद्ध अधिकार है. प्रकृति ने यह तय नही किया है की वह माँ कैसे बनेगी? यह समाज के अपने नियम हैं और अपनी बंदिशें. हर बात की तरह इसे भी लड़की पर ही थोपा जाता है. बलात्कारी तो कहा होगा, मालूम नहीं, मगर गाज लड़की पर गिर रही है. छाम्माक्छाल्लो इस बात से भी प्रसन्न है की बलात्कार तो हमारे हिन्दू धर्म का एक हिस्सा है. उसे लगता है की बलात्कार करके उस महामानव ने हिन्दू धर्म की रक्षा ही की है. यह न कहियेगा की हिन्दू धर्म में ऐसा नही है. हम बचपन से यह कहानी पढ़ते आये हैं सटी वृंदा का शील भगवान विष्णु ने उसके पति का रूप धरकर भंग किया था. इसका पता चलने पर वृंदा ने उन्हें शाप दे दिया था और वे सालीग्राम बन गए थे. गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या का शील भंग देवताओं के राजा इन्द्र ने ही किया था. (सोचिये एक राजा का कृत्य). इसका भी पता चलने पर गौतम ऋषि ने इन्द्र को सहस्त्र योनी का शाप दिया था, जिसे इन्द्र के अनुरोध पर सहस्त्राक्ष में बदल दिया गया था. इसमें भी इन्द्र ने गौतम ऋषि का ही रूप धारण किया था. इससे एक बात तो पता चलती है की स्त्रिया अपने पति के अलावा और किसी के बारे में नहीं सोचती थीं, इसलिए उनका शील भंग करने के लिए उनके पति का रूप धारण करना देवताओं की मज़बूरी होजाती थी. छाम्माक्छाल्लो इसलिए भी प्रसन्न है की हम अपने धर्म की रक्षा का पालन बड़ी निष्ठा से कर रहे हैं. लड़कियों का क्या है? वे तो होती ही हैं इन सबको झेलने के लिए. जभी तो प्रकृति ने भी उसकी संरचना ऎसी कर दी. अब प्रकृति से तो कोई नही लड़ सकता न. इसलिए, हे महानुभावो, आइये, हम सभी हम सभी लूली, लंगडी, कानी, अंधी, पागल, विक्षिप्त- आप सभी के लिए प्रस्तुत हैं. आप तोहम पर अहसान कर रहे हैं, हमें हमारी देह और उसकी ज़रुरत और उसकी पूर्ती से वाकिफ करा रहे हैं. हम सचमुच आपके आभारी हैं। आइये, बार-बार आइये।

Saturday, July 18, 2009

सच का सामना?मुश्किल है दिल को थामना?

आपको पता है की छाम्माक्छाल्लो जेल बंदिउयों के लिए काम करती है. एक बार वह महिला जेल में थिएटर वर्कशाप के लिए गई. वहा एक महिला से पूछा की वह कैसे यहाँ आ पहुँची? उसने जवाब दिया, "ड्रग पहुंचाने के सिलसिले में." "कितने पैसे मिले थे>" "ढाई हज़ार पर बात हुई थी." इतने पैसे मिल रहे थे तो तुम्हे लगा नहीं की किसी गलत काम के लिए हो इतने पैसे दिए जा रहे हैं? वह बोली," दीद्दी, जब जब पेट में आग लगी हो तो गलत-सही कुछ नहीं दीखता. फिर दो-चार बार कर लिया था तो हिम्मत बढ़ गई थी. फिर इतने पैसे कौन किसी काम के लिए देता है?" यह है आसान तरीके से पैसे कमाने की इच्छा, जिससे हम आक्रान्त हैं. हर कोई आज ईजी मानी चाहता है. इसलिए गलत-सही वह नहीं देखता. छाम्माक्छाल्लो दो-तीन दिन पहक्ले शुरू हुए एक टी वि शो "सच का सामना" के सन्दर्भ से बोल रही है. किसी एक ब्लॉगर भाई ने इसे अश्लील, नंगा बताते हुए किसी के निजी जीवन में दखल अंदाजी बताते हुए इसे तुंरत बंद करने की मांग की है. वाह जाना, वाह! क्या बात है? कार्यक्रम के स्वरूप को देखे समझे बगैर ऐसा कह देना? सहभागी क्या अबोध बच्चा है? क्या उसे नहीं मालूम की उससे क्या पूछा जानेवालाहाई? उससे तो उन्हीं ५० सवाल में से २१ सवाल पूछे जाने हैं, जिसे पहले पूछा जा चुका है. अब उनमे से कौन से सवाल चुने जाते हैं, इसे तो वे ही तय करेंगे. जब पहले दौर में आपसे सवाल किये गए और आपको अगर नागवार गुजरा तो एपी निकल आये होते. किसी ने किसी संविधान के तहत यह बाध्यता तो नही लगाईं थी की आपको खेलना ही है. यहाँ तक की शो के दौरान भी होस्ट बार-बार यह कहता है की आप न चाहें तो यही से खेल छोड़कर जा सकते हैं. सहभागी के एनी रिश्तेदारों के लिए बाजार भी है. अगर उन्हें नागवार गुजरता है यह सवाल तो वे बाजार दबाकर उस सवाल को छोड़ने के लिए कह सकते हैं. यह सब नहीं होता है और खेल अबाध गति से आगे बढ़ता है तो सहभागी की हिम्मत की दाद दीजिये की उसमे ऐसे सच का सामना करने की हिम्मत है. अपरिवारावाले की हौसला आफजाई कीजिए की वे सच सुनाने, उसे फेस करने का साहस रखते हैं. यह एक प्रकार का कन्फेशन है. फर्क यह है की इसे करोडों के सामने स्वीकार किया जा रहा है. यह अपनी आत्म कथा लिखने जैसा है. सभी के भीतर यह हिम्मत नही होती. फिर पैसे का भी सवाल है. अगर २१ सच बोलकर एक करोड़ रुपये मिलते हैं तो बहुत से लोग इसमे भाग लेना चाहेंगे. और भाग ले भी रहे हैं. साध्हरण जनता भी और सेलेब्रेटी भी. स्लेब्रेती के लिए तो आप बोल देंगे की उनकी तो लाइफ ही ऎसी है, सर्व साधारण के जीवन के लिए मुश्किल है. तो जनाब, सर्व साधारण जो उसमें गए हैं, या जा रहे हैं, वे वयस्क है, अपना भला-बुरा सोच समझ सकते हैं. खतरा लेने के लिए तैयार हैं, तो आपको क्या दिक्कत है? कही आप यह तो नही दर रहे की कल को कोई आपका अपना इस सच के सामना में शामिल ना हो जाए? झूठ तो हम बहित बोलते हैं, कभी सच का सामना करने की हिम्मत भी जुटाइये. दुनिया इतनी बुरी भी नही है. हां, यह लेख चैअनल के प्रोमोशन के लिए नहीं लिखा जा रहा है. यह स्मिता मथाई के कार्यक्रम के बाद लोगों के विचार पर अपने विचार हैं. चैनल की अपनी बदमाशिया हैं. सूना की एक क्रिकेटर को दूसरे के खिलाफ बोलने के लिए पैसे दी गए हैं, ताकि खबर बन सके. चैनल को अपना मॉल बेचना है तो उसे इस तरह के हथकंडे अपनाने हैं. आप होटल का अगुआरा देखते हैं ना. होटल का पिछुआरा नहीं. उसी तरह से आपके पास एक फिनिश्ड प्रोडक्ट पहुचता है. उसके पीछे क्या-क्या होते हैं, हमें नहीं पता. चीनी को साफ़ करने के पीछे किन-किन रासायनिक का इस्तेमाल होता है, पता नहीं. बचपन में सुनते थे की इसे साफ़ करने के लिए हड्डियों का इस्तेमाल किया जाता था. कार्यक्रमों का भी यही हाल है. सर्व साधारण पर किसी का भी ख्याल नही है. उसे टारगेट बनाय्या जाता है, तो तय हमें करना है की हम टारगेट बनाना पसंद करते हैं या नहीं. आखिर को आप वयस्क हैं. खुद तय कीजिए की सच का सामना करना है या नहीं?

Friday, July 17, 2009

देवी-देवताओं के अपमान से पहले

छाम्माक्छाल्लो आजकल बहुत उदास है। वह एक सच्ची हिन्दू है और इसलिए उसका मन फूल से भी कोमल है. उसकी भावना इतनी कमजोर है की बार-बार लगातार उसे झटके दिए जाते हैं और उन झटकों से उसके मन की कोमल भावनाएं आहात होती रहती हैं. पहले उसकी भावना लोगों के नाम पर आहत हो जाती थी. एक पॉप सिंगर हैं- पार्वती खान. कहते हैं की वे मशहूर लेखक राही मासूम राजा की पुत्रवधू हैं. अब माँ- बाप ने नाम रख दिया पार्वती. उन्हें पता नही था की वे बाद में किसी खान से शादी कर लेंगी और नाम हो जाएगा पार्वती खान. छाम्माक्छाल्लो के कोमल ह्रदय की तरह ही किसी एक सच्चे हिन्दू ह्रदय की कोमल भावना इतनी आहात हुई थी की अखबारों तक में लिख मारा कि देवी के नाम के आगे विधर्मी नाम लगाने से उनका मन बहुत आहत हो रहा है। हिन्दी और मैथिली की मशहूर लेखक हैं- उषा किरण खान। शुद्ध मैथिल ब्राह्मण हैं। (उषा जी इस जातिसूचक संबोधन के लिए माफ़ करें।) इतना ही नहीं, वे बाबा नागार्जुन की भतीजी है। उनकी शादी आई पी एस अधिकारी रामचंद्र खान से हुई। रामचंद्र खान भी शुद्ध ब्रह्मण हैं। (फ़िर से माफी)। मगर आजतक उनके नाम को ले कर किसी की भावना आहत नही हुई। अब बिहार के लोग ऐसे ही पागल हैं तो क्या कीजियेगा? रामचंद्र के आगे खान लगाने पर भी आत्मा आहत नही हुई।

अंडा सेहत के लिए लाभदायक है. लेकिन मेरा सच्चा हिन्दू मन इसका विज्ञापन देख कर बहुत आहत हो जाता है. यह दूसरी बात है कि अंडा खाने के समय यह आहत नहीं होता. छाम्माक्छाल्लो की तरह ही देश और संसार की बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू मांसाहार का सेवन करते होंगे. मगर वे सब सच्चे हिन्दू हैं. मांस खाने से उनका मन आहत नही होता, मगर मांस वाले बर्गर के विज्ञापन पर देवी माँ लक्ष्मी की तस्वीर से आहत हो-हो कर लास्ट-पस्त हो गया. एक सच्ची हिन्दू की तरह छाम्माक्छाल्लो का मन देवी -देवता को कभी जूते के तो कभी कच्छे- बनियान के तो कभी किस्सी और के विज्ञापन पर देख कर आहत होता रहता है। छाम्माक्छाल्लो अपने देवी-देवता से पूछना चाहती है कि क्या उन्हें पता है कि उनका पमान हो रहा है या वे यीशु मसीह की तरह कहना चाहेंगे कि इन्हें क्षमा कर दो, ये नही जानते कि ये क्या कर /कह रहे हैं.

छाम्माक्छाल्लो को लगता है कि उसका सच्चा हिन्दू मन एक अबोध बच्चे की तरह हो गया है. जिस तरह एक बच्चे को छेड़ दो तो वह यह समझ नहीं पाटा कि उसे छेड़ा जा रहा है. वह रोना, ठुनकना, बिसूरना शुरू कर देता है. चिधानेवाले को बच्चे की इस हरकत पर मजा आता है. वह इसका आनंद लेने लगता है. बच्चा जब ज्यादा ठुनकता है तो चिधानेवाला उसे प्यार से गोद में उठा लेता है, उसे थपकियाँ देता है, उसे सौरी भी बोलता है. बच्चा मान जाता है. चिधानेवाला फिर कुछ देर बाद अपनी हरकत शुरू कर देता है.छाम्माक्छाल्लो का सच्चा मन भी इसी बालक की तरह है. देवी-देवता के नाम पर लोग तरह-तरह के खेल कर देते हैं. हम अपमानित होने लगते हैं, गुस्से में भभकने लगते हैं. गुस्सा दिलानेवाले इसका मज़ा लेता रहते हैं और जब गुस्सा फूटने के कगार पर पहुंचता है तब झट से माफी मांग लेते हैं. यह उनके लिए एक मनोरंजक खेल हो जाता है. मगर छाम्माक्छाल्लो क्या करे. वह तो एक सच्ची हिन्दू है. वह आहत और अपमानित होती रहती है. छाम्माक्छाल्लो अपनीसंसार ही के तरह संसार के सभी हिन्दुओं से कहना चाहती है कि हे महामानव सच्चे हिन्दुगन, आप सब पहले मांस खाना छोड़ दीजिये ताकि मांस पर जब हमारे देवी देवता को बिठाया जाए तो हम उस पर और दूनी-चौगुनी तेजी से प्रतिक्रया दे सकें, वरना यह तो दिखावा सा लगता है. विश्व के शीत प्रदेशों के क्लाइमेट के कारण वहा रहनेवाले लोगों के लिए maanasaahaar आपद धर्म की बात हो जाती है, छाम्माक्छाल्लो इसी आपद केकारण मांसाहारी बनी। वैसी जगहों में बसनेवाले हमारे ये भोले-भाले सच्चे हिन्दू अपने धर्म के अपमान की बात करते हैं तो समझ में नहीं आता कि यह कौन सा धर्म है? क्या यह वह धर्म है जहा, जीव ह्त्या की बात अपराध मानी जाती है. तो अब बलि को देवी का प्रसाद कहकर उसे हत्या जैसे शब्द से बचा लें तो अलग बात है। बहरहाल छाम्माक्छाल्लो बहुत दुखी और उदास है। आप उसकी उदासी को दूर करने में थोड़ी सहायता कीजिए ना.

Thursday, July 16, 2009

कौमार्य परीक्षण -लड़कों का?

आज कल मुझे बहुत आनंद आ रहा है. हमारा देश तरक्की के रास्ते पर पूरे जोर-शोर से बढ़ रहा है. वह संसार के किसी भी देश, किसी भी पार्टी, किसी भी दल, किसी भी संगठन से पीछे नही रहना चाहता है. उसे डर है कि कही वह पीछे छूट गया और कोई दूसरा उस मौके को ले उड़ा तो उसका क्या होगा? यह व्यक्तिगत स्तर पर, पार्टी स्तर पर, जातिगत, दलगत और देशगत स्तर पर होता रहता है, होता रहा है.
अब देखिए न, कहने को हम हिन्दू हैं, हिन्दू संस्कृति हमारे खून में रची बसी है, इतनी कि जब-तब हमारा यह हिन्दू खून खौल उठता है/ यह तब खौल उठता है, जब हमारे देवी देवता पर कोई आक्रमण (?) कर देता है, उसे अपने विज्ञापन का आधार बना देता है. हमारा खून खौल उठता है, जब कोई विधर्मी (?) हमारी बेटी को अपनी बहू या बीबी बनाना चाहता है.
हम उससे भी आगे होते हैं, जब हम किसी भी लड़की को छेड़ना अपना बेसिक आनंद मान लेते हैं. किसी लड़की को छेड़ना और उसका डर कर, सहम कर वहां से चुप-चाप निकल जाना- वल्लाह! क्या आनंददायी दृश्य होता है. मैं तो अपने सभी भाई- बन्धु से कहूंगी कि छेडो और मजे ले-ले कर छेड़ो, ऐसा फोकटिया और आत्मा को तृप्त कर देनेवाला निर्मल आनंद और कहाँ मिलेगा? कोई अगर आवाज़ निकाले तो उसे ही गलत बता कर उसी पर इतना चीखो, चिल्लाओ कि हिन्दी फिल्म की नायिका की तरह वह दुबक कर बैठ जाये या हिन्दी फिल्म की नायिका की तरह सभी उसे दोष देने लगें.
बलात्कार तो और भी स्वर्गीय आनंद है. आप कल्पना नही कर सकते कि इसमें बलात्कार करनेवाला कितना दिग्विजयी का भाव महसूस करता होगा? कही तो कुछ ऐसा है जो उसे तृप्त करता है, जिस कारण वह इस काम को लिए प्रवृत्त होता है. उसे यह बिलकुल घिनौना नहीं लगता होगा, मेरा दावा है.
इन सब मामलों में लड़कियों की सुनना तो और भी निरी बेवकूफी है. इसलिए हे बंधुओ, कभी भी इन सब मामलों में किसी लड़की की मत सुनो. यह सब उनकी बदतमीजी का फल है. लोग ठीक ही तो कहते हैं कि वे ऐसे देह उघाडू कपडे पहनेंगी तो लोगों का मन तो मचलेगा ही. इसलिए उन्हें सात परदों में रखो. लडके अधनगे घूमते है तो घूमने दो. उसमें कोई बुराई नहीं. लड़की ओ देख कर लडके बेकाबू हो जाते हैं तो यह सरासर लड़कियों का दोष है. और अगर लड़कों को देख कर लड़कियां अपने मन के बहकने की बात कहें तो भी दोष उन्ही का है. हिम्मत कैसे कर सकती हैं ये लड़कियां, कमजात! घर की इज्ज़त का कोई ख्याल ही नही. पता नही कैसे भूल जाने की हिम्मत कर लेती हैं ये कि घर की इज्ज़त लड़कियां ही हैं. शायद लड़कों के आवारा निकलने पर माँ-बाप की इज्ज़त में चार चाँद लग जाते हैं.
बहुत अच्छी बात है कि अपने सारे नीति-नियम लड़कियों पर डालो. जैसे घर के सारे काम के साथ-साथ पूजा-पाठ से लेकर नियम, रस्म, तीज त्यौहार लड़कियों- औरतों को जिम्मे छोड़ दिए जाते हैं, उसी तरह पहनने- ओढ़ने के कायदे कानून भी उन पर डाल दो. उसके बाद कहते रहो, "ये औरतें और उनके दस चोंचले ". मेरा मन तो यह सब सुन कर इतना प्रफुल्लित हो उठता है कि मन करता है उन लोगों के चरण धो-धो कर पियूं.
आखिर औरतें होती ही हैं सभी तरह की जिम्मेदारियों को ढोने के लिए और सभी कुछ के लिए उन्हें जिम्मेदार माने जाने के लिए. घर का बच्चा जब पास होता है तो बाप कहता है, मेरा बच्चा है." अगर फेल होता है या कम नंबर आते हैं तो कहता है, "कैसी माँ हो?" पति बहुत गर्व से कहते हैं, "बच्चा माँ की खूबसूरती ले ले, कोई बात नहीं, मगर दिमाग बाप का ले. " यानी यह तय है कि माँ जो है वह कम अक्ल की ही होगी. और यह सब देख सुन कर आत्मा बड़ी प्रसन्न होती है कि यह हमारी उस हिन्दू संस्क्रती में रहनेवाले लोग कहते हैं जो संस्कृति असुरों से रक्क्षा के लिए देवी की गुहार लगाती है, जो यह कहती है कि जहा नारी की पूजा होती है वहा देवता निवास करते हैं. चूंकि पूजा नहीं होती, इसलिए देवता अब बीडी तो कच्छे-बनियान तो कुछ और के विज्ञापन में खपा दिए जाते हैं.
सच मानिए, मैं बहुत खुश हूँ, अपनी हिन्दू संस्कृति की यह उन्नति देख कर. अभी समलैंगिकता पर बहस चल रही है. हम शिखंडी जैसे महाभारत को चरित्र को भूल जाते हैं, विष्णु के मोहिनी रूप को दरकिनार कर देते हैं. अब एक और बहस चल गई है. सुना है कि मध्य प्रदेश में अब लड़कियों के कौमार्य का परीक्षण किया जानेवाला है. मेरा तो मन मयूर नाच उठा. आखिर घर की इज्ज़त हैं नारियां. तो कौमार्य नष्ट करके आनेवाली लड़कियों के चरित्र का क्या भरोसा? आगे जा कर क्या पता वह क्या गुल खिलाये, ससुराल की इज्ज़त को धूल धूसरित कर दे. इसलिए पहले से ही जांच कर घर लाओ.
मुझे केवल एक ही सवाल परेशान कर रहा है. करता रहता है. अब क्या कीजियेगा इस मूढ़ मगज का कि कोई सीधी सी बात मेरे भेजे में घुसती ही नही. यह कौमार्य परीक्षण केवल लड़कियों का ही क्यों? लड़कों का क्यों नही? क्या कौमार्य नष्ट करने या होने में लड़कों की कोई भूमिका नहीं? क्या कौमार्य घर के पुराने बर्तन -कपडे हैं जो उसे अकेले भी कोई नष्ट कर दे सकता है? क्या लड़कों के पास कौमार्य जैसा कोई तत्व नही होता? क्या लड़कों का कोई चरित्र नही होता? चलिए मान लिया कि कौमार्य परीक्षण में फेल लड़की की शादी नही होगी, जैसीकरानी, वैसी भरनी, तो उसके कौमार्य को नष्ट करने में जो वीर बालक सहायक की भूमिका निभा रहा होगा, उसके कौमार्य का क्या होगा? या यह मान लिया जाय कि लड़कों में या तो कौमार्य होता ही नहीं या उसके कौमार्य की चिंता की ही नही जानी चाहिए. आखिर को वह मर्द बच्चा है और इस तरह के तोहमत उस पर लगाना ठीक नहीं. यह हमारी हिन्दू संस्कृति का वीर बालक है. और वीर बालकों और वीर पुरुषों के बारे में कहा जाता है कि वे दस द्वार से भी आयें तो भी उन पर तोहमत नही लगाईं जा सकती. मेरा ही दिमाग खराब है. उल-जलूल बातें सोचने लगता है.

Tuesday, July 14, 2009

ओह, यह जकड़न

लोग और शास्त्र माँ को जाने क्या-क्या कहते है, किस-किस रूप में पूजते हैं. मगर वही माँ जब अपने बच्चे के प्रति निर्मम हो जाए तो उसे क्या कहेंगे. वह भी ऎसी-वैसी निर्ममता नहीं, उसके व्यक्तित्व, चत्रित्र व् शील के प्रति निर्ममता. अभी-अभी एक ऎसी माँ के बारे में पता चला जो अपने बेटे से अपनी यौन इच्छा की संतुष्टि चाहती है. बेटा दिग्भ्रमित है. यह वर्जित फल उसे आकर्षित भी कर रहा है और दारा भी रहा है. वह पूछ भी नही पा रहा है की यह उसका भ्रम है कावल, माँ के व्यवहार कोदेखा कर या वह खुद ही ऐसा-वैसा कुछ सोच बैठा है. बेटा राम भी जाना चाह रहा है. उम्र के इस मोड़ पर है की इस वर्जित फल का स्वाद भी चखना चाह रहा है. लेकिन आनेवाले परिणामों के प्रति सचेत भी नही होना चाह रहा है. माँ की अपनी बात है. पति परदेश में है. उसकी भी तो इच्छा है ही. अपनी इस इच्छा की पूर्ती वह कैसे करे, वह भी शायद तय नही कर पा रही. जभी तो वह भी कुछ खुल कर नही बता पा रही. समाज का दवाब दोनों पर है, कुछ नैतिक तकाजे से दोनों जकडे हुए हैं. आप से कोई राय नही मांगी जा रही है. बस यह एक स्थिति है, किसी के जीवन की, हो सकता है, बहुतों के जीवन की यह स्थिति हो. वैसों को शायद इससे कोई अपनी ज़बान मिल जाए. मन का कोई समाधान मिल जाए. या तो समाज की फ़िक्र करें, या आनेवाली किसी भी स्थिति से निपटने के लिए खुद को तैयार कर लें. मन की बात सच्ची होती है. मन की मानें और जो मन कहे, उसे करें. पर कराने से पहले एक बार ठंढे दिमाग से ज़रूर सोच लें. ऐसा ना हो की कानून और समाज का सामना ना कर सकें और फिर खुद को गाली देते रहें.

Monday, July 13, 2009

"ऐसा भी क्या मेजर!"

अन्यथा पत्रिका में छाम्माक्छाल्लो की एक कहानी"ऐसा भी क्या मेजर!" लिंक नीचे है। पढ़ कर ज़रूर बताएं।

www.anyatha.com/VibhaRani(10th)1.htm

Thursday, July 2, 2009

हम और हमारी छवि

आप जानते हैं कि छाम्माकछाल्लो अवितोको संस्था के माध्यम से जेल के बंदियों के साथ कला, थिएटर, साहित्य आदि के माध्यम से काम करती है. आज वह मुम्बई के एक जेल में गई. यह बहुत ही प्रसिद्द जेल है. इस जेल में घुसते ही लिखा हुआ मिलता है कि इसे आजादी की लड़ाई में शामिल होंबेवालों के नाम समर्पित किया गया है. छाम्माकछाल्लो को इसे पढ़ कर हमेशा लगता रहा है कि एक समय यह जेल आजादी के दीवानों के लिए था और आज यह बदमाशों और तमाम असामाजिक तत्वों के लिए है. जेल के अधीक्षक बेहद उत्साही, कर्मठ और कर्तव्य परायण हैं. उनसे बहुत से विषयों पर भी बात होती रहती है. आज भी बात चलने पर रेप का प्रसंग आया. आजकल एक सिने स्टार भी इस मामले में फंसा हुआ है . छाम्माकछाल्लो ने पूछा कि ऐसा क्यों है कि सेलेब्रिटी होने के नाते उसके इस कृत्य को तो इतनी तरजीह दी जा रही है, जबकि उसी समय और उसके बाद होनेवाले दिल्ली, सूरत, भोपाल आदि में हुए गैंग रेप की कहीं कोई चर्चा ही नहीं है. उनहोंने जवाब दिया कि जब हम एक सार्वजनिक व्यक्ति बन जाते हैं, जब हमें लोग पहचानने लगते हैं, तब हमें कोई भी काम करते हुए बहुत सावधान रहना चाहिए. एक आम और एक ख़ास व्यक्ति में यही एक फर्क है कि आम को कोई नही जानता और ख़ास को हर कोई जानता-पहचानता है. अपराध एक आम आदमी करे या ख़ास, अपराध की गंभीरता में कोई कमी नही होती, मगर उसके असर में फर्क आता है. ये ख़ास आदमी हमारे आइकन होते हैं, आदर्श होते हैं. खुद का उदाहरण देते हुए उनहोंने कहा कि एक जेल अधीक्षक होने के नाते मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं, मेरी एक छवि है, अगर मैं उस जिम्मेदारी से मुकरता हूँ, या अपनी छवि खराब करता हूँ तो सबसे पहले तो आप ही मुझसे बात नहीं करेंगी. आप इस विचार से कितने सहमत हैं या असहमत, जरूर लिखें.