chhammakchhallokahis

रफ़्तार

Total Pageviews

छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

Pages

www.hamarivani.com
|

Monday, December 28, 2009

मुनिवर नारद! नारायण! नारायण!!

http://janatantra.com/2009/12/28/satire-of-vibha-rani-on-narayan-episode/#comments

हे मुनिवर नारद, आपने नारायण नारायण की रट लगा कर भवसागर पार कर ली। आपने ऐसा संदेश दिया कि जो नारायण नाम उचारेगा, उसे किसी भी तरह की मोह माया नहीं व्यापेगी। परंतु बावजूद इसके, आप नारायण की ही कृपा और उनकी ही महिमा से नारी के मोहपाश में बंध गये। इतने कि आप विवाह को उतावले हो गये। वह तो गनीमत कहिए कि नारायण ने यह सोचा कि अगर मुनि प्रवर विवाह के जाल में फंस गये तो उन जैसे के साथ साथ अन्य विवाहितों का क्या होगा? उस समय में पता नहीं, सब कुछ का आविष्कार हो गया था, मात्र एक दर्पण को छोड़कर। या हो सकता है कि मुनिवर आप थे त्यागी, मोह रहित, परम ज्ञानी, परम ध्यानी, नारायण भक्त सर्वश्रेष्ठ मुनि, तो संभवत: आपने सौंदर्य दिग्दर्शन के इस यंत्र की ओर ध्यान नही दिया होगा। परंतु इससे नुकसान यह हुआ कि आपने ध्यान नहीं दिया और आपके नारायण ने आपको वानर मुख दे दिया। न केवल दे दिया, बल्कि आचरण में भी वानर जनित चंचलता भर दी। परिणाम यह हुआ कि राजकुमारी के स्वयंवर में राजकुमारी जब उनकी ओर नहीं देख रही थीं तो वे स्वयं उनकी ओर हुलक हुलक कर चले जाते थे, उनकी ओर आस और प्यास भरी दृष्टि से देखने लगते थे कि हे सुंदरी, मेरा वरण करो। अन्य राजा महाराजा उनकी यह हालत देख देख कर हंसी से लोट पोट हुए जाते थे। स्वयं राजकुमारी मुस्कुरा मुस्कुरा कर वहां से निकल जाती थीं, उनकी सहेलियों और दासियों का भी वही हाल था।

हे मुनिवर, आपने नारायण को श्राप तो दे दिया कि जिस तरह से आप स्त्री पीड़‍ित हुए हैं, उसी तरह वे भी स्त्री के वियोग में तड़पेंगे। तुलसीदास ने उनकी तरफ से लिख भी दिया, हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी, तुम देखी सीता मृगनैनी। किसी ने यह भी कह दिया कि तुलसीदास ने इसे अपने लिए लिखा था, क्योंकि उनकी पत्नी ने जब उन्हें निकाल दिया अपमानित करके, तो वे इसी तरह स्त्री वियोग में तड़पे थे।

अब लोगों का क्या? वे तो ऐसे ही लिखते रहते हैं। किसी ने बहुत पहले इस पंक्ति की व्याख्या कुछ इस तरह से कर दी थी “सूरदास तब बिहुंसी जसोदा, लै उर कंठ लगायो” कि “सूरदास ने तब हंसते हुए जसोदा को अपने गले से लगा लिया।” वहां भी लोगों ने यही कह दिया कि सूरदास नेत्रहीन थे। उन्हें कौन अपनी बेटी देता? फक्कड़ कबीर को तो बीबी मिल गयी थी, मगर सूरदास को नहीं मिली, इसलिए वे अपने मन की बात इसी तरह से निकालते रहे, जिस तरह से कवि लोग निदर्शन तो मां बहनों का करते हैं, मगर उसकी देह में वे तमाम बड़े बड़े कुंभनुमा वर्णन होते हैं कि समझ में नहीं आता कि यह माता के दूध का वर्णन है या किसी रमणी के पयोधर का।

हे मुनिवर नारद, आपको तो नारायण ने उबार लिया, मगर खुद फिसल पड़े। अपने मन को लगाम देते रहे, देते रहे, मगर जब नहीं दे सके तो द्वापर में पहुंचकर साठ हज़ार के बीच अपने को बांट दिया। कहते हैं कि द्वापर के बाद कलियुग ही आता है। सो द्वापर की लगी भगी कलियुग में भी बनी रही। मगर कलियुग का कलिकाल बड़ा भद्दा और बदमाश है। वह शैतान सभी के मन में घुस गया है।

अब देखिए न मुनिवर, आपके नारायण जब साठ हज़ार के साथ महारास रचाते थे, वह भी राजा होकर, तब तो उन्हें कोई कुछ नहीं कहता था, अब उनके ही पदचिन्हों पर जब आज के हम नारायण लोग चलते हैं तो लोग लानत मलामत भेजने लगते हैं। संजयवाला दूर का दर्शन तब भी था, मगर देश तब इतना राजद्रोही नहीं हुआ था कि किसी के गले लगने या चुंबन लेने को बुरा मान लिया जाए। पुष्‍पक विमान तब भी थे, पर लोग इतने खराब नहीं हुए थे कि किसी के विमान पर चढ़ने का कारण बताओ नोटिस जारी कर दे। लोग कहते रहते हैं कि बुढ़ापा मन से आता है, तन से नहीं, तो क्या फर्क़ पड़ता है मुनिवर कि हम साठ के हैं या छियासी के या सोलह के? फिल्मवाले लिख गये हैं ना कि “दिल को देखो, चेहरा न देखो” दिल दरिया होना चाहिए। लोग बाग ऐसे ऐसे दिलदारों से जलते हैं और खुद उस दरिया में बहने, उसमें डूबने का मौका नहीं लगता है, तो मारे ईर्ष्या के भर जाते हैं और दिल के दरिया में डूबती उनकी नैया को डुबाने लगते हैं, जो इस नैया पर प्रेम के हिंडोले की तरह झूल रहे होते हैं।

पहले त्रेता, द्वापर युग में अपने हिंदू धर्म में कई कई विवाह मान्य थे। कलियुग ने वह सब भी कबाड़ कर दिया। नियम बना दिया कि एक ही विवाह मान्य रहेगा। दूसरा करना हो तो पहली से विधिवत तलाक लो। हे मुनिवर, अब आप ही बताएं, निस्‍संदेह आपका मोह एक बार में ही भंग हो गया, परंतु सभी तो आपकी तरह मोह माया से निस्पृह नहीं हैं न। आप तो साधु थे, मगर हम तो गृहस्थ हैं। तो दोनों में फर्क़ तो होना चाहिए कि नहीं? एक आम और एक खास में फर्क होना चाहिए कि नहीं। आम आदमी के जीवन में क्या झंझट है? उठो, जाओ, कमाओ, बीवी बच्चे के साथ खा पी लो, सो जाओ। मगर व्यवस्था से बंधे लोगों के पास इतने बखेड़े होते हैं कि सांस तक लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती। ऐसे में चढ़ी सांस को जब तनिक उतारने का मौका लगता है तो सारे संजय अपने अपने दूर के दर्शन और सारे के सारे गणेश जाने किस वेदव्यास की प्रेरणा से अपनी अपनी कलम थामकर सामने आ जाते हैं। क्या हम इतने नकारा हो गये हैं कि किसी 14 साल की कमसिन को उसकी आनेवाली जवानी का रहस्य भी न बताएं या इतने लुंजपुंज कि कोई हमें अपने अधरों के प्रसाद देने आएं तो प्रसाद लेने से मना कर दें? आपको मालूम तो है न मुनिवर कि प्रसाद लेने से मना करना भक्ति भाव का कितना बड़ा अपमान है?

बताइए भला, कैसे देश बचेगा और कैसे इसकी तरक्की होगी? एक तो जनता की सेवा का महाव्रत उठाओ और उस पर से भी उन्हीं की तरफ से भला बुरा भी सुनो। हे मुनिवर, कह दीजिए इस देश की सभी मूढ मतिमंद जनता से कि वे हमारे झमेले में नहीं फंसे। हम पुराने सेवी हैं। सेवा करते करते उम्र के पचासी छियासी वसंत देख चुके हैं। हमें हर तरह का अनुभव है। उम्र के हर रंग का, हर स्वाद का पता हमें है। हम इस देश के हैं और यह देश संविधान के धर्मनिरपेक्ष देश की घोषणा के बावजूद हिंदू देश है और जिसके लिए हमें सिखाया जाता है कि “गर्व से कहो, हम हिंदू हैं।” हम हिंदू धर्म का दिल से सम्मान करते हैं और इसकी परंपरा के पालन के प्रति पूरे तन, मन, धन से तत्पर और प्रस्तुत हैं।

आजकल देश में वैसे भी ब्राह्मण विरोधी बयार बह रही है। एक ब्राह्मण तो अपनी प्रभा की आष को जोश में भरते भरते, और कलम घिसाई करते करते स्वर्ग ही सिधार गया। ब्राह्मण विरोधी यह बयार वैसे पुरानी ही है। मुनिवर, आपको भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। विश्वामित्र को भी मेनका के रूप का तेज सहना पड़ा। और भी पता नहीं किस-किस को सहना पड़ेगा। परंतु विश्वास कीजिए मुनिवर कि हम सब ऐसे नहीं हैं कि अपने से कहीं चले जाएं। अरे, अगर कोई आ जाए तो क्या हम इतने अंधे, लाचार और नपुंसक हैं कि उस ओर देखें भी नहीं।

पुरुषत्व का उम्र से कोई वास्ता नहीं होता मुनिवर अपने यहां, बल्कि कहीं भी नहीं। अपने यहां तो कहा भी गया है कि मर्द साठे पर पाठा होता है और यह भी कि मर्द और घोड़े कभी बूढे नहीं होते। औरतें हो जाती हैं, इसलिए एक दो बच्चे होते न होते घर गिरस्थी, बाल बच्चे में रम जाती हैं। हम क्या करें मुनिवर? हम तो समाजसेवी भी हैं, सेवाव्रती भी हैं, इसलिए घर की बूढी हो गयी औरतों को हम उनके मन के राज काज के लिए छोड़ देते हैं। हम और भी सेवाव्रतधारी हैं, इसलिए हमें भी इन युवतियों को अपने गहन अनुभव का ज्ञान देना होता है। और ज्ञानदान न तो कहीं से ग़लत है और न कहीं से अवैध। इस ज्ञानदान का कहीं कोई फल-प्रतिफल सामने आ जाए तो हमारा क्या दोष? रास्ते चलते धूल-धक्कड़ तो आते ही हैं तो क्या धूल को हम माथे से लगा लें? समझाइए मुनिवर, इस देश की पागल, बेवकूफ जनता को!

Saturday, December 26, 2009

यह वहशी दुनिया तुम्हारे लायक नहीं थी रुचिका

http://janatantra.com/2009/12/26/vibha-rani-on-ruchika-case/

अरी बिटिया रुचिका, अच्छा हुआ, तुम सिधार गई. 19 साल बाद आज के इस हालात से तो बेहतर है कि तुम पहले ही चली गई. क्यों कहूं मैं कि तुम समाज से लड़ती रहो, कि समाज के सामने सर उठाकर चलो, कि समाज के डर से डरो मत, कि लोग तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, कि कानून की नज़रों में सभी एक हैं. ना बिटिया ना. तुम अधिक समझदार थी. सबसे बड़ी समझदारी तो तुमने यही दिखाई कि अपनी दोस्त अनुराधा के साथ मिल कर इस घिनौने खेल का पर्दाफाश किया. लोग फिल्मवाले को गालियां देते हैं. यह कास्टिंग काउच तो हर जगह है. फिल्मवाले तो गरीब की भौजाई की तरह हरेक के मोहरे बनते हैं, मगर तीन “पी” यानी पद, प्रतिष्ठा, पैसेवाले तो ….जो जितना बड़ा ताकतवर, उसकी कास्टिंग काउच उतनी बड़ी , उतनी ताकतवर और उतनी ही घिनौनी.

पता नहीं बिटिया, मरता तो एक अनजान भी है तो दुख होता है. हां, मैं तुम्हें प्रत्यक्ष रूप से नहीं जानती, मगर हर मां अपनी उस बेटी को जानती है, जो इस तरह के ना कहे जानेवाले ज़ुल्म का शिकार होती है. उस लिहाज़ से रुचिका, तुम मेरी बेटी हो, क्योंकि इसतरह की हर घटना के बाद उस बच्ची को ही कहा जाता है कि वह ऐसी या वह वैसी. कभी किसी आदमी को नहीं कहा जाता कि वह ऐसा तो वह वैसा. दुश्चरित्रता का यह जाल तो अनंत समय से है. किसी भी स्त्री से छुटकारा पाना हो, तुरंत उस पर दुश्चरित्रता का जाल फेंक दो, चाहे वह पत्नी से छुटकारा पाना हो या प्रेमिका से. कोई भी औरत या लड़की इस जाल से निकल ही नहीं सकती और उसी में फंसकर जान दे देगी, जैसे तुमने दे दी. मालूम नहीं, यह कौन सा नियम है, जिसमें दुश्चरित्रता का आरोप लगानेवाले इस बात को भूल जाते हैं कि उसे दुश्चरित्रता का जामा पहनाने में किसी पुरुष की भी भूमिका रहती होगी. या वह अपने से ही दुश्चरित्रता का लिहाफ ओढ़ लेती होगी? उसमें भी तुम जैसी 14 साल की बच्ची, जिसे शायद दुश्चरित्रता की मायने भी पता नहीं होंगे. ऊपरवाले ने हर कमजोर को अपने प्राण के रक्षार्थ एक न एक हथियार उसके शरीर में ही दे दिए हैं. लड़की में भी उसने 6ठी ज्ञानेन्द्रिय के रूप में यह आयुध दे तो दिया. मगर जब तक वह इसका लाभ उठाकर आगे बढे, तबतक तो उसकी राह में इतनी कांटे बिछा दिए जाते हैं कि उसके लिए जान देने के अलावा और कोई रास्ता शायद नहीं बचता.

किसने कहा था रुचिका कि तुम खिलाड़ी बनो? देश का नाम ऊंचा करो? उसके लिए सारी दुनिया भरी पड़ी है. जिस उम्र में तुम्हें हर पुरुष पिता या बड़ा भाई ही लगता होगा, उसी उम्र में उसी उम्र के लोगों के द्वारा तुम इस तरह से छली गई कि जान देनी पड़ गई तुम्हें, वह भी तरह तरह के इल्ज़ामों के साथ, अपने परिवार पर टूट रहे कहर के साथ. बचपन के वे दिन, जब तुम चिड़िये की तरह चहकती, फूल की तरह खिलती, आशाओं, उमंगों और सुहाने भविष्य के झूले पर झूलती, उस उम्र में तुम्हें ऐसे गहरे अवसाद में पहुंचा दिया गया, जहां से तुम तीन साल बाद उबरी तो, मगर जान दे कर.

तुम जी कर भी क्या करती रुचिका? कैसे यह बर्दाश्त करती कि महज 14 साल की उम्र में तुम्हें चरित्रहीन करार दिया जाए? क्या एक 14 साल की बच्ची गिरे चरित्र, चरित्रहीनता का मतलब समझती है? मुझे तो लगता है रुचिका कि जन्म लेते ही हर बच्ची को चरित्रहीन करार दिया जाना चाहिये. किसी खास उम्र तक या किसी की खास हरकत तक का इंतज़ार नहीं किया जाना चाहिये. आखिर बच्चियां जन्म लेने के बाद होश संभालने तक किसी भी के सामने उघडे बदन चली आती है. उन सभी को सबक सिखाया जाना चाहिये. उन सभी को चरित्रहीन कहा जाना चाहिये. उनकी माताओं को भी, क्योंकि तुम्हें या किसी भी बच्चे को जन्म देने के लिए उसे अपना बदन उघाडना ही पडता है. यह तो निरी चरित्रहीनता हुई कि नहीं? वैसे भी चरित्र का सारा ठेका तो औअरतों और लडकियों ने ही ले रखा है ना.

पता नहीं रुचिका, इस 14 साल की उम्र में ही तुमने अपने स्कूल को देह व्यवसाय के कितने बडे अड्डे में बदल दिया था कि तुम्हारे स्कूल ने भी कह दिया कि तुम खराब चरित्र की थी. कितनी बडी तुम्हारी शारीरिक और मानसिक ताक़त थी कि तुमने पूरे स्कूल को चरित्र के हिमालय से घसीटकर खाई में फेंक दिया. और लोग कितने डरपोक थे कि तुम्हारे इस चरित्र हनन के हथियार के आगे घुटने टेक दिए? उनके अपने अन्दर कोई बुद्धि, विवेक नहीं था कि तुम्हारी तथाकथित चरित्रहीनता की रपटीली राह पर सभी रपट गए?

ओह रुचिका, मेरी बच्ची. मैं तुममें अपना, अपनी बच्चियों का अक़्स देख रही हूं. मेरे आंसू नहीं रुक रहे. पता नहीं, यह सारा का सारा दोष मैं अपने ऊपर क्यों महसूस कर रही हूं, मुझे लग रहा है कि मेरी ही बच्ची के साथ ऐसा हुआ है. मैं सांस नहीं ले पा रही. दम घुट रहा है मेरा. इस जीते जी की घुटन से बहुत अच्छा हुआ कि तुम मर गई.

मैने मनोविज्ञान नहीं पढा है बिटिया, मगर इतना जानती हूं कि चरित्रहीन व्यक्ति के जिगर की बात नहीं है कि वह खुदकुशी कर ले. वह दूसरों को खुदकुशी करने पर मजबूर कर सकता है, खुद नहीं कर सकता, जैसे तुम्हारे मामले में हुआ. लोग कहते हैं, मुकुराहट बडी अच्छी आदत है. मगर कभी कभी यह मुस्कुराहट कैसे तंज़ में बदलती है, यह मैं अभी देख रही हूं.

यह मुस्कान, सज़ा की मुस्कान नहीं है, यह अपनी जीत की हंसी है कि देखो, देखो, मुझे देखो और मेरी व्यवस्था को देखो. मैं तो आदमी हूं, ताकतवर हूं. मेरा काम है लोगों के चरित्र की खील बखिया उधेडना और अपने को सुई की तरह तेज और नुकीला बनाए रखना कि किसी ने नज़र उठाई मेरी ओर कि बस, यह सुई उसकी आंखों मे.

मैं तो चरण धो धो कर पियूंगी तुम्हारी दोस्त अनुराधा और उसके माता पिता के. पता नहीं, मुझे अपना एक नाटक “अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो” क्यों याद आ रहा है? उस नाटक की भी अंकिता पुरुष की इसी वासना का शिकार हुई थी, वह भी अपने ही पिता और भाई द्वारा. वह भी अपने दोस्तों के द्वारा बचाई गई, उसके दोस्त के माता-पिता ने उसके लिए केस लडा. लेकिन तारीफ कि उस पिता के लिए भी कह दिया गया कि वह अपनी पुरानी दुश्मनी निकाल रहे हैं.

कैसे बर्दाश्त करेगी, एक 14 साल की बच्ची अपने कारण अपने भाई पर इतनी अत्याचारी हरकतें देखकर कि अत्याचार और अनाचार को भी शर्म आ जाए. तुम्हारे लिए अश्लील व्यंग्य करनेवाले भाडे के टट्टू. क्या कहा जाए उनके लिए? कुछ भी नहीं, क्योंकि वे तो पैसे के लिए काम करते हैं. वे कुछ भी कर सकते हैं. उनकी ज़ात, उनका ईमान सबकुछ केवल पैसा होता है.

और पत्नियों को तो तुम माफ ही कर दो रुचिका. पता नहीं किस फिल्मवाले ने यह सूक्त वाक्य हम हिन्दुस्तानी औरतों के लिए दे दिया कि आज तक भीष्म की तरह उस वाक्य के राज सिंहासन से सभी पत्नियां बंधी हुई हैं. वह सूक्त वाक्य है- “भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है.” तो हर पत्नी का आपदधर्म होता है कि वह मुसीबत में पडे अपने पति रूपी सत्यवान के प्राण को सावित्री बनकर यमराज के चंगुल से छुडाकर लाए. हमने उस पत्नी की भी दिव्य मुस्कान देखी. लगा, यमराज की व्यवस्था को भी धता बता रही हो. पति रूपी सिंहासन से बंधी उस स्त्री में तुम्हारी मां भी हो सकती है, जो पति के आगे चुप रहकर उसकी हां में हां मिलाती हुई अंडरग्राउंड हो गई. उसी पति रूपी सिंहासन से बंधी उस स्त्री में तुम्हारी दोस्त की मां भी है, जो पति के साथ साथ चलती रही. अच्छा हुआ कि तुम किसी की पत्नी बनने से पहले ही सिधार गई. क्या पता, वह पति तुम्हारी बातों को समझता. तब तो कोई बात ही नहीं होती. मगर, यदि वह भी समझने से इंकार कर देता तो?

फिर भी मैं यह कैसे मान लूं मेरी बच्ची कि इस धरती की लड़कियां अपने शरीर से अपने मन को बाहर निकल दें। अपने भीतर अपने लिए कोई इच्छा, अरमान ना पाले, अपने लिए अपनी कोई राह ना चुने, अपने साथ साथ अपने समाज, देश के नाम व प्रतिष्ठा की बात ना सोचे. अपने को केवल देह मान कर उसके बिंधने, चिंथने, टूटने, दरकने की राह तके और उसे ही अपनी नियति मानकर अपनी ज़बान काटकर अलग रख दे? नहीं रुचिका, नहीं. तुम जहां भी हो वहीं से अपने को देह की इस परिधि से बाहर निकालो, मन को मज़बूत करो और बता दो कि तुम टूट गई तो टूट गई, मगर आगे से कोई बेटी नहीं टूटेगी. सभी के मन में अनुराधा भर दो और उनके मन में भी, जो तुम्हारे अंकल- आंटी की तरह तुम्हारे साथ हैं. तुम्हारे माता-पिता, भाई, सहेली- सभी के मन में. मैं हर रुचिका को जीवित देखना चाहती हूं, मेरी बच्ची. तुम्हारा बलिदान व्यर्थ ना जाए, यह सनद रहे.

Friday, December 25, 2009

मारो, मारो, बेटियों को मारो!

http://rachanakar.blogspot.com/2009/12/blog-post_7232.html

यार लोग परेशान हैं कि किसी ने अपनी नवजात बेटी को मार दिया, क्योंकि उसे बेटी नहीं चाहिये थी. कमाल है, अरे नहीं चाहिये थी तो नहीं चाहिये थी. अब इसमें इतना शोर या मातम मचाने की क्या ज़रूरत? उसका बच्चा, उसकी मर्ज़ी! उसने आपसे पूछकर तो बाप बनने की प्रक्रिया नहीं शुरु की थी ना! अब उसकी इच्छा! आखिर बेटी थी उसकी.

बेटियों को मारने का सिलसिला कोई आज का है क्या? गंगा तो इससे भी महान थी. भीष्म के पहले के सात सात बेटों को जनमते ही मार दिया. सोचिए, आज का कोई मां-बाप इतना बडा कलेजा दिखाएगा कि बेटों को मार दे? गंगा के उन सात बेटों ने अपनी मौत का बदला शायद इस तरह से लिया है कि उन्होंने सभी के मन में भर दिया कि बेटियां ही सभी संताप की जड हैं, इसलिए जनमते ही छुटी पा लो. बाद की आह और वाह से बचे रहोगे. गंगा भी तो बेटी ही थी न!

अब बताइये, बेटियां जनम कर ही कौन सा तीर मार लेंगी? एक किरण बेदी, या कल्पना चावला या सुनीता विलियम्स बन जाने से क्या कोई क्रांति आ जाएगी? सभी बेटियां अपने अधिकार भाव से पैदा होने लग जाएंगी? अपनी मर्ज़ी से पढने लग जाएंगी? अपनी मर्ज़ी से ब्याह कर लेंगी? ब्याह के बाद पति या ससुराल के अत्याचार से बच जाएंगी? दहेज़ के बदले उन्हें लड्डू दिए जाने लगेंगे? ब्याह के समय् उनसे शील, सुभाव, चरित्र, रूप, गुन की बात नहीं की जाने लगेंगी? इतने सारे झंझट किसलिए भाई? बेटियों के कारण ही ना? जीवन कितना सुखी, शांत, सरल हो जाएगा, अगर बेटियां नहीं हुई तो?

कितने फायदे हैं ना बेटियों के ना होने से. घर में किसी को रखवाली नहीं करनी पडेगी. पढाने के लिए उसे कहीं भेजा जाए, इस पर सोचना नहीं पड़ेगा, कहीं आने जाने के लिए उसके साथ एक अदद संरक्षक की ज़रूरत पर बल नहीं देना पड़ेगा, उसके साथ कोई छेड़छाड़ ना करे, वह हर रोज अपने घर सुरक्षित पहुंच जाया करे, इस पर मगजमारी नहीं करनी पडेगी, शादी के बाद वह सुखी है कि नहीं, दहेज की प्रताड़ना या अन्य प्रताड़ना दी तो उसे नहीं जा रही है, इस आशंका में आपकी नींद हराम तो नहीं हुई रहेगी, दफ्तर में कोई उस पर बिना वज़ह छींटाकशी कर रहा है, यह देख कर आपकी जान तो नहीं सूखती रहेगी, उसका किसी तरह का कोई यौन शोषण तो नहीं हो रहा है, इससे आपकी आत्मा कनछती तो नहीं रहेगी? वह कहीं अपने मन से किसी जात कुजात में शादी कर के आपकी इज़्जत को बट्टा ना लगाए और अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए आप उसका उसके प्यार समेत खात्मा ना कर दें.

यह सब कुछ भी नहीं होगा और हम सभी चैन और आराम की नींद सो सकेंगे, अगर बेटियां नहीं होंगी. सबसे बड़ी बात तो यह कि तब इंसानों की पैदवार रुक जाएगी, बेटियां ही नहीं होंगी तो बच्चे कैसे पैदा होंगे और जब बच्चे ही पैदा नहीं होंगे तो ये सब काम भी नहीं होंगे और जब ये सब काम नहीं होंगे तो इन सब पर सोचने और परेशान होने की ज़रूरत भी नहीं रहेगी. इसलिए, आइये, सब मिल जुलकर एक दूसरे का आह्वान करें और इस धरती पर से सभी बेटियों को नेस्तनाबूद करें.

Saturday, December 19, 2009

विभा रानी को प्रथम "राजीव सारस्वत स्मृति सम्मान"


छम्मकछल्लो का एक प्रयास यह भी.


http://mohallalive.com/2009/12/19/vibha-rani-get-first-rajeev-saraswat-memorial-award/

http://hindi-khabar.hindyugm.com/2009/12/vibha-rani-rajiv-saraswat-smriti-samman.html

प्रथम "राजीव सारस्वत स्मृति सम्मान" सुप्रसिद्ध लेखक विभा रानी को आज के आयोजित कार्यक्रम में प्रदान किया गया. राजीव सारस्वत हिन्दुस्तान पेट्रोलियम में प्रबंधक (राजभाषा) के रूप में कार्य कर रहे थे. पिछले साल यानी 2008 के 26/11 के आतंकवादी हमले के वे शिकार हो गए. हादसे के वक़्त वे ताज होटल में कंपनी की तरफ से दी गई अपनी ड्यूटी पर थे. ताज होटल, ट्राइडेंट होटल, छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, नरीमन हाउस -इन सभी पर उस रात आतंकवादियों ने कहर ढाया था, जिसकी चपेट में सैकडों लोग आ गए थे. राजीव सारस्वत भी उनमें से एक थे. राजीव न केवल एक कुशल अधिकारी थे, बल्कि एक कुशल वक्ता, चुटकीदार कवि, अच्छे मंच संचालक भी थे. हाज़िरजवाबी भी उनकी बडी तेज़ तर्रार थी. मुंबई की कई साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से वे जुडे हुए थे और उनकी गतिविधियों में नियमित रूप से उनकी शिरकत रहती थी.

उनकी स्मृति में उनके नियोक्ता हिन्दुस्तान पेट्रोलियम ने "राजीव सारस्वत स्मृति सम्मान" का गठन किया. इसके तहत हिन्दी को सृजनात्मक तरीके से आगे बढानेवाले को यह सम्मान दिए जाने की घोषणा की गई. इसी के तहत इस साल का प्रथम "राजीव सारस्वत स्मृति सम्मान" विभा रानी को 18 दिसम्बर, 2009 को आयोजित कार्यक्रम में हिन्दुस्तान पेट्रोलियम के निदेशक (मानव संसाधन) श्री वी विजियासारधि के द्वारा प्रदान किया. सम्मान के तहत शॉल व प्रमाणपत्र के अतिरिक्त 10001/- की राशि का चेक दिया गया.

विभा रानी हिन्दी व मैथिली की सुपरिचित कथाकार, नाटककार, रंगमंच की कुशल अभिनेत्री व् सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं. हिन्दी व मैथिली में अबतक उनकी बारह से भी अधिक किताबें आ चुकी हैं. दस से अधिक नाटक वे लिख चुकी हैं. 'सावधान पुरुरवा', दुलारीबाई', पोस्टर', 'कसाईबाडा', 'मि. जिन्ना', 'लाइफ इज नॉट ए ड्रीम', 'बालचन्दा' जैसे नाटकों व 'चिट्ठी', 'धधक' जैसी फिल्मों में काम कर चुकी हैं. फिल्म्स डिविजन की फिल्में 'जयशंकर प्रसाद' व 'भारतेन्दु हरिश्चन्द्र' का लेखन कर चुकी हैं. कई टीवी कार्यक्रमों के लिए वे वॉयसओवर का काम भी किया है. रेडियो की वे पुरानी आवाज़, नाटक कलाकार हैं और अभी भी रेडियो से कथाओं के माध्यम से जुडी हुई हैं. विभिन्न सामाजिक विषयों पर वे अपनी तंज शैली में छम्मकछल्लोकहिस ब्लॉग लिखती हैं. 'छुटपन की कविताएं' तथा 'बस यूं ही नहीं' उनके अन्य ब्लॉग हैं. इनके अलावा विभा 'नो योरसेल्फ बेटर', सेल्फ एक्सप्लोरेशन', टाइम मैनेजमेंट', गिल्ट मैनेजमेंट' जैसे बिहेवियरल प्रशिक्षण कार्यक्रमों का संचालन करती हैं और मुख्य धारा के बच्चों के लिए थिएटर वर्कशॉप आदि का भी आयोजन करती हैं.

सामाजिक गतिविधियों में भी विभा की सक्रिय सहभागिता रही है. उनके सामाजिक योगदान में सबसे प्रमुख है- वंचित वर्ग के बच्चों को शैक्षणिक सहायता उपलब्ध कराना, वृद्धाश्रमों के लिए कार्यक्रम आयोजित करना और उनसे भी महत्वपूर्ण है, मुंबई और पुणे की जेलों के बन्दियों और महिला बन्दियों के बच्चों के साथ कला, थिएटर, साहित्य आदि के माध्यम से उनके मध्य सार्थक हस्तक्षेप करना. वर्तमान में "निर्मल आनंद सेतु' कार्यक्रम के माधय्म से वे लगातार बन्दियों के साथ संवाद कर रही हैं ताकि उनके जीवन में गुणात्मक परिवर्तन आए. सम्मान ग्रहण करते समय विभा ने सम्मान के प्रति अपना आभार व्यक्त किया उअर कहा कि सम्मानस्वरूप मिली राशि का उपयोग समाज के विभिन्न वंचित वर्ग के लिए आयोजित कार्यक्रमों में किया जाएगा.

Monday, December 14, 2009

I will try my level best-का मतलब? कभी नहीं जी कभी नहीं!

http://janatantra.com/2009/12/14/i-will-try-my-level-best/

छम्मकछल्लो को अंग्रेजी आती नहीं. मगर अंग्रेजी अच्छी बहुत लगती है. अब अंग्रेजी न आने और पसन्द आने के बीच अप कोई तालमेल ना खोजें. हाथ तो चांद भी नहीं आता और हीरे का हार भी. तो इसका यह मतलब तो नहीं कि आप चांद या हार को पसन्द करना बन्द कर दें? आप यक़ीन कीजिए, अंग्रेजी भाषा सचमुच कभी कभी बडी अच्छी लगती है. ऐसे ऐसे शब्द और भाव इसमें हैं कि इनकी कोई काट आपके पास नहीं मिलेगी. जभी तो अंग्रेज हम पर इतने साल राज कर गए और अभी भी अपनी भाषा के बल पर हम पर अमिट राज कर रहे हैं और करते रहेंगे. यह छम्मकछल्लो की भविषवाणी है, जोकभी झूठी साबित नहीं होगी. आप शर्त लगा कर देख लीजिए.

अंग्रेजी बडी शिष्ट और क़ायदेदार ज़बान है. अब देखिए, बडी से बडी गलती करने पर भी आप महज एक शब्द बोल देते हैं "सॉरी" और लोग बाग कायल हो जाते हैं. वे उसके आगे कुछ बोल ही नहीं सकते. आपके सॉरी के बाद भी किसी ने अगर कुछ कहा तो उल्टा लोग उसी का बंटाधार करने लगेंगे कि "अरे भाई, क्यों पीछे पडे हो बिचारे के? बोला न उसने सॉरी. अब क्या चाहिए आपको?"

इसी तरह से एक शब्द है "थैंक यू" अब इसके लिए आप लाख धन्यवाद बोलिए, शुक्रिया कहिए, वह मज़ा नहीं जो थैंक यू में है. इसकी महिमा तो इतनी न्यारी है कि धन्यवाद, शुक्रिया बोलने के बाद भी जबतक लोग थैंक यू नहीं बोलते हैं, तबतक बोलने या शिष्टाचार की प्रक्रिया पूरी नहीं मानी जाती है. आप किसी से भी कभी भी कहें कि आप आ रहे हैं, लोग तपाक से कहेंगे, यू आ' मोस्ट वेलकम". कुछ अच्छा बोल दिया तो फटाक से कहेंगे, "सो नाइस ऑफ यू" छम्मकछल्लो इसकी हिन्दी खोजती रह गई, समझ में ही नहीं आया. अंग्रेजी तो अंग्रेजी, जो थोडी बहुत हिन्दी आती थी, उस पर भी आफत!

छम्मक्छल्लो जब दिल्ली में थी, तब डीटीसी की बस से सफर करती थी. उसकी एक बस के ड्राइवर को थैंक यू शब्द इतना अच्छा लगता था कि वह हमेशा चाहता था कि लोग उसे थैंक यू बोलें. एक लडकी उसे बोलती भी थी. एक दिन वह बोलना भूल गई. उसके बाद तो उसने ऐसी ड्राइविंग की गुस्से में कि लगा कि बस आज बस बस नहीं, विमान बन जाएगी. दूसरे दिन जब वह लडकी चढी, तब पहले तो उसने उससे कोई बात ही नहीं की. लडकी भी अपनी बेख्याली में फिर से उतरने लगी. इस बार उससे रहा नहीं गया. उसने कहा "ओये जी, आज भी बेगर थैंक यू के ही जाओगे?" लडकी मुस्कुरा पडी. उसने थैंक यू बोला. और जी लो, बस फिर से विमान बन गई.

इसी तरह से एक और शब्द है- "I will try my level best." हिन्दी में भी है- "मैं पूरी कोशिश करूंगा या करूंगी" मगर जो मज़ा आता है अंग्रेजी के इस वाक्य में, इतनी मासूमियत, इतनी गंभीरता, इतनी सिंसियेरिटी के साथ कि कोई समझ ही नहीं पाता है कि कहनेवाला आपको कितना उल्लू बना रहा है. छम्मक्छल्लो ने यह अक्सर देखा है कि जब भी कोई यह लाइन बोलता है, समझिए कि उसकी नीयत में खोट है. वह आने के मूड या मन में नहीं है. कभी आजमाकर देख लीजिए.

इसलिए आप मेहरबानी से उस शख्स की बात का कभी भी यकीन ना करें. उसके लिए अगर आप कोई इंतज़ामात करनेवाले हों तो वह कभी न करें, क्योंकि वह शर्तिया कभी भी आपकी तरफ का रुख नहीं करेगा. आनेवाला रहेगा तो वह एक्दम कहेगा तपाक से कि वह आएगा ही आएगा. खुदा ना खास्ता नहीं पहुंच पाएगा तो आपको इत्तला कर देगा. ख़बर नहीं कर पाया, उस समय तो बाद में बताएगा. माफी मांगेगा. आप कभी उसकी शिकायत भी न करें, क्योंकि जब भी आप दुबारे उससे मिलेंगे और उससे न आने की बात पूछेंगे, वह अगला पिछला कुछ नया बहाना बनाएगा, खोजेगा, उसे आप पर चस्पां करेगा और निकल जाएगा. तो क्यों आप उसकी और अपनी मिट्टी पलीद करते करवाते हैं. उसे झूठ पर झूठ बोलने पर मज़बूर करते हैं.

आपको अगर उसकी मिट्टी पलीद करनी ही है तो उससे सचमुच कुछ मत पूछिए. बन्दा समझदार होगा तो आपकी खामोशी उसे बहुत भारी पडेगी और वह आपको खुद ब खुद अपनी सफाई दे देगा. अब उसका सच या झूठ उसका अपना सच या झूठ होगा. छम्मक्छल्लो के एक नाट्य पाठ में यहां की एक बहुत नामचीन लेखक पूरा पूरा वादा करने के बाद भी नहीं आईं. छम्मक्छल्लो के नाट्य पाठ के बादवाले कार्यक्रम में वे दिखीं. पहले तो वे बडी बोल्ड सी बनी छम्मक्छल्लो के आसपास घूमती रहीं. उससे ही चाय मांगकर पी, पीकर अपना अपनापा दिखाती रहीं. कार्यक्रम के बाद कार्यक्रम की गुणवत्ता पर चर्चा करती रहीं. छम्मक्छल्लो भी उनके साथ पूरे अपनापे व आदर के साथ पेश आती रहीं. वे शायद यह अपेक्षा कर रही थीं कि छम्मक्छल्लो उनसे अपने कार्यक्रम में ना आने की शिकायत करे तो वे कुछ बोलें. उन्होंने तो यह भी नहीं कहा था कि I will try my level best बल्कि एक रात पहले कहा था कि मिलते हैं कल सुबह, तुम्हारे कार्यक्रम में. बाद में वे खुद ही कहने लगीं कि वे तो छम्मक्छल्लो का नाटक पढ सुन देख चुकी थीं. छम्मक्छल्लो ने बस विनम्रता से जवाब दिया कि यह नाटक न तो अभी तक कहीं छपा है, न पढा गया है और ना ही मुंबई में खेला गया है.

तो बस, कल्पना कीजिए और साथ में यह मानकर चलिए कि कोई कह रहा है कि "I will try my level best." तो बस उसे मान लीजिए, चाहें तो हल्के से मुस्कुरा भर दीजिए. बोलनेवाले को पूरा यकीन दिलाइये कि उसे आपकी कोशिश पर पूरा भरोसा है और उसे भूल जाइये, जैसे वह यह कहकर भूल जाता है.- इस रूप में कि उसकी यह कोशिश कभी भी सफल नहीं होगी, क्योंकि उसके लिए वह न तो नौ मन तेल का जुगाड करेगा और न अपने मन की राधा को नाचने के लिए अर्थात उसे आपके पास आने के लिए कहेगा. यह मन का वह दर्पण है, जिसमें वह झलकता है, जो नहीं है, और वह नहीं दिखता है, जो वह है.

Sunday, December 13, 2009

ताज्जुब है!

मैने बाल कटाए और अपने बदले रूप पर मुग्ध हुई.

मैने बगैर किसी की सलाह के चश्मा खरीदा

मुझे अच्छा लगा,

अपने जन्म दिन पर मिठाइयां बांटीं, बधाइयां बटोरीं

मैं तनिक इतराई- जन्मदिन पर

कल तुमसे लडाई की,

बेचैन रही रात भर, सोई नहीं

सुबह दस मिनट में पकनेवाली सब्ज़ी डेढ घंटे में पकाई

आधी जला दी.- किसी ने मिर्च की तरह ही उसकी ओर नहीं देखा

मैने मोजरी खरीदी एकदम कम दाम में

कुछ पैसे बच गये, यह सोच कर खुश हुई. नवरात्रि में रंग-बिरंगी साडियां पहनीं

दिल बाग़-बाग़ हुआ. घर में पानी पूरी बनी, पाव भाजी बनी

सबने चाव से खाया, मन तृप्त हुआ. बिल्डिंग में होगा गरबा, इस ख़बर से बेटी की चमक आई सूरत, और मिली मेरे दिल को तसल्ली

गरबा न कर पाने की मायूसी से गहराया उसका चेहरा नहीं देखा जाता था मुझसे

इतनी छोटी- छोटी बातों पर मन हो जाता है दुखी या खुश

ताज्जुब है!

Thursday, December 3, 2009

यू पी के दो भैये से परेशान-ये पूरा हिन्दुस्तान!

परम आदरणीय महोदय साहेब जी लिब्रहान, क्यों हो रहे हैं आप हलकान? जीवन के सत्रह साल का कर दिया नुकसान. सत्रह साल में तो बच्चा जवान हो जाता है, जवान बूढा हो जाता है बूढा स्वर्ग की सीढियां नाप जाता है. सोचिए साहेब जी कि सत्रह साल और उससे भी अधिक समय से, कहें तो सदियों से जिसके लिए अपनी जान देते आए हैं, वे आखिर हैं कौन? यू पी के दो भैया ही ना, जिन्हें जब तब हकाल देने, जान से मार डालने, भीतर घुसने ना देने की बात कही जाती रही है. अब आप सभी ही बताएं कि ये दो भैये कोई आज के हैं क्या कि आपके कहने से वे सुधर जायेंगे और आप जैसा कहेंगे, वैसा वे कर देंगे? अरे, ये बडे चालाक, बडे जुगाडू और बडे मौका परस्त थे. तभी तो वानर सेना भी बना ली और एक भाई को दूसरे के खिलाफ भडका भी दिया. इनकी जडे बहुत गहरे तक धंसी हुई हैं, त्रेता से लेकार द्वापर तक. बात बडी अजीब सी है और नहीं भी. यह आज की बात नहीं भी है, और है भी. कहते हैं ना कि मानो तो देव नहीं तो पत्थर. यह भी कि इस शीर्षक का बीज मेरे एक मित्र ने छम्मक्छल्लो के मन में बो दिया. अब बो दिया तो वह अंकुराएगा ही.

छम्मक्छल्लो ने देखा कि त्रेता का एक भैया बडो बडों की खाट खडी कर गया. सबसे पहले अपने बाप की खाट श्मशान में पहुंचा दी. मां की आज्ञा मान कर. वह भी क्या तो सौतेली मां. फिर छोटे भाई को भिडा दिया, जा भैया, एक रूपसी अपने रूप पर अभिमान ना करे और हम सबका पुरुषत्व बचा रहे, उसकी कुछ तज़बीज़ कर आ. लोग आज कहते हैं कि औरतों पर अत्याचार हो रहे हैं. और देखिए विडम्बना कि इसके लिए उन्हें जो स्थल मिला, नाक कटने के बाद वह स्थान कहलाया -नासिक. जी हां, अंगूर की इस नगरी नासिक में कुम्भ का मेला लगता है और गोदावरी नदी के तट पर राम का अखाडा है, जहां शाही स्नान होता है. वहां सीता गुफा है. कहते हैं कि असली सीता को राम ने अग्नि के हवाले कर दिया था. बहन प्रेमी भाई ने तो बस उसकी छाया का अपहरण किया था. अग्नि परीक्षा के समय अग्नि ने असली सीता को लौटाया था- क्लोनिंग उस ज़माने में भी थी और डबल रोल भी. वहां एक कालाराम का भी मन्दिर है, जिसमें राम सहित सीता, लक्ष्मण सभी की मूर्तियां काले पत्थर की हैं और गोराराम का भी है. सोच लीजिए कि वहां मूर्तियों का रंग क्या होगा?

यू पी का यह भैया इतने पर ही नही रुका. अपनी नगरी, अपना राज्य छोदकर वह दूसरे राज्य में पहुंच गय था. ऐसा तो नहीं था कि यू पी में जंगल ही नहीं था. परंतु नहीं नहीं, भूल हो गई. देशनिकाला में तो अपने राज्य के जंगल भी शामिल रहते हैं. लिहाज़ा, वह तो नासिक की पंचवटी में था अपनी घरवाली के साथ. आज भी वे पांच वट्वृक्ष हैं, जिनके कारण उस जगह का नाम पडा- पंचवटी, जहां नाक कटी बहन के अपमान का बदला लेने भाई पहुंच गया. मामा मायावी था और लोग झूठ ना बुलवाए, अपनी इस मुंबई नगरी को भी मायानगरी ही तो कहा जाता है. कहते हैं कि मामा इसी मायानगरी का था. सीता यहां से हर ली गई. किसी दूसरे देश से किसी की घरवाल्ई चली जाए और वह कुछ ना करे, ऐसा होता है क्या?

बात यहीं नहीं रुकी. किशोरावस्था में ही एक मुनि उनको बिहार के बक्सर ले गए उधार मांगकर ताकि राक्षसी ताडका से उनकी रक्षा की जा सके. सोचिए, कितनी बलशाली होती थीं तब बिहार की महिलाएं कि एक ओर ताडका बन कर मिथकीय दुनिया के सबसे बलशाली मुनि की नाक में दम कर रखा था तो दूसरी ओर फूल से भी कोमल सिया सुकुमारी के भीतर भी इतनी ताक़त कि वह शिव का धनुष खिसका दे. यू पी का यह भैया वहां भी नैन सों नैन नाहीं मिलाओ गाने से बाज नहीं आया. यकीन ना हो तो रामचरित मानस पढ लीजिए, राम सीता के बाग में मिलने की चर्चा, फिर इसके बाद सीता का देवी पार्वती से इसी भैया को पति के रूप में पाने की प्रार्थना और देवी का आशीष कि "सुनु सिय सत्य असीस हमारी, पूजही मनकामना तुम्हारी." तो यू पी के इस भैया ने खुद तो धनुष तोड कर लडकी जीत ही ली, साथ साथ अपने और तीनों भाइयों के लिए भी घरवाली का इंतज़ाम कर लिया. एक ही मंडप पर चार विवाह, राजकुमार हो कर भी इतना खर्चा बचा लेने की सोची. इतनी किफायत आज के लोग सोचें और करें तो?

माता की बात मानकर जंगल चले गए और वहां जो कुछ किया, आपको पता ही है. वानर सेना भी खडी कर ली, भील भीलनी को भी अपने बस में कर लिया, नाक कटी के दूसरे भाई को अपने कॉंफिडेंस में लेकर बडे भाई की म्रृत्यु का राज़ जान लिया और चाचा, बेटे सबको मारकर अपना असर मनवा लिया. और तो और, उसकी विधवा भाभी का भी उसके साथ ब्याह करवा दिया. इतना ही नहीं, अपने छोटे भाई को मरणासन्न दुश्मन से सीख लेने के लिए भी भेज दिया तकि बाद में दुनिया उनके विचार पर अश अश कर उठे.

प्रजा के ताने पर घरवाली को घर से बाहर निकाल दिया. सौतेले भाई से इतना प्रेम किया के एक को साथ रखा तो दूसरे को अपनी खडाऊं दे दी. राज करते रहे. घरवाली को घर से निकाल देने के बाद उसकी मूर्ति बिठा कर यज्ञ किया, बेटों को राजगद्दी सौंप दी और यह सब करने के बाद अंतर्ध्यान हो गए. काश कि ऐसा अंतर्ध्यान होते कि किसी को याद नहीं आते. आते भी तो गुप्त प्रेम की तरह लोगों के मन में ही रहते. मगर अंतर्ध्यान उस समय हुए और अभी तक लोगों को पानी पिला रहे हैं, एक दूसरे को असली नेता की तरह भिडवा रहे हैं. लोग आज कह रहे हैं कि यू पी के भैया ने कहर मचा रखा है, मगर देखिए कि इसने तो त्रेता से ही गदर मचा रखा है.

अब दूसरे भैया! जन्म से पहले ही ऐसी आकाशवाणी करवा दी कि मा-बाप जेल की चक्की पीसने लगे. खुद भी जेल में जन्म लिया. दूसरे के घर पले बढे, मगर प्रेम और ऐसी राजनीति ऐसी रची कि भारत को महाभारत में बदल दिया. हमारे देश में कानून है कि एक हिन्दू आदमी एक पत्नी के रहते दूसरा ब्याह नहीं कर सकता और उसी के भगवान कहे जानेवाले यू पी के इस भैया एक दो क्या कहें, आठ रानी और साठ हज़ार पटरानी के मालिक बन बैठे. इतने पर भी मन रसिया, मन बसिया कहलाने से बाज़ नहीं आए तो एक अदद प्रेमिका भी कर ली. फिर भी चैन नहीं मिला तो महारास रचा रचा कर सारी ब्याही, अनब्याही, बाल बच्चेवाली गोपिकाओं को अपने पास बुलाने लगे. राज्य बनाया तो अपना देश गांव छोडकर दूसरे के यहां बना लिया. जान के लाले पडे तो समुन्दर के भीतर घर बना लिया. कहीं जेल का तो यह सब असर नहीं था? यू पी के एक भैया ने महाराष्ट्र में बहन की नाक काट ली तो यू पी के दूसरे भैया ने पडोस के गुजरात मे अपना दाखिल कबज़ा कर लिया.

और तो और, नेपाल में जनमे सिद्धार्थ को भी कहीं और ज्ञान नहीं मिला और वह युवा राजकुमार जब "गया गया तो ऐसा गया कि गया ही रह गया" और गया को उसने बोधगया बना दिया. यूपी के भैया को भी बिहार या कह लें कि मिथिला की ही छोरी मिली और नेपाल के इस राजकुमार को भी ग्यान बिहार की बाला के हाथों की खीर खा कर ही मिली. ज्ञान के इस केन्द्र की सत्ता को देखने समझने की ज़रूरत बहुत बढ गई है भैया! राजकुमार सिद्धार्थ के ज्ञान की गंगा मैदानी भारत में सबसे ज़्यादा फैली तो अपने बाबा साहेब की छांव तले.

अब जब ये सभी लोग त्रेता, द्वापर से ही रार मचाए हुए हैं और बिहार में ही सुन्दरता के साथ साथ ज्ञान को भी केन्द्र मान बैठे और अपना दबदबा यूपी से लेकर हर ओर जमा लिया, इतना कि उसके नाम पर बडे से बडे स्मारक ढाह दिए जाते हैं, उनके नाम पर बडी से बडी कमिटी बन जाती है, उनके नाम पर पता नहीं कितनी गोटियां कहां, कहां और कैसे कैसे जमा ली जाती हैं. लोगों का पूरा का पूरा कैरियर, नाम-धाम, काम सब कुछ ही यू पी के इन दो भैयाओं पर बस गया हुआ है- देश से विदेश तक. तो प्रेम से गाइए, हरे रामा, हरे कृष्णा, हरे कृष्णा हरे रामा! रामा रामा, हरे कृष्णा, हरे कृष्णा हरे रामा!

Wednesday, December 2, 2009

नंगा नंगा कहि कै, सब नंगे हुई जात हैं!

पिछले दिनों मोहला लाइव पर एक बहस छिडी. लिंक है- http://mohallalive.com/2009/11/29/milind-soman-madhu-sapre-acquitted/ मोहल्ला लाइव के ऑथर ने अपने साइट से हवाला दिया कि अबतक (उनके लिखने तक) 627 लोग साइट पर जा चुके हैं, इसके लेखक उमेश चतुर्वेदी के balliabole पर. अबतक और कितने गये, पता नहीं. मगर यह सवाल ज़रूर खडा करती है कि यह नंगई है क्या?

छम्मकछल्लो हैरान है फिर से कि क्या हो गया अगर अदालत ने नंगई के मामले में मिलिंद सोमण और मधु सप्रे को बरी कर दिया? अरे, नंगई तो कुदरती देन है। है कोई ऐसा, जो यह दावा कर ले कि वह पूरे कपड़े पहने पैदा हो गया था? ऊपरवाला तो समदर्शी है। उसने जानवरों, चिड़‍ियों को भी नंगा पैदा किया और इंसानों को भी। जानवर और पक्षी तो इसे प्रकृति की देन समझ कर चुप बैठ गये और नंगे घूमते रहे। मगर इंसान की वह फितरत ही क्या, जो दूसरों की बात मान ले? ना जी, आपने हमें नंगा पैदा किया तो किया, मगर हम तो कपड़े पहनेंगे ही पहनेंगे। और केवल पहनेंगे ही नहीं, इसे नंगई के ऐसे सवाल से जोड़ कर रख देंगे कि लगेगा कि बस देह की सार्थकता इतनी ही है कि इसे पूरे कपड़े से ढंक कर रखो। नंगा तो मन भी होता है, मगर मजाल है कि मन के नंगेपन पर कोई बोल दे या कोई विवाद खड़ा कर दे। यह मानुस देह मन से भी इतनी बड़ी हो गयी है कि सारी की सारी शुचिता का ठीकरा इसी पर फूटने लगा है।

आप कहते हैं कि इससे और भी व्यभिचार बढ़ेगा। दरअसल इससे नज़रिया और उदार हुआ है। हम बचपन में मेले ठेले में पान की दुकान पर फ्रेम मढ़ी तस्वीरें देखते थे, उन तस्वीरों में एक महिला या तो केवल ब्रा में रहती थी या उसे ब्रा का हुक लगाते हुए दिखाया जाता था। ये तस्वीरें इसलिए लगायी जाती थीं ताकि पान की दुकान पर भीड बनी रहे। लोग भी पान चबाते हुए इतनी हसरत और कामुक भरी नज़रों से उन तस्वीरों को देखते थे कि लगता था कि यदि वह महिला सामने आ जाए तो शायद वे सब उसे कच्चा ही चबा जाएं। मगर अब या तो पश्चिम की देन कहिए या अपना बदलता नज़रिया या महानगरीय सभ्यता, आज लड़कियां कम कपड़े में भी होती हैं, तो कोई उन्हें घूर-घूर कर नहीं देखता। कोई देख ले तो उसे असभ्य माना जाता है। सामने दिखती चीज़ के प्रति वैसे भी आकर्षण कम या ख़त्म हो जाता है। हमारा दावा है कि नंगई खुल कर सामने आ जाए, तो लोग वितृष्णा से भर उठेंगे। अच्छा ही तो है, कम से कम इसको ले कर लोगों के मन की कुंठाएं तो निकल जाएंगी, जिसका खामियाज़ा लड़कियां, स्त्रियां यौन यातनाओं के रूप में भोगती हैं और कभी कभी लड़के और पुरुष भी।

लोग कहते हैं कि नंगई पश्चिम की देन है। तो ज़रा आप अपने महान हिंदू धर्म और उसके देवी-देवताओं को देख लें। पता नहीं, सभी देवताओं को कितनी गर्मी लगी रहती है कि देह पर तो महिलाओं की तरह हज़ारों ज़ेवर चढ़ाये रहेंगे मगर यह नहीं हुआ कि देह पर एक कमीज़ ही डाल लें। उत्तरीय भी ऐसे डालेंगे कि उसमें पूरी की पूरी देह दिखती रहे। देवताओं की इस परंपरा का पालन केवल सलमान खान ही कर रहे हैं। देवियां कंचुकी धारण किये रहती हैं। लेकिन कोई भी हीरोइन देवी की बराबरी आज तक नहीं कर सकी हैं। शायद करने की हिम्मत भी नहीं है। भगवान शंकर या तो नंगे रहते हैं या एक मृगछाला धारण किये रहते हैं। भगवान महावीर तो दिगंबर रहकर दिगंबर संप्रदाय की स्थापना ही कर गये। हम सब बड़े धार्मिक और बड़े सच्चे हिंदू हैं तो क्यों नहीं पूछते इन देवी-देवताओं से कि आपके इस ताना-बाना के पीछे कौन-से जन कल्याण का भाव छुपा था? आज लोग कम कपड़े पहनने लगे तो बुरे हो गये?

इससे अच्छे मर्द तो आज के हैं कि वे पूरे कपड़े तो पहने रहते हैं। अब कोई फिल्मवाला कभी किसी हीरो या हीरोइन को नंगा दिखा देता है तो इसका यह मतलब थोड़े ही न होता है कि वह नंगई का समर्थन कर रहा है। फिल्मवाले तो वैसे भी समय से आगे रहे हैं। वे जान जाते हैं कि लोग क्या चाहते हैं? औरत की नंगई देखते देखते लोग थक गये। फिर दर्शक में महिलाएं भी तो हैं। क्या उनके मन में इच्छाएं नहीं होतीं? तो फिल्मवाले अपना दर्शक वर्ग क्यों खोएं?

आप पोर्न की बात करते हैं तो यह तो भैया शुद्ध व्यवसाय है। बाज़ार का सिद्धांत है कि जिस चीज़ की खपत अधिक होती है, उसकी मांग अधिक होती है। पोर्न साहित्य का धंधा फूल फल रहा है तो हमारी ही बदौलत न? उस नंगई को, जिसे हम सरेआम नहीं देख पाते, अपने एकांत में देख कर अपनी हिरिस बुझा लेते हैं। यह देह व्यवसाय जैसा ही है। अगर लोग इसकी मांग नहीं करेंगे तो क्या यह धंधा चलेगा? लेकिन सवाल तो यह है कि हम अपने को दोष कैसे दें?

रह गयी बात नंगई और कलात्मकता की, तो माफ कीजिए, कितनी भी कलात्मक कृति क्यों न हो, लोगों को उसमें नंगई नज़र आती ही आती है। अगर नहीं आती तो क्या हुसैन की कलाकृति को लोग यूं जला डालते और उन्‍हें इस क़दर बिना सज़ा के ही देशनिकाला की सज़ा दे दी गयी होती? सच तो यह है कि हम सभी के मन में एक नंगापन छुपा हुआ है, जो गाहे बगाहे निकलता रहता है। हम अपनी कुंठा में इस पर तवज्जो दे कर इसे ज़रूरत से ज्यादा महत्व देने लगे हैं। अरे, जब कोई पागल हो कर कपड़े फाड़कर निकल जाता है, तब आप उस पर कोई ध्यान नहीं देते, तो इस पर क्यों दे रहे हैं?

और एक बात बताऊं? अपना नंगापन भले अच्छा न लगे, दूसरों की नंगई बड़ी भली लगती है। चाहे वह मन की हो या तन की। अब आप ही देखिए न, मिलिंद सोमण और मधु सप्रे के मुक़दमे के फैसले की आड़ में अपने मोहल्‍ले में क्या सुंदर सुंदर तस्वीरें चिपका दी गयी हैं कि मन में आह और वाह दोनों की जुगलबंदी चलने लगे। कोई मोहल्‍लेवाले से पूछे कि क्या आप अपनी ऐसी नंगी तस्वीरें इस पर चिपका सकते हैं? दूसरों का नंगापन है न, तो देखो, मज़े ले ले कर देखो, सिसकारी भर भर कर देखो, आत्ममंथन से मिथुन तक पहुंच गये, तो इसमें न तो तस्वीर खींचने या खिंचानेवाले का दोष है न इन तस्वीरों को इस पोस्ट के साथ लगाने वाले का। लोग भी खूब-खूब इस साइट पर पहुंच रहे हैं, इसे देख रहे हैं, जहां से इस लेख को लिया गया है, उस तक पहुंच रहे हैं। और हम नंगई के खिलाफ हैं। जय हो, तेरी जय हो।


Tuesday, November 24, 2009

उफ्फ! बाबा मत कहो ना!

http://rachanakar.blogspot.com/2009/11/blog-post_24.html

बढ़ती उम्र बढ़ता नासूर है. यह बालपन से बढ़ कर जवानी की ओर जाती उम्र की उछाल नहीं है कि लोग रूमानी होवें, सपने देखें, आहें भरें, गिले शिकवे करें. यह तो जवानी की खेप तय कर चुकने के बाद बुढ़ापे की ओर भागती उम्र का पका घाव है, मवाद भरा हुआ. फोड़ा पका नहीं है, फूटा नहीं है. फोड़ते डर लगता है. फोड़ा कि बहा मवाद कि हो गई छुट्टी.

यह मत समझिए कि बढ़ती उम्र से केवल महिलाएं ही परेशान होती हैं. आज की तो बात ही छोड़ दीजिए, रीतिकाल में केसवदास जी भी कह गये;

केसव केसन अस करी, जस अरिहु न कराय ।

चन्‍द्र वदनि, मृग लोचनी, बाबा कहि-कहि जाय

.

बताइये भला, कौन ऐसा अक्ल का मारा होगा जो किसी सुंदरी से अपने लिए बाबा कहलवाना चाहेगा. महिलाएं भी नहीं चाहतीं कि कोई उन्हें आंटी कहे. सुना कि सोनम ने ऐश्वर्या को आंटी कह दिया तो वे ख़फा हो गईं. सोनम ने तर्क दिया कि उन्होंने मेरे पापा के साथ काम किया है तो आंटी ही हुई ना? छम्मक्छल्लो जब दिल्ली में थी, तब एक महिला सब्ज़ीवाले छोकरे से इसी बात पर उलझ गईं कि उसने उसे आंटी क्यों कहा? वे चिल्ला चिल्ला कर कहने लगीं कि मैं तेरे को आंटी दिखती हूं? सब्ज़ीवाला छोकरा हुशियार था. तपाक से बोला, “भाभीजी, गल्ती हो गई” वो भाभी जी जब सब्ज़ी ले कर चली गई, तब छोकरा कहने लगा, “लगती तो दादी की उम्र की है और आंटी में भी आफत” इसीलिए “हम पांच” सीरियल ने यह मर्म वाक्य दे दिया, “आंटी मत कहो ना” यह जुमला इतना मशहूर हुआ कि आज तक यह ताज़ा फूल की तरह टटका और खुशबूदार है.

इस बढ़ती उम्र के नुकसान के क्या कहने! सबसे बड़ा नुकसान तो यही होता है कि आपके रूमानीपन के फूले चक्के की हवा सूं.... करके निकाल दी जाती है. अब लोगों को कैसे समझाएं कि उम्र तो दिल से होती है, देह से नहीं. किसी ने कहा भी है कि दिल को देखो, चेहरा न देखो. लेकिन लोग हैं कि चेहरे और उस पर पड़ती जा रही उम्र की सलवटों को ही देखते और बढ़ती उम्र से संबंधित तमाम नसीहतें देते रहते हैं. यह तो कोई बात नहीं हुई कि आप 60 के हो गये तो रोमांस सपने से भी ऊंची चीज़ हो गई. पति पत्नी भी आपस में कहने लगते हैं कि अब इस उम्र में यह सब शोभा देगा क्या? क्यों भाई, जब आपने शादी की थी तो क्या सात कसमों के साथ साथ यह क़सम भी खाई थी कि एक उम्र तक ही रोमांस करेंगे, उसके बाद नहीं?

उम्र बढ़ी और आपके इधर उधर के रसास्वादन का भी मौका गया. जवानी में, उम्र के जोश में लोग सिर्फ अपनी बहन बेटी के अलावे सभी की बहन बेटी के साथ अपना रसिकपन स्थापित करते थे, तब लोग बस मार पीट कर छोड़ देते थे. बढ़ती उम्र में लोग यह भी जोड़ देते हैं कि देखो बुड्ढे को? उम्र निकल गई, मगर आदत नहीं गई. तो भाई साहब, आदत क्या जाने के लिए बनाई जाती है, और वह भी ऐसी आदतें, जिसकी कल्पना से ही मन में सात सात सितार झंकृत होने लगे और सात कपड़ों के तह से भी देह के दुर्लभ दर्शन की कल्पना साकार होने लगे?

बढ़ती उम्र में आज के चलन के मुताबिक कपड़े पहनिये तो मुसीबत. अपने ही बच्चे कहने लगेंगे, मां, पापा, ज़रा उम्र तो देखिए”.. तो लो जी, वो भी गया. अब नए फैशन के रंग, डिज़ाइन, कपड़े, गहने क्यों ना हों, आप तो मन मार कर बस, अपने पुराने ज़माने की शर्ट, पैंट, चप्पल, साड़ी पर संतोष करते रहिये. महिलाएं शलवार कमीज़ भी पहन लेती हैं, मगर उनकी काट और डिज़ाइन देखिए तो लगेगा कि उम्र दस साल और पहले ही उन तक पहुंच गई है. आज के काट के कपड़े हों तो लोग कहने लगते हैं, बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम या चढ़ी जवानी बुड्ढे नूं. कोई यह नहीं कहता जवान घोड़ा सफेद लगाम. कोई जवान बूढ़ा दिखने लगे तो तमाम अफसोसनाक मर्सिया पढ़े जाने लगते हैं. बूढ़ा जवान बनने की कोशिश करे तो सौ सौ लानतें मलामतें!

पहले बड़ी उम्र का यह तो फायदा होता था कि लोग बुड्ढों से उनके अनुभव का लाभ उठाते थे. अब तो तरह तरह की देसी विदेशी पढ़ाई ने यह तय कर दिया है कि नई उम्रवाले जो सोच, जो आइडिया देते हैं, वह इन बुड्ढों में कहां ? ये सब तो अब सूखे बीज हो गये हैं, पक्के घड़े हो गये हैं, ठोस और जड़ दिमाग के हो गए हैं. तो अब इनसे इनके अनुभव भी गए. सो दफ्तरों में भी इनकी छांट छंटाई हो जाती है. घर में ऐसे ही कोई नहीं पूछता. अब दफ्तर के निकाले और घर के मारे कहां जाएं ?

बच्चा हो तो उसकी बढ़ती उम्र का हर कोई आनंद लेता है. जवानी के बाद की ढ़लवांनुमा उम्र की बढ़त पर हर कोई अफसोस ही करता है. तमाम नसीहतें दी जाने लगती हैं कि बाबा रे, ज़रा सम्भल के, पैर इधर उधर हुए कि कुछ कड़े चीज़ खा ली कि ज़रा ज़्यादा देर तक टीवी देख लिया कि किताब पढ़ ली कि कुछ और ही कर लिया, खुद भी पड़ोगे और घर के लोगों की भी जान सांसत में डालोगे.

बढ़ी उम्र को टीवी वाले भी धता बता गए. आजकल के सीरियल देखिए, कौन सास है कौन बहू, कौन मां है कौन बेटी, कौन बेटा है और कौन पति, पता ही नहीं चलता. मगर राजनीति में यह सब चलता है. यह राजनीति घर, दफ्तर, बाजार, सिनेमा सभी जगह चलती है. यहां लोग बूढे नहीं होते. यहां लोग शान से कहते हैं, “ये नए, आज के लोग क्या कर लेंगे? इनको कोई अनुभव है क्या?” सुना कि एक बीच की उम्र के नेता ने सोनम की तरह ही अपने से कहीं बडी उमर के नेता को बूढ़ा कह दिया. वे नेता अब सचमुच में उम्र ही नहीं, दिल और क्रियाशीलता के लिहाज़ से भी बूढे हो गए हैं. बेटे को कमान सौंप दी है. बढ़ती उम्र की गिरती सेहत ऐसी कि वोट तक देने नहीं जा सके. उनके लोग उन्हें बाबा कहते हैं. मगर इन्होंने उन्हें बाबा कह दिया और आफत मारपीट तक आ गई, “हमारे साहेब को बुड्ढा बोला रे?” सभी को नसीहत का पाठ पढ़ानेवाले उन बाबा ने अपने लोगों से यह नहीं कहा कि “जाने दो रे बाबा, बाबा को बाबा ही तो बोला जाएगा ना.”

इसलिए खबरदार, बामुलाहिजा, होशियार, कभी किसी की बढ़ती उम्र पर मत जाइए. उन्हें हमेशा जवान कहिए, आपका भी भला होगा और उनका भी. अपनी बीती जवानी के जोश में भरकर अपनी झुकी कमर को खींचकर खुद ही सीधी करेंगे. अब इसमें कमर में मोच आती है या घुटने टूटते फूटते हैं तो हमें दोष मत दीजिए. आखिर मर्ज़ी है उनकी, क्योंकि तन मन है उनका.

Monday, November 23, 2009

गुजरात- यानी जहां गुजरे अच्छे से रात!

http://mohallalive.com/2009/11/23/vibha-rani-reportaz-on-ahmedabad-toor/

छम्मकछल्लो के एक मित्र हैं डॉ. माणिक मृगेश. गुजरात प्रेमी हैं. वे अक्सर कहते हैं, गुजरात- यानी जहां गुजरे अच्छे से रात! और यह जो शख्स है,उसका नाम प्रवीण है। वह प्राइवेट टैक्सी का ड्राइवर है। नरोदा पटिया में रहता है। समय बिताना था। हमारी गाड़ी अपने गंतव्य को भागी जा रही थी। अहमदाबाद का नया बसा इलाका – सेटेलाइट सिटी। विकास की दौड़ में भागता शहर। चौड़ी सड़कें, चौतरफा मॉल से पटा इलाक़ा। एक फाइव स्टार होटल खुल चुका है। चार और खोलने की तैयारी है। सड़क बनने का काम हो रहा है। अभी इसके ऊपर फ्लाइओवर बननेवाला है। तब यहां का ट्रैफिक और भी कम हो जाएगा। इसरो का एक कार्यालय भी उधर दिखा। तब लगा कि एक ज़माने में यह कितना वीरान इलाका रहा होगा। आज यह अहमदाबाद का सबसे महंगा इलाक़ा है।

अहमदाबाद आना-जाना रहता है। पिछले दस-बारह सालों में इसे बढ़ते, विकसित होते देखा है। लेकिन इधर के कुछ सालों में तो विकास का जैसे कोई रेला आया है। यह भौतिक विकास है और आज इस भौतिकतावाद को हमने विकास का, आधुनिकता का अहम हिस्सा मानते हुए समझ लिया है कि यही विकास है। इसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। आप कैसे किसी को कह सकते हैं कि उसके पास अपना एक घर न हो, घर हो तो उसमें बिजली पानी न हो, आसपास अच्छी दुकानें न हों, साफ और चौड़ी सड़कें न हों, घर में टीवी से लेकर सोफा सेट, मोबाइल, आयी पॉड तक सभी आधुनिक उपकरण न हो। यही सब तो विकास है, और क्या चाहिए?

पंद्रह दिन पहले कच्छ इलाके में गयी थी। 2002 के भूकंप के बाद वहां के हालात को देख कर लगा ही नहीं कि यहां इतनी बड़ी आपदा आयी थी। भुजोरी गांव का कला ग्राम तो अपने आप में एक अदभुत स्थल है। कुछ नहीं तो बस जाइए, शांति से एक दो घंटे बैठकर आ जाइए। विकास के क्रम में छूटती हैं परंपराएं, परंपरागत सामान, पहनावा, खान-पान, रीति-रिवाज़। पूरे कच्छ और कच्छी कढ़ाई के लिए मशहूर भुजोरी गांव में आधुनिक फैशन के कपड़े तो मिले, मगर ठेठ पारंपरिक पहनावा, ठेठ गहने लाख खोजने पर भी नहीं मिले। गुजराती खाना नहीं मिला किसी भी अच्छे होटल में। वही मेनू वाला पंजाबी, चाइनीज़ और दक्षिण भारतीय खाना। यह पूरे देश में है। स्थानीय खाने के लिए आप तरस जाइएगा। विकास की इस गति में पारंपरिक वस्तुओं की बलि चढ़ती रही है।

गुजरात में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं। पहले जब भी कभी जाना होता था, सुनते आते थे कि इस इलाक़े में दंगा हुआ, उस इलाके में दंगा हुआ। गोधरा कांड तो गुजरात के लिए एक काला अध्‍याय है। गोधरा के बाद भी गुजरात का विकास हो रहा है और लोग देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं। गोधरा के बाद भी यहां वही सरकार है। आगे भी शायद वही रहे। आखिर क्यों? इतने दर्दनाक, हौलनाक कांड के बाद भी? ऐक्टिविस्ट, एनजीओ, फिल्म मेकर्स कुछ दूसरी तस्वीरें बताते हैं, यहां की एक आम जनता कुछ दूसरी। एक कहता है, “सड़क इतनी अच्छी बन गयी है कि अहमदाबाद से सूरत की दूरी चार घंटे में तय हो जाती है। आईआईएम तो है ही। शिक्षा का स्तर भी पहले से बेहतर हुआ है।”

मैंने प्रवीण से गुजरात के हालात, रहन-सहन, देश-दशा पर बात करनी शुरू की। उसने खुशी-खुशी बताना भी शुरू किया। उसकी बातचीत में कोई राजनीतिक गंध नहीं थी। न ही हालात को छुपाने की कोई मंशा। यह उसकी कहानी है, उसकी ज़बानी। मेरी भी मंशा किसी को उछालने या उसे बेहतर साबित करने की नहीं है।

“यहां हालात एकदम सही है। चारो ओर डेवलपमेंट खूब हो रहा है। प्रॉपर्टी का रेट बढ़ गया है। सड़क देखिए, कितनी अच्छी हो गयी है। बिजनेस बढ़ने से होटल भी बढ़े हैं। ये देखिए सेंट लॉरेन होटल। अभी अभी खुला है। शहर का सबसे बड़ा फाइव स्टार होटल है। इंडिया और श्रीलंका के सारे क्रिकेटर्स यहीं ठहरे हैं।”

“ओह! जभी कल यहां शाम में खूब भीड थी?”

“हां, रही होगी। उनलोगों को देखने के लिए। शाम में आते हैं न। मैं तो तीन दिन से उनलोगों को देख रहा हूं।” प्रवीण की आवाज़ में उन सबको देख पाने का गर्व भरा हुआ था।

“तुम्हें कौन क्रिकेटर पसंद है?”

“मुझे तो मैं ही पसन्द हूं, जब मैं खेलता हूं… अब तो नहीं खेल पाता हूं। अब मैं काम करने लगा हूं न! एक संडे मिलता है, उसमें बहुत से काम रहते हैं। जैसे इसी संडे को काम था। बेटी का ड्रेस लेना था, मार्केट जाना था। उसके बाद साहब ने (जिनकी गाड़ी प्रवीण चलाता है) फैमिली के साथ खाने पर बुला लिया। समय कहां मिलता है? ये साहब बहुत अच्छे हैं।”

“और यहां की सरकार?”

“वह भी। हमारा जो पूरा इलाका है न, वह इसी पार्टी का है। हम तो जब भी वोट देंगे, इसी को देंगे।”

“इतना सब होने के बाद भी?”

“देखिए मैडम, वो एक कांड था, हो गया। उसमें भी यहां के लोगों ने कुछ नहीं किया। जो बाहर से आते हैं, दंगे कराते हैं और चले जाते हैं। हां, वो हुआ। उस बार। जो हुआ, वह अच्छा नहीं हुआ, हम जानते हैं। मगर यह हम सबने नहीं कराया है। हमलोग तो अभी भी एक साथ रहते हैं, हमलोगों का काम एक दूसरे के बगैर चल ही नहीं सकता।”

“आपलोग तो अब अलग-अलग बस्ती बना कर रहने लगे हैं, ऐसा हमने सुना है।”

“हां, रहते हैं, मगर अलग हो कर भी एक ही हैं। वो बस्ती के इस पार हैं तो हम उस पार। आमने-सामने। हम सभी एक दूसरे के यहां जाते हैं। एक दूसरे के यहां खाते-पीते हैं। उनके यहां जब शादी होती है, वे हमलोगों को बुलाते हैं और हमलोगों के लिए अलग से वेज खाना पकवाते हैं।”

“क्या तुमलोग भी ऐसा करते हो कि जब तुम्हारे यहां शादी होती है तो तुमलोग उन सबके लिए अलग से नॉनवेज खाना बनवाओ?”

“नहीं, हमलोग ऐसा नहीं करते हैं। अगर वे लोग कोई मांगते हैं तो हमलोग अलग से शादी के बाद उनके लिए एक पार्टी रखते हैं और उसमें उन सबको नॉनवेज खिलाते हैं। मगर जेनरली कोई मांगता नहीं है। उन लोगों को मालूम रहता है न कि हमलोग नहीं खाते हैं, तो वे लोग कुछ कहते भी नहीं हैं। बस चुपचाप खा लेते हैं।”

“आपके घरों की महिलाएं उनके यहां का खा-पी लेती हैं? आम तौर पर आदमी तो उतना भेदभाव नहीं रखते हैं, जितना कि औरतें?”

“नहीं। नॉनवेज नहीं खाती हैं। हां, हां, बाकी का खाती हैं, चाय-नाश्ता करती हैं। नहीं, कोई भेद नहीं करतीं। उनकी औरतें भी हमारे यहां आती हैं, तो खा पीकर जाती हैं। दरअसल, मैंने आपको बोला न कि यहां आपस में हमलोगों का कोई झगड़ा है ही नहीं।”

“अपलोगों के धंधे अलग अलग हैं?”

“हैं, मगर सभी के काम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। अब मैं आपको अपने यहां के धंधे के बारे में बताता हूं। हमलोगों के यहां सिलाई का धंधा होता है और उनलोगों के यहां कढ़ाई का। माने बोले तो लेडीज लोगों का ड्रेस। साड़ी सब रहता है न। तो कढ़ाई का काम वो लोग करते हैं, और सिलाई का काम हमलोग। अब इसमें कैसे एक दूसरे से अलग हो सकते हैं हमलोग, बताइए आप ही? वैसे ही है। चावल हम उगाते हैं, तो पापड़ वो लोग बनाते हैं। अभी तो ये लोग भी इस गोर्मिंट को मानने लगे हैं। आप ही देखिए न, पहले तो हर दस पंद्रह दिन में कहीं न कहीं दंगा, मारपीट होता ही रहता था। अब आप एक गोधरा को छोड़ दो। लेकिन उसके बाद बोलो तो कहीं भी गुजरात में उसके बाद दंगा हुआ है? सो अब तो ये लोग भी बोलता है कि बाबा ऐसी ही गोर्मिंट चाहिए। सुकून से तो रहने को मिलता है न।”

“शायद गोधरा के बाद सभी डर गये होंगे?”

“नहीं, ऐसा नहीं है। वे अभी भी हमारे साथ रहते हैं और हम उनके साथ। मेरे कई मुस्लिम दोस्त हैं, वे सभी गरबा में आते हैं, हमारे साथ डांस करते हैं। हम भी उनके ताजिये में जाते हैं। ईद में जाते हैं। मैंने बोला न कि ये सब काम जो है न, वो बाहरवालों के हैं। यहां के लोगों की आपस में कोई दुशमनी नहीं है।”

“जो रिफ्यूजी कैंप लगे थे, अभी सब है ही?”

“नहीं, सब हट गये। एकाध कोई होगा तो पता नहीं।”

“तो तुम्हें लगता है, यहां सब ठीक है?”

“हां मैडम, सभी ठीक है। आप ही बताओ न, आप तो खुद ही अपनी आंख से सब देख रही हैं। यहां लोगों को क्या चाहिए? दो रोटी और सुकून की ज़‍िंदगी। वह मिल रही है।”


Friday, November 20, 2009

मन की लटाई पर निन्दा का माझा और वो लेखन का गुड्डी बकाट्टा!

http://janatantra.com/2009/11/20/vibha-rani-on-plight-of-a-writer/

आह! मन बहुत दुखी है. कम्बख्त बार बार सोचता है कि लेखक ही बनना था तो हिन्दी और मैथिली के क्यों बने? अपने जन्म पर भी अफसोस होता है कि जन्म ही लेना था तो एक आम आदमी बनकर क्यों जन्मे? आप चाहें तो कह लें कि आम औरत. मुहावरे में भी थोड़ा बदलाव आ जायेगा और ज़ायके में भी. सुभाव ही देना था तो ऐसा सुभाव क्यों दे दिया कि किसी से कुछ कहने के लिए हज़ार बार सोचना पड़ जाए. पर क्या कीजियेगा? सबकुछ गर अपने ही हाथ में होता तो यह जग जितने जन, उतनी तरह का न हो गया होता? आखिर हर कोई इसे अपने अपने चश्मे से ही देखता न!

मैं पता नहीं किस गफलत में लेखक बन गई. नहीं, गफलत नहीं, तबका यह सबसे सस्ता और सुलभ तरीका था. घरवालों ने एयरहोस्टेस नहीं बनने दिया, गायिका नहीं बनने दिया, नृत्यांगना नहीं बनने दिया. मन के किसी कोने में सृजनात्मकता का कोई कीड़ा काटने लगा था. तब टैगोर को पढ़ लिया था, शरद और बंकिम को चाट लिया था, प्रेमचन्द को घोल कर पी लिया था, और भी जाने कितनों को चने चबेने की तरह फांक लिया था, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी को दूध मट्ठे की तरह तो ज्ञानरंजन, संजीव को चाय की तरह तो अज्ञेय से लेकर उदय प्रकाश को फैशनेबल कॉफी की तरह उदरस्थ, नहीं नहीं, हृदयस्थ कर लिया था. तो लगा भैया कि अपन भी लिख सकते हैं. नया कागज नहीं मिलेगा तो क्या हुआ? पुरानी कॉपी के पुराने पन्ने पर ही लिख लेंगे. सो लिखने लगे. जब लिखने लगे, तब कहीं कहीं छपने भी लगे. जब छपने लगे तो खुद को वेदव्यास समझने लगे. अब क्या! सारी दुनिया मेरी मुट्ठी में. क्या बूझते है? कुछ ऐसा वैसा कीजियेगा तो लिखिए देंगे. हमारे पास सरस्वती की ताक़त है भाई!, मज़ाक है! लेखक कोई ऐसी वैसी हस्ती है? और हम तो लेखिका थे. भला हो अंग्रेजी का कि वे अपने शब्द कोश और उसके प्रयोग में तरह तरह के सुधार और प्रयोग करते रहते हैं, जिससे अब कम से कम पुकारने में लेखक लेखिका, ऐक्टर-ऐक्ट्रेस जैसा भेद खत्म हो गया है, वरना अपने यहां तो भाई लोग लेखिका भी लिखने लगे और उसके ऊपर से उसके पहले महिला भी जोड़ने लगे. तो माने कि हम हो गये महिला लेखिका. एक करेला अपने तीता, दूजा चढा नीम पर.

अब लेखिका हो गये तो लोग कहने लगे कि लेखिका लोग तो ऑफिस की सेक्रेटरी की तरह होती हैं. जैसे सेक्रेटरी पर उसके बॉस हमेशा फिदायीन रहते हैं, वैसे ही महिला लेखिकाओं पर भी सम्पादक लोग बलि बलि जाते हैं. एक ने कह भी दिया कि आप तो हंस में भी छपती हैं और हंस में तो कोई ऐसे वैसे नहीं छपता. उन्हें हमारे सभी मैथिली पत्र पत्रिकाओं में भी छपने पर उज़्र था कि मेरी रचना तो कोई छापता नहीं, आपकी कैसे छप जाती है? अब आजकल उनकी बोली बन्द है, क्योंकि मैथिली में उनकी रचनाएं भी छप रही हैं और मैथिली के बहुत स्वनाम धन्य प्रकाशक के यहां से उनकी किताब भी आ चुकी है. यह दूसरी बात है कि मैथिली के लेखक- प्रकाशक की अभी वह हैसियत नहीं बनी है कि लेखक प्रकाशक के बलबूते पर छप जाए या प्रकाशक अपने बूते पर उसकी किताब छाप दे. हरिमोहन झा ने अपने उपन्यास ‘कन्यादान’ में एक पात्र के माध्यम से मैथिली के स्थिति के बारे में कहा था कि “एक रुपया सालाना जो पत्रिका पर खर्च करूंगा, उससे साल भर नमक नहीं खाऊंगा?” 50 साल से ऊपर हो गए, अभी भी वही हालात हैं.

तो भैया, घरवालों को लगा कि लेखन सबसे सुरक्षित सृजनात्मकता है. इसमें कहीं ना आना है ना जाना. ना किसी से मिलना, ना जुलना. हिलने डुलने की तो बात ही ना कीजिये. समय की भी कोई बन्दिश नहीं. (माने सबसे बड़ी बन्दिश). वह् यह कि पहले तो घर का काम कीजिये, फिर सिलाई कढ़ाई जैसे महान स्त्री धर्म वाला काम निपटाइये, फिर खाना भी पकाइये, घर भी देखिये, आने जानेवालों की आव भगत भी कीजिये और इन सबसे अगर समय बच जाए और और लिखास की आग फिर भी कलेजे में भड़कती रह जाये तो लिख लीजिये एकाध पन्ना! रात के दो बजे या भोर के चार बजे. और सबसे बड़ी बात कि घर में ही हैं ना तो सबसे बड़ी बात इज़्ज़त पर कोई आंच नहीं. आआहाह! कितना अच्छा है यह लेखन धर्म!

तो इस तरह से जी कि मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी. पता नहीं यह मुहावरा किस रूप में निकला और किसने निकाला? मगर ऐसे हालात में लोग कह देते हैं सो अपन ने भी कह दिया. अब लेखक बन गये तो इसका यह तो मतलब नहीं कि सभी कोई आपको जान ही जाये? और जान जाये तो जान जाये, आपके मरने के बाद भी आपको याद रखे, आपकी याद में किताबें छपवाए, समारोह करवाए, बड़ी-बड़ी श्रद्धांजलियां दिलवाए? ना जी ना, हम हिन्दीवालों को इतनी फुर्सत नहीं. और जो तनिक फुर्सत मिल भी गई भूले भटके तो उसमें लोग बाल की खाल ना निकालेंगे? किसी के नाम और काम की ऐसी की तैसी ना कर देंगे? इस देश का सबसे बड़ा रस है- निन्दा रस. उसमें ना डूब जायेंगे? हर्र लगे ना फिटकरी, रंग चोखा आये. देखिए, देखिए, निन्दा रस के नाम से ही हमारे इस लेख को पढ़नेवालों की आंखें चमक आई हैं. उनके मन में भी इस रस के लिए उपयुक्त पात्र की तस्वीरें उभरने लगी है. मन उनके लिए सभी तरह के सम्बोधन के लिए अकुलाने लगा है. जीभ लसफसा रही है. कलेजा भर आया है. हाथ कसमसा रहे हैं. तो आइये, साहित्य वाहित्य को मारें गोली. उसमें होनेवाले नाम धाम का पढें स्यापा. चलिये चढ़ाते हैं मन की लटाई में निन्दा का माझा और करते हैं गुड्डी बकाट्टा! क्यों ताऊ! ओ भैया! अरे दिदिया रे, आ रहा है ना मज़ा

Wednesday, November 11, 2009

रब का बन्दा -एक लघु कथा

पढिये लघुकथा.कॉम पर अपनी एक लघु कथा. लिंक है- http://www.laghukatha.com/304-1.htm

वह शहर के सबसे बड़ चौराहे पर था। आने-जाने वालों की संख्या बहुत थी। उसे अच्छे पैसे मिल जाते थे। वह खुश था।
आज भी वह अपनी नियत जगह पर था। दफ्तर के बाबुओं का आना-जाना शुरू हो गया था। उसने भी अपनी आवाज बुलंद की - 'देनेवाला सीताराम! भाई दस पैसा! बहन जी, दस पैसा! बाबूजी, भगवान के नाम पर दस पैसा!'
वह सहम गया। बाबूजी लाल ऑंखों से घूर रहे थे। फिर उन ऑंखों में एक चमक उभरी जो हाथ के रास्ते उसकी पीठ पर उतर गई -'साला काफिर! बोल, अल्लाह के नाम पर दे!' बाबूजी के हाथ में एक रूपए का नोट था और वह बोहनी खराब करना नहीं चाहता था।
उसने आवाज लगाई -'दे दे, अल्लाह के नाम पर दे दे! खुदा तेरे बच्चों पर सलामत की नजर रखेगा।' रूपया उसके कटोरे में था। बाबूजी के होठों पर वक्र मुस्कान।
अल्लाह के नाम पर कटोरा भर गया। वह उस कटोरे को बड़ी थैली में उलीचने जा ही रहा था कि पीछे से एक लात पड़ी -'क्यों रे! एक ही रात में तेरी सुन्नत हो गई जो हरामी अल्लाह-अल्लाह की बरसात कर रहा है। जान की खैर चाहता है तो दुबारा इन विधर्मियों की जुबान मुँह पर नहीं आनी चाहिए।'
'बिजनेस का टेम है। काहे को धंधा खराब करने का!' उसने सोचा - एक पल, दो पल ... समय सरक रहा था।
कटोरे का पैसा थैले की दूरी तय कर चुका था। उसने खाली कटोरा सामने रखा और जोर की आवाज लगाई -'दे ऊपरवाले के नाम पर! वह सबका भला करेगा! तेरा भी और तेरा भी।' उसे अल्लाह और भगवान के बन्दे याद आए।
उसके कटोरे में दोनों के ही बन्दों के पैसे थे ।
वह मुस्कुरा उठा ।

Tuesday, November 10, 2009

"निर्मल आनन्द सेतु" अवितोको की कार्यशाला का दूसरा चरण- जेल बन्दियों के लिए


"निर्मल आनन्द सेतु" कार्यक्रम के तहत अवितोको की थिएटर कार्यशाला 7 नवम्बर, 2009 को थाणे सेंट्रल जेल के बन्दियों के लिए आयोजित की गई. इस कार्यक्रम का उद्देश्य बन्दियों के साथ लगातार काम करके उनके जीवन में सकारात्मक विचारधारा लाना है. इसमें मुख्य रूप से उन्हीं बन्दियों को लिया गया, जो पिछले माह आयोजित इस "निर्मल आनन्द सेतु" कार्यक्रम में सम्मिलित हुए थे.

कभी विचार तो कभी एक्शन के द्वारा एक अनुभवजन्य सीख इस कार्यक्रम की खासियत है. पिछली कार्यशाला में व्याख्यान पर बल दिया गया था, इस बार इसे ऐक्शन यानी गतिविधियों पर आधारित बनाया गया. कार्यक्रम की शुरुआत ही विध्वंस के अभ्यास से हुई. सहभागियों को ढेर सारे कागज फाडने को कहा गया. तुरंत ही एक मोड आया जब एक सहभागी ने और अधिक कागज फाडने से यह कहते हुए मना कर दिया कि इससे कागज का नुकसान तो है ही, इसमें जो बातें लिखी हुई हैं, उन्हें हम पढ सकते हैं, ज्ञान बटोर सकते हैं, जबकि कागज को फाड देने से हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा. दूसरे सहभागी ने तुरंत कहा कि इस प्रक्रिया से उसके मन के क्रोध व उत्तेजना को शांत होने में मदद मिली है और वह अपने आपको बहुत शांत और आरामदायक महसूस कर रहा है. सहभागियों से जब उन फटे कागजों को जोडने को कहा गया, तब अचानक से उनके हिइ दिमाग में यह बात आई कि हम नाश तो कर सकते हैं, मगर संज्न या विकास नहीं. यह उनके लिए क्या, सबके लिए असम्भव है. मगर इन्हीं कागज के टुकडों से जब निर्माण की बात बताई गई, तब किसी ने पेड, किसी ने मोर, किसी ने दिल तो किसी ने मछली तो किसी ने दवा की बोतल बनाई. बनाने के क्रम में यह साफ साफ बता दिया गया था कि इनसे अच्छी या बुरी कोई भी चीज़ बनाई जा सकती है, मगर सहभागियों की अपनी सकारात्मकता ने उनसे किसी भी असामाजिक तत्व या वस्तुएं नहीं बनवाईं. कागज फाडने से इंकार करनेवाले सहभागी ने बडे ही कलात्मक तरीके से अपना नाम इन टुकडों से लिखा. इन्हीं टुकडों से फूलों और बर्फ की सेज बनाई गई और सहभागी अपने रूमानीपन के शिखर पर पहुंच गए. नाना कल्पनाओं, गीतों और अनुभूतियों से उन्होंने इन टुकडों को एक ऐसे कोमल भाव में बदल दिया उअर उसमें गहरे तक डूब भी गए. एक सहभागी ने ही इस पूरे अभ्यास का नाम दिया "विनाश से विकास".

दूसरे चरण में स्फूर्ति, गति पर अभ्यास कराया गया. और इसके बाद उन्हें एक बडी चुनौती दी गई, जिसमें उन्हें बगैर अपने पैर का इस्तेमाल किए अपनी निर्धारित सीमा तक जाना था. काफी सोच विचार के बाद सहभागियों ने ही इसका समाधान निकाला और मानव श्रृंखला बना कर और उस पर सहभागी को चला कर इस चुनौती का सामना किया और सफल रहे. यह उन्होंने ही बताया कि यह अभ्यास एकता की मिसाल है और संगठित हो कर काम करने का बल प्रदान करता है. आपसी सहज विश्वास के साथ साथ तनिक भय भी इस अभ्यास के मूल में था. चाणक्य ने कहा है कि अन्ध विश्वास कभी भी किसी पर नही करें और इस नीति को सहभागियों ने इस अभ्यास के द्वारा समझा.

अवितोको की कार्यशालाओं की खासियत होती है कि वह सहभागियों को अपनी बातें कहने का पूरा अवसर देती है. चन्द पलों के बाद ही सहभागी इस आरामदायक स्थिति में आ जाते हैं कि वे अपनी बातें बडे ही आराम से कहने और करने लगते हैं. अवितोको के कर्यक्रमों में कोई भी भाषण या उपदेशात्मक तरीका नहीं अपनाया जाता, बल्कि शारीरिक और मानसिक अभ्यास और अनुभव जनित सीख के द्वारा उन्हें सोच के सकारात्मक स्तर तक ले जाया जाता है. इसका नतीज़ा रहा कि अपने मुकदमे से लौटे अपने अपने बैरकों में जा रहे कई बन्दी इस कार्यक्रम को होता देख बैरक में न जा कर इसमें भाग लेने के लिए आ गए और अंत तक पूरे उत्साह से इसमें बने रहे.

कार्यक्रम का संचालन विभा रानी ने किया जिसमें अकादमी ऑफ थिएटर आर्ट, मुंबई विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र अमोल काम्बले ने साथ दिया. अवितोको की यह कार्यशाला एक महीने के नियमित अंतराल पर किए जाने की योजना है. अपना योगदान देने के इच्छुक सम्पर्क कर सकते हैं- avitoko@rediffmail.com या gonujha.jha@gmail.com पर. अवितोको का वेब साइट है- www.avitoko.org