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Sunday, December 22, 2019

प्यार का मज़हब क्या कहता है!

अपने शहर के लिए लिखना और अपने शहर में छपना हमेशा आह्लादकारी होता है। एक लंबे अरसे बाद नवभारत टाइम्स मुंबई में छपी हूं। #नवभारतटाइम्स और हरि मृदुल का बहुत-बहुत आभार।
आपकी सुविधा के लिए या लेख यहां प्रस्तुत है पढ़ें और आपकी राय की प्रतीक्षा रहेगी इसे मेरे कथेतर गद्य “अही ठैयाँ टिकुली हेराय गेलै” से लिया गया है।

"प्यार का मज़हब क्या कहता है!

अक्सर करवा चौथ, हरतालिका, वट सावित्री आदि के समय इस प्रश्न की बाढ़ आ जाती है कि क्या पुरुष भी अपनी पत्नियों के लिए व्रत करते हैं या कोई ऐसा व्रत है जो पुरुष अपनी पत्नी के लिए करें?  सभी कहते हैं- नहीं। मुझे भी जितना मालूम है, उसमें यही है उत्तर है- नहीं। इस प्रसंग में यशपाल की एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी है- ‘करवा का व्रत।‘

कईयों को ये व्रत पुरुष की दासता लगते हैं, कइयों को दिखावा। हर साल फेसबुक पर यह आंधी आती है। यह आंधी होली या दीवाली पर कभी नहीं आती कि हम व्रत ही क्यों करें? त्यौहार ही क्यों मनाएँ?

मैं व्रत-त्यौहार की पक्षधर हूँ, मगर इसकी रूढ़ियों पर मेरा विश्वास नहीं। लेकिन, उत्सव मनाना, नाचना, गाना, हँसना मुझे संस्कृति से जुड़ाव, नई स्फूर्ति और सकारात्मकता देते हैं। जहां तक मेरा सवाल है, मैं हरतालिका अपनी सास के लिए करती हूँ। अत्यंत विषम हालात में हुई हमारी शादी को जिस सहजता से स्वीकार कर मुझे जितना मान-सम्मान या प्यार दिया, उसके एवज में उन्होने दो ही चीजें मांगी थी- 1) इतना ज्यादा (दिन के 20-22 कप) चाय मत पियो और 2) जबतक और जैसे भी पार लगे, तीज कर लेना।

लेकिन मन के भाव कभी-कभी कहां ले जाते हैं, पति-पत्नी कब कितने समर्पित हो जाते हैं, एक-दूसरे के लिए, पता नहीं चलता। चमत्कार होता है या नहीं, पता नहीं। लेकिन जिंदगी में कभी कभी कुछ ऐसा घट जाता है, जिसका कोई सार समझ में नहीं आता।

मेरी बुआ थीं चंद्रकला- नाम के अनुरूप ही खूबसूरत और राम-सीता की भक्त । फूफा जी भी परम भक्त । दोनों कंठीधारी। अपने घर में ही उन्होंने एक मंदिर बनवा लिया था। बुआ मुझे जितनी अच्छी लगती, फूफा जी मुझे उतने ही नापसंद थे, क्योंकि उनकी नजरों में हमारे शिक्षक माता पिता की कोई अहमियत नहीं थी।

मेरी बड़ी दीदी शादी के योग्य थी और वे जो रिश्ता लेकर आते, वह हम सबकी कल्पना से भी परे होता। मसलन, लड़का कपड़े की दुकान पर काम करता है, डेढ़ सौ रुपए पाता है। लड़का गुड़ की आढ़त में काम करता है, ढाई सौ रुपए पाता है । लड़के की पान की दुकान है और इसतरह उसका अपना धंधा है। हमलोग कटकर रह जाते। ना बोलनेवाली मां फिर कुछ नहीं बोल पाती थी। बाबूजी दामाद का लिहाज करके चुप रह जाते थे।

बुआ और फूफा अपनी उम्र के हिसाब से जीते रहे । भक्त दंपति के रूप में उनका बहुत नाम था। मंदिर में हमेशा भजन कीर्तन होता रहता। दोनो में बड़ा प्रेम था। दोनो एक दूसरे को 'रघुनाथ' के नाम से संबोधित करते।

उम्र के अपने पड़ाव पर बुआ बीमार पड़ीं। जब उन्हें लगा कि उनका अंतिम समय आ गया है तो इशारे से उन्होंने घर के सदस्यों को तुलसी चौरा के पास ले चलने को कहा। उन्हें आंगन में तुलसी चौरे के पास लिटाया गया । उनकी बहुओं ने उनके मुख में तुलसी-गंगाजल डाला और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

छोटा पोता बाहर की ओर भागा और फूफा जी से बोला- "दादा दादा, दादी मर गेलै।"

फूफा जी कुछ नहीं बोले। पोते का हाथ थामे धीरे-धीरे भीतर आंगन में आए। बुआ के पास बैठे। बुआ का हाथ पकड़कर बोले- "रघुनाथ! हमरा छोड़ के चल गेल'।" और इतना कहते हुए वे बुआ के ऊपर झुक गए । तत्क्षण उनका भी प्राणांत हो गया।

शहर भर में शोर मच गया। आसपास के गांव-कस्बों से लोग आने लगे। दोनो की अर्थी एक साथ उठी। दोनों की चिंताए अगल बगल सजीं। बुआ के शहरवालों को अब यह घटना याद है या नहीं, पता नहीं, लेकिन हमसब कई कई सालों तक बुआ फूफा के इस अटूट प्रेम से बंधे रहे। वैसे समाज में, जहां साठ पार के बूढ़ों के लिए भी दूसरी शादी की तरजीह समाज देता है, वहां इन दोनों के भीतर प्रेम का कौन सा गहरा समंदर छुपा हुआ था, जिसकी तरंग में दोनो दो जिस्म एक जान बने हुए थे, आजतक नहीं समझ पाई। हर बार की तरह मैंने माँ से इसके बाबत पूछा। माँ भाव भरे स्वर में इतना ही बोल पाईं - "गहरा प्रेम।"

मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि जान न देनेवाले दंपति के बीच प्रेम नहीं होता। मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि धर्म में पति द्वारा किए जानेवाले व्रत उपवास के किस्से हो या न हों, अपने जीवन में भी कई किस्से प्रेम-धर्म के हिमालय पर जा ठहरते हैं।"