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Wednesday, July 25, 2012

एक सुपर स्टार एक्टर राजेश खन्ना और एक सुपर स्टार डायरेक्टर चेतन आनंद के बीच की खींचातानी.” -सोराब ईरानी

सुपर स्टार राजेश खन्ना को गुजरे अभी चंद रोज ही हुए हैं. उनकी सम्पत्ति को लेकर खींच- तान शुरु हो गई है. हम भारतीयों का स्वभाव है- सुपर डुपर लोगों को महिमा मंडित करना।  राजेश खन्ना भी महिमा मंडित हो रहे हैं. उनके महिमा मंडन में हम भूल गए कि डिम्पल के साथ उन्होने क्या क्या किया? भूल गए कि उनके कितनों के साथ अवांतर प्रेम प्रसंग थे. भूल गए कि अपने जीवन के उत्तरार्ध में वे प्रेस, मीडिया और आम जनों के साथ कैसा व्यवहार करते थे. भूल गए कि हाल में ही बांद्रा की एक दुकान में उन्होने कुछ बालिकाओं के साथ कैसी अभद्रता की थी. मेरा मकसद उनको नीचा दिखाना नहीं, बल्कि उनके जाने के बाद उनके व्यक्तित्व को एक आम आदमी की हैसियत से देखे जाने की जरूरत पर बल देना है. यह ना हो कि ‘अरे, अब तो वह चला गया. अब उसके ऊपर गलत बोलने से क्या होगा?’ व्यक्ति की महानता यदि कहीं है तो उसके साथ उसकी दुर्बलता भी होगी। उसे भी सामने लाना है। यह हो रहा है। ऊर्वज़ी ईरानी के ब्लॉग “फिल्म एडुकेशन’ (Film Education) Blog URL: http://oorvazifilmeducation.wordpress.com/ मे सोराब ईरानी का एक लेख है, जिसका सार नीचे प्रस्तुत है. ऊर्वज़ी ने इसके हिंदी में  प्रकाशन और इसे हर आम जन तक पहुंचाने की सहमति दी है. उनका आभार.  
"बहुत कम लोगों को शायद यह पता होगा कि चेतन आनंद की पहली फिल्म “नीचा नगर” को पाम दी’ओरे (सर्वोत्तम फिल्म) पुरस्कार सबसे पहले कांस फिल्म फेस्टिवल में 1946 में मिला था.यह मेरा सौभाग्य रहा कि मैंने चेतन आनंद के साथ काम किया और सिनेमा को सीखा, समझा. वे सचमुच सिनेमा के जीनियस थे.
चेतन आनंद पहले डायरेक्टर थे, जिन्होने राजेश खन्ना को अपनी फिल्म ‘आखरी खत’ के लिए कास्ट किया था. उसके बाद राजेश खन्ना कामियाबी के हिमालय तक पहुंचे. यह सबको पता है. बाद में जब उनका कैरियर डगमगाने लगा, तब उन्हे फिर से एक ऐसे डायरेक्टर की जरूरत पडी, जो उनकी डूबती नैया को पार लगा सके. उन्होने चेतन आनंद से सम्पर्क किया. मैं तब चेतन आनंद की प्रोडक्शन कम्पनी ‘हिमालया फिल्म्स’ में जनरल मैनेजर के रूप मे काम कर रहा था. उन दिनों फिल्में स्टार पावर को लेकर बनती थीं और अगर एक स्टार फिल्म बना रहा है तो यह एक अच्छी बात मानी जाती थी.
चेतन आनंद उन दिनों आर्थिक संकट से गुजर रहे थे. उन्होने राजेश खन्ना से कहा कि उनके पास सब्जेक्ट तो है, पर पैसे नहीं. चेतन आनंद के दिमाग में स्टोरी हमेशा बनी रहती थी. उस मीटिंग में, जहां चेतन आनंद ने राजेश खन्ना को फिल्म ‘कुदरत’ की स्टोरी सुनाई, मैं भी मौज़ूद था.  एक हफ्ते के भीतर ही राजेश खन्ना किसी बी एस खन्ना नाम के प्रोड्यूसर के साथ आए. यह तय हुआ कि बी एस खन्ना फिल्म में पैसे लगाएंगे और उसे प्रोड्यूस करेंगे. चेतन आनंद इसे निर्देशित करेंगे. और इस तरह से फिल्म ‘कुदरत’ का जन्म हुआ.
यह फिल्म ‘कुदरत’ की कहानी के बारे में नहीं, बल्कि उसके बनने के समय चेतन आनंद और राजेश खन्ना के बीच उपजे विवाद के बारे में है.  फिल्म बहुत बढिया थी. म्यूजिक पहले से ही सुपर हिट हो गया था. काका ने एक प्राइवेट शो रखा. अपने चमचो की बातों में आकर उन्होने सारा क्रेडिट खुद लेते हुए विनोद खन्ना, राजकुमार आदि की भूमिकाओं को कतरना शुरु कर दिया. उन्होने फिल्म के एडीटर को अगवा कर लिया और फिल्म की फिर से एडिटिंग शुरु कर दी. एडीटर ने अपनी नैतिकता को बनाए रखते हुए चेतन आनंद साब को इसकी जानकारी चुपके से दे दी. वे चेतन आनंद की प्रतिभा के कायल थे और इस फिल्म में एक साल से अधिक समय से जुडे हुए थे. मेरे पास परेशान चेतन आनंद साब का फोन सुबह 6 बजे आया. वे बोले कि मैं एडीटर के घर जाकर उन्हें चेतन आनंद साब के पास ले कर आऊं. मै खुद बहुत डिस्टर्ब था कि कैसे कोई चेतन आनंद साब जैसे डायरेक्टर की एडिट की हुई फिल्म के साथ छेडखानी कर सकता है!
सुबह लगभग 7.30 बजे मै एडीटर के माटुंगा स्थित घर पहुंचा. मगर वह घर पर नही था. मैं वापस लौटा तो चेतन आनंद साब भडके हुए थे. न काका और ना ही बी एस खन्ना उनके फोन उठा रहे थे. साजिश खुल चुकी थी. अब हम क्या करें! मैं चेतन आनंद साब के साथ नवरंग लैब जाकर उसके मालिक से मिला. मगर मालिक ने अपनी असहायता जताई कि उसे प्रोड्यूसर की बातों को ही फॉलो अप करना है. प्रोजेक्ट में प्रोड्यूसर का ढेर सारा पैसा लगा हुआ है. हमने फिर अपनी शिकायत ‘फिल्म एडीटर एसोसिएशन‘ और ‘फिल्म प्रोड्यूसर एसोसिएशन‘ में दर्ज कराते हुए फिल्म को रोकने का अनुरोध किया. रात से मेरे पास धमकी भरे फोन आने लगे. किसी ने मेरी पत्नी को फोन करके कहा कि वह सुबह में मुझे मरा हुआ पाएगी. मैं बाहर था और तब कहां मोबाइल फोन होते थे! सो जब मैं घर लौटा तो मेरी पत्नी मुझे देखकर रोने लगी. वह बेहद डरी हुई थी.
मेरे गुस्से का ठिकाना नहीं रहा,. मैं उसी दम बी एस खन्ना के घर गया. वह घर पर नही था. मगर फोन पर मिल गया. मैंने उससे उसकी इस तरह की हरकत के बाबत पूछा. मैंने उससे बडे ही सपाट लहजे में कहा कि “मैं ऐसे-वैसों में नहीं हूं और यदि उसने इस तरह से मेरी बीबी को धमकाना बंद नहीं किया तो मैं पुलिस के पास चला जाऊंगा.” बाद में जब मैंने चेतन आनंद साब को यह बताया तब उन्होने भी कहा कि उनके घर पर भी ऐसे धमकी भरे फोन आ रहे हैं.
अगले दिन प्रोड्यूसर बी एस खन्ना इन सबके प्रति एकदम अंजान बन गया और बोला कि उसे इन सब बातों की कोई भी जानकारी नहीं है और इन सबमें कोई सच्चाई नही है. हमने कहा कि हम फाइनल कट की कॉपी देखना –जांचना चाहते हैं. हमने एडीटर से बात की और कहा कि फाइनल कट में किसी भी तरह का बदलाव करने का अधिकार किसी को नहीं है. उसने बडे ही डिप्लोमेटिकली कहा कि अब बहुत देर हो चुकी है. फिल्म का नेगेटिव रिलीज प्रिंट प्रक्रिया के लिए लैब में जा चुका है.
हमारे दफ्तर में मायूसी छा गई. बी एस खन्ना और राजेश खन्ना ने फिल्म को कब्जिया लिया था. चेतन आनंद साब ने परम्परा के विरुद्ध अपनी ही फिल्म को रिलीज करने से रोकने के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट में जाने का फैसला किया. मामला जज लैंटर्न के पास आया. पूरी फिल्म इंडस्ट्री वहां थी. जज साहब ने भी फैसला हमारे खिलाफ दिया यह कहते हुए कि हमें आपसे पूरी सहानुभूति है, मगर यदि फिल्म रोकी गई तो इसमें इतना ज्यादा पैसा जिसका लगा है, यानी प्रोड्यूसर का, वह फंस जाएगा. और उन्होने मामले को रेगुलर सुनवाई के लिए डाल दिया.
पूरी कहानी का लब्बो-लुआब यह कि इसका उद्देश्य किसी की छवि को धूमिल करना नही है, बल्कि कुछ सवालों को सामने लाना है- फिल्म के फाइनल कट का अधिकार किसे है? डायरेक्टर को या प्रोड्यूसर को? यह कौन तय करेगा कि दर्शक क्या देखना चाहते हैं- फाइनांसर/ प्रोड्यूसर या क्रिएटर/डायरेक्टर? उस क्रिएटर/डायरेक्टर का क्या होगा अगर वह खुद उस फिल्म का फाइनांसर/ प्रोड्यूसर नही है? सोचिए, विचार कीजिए, और बहस में भाग लीजिए.”  

Wednesday, July 11, 2012

मेरे पापा!

मेरे पापा,
मैं आपकी आफरीन, फ़लक, रचना, पूजा, आमना, नाजनीन! आप मुझे अपना न मानें, मगर मैं आपको अपना ही समझती हूँ। कितना बड़ा सहारा होते हैं आप हमारे लिए- बरगद के पेड़ की तरह। सुना है कि बरगद अपने नीचे किसी को फलने-फूलने नहीं देता। यह भी सुना है कि बरगद अपनी जड़ें अपनी डालियों से ही फैलाता-बढ़ाता चलता है। हम तो आपकी ही जड़ें हैं न पापा? लोग कहते हैं कि जब जान दे नहीं सकते तो लेने का कोई अधिकार नहीं। यह शायद गैरों के लिए होता होगा! आप तो हमारे अपने हैं, शायद इसीलिए सोचा होगा कि जान देनेवाले आप, तो उसे ले लेने का पूरा अधिकार भी आपका।

लेकिन मेरी समझ में नहीं आया पापा कि आपने हमारी जान क्यों ली? मैं इतनी नन्हीं! आँखें तक खोलना नहीं आया था मुझे। आपको पहचानना भी नहीं। आप तो साइंस को जानते -मानते होंगे पापा। बाकी में भले न मानें, इलाज- बीमारी में तो मानना ही पड़ता है। तो आप यह भी जानते होंगे कि किसी बच्चे का जन्म भी एक वैज्ञानिक प्रक्रिया ही है। विज्ञान ने साबित कर दिया है कि हम बेटियों का जन्म आपके ही एक्स-एक्स से होता है। अब जब आपने ही हमें एक्स-वाई नहीं दिया तो हम खुद से अपने एक्स को वाई में कैसे बदल लेते? काश, साइंस इतनी तरक्की कर गया होता कि आप खुद ही मेरी माँ को एक्स-वाई दे देते या मैं ही उसे एक्स-वाई में तब्दील कर के आपकी बेटी के बदले बेटा बनकर जनमती और आपकी मुराद पूरी कर देती।  

बताइये पापा कि जब आपको ही नहीं मालूम कि आप अपने अंश से क्या रचनेवाले हैं तो उसका खामियाजा हमारे मत्थे क्यो? बताइये पापा कि हम किसलिए आपकी नाराजगी सहें? क्या इसलिए कि आप हमारे पापा हैं, हमसे अधिक ताकतवर हैं, हमारे पालनहार हैं? यदि आप सचमुच ही हमारे पापा और पालनहार हैं, तो कोई भी बाप इतना निर्दय नहीं हो सकता कि वह अपनी ही संतान को माँर डाले और ना ही कोई माली इतना मूर्ख कि अपने ही लगाए पौधे कि जड़ों में मट्ठा डाले!

शायद आप ताकतवर हैं। दुनिया के आगे भले ना हो, हमारे लिए हैं। भूल गए पापा कि सभी धर्म अपने से कमजोर की रक्षा करने को कहता है। आप सब तो धर्म के बड़े- बड़े पैरोकार हैं। इतनी छोटी बात भूल गए? भूलना ही था। धर्म और मजहब या तो उचारने के लिए है या हम निरीहों को उससे बांधने के लिए।  सभी ताकतवर अपने से कमजोर को दबाकर- कुचलकर चलते हैं। सीधी जबान में कहूँ तो अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है। माफ कीजिएगा पापा ऐसी तुलना के लिए। लेकिन मैं भी क्या करूँ? कभी हमारा लिंग जानकार पेट में ही हमें मार देते हैं, तो कभी तमाचे और जलती सिगरेट हम पर छोड़ देते हैं। बताइये पापा, क्या आपके मर्दाना थप्पड़ को सहने की ताकत हम आसन्न जन्मी जान में है? सोचिएगा पापा! हम तो विदा ले रही हैं, ले चुकी है, लेती रहेंगी। मगर बेटियाँ और भी आएंगी। आपके ही एक्स- एक्स से आएंगी। पहले अपनी कमजोरी पहचानिए पापा! फिर अपनी ताकत हम पर आजमाइए। 

Sunday, July 8, 2012

इस पितृ पक्ष पर...!

इस पितृ पक्ष पर
हे मेरे सभी पितर!
मेरा नमन आप सभी को,
मेरे दादा, जिनको कभी लाठी की टेक नही दी मैंने
लड़खड़कर जब वे गिरते,
मैं बाउजी से कहता, ये बुड्ढे लोग जल्दी मरते क्यों नही?
दादी, जिसके हुक्के की बदबूदार नली
और उसकी गुड़गुड़ी से मैं बेचैन हो उसे गरियाने लगता,
हुक्के की पीनी भी मैं फेक आया करता
पिछवाड़े की गलियों में।
एक ही बार मुझे खुशी हुई थी दादा-दादी से,
मरते वक्त दादा ने अपनी सारी पूंजी
मेरी पढ़ाई के लिए दे दी थी
दादी भी तकिये में सिल कर रखे गए रुपये पर
मेरा नाम लिख गई थी।
मेरे बाउजी,
खुश हुआ था मैं
उनके असमय टीबी से मर जाने पर
बीबी को पहली बार दारू पिलाई थी,
जिस दिन उनकी सारी संपत्ति मेरे हवाले हो गई थी।
मेरी माँ, जिनका जीवन बाउजी के बाद कटा था
मेरे आँखों की धधक सहते,
मेरी बीबी की पुरानी साड़ी पहनते।
मेरी बीबी बड़ी होनहार और कुशल है।
जीते जी उसने ढेर सारी संपत्ति सहेज कर रख दी
माँ को टूटे चावल का भात खिला कर
उसकी दर्द से टटाती टांग पर मालिश के लिए
हफ्ते में एक बार तेल दे कर
बाल धोने के लिए
सोडा या कपड़े धोनेवाला साबुन देकर।
हमने अँग्रेजी बैंड के साथ शवयात्रा निकलवाई थी
सभी की,
आस-पास के कई गांवों को न्यौता था श्राद्ध भोज में
खूब किया था दान, खूब दी थी दक्षिणा।
लगातार, बिना नागा,
हर साल करता हूँ, पितर दान
हर साल विनती करता हूँ उनसे,
बनाए रखें अपनी छाया हमारे सर-माथे।
वे पितर हैं, उनका वहीं स्थान है उन्हें शोभता,
जहां हमने उन्हें पहुंचाया है।
न पहुंचता तो कैसे करता पितृ पक्ष पर पितरों को दान! ###

Thursday, July 5, 2012

गुरु पूर्णिमा में निर्मल स्नान

कल-परसो शायद गुरु पूर्णिमा थी। पिछले साल इसी अवसर पर यह लेख लिखा था। आज उसे तनिक और विस्तार व बदलाव के साथ फिर से दे रही हूँ। 
      गुरु पूर्णिमा के अवसर पर विश्व के समस्त गुरुओं को छम्मकछल्लो का प्रणाम। गुरु तीनों लोकों और छत्तीस करोड देवताओं से भी ऊपर है. गुरु की महिमा कबीर बाबा भी गा गए हैं-
            गुरु गोविंद दोनों खडे, काको लागूं पाय
            बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दिये बताय
       ज़रूर कबीर बाबा को अच्छे और सच्चे गुरु मिले होंगे. छम्मकछल्लो को जो गुरु मिले, पक्षपात का अतीव उदाहरण बन कर आए. एक गुरु द्रोणाचार्य ने अपने अदेखे, अचीन्हे शिष्य एकलव्य से अंगूठा मांग लिया. एकलव्य ने अपनी श्रद्धा क्या दिखा दी, वे उसके ऊपर चढ ही बैठे- गुरु मानता है ना? तो ला दक्षिणा. और मैं ऐसा-वैसा गुरु नहीं हूं जो दक्षिणा में दाल-चावल मांगूं. हमारे पास वैसे शिष्य हैं, जो हमें हर तरह से फेवर करते हैं. धनी-गरीब, छूत-अछूत उस समय भी था. हस्तिनापुर (अपर कास्ट व एलीट क्लास) से गुरु द्रोण की आमदनी थी. यह जंगली, गरीब भील (शिड्यूल ट्राइब) एकलव्य...! इसकी यह मजाल कि हमारे परम प्रिय शिष्य अर्जुन से आगे निकल जाए? वह भी बिना मुझसे पढे? बिना मेरी मर्जी के मुझे गुरु मान लिया? याद कीजिए गब्बर सिंह का डायलॉग- हूं, इसकी सजा तुम्हें मिलेगी, जरूर मिलेगी.सो एकलव्य को मिली. आजतक मिल रही है. आरक्षण देख लीजिए. महाभारत काल से यह अपर-लोअर क्लास का संघर्ष जारी है भैया.
      एक गुरु परशुराम थे. हम कहते हैं कि धर्म (यदि अपने सच्चे और सही रूप में है) तो कहता है कि हर मनुष्य बराबर होता है. मगर शिक्षा का दान देनेवाले अपने गुरु लोग ही इसके विरोधी निकले. कर्ण को कुंती ने समाज के डर से त्याग दिया तो वह सारथी के घर पल-बढ कर उसी का पूत कहलाया. एकलव्य की तरह वह भी उतना ही वीर, बहादुर था. लेकिन शिक्षा ग्रहण करने के लिए उसे भी झूठ बोलना पडा, वरना नीची जाति को गुरु परशुराम शस्त्र शिक्षा नहीं देते. उसी कर्ण की जाति (?) की सच्चाई उजागर होने पर उसे श्राप दे दिया गया कि प्राण जाने के संकट काल में ही तुम सारी विद्या भूल जाओगे. कहिए तो भला. आज के शिक्षक ऐसा करते तो उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमा चलता. गुरु परशुराम ने यह नहीं सोचा कि अगर उन्होंने जाति-पाति, ऊंच-नीच का भेद नहीं रखा होता तो कर्ण को झूठ क्यों बोलना पडता?
     एक गुरु शुक्राचार्य ने अपनी बेटी देवयानी के लिए अपने राजा की पुत्री शर्मिष्ठा तक का ध्यान न रखा। कर दिया उसे दंडित की वह उनकी बेटी की दासी बनाकर रहेगी। कर दिया कच को दंडित कि वह देवयानी से ब्याह करे। कच का क्या अपराध था? यही न कि उसने गुरु पुत्री देवयानी को बहन के रूप में देखा था। तो बहन (भले ही मुंहबोली हो) के साथ ब्याह! कोई युवक खुद से ऐसा करे तो उसकी लानत-मलामत! 
        तो इन सबके मायने? "समरथ को नहिं दोष गुसाईं भाई!" द्रोण सामर्थ्यवान, परशुराम सामर्थ्यवान, शुक्राचार्य सामर्थ्यवान. सो दोषी कौन? सही उत्तर- एकलव्य, कर्णकच। 
      यह उन- उन युग की बात हुई, जिन्हें हमने देखा नहीं, सुना भर है। आज का कलियुग तो कमाल है। गुरुओं की बहार है। ढेर के ढेर गुरु हैं- सबकी अपनी अपनी मान्यताओं की दुकानदारी है- करोडों एकड में फैली हुई- करोडों रुपए के गुरु मंत्र और प्रसाद के साथ. हिंदुस्तान के हर कोने में ऐसे गुरु भरे मिलेंगे. जिसकी दुकान में जितनी अधिक गोरी चमडी, वह गुरु उतना ही सफल. उनके चमत्कार और एक अदना से जादूगर के हाथ की सफाई में कोई अंतर नहीं है. पर बेचारा जादूगर सौ रुपए में जादू दिखाता है, उसी जादू के ये गुरु करोडों लेते हैं. और हम भक्तिभाव से भरकर देते हैं. मंच पर उनके नाटक पर करोडो वारे-न्यारे होते हैं, नाटक और थिएटर करनेवाले 50 रुपए का टिकट भी नहीं बेच पाते. नए-नए गुरु हैं निर्मल बाबा। उनके निर्मल किस्से से बजबजाती नालियाँ भी शर्मसार हो जाए। मगर हाय रे हमारा गुरु ज्ञानी भारतीय मन। इन पर वारी-वारी।      छम्मकछल्लो के एक मित्र हैं। उनकी बहुत पहुँच है-तमाम गुरुओं तक। ये सभी गुरु कहते हैं- 'तेरे को यार अगर ये नाटक-नौटंकी करनी है तो कटोरा ले के कहीं और जा। तेरी मान की, तेरी बहन की। करोड़ों में खेलना-खाना है, सभी वीआईपी को चरणों पर लुटवाना है तो यहाँ आ।    
     ये गुरु उपदेश देते हैं- माया मन का विकार है. पैसा तिनका है. मगर खुद के मरने पर हजारो-हजार करोड की सम्पत्ति मिलती है. ये गुरु कहते हैं- जीवन नश्वर है. गीता ने कहा है कि शरीर आत्मा का वस्त्र है, सो आत्मा चोला बदलती रहती है. उनकी अपनी आत्मा का चोला ना बदले, इसलिए वे एके 47 व 56 के वर्तुल में चलते हैं. ये गुरु कहते हैं, "शरीर को जितना तपाओगे, शरीर कुंदन सा दमकेगा." और खुद बिजनेस क्लास में उडते हैं, सबसे मंहगी कार में यात्रा करते हैं. उनके करीब वे ही लोग होते हैं, जिनके पास उनकी ऐसी सेवा की लछमीनुमा सुविधा है. बाकी लोग हैं- चटाई उठाने और उस पर पडी धूल झाडने के लिए. मुंबई में सुना कि एक भक्तिन ने आसाराम बापू के नाम अपना जुहू स्थित एक बंगला ही कर दिया। इससे यह तो पता चलता है कि पैसा ही पैसा को खींचता है। भला बताइये तो, छम्मकछल्लो कहती कि अपना घर उसके समाज और थिएटर के काम के लिए उसे दे दे तो उसे घर के बदले गरदानिया चाँप मिलता।
       ये सब पहुंचे हुए गुरु हैं और पहुंचे हुओं के पास पहुंचे हुए लोग ही पहुंचते हैं. सत्य साईं बाबा के समय देश के आलाकमान तक पहुंच गए थे. उनके शव को तिरंगे से ढका गया था, जाने किस नियमावली के तहत. पिछले साल उनका समाधि स्थल खुल गया। देश से लाखों लोग पहुंचे। इस बार भी पहुंचे होंगे, पहुँचते रहेंगे। सभी पढे-लिखे, सभी समझदार- बस, इन्हीं सभी समझदारों को सभी जीवित गुरु अपनी तरफ से उपहार भी देंगे, भले इसके लिए उन्हें विश्व बैंक से कर्जा लेना पडे.
        गुरु पूर्णिमा चमत्कारिक है। छम्मकछल्लो के साथ भी चमत्कार हो गया। उसे कई गुरुओं के सपने और संदेश आए कि "ऐ छम्मकछल्लो! धन और माया का खेल खेलते खेलते अब हम थक चुके हैं। अब तो गद्दी पर माया रही भी नहीं। ममता, शीला का पता नही क्या होगा, ललिता अपने में ही मगन है। इसलिए हम अब सही मायने में त्यागी गुरु बनना चाहते हैं. इसलिए अपने सभी संचार माध्यमों का प्रयोग करके सभी को बताओ कि दुनिया के सभी गुरुओं ने आज गुरु पूर्णिमा के अवसर पर दान लेने के बदले दान देने की घोषणा की है. यही नहीं, आज वे सबकुछ को तिनका और धूल समझते हुए सभी को अपनी कृपा का प्रसाद भी देंगे."
         छम्मकछल्लो ने कह दिया कि "गुरु जी, न दान दीजिए, न उपहार, बस एक ही काम कीजिए, लोगों को इस गुरु घंटाल के खेल में मत फंसाइये. लोग अपने आप पर भरोसा रखें और जीवटता से काम करें, खुद भी जियें और दूसरों को भी जीने दें."
         सपने में ही गुरु आग बबूला हो गए. बडी मुश्किल से छम्मकछल्लो जान बचा कर भागी. इसी डर से यह लेख गुरु पूर्णिमा के दिन नहीं लिखा. अब गुरु पूर्णिमा बीत गया है. सभी गुरु अपना अपना दाय गिनने और उसे सही ठिकाने लगाने में मशगूल होंगे। यही मौका है छम्मकछल्लो के लिए. लगा दे पोस्ट छम्मकछल्लो, मना ले तू भी गुरु पूर्णिमा.