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छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

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Thursday, September 30, 2010

घुटती साँसों का डर

छम्मकछल्लो डरी हुई थी. छम्मकछल्लो भरी हुई थी. यह कौन सी जगह है, यह कौन सा देश है, यह कौन सी आबोहवा है, जिसमें हवा बहरी हो जाती है, सांस थमने लगती है, जीवन की गति शिथिल होने लगती है, काम करने की सारी योजनाएं बदल जाती हैं, समय का दवाब समय को उलट पुलट कर रख देता है
आकस्मिक भय या आकस्मिक घटनाएं परेशान करती हैं, मगर पहले से अनुमानित आशंकाएं साँसों पर पहरा बिठा देती है, मन को बेचैन कर देती है. धड़कन को थाम लेती है. 
आखिर फैसला आ गया.छम्मकछल्लो वैसे भी दिमाग से कमजोर है, अक्ल से पैदल है.माननीयों के निर्णय के आगे वह नतमस्तक है.  मगर वह अपनी अक्ल का क्या करे? उसकी अक्ल में शुरू से यही बात समाती रही कि अगर कहीं कोइ बाँट  बखरा है तो उसे वहीं ख़त्म करो. जगह के बंटवारे का मसला है तो उसे सार्वजनिक कर दो, स्कूल, अस्पताल, पार्क बना दो. इन जगहों पर सभी कोइ समान भाव से आते हैं. आखिर किसी निजी संपत्ति का मसला तो है नहीं. 
छम्मकछल्लो ने अपनी मंशा ज़ाहिर की. उसे कहा गया कि ऐसा हो सकता है, मगर होगा नहीं. 
छम्मकछल्लो को पता नहीं कि क्या होगा? आप ही बताएं. पागल मन अभी भी डरा हुआ है. ये दिल, ये पागल दिल मेरा!  


 . 

Thursday, September 2, 2010

chhammakchhallo kahis: परम्परा की लूट है, लूट सके सो लूट!

chhammakchhallo kahis: परम्परा की लूट है, लूट सके सो लूट!: "छ्म्मकछल्लो को अपने देश के रीति रिवाज़ पर बडा नाज है. जब अपने लोगों को इस रीति नीति के पालन में तत्परता से जुटे देखती है तब उसका दिल बाग-बाग ..."

परम्परा की लूट है, लूट सके सो लूट!

छ्म्मकछल्लो को अपने देश के रीति रिवाज़ पर बडा नाज है. जब अपने लोगों को इस रीति नीति के पालन में तत्परता से जुटे देखती है तब उसका दिल बाग-बाग होने लगता है. आजकल बाग-बाग बोलने में खतरा है, क्योंकि बाग में हरियाली होती है. हरा रंग धरती के सुख समृद्धि का प्रतीक था. मगर अब यह केवल रंग हो गया है. रंग को भी एक खास सम्प्रदाय से जोड दिया गया है. पहले छ्म्मकछल्लो गाती थी- कुसुम रंग साडी, साडी में गोटा लगी. कुसुम रंग का अर्थ केसरिया, चम्पई होता है. राजस्थान में लोग गाते हैं- ‘केसरिया बालमा, पधारो म्हारो देश रे.” अब कुसुम, केसर या चम्पई बोलने में बडा खतरा है. वैसे ही बाग-बाग बोलने में. कब कौन आकर आपको देशद्रोही ठहरा दे, इसका कोई भरोसा नहीं.

देश से, देश की परमपरा से प्रेम करने के अपने तरीके हैं. ढेर सारे. जैसे आज से कोई पचीस साल पहले बिहार में एक परम्परा ने जन्म ले लिया था- पकडौआ विवाह की परम्परा. दहेज के अतिरेक ने कम पैसेवाले बेटीवालों को मज़बूर कर दिया था अच्छे विवाह योग्य वर का अपहरण करके जबरन उसकी शादी करवा देने का. बाद में उसके दुष्परिणाम सामने आने पर धीरे धीरे वह परम्परा खत्म सी हो गई. अभी रोमेन झा ने उस पर एक फिल्म भी बना दी- “अंतर्द्वंद्व”. किसका और कैसा “अंतर्द्वंद्व”., यह फिल्म देखकर आपको पता चलेगा. फिल्म में तो लिख दिया गया कि यह एक सच्ची कहानी पर आधारित है. मगर यह बताना ज़रूरी नहीं समझा गया कि अब यह परम्परा इतिहास का हिस्सा हो गई है. ‘कांजीवरम”’ फिल्म भी सच्चाई पर आधारित है, मगर इसके साथ घटना के काल, पात्र समय सभी का विवरण है और यह भी कि कब इस प्रथा का उन्मूलन हुआ. पकडौआ विवाह की परम्परा भले ही आज की घटना लगे, मगर है तो अब बीती बात. इसे फिल्मकार दिखा सकते थे. न बताने का खामियाजा बिहार को इस रूप में भोगना पडेगा कि बिहार से अलग राज्य और देश के लोग यही समझेंगे कि बिहार में अभी भी वैसी परम्परा है. चेन्नै के हॉल में इस फिल्म को देखते हुए छम्मकछल्लो ने महसूस किया. यानी वैसे ही बिहार को बढिया नाम देने से हम चूकते नहीं हैं, अब उस खाज में एक खुजली यह भी. प्रवेश भारद्वाज ने भी इस विषय पर एक फिल्म बनाई है ”’नियति’”. छ्म्मकछल्लो ने भी इस पर एक कहानी लिखी थी बरसो पहले, जो तब के मुंबई जनसत्ता के ‘सबरंग’ में छपी थी. उसे फिर कभी आपके सामने परोसा जाएगा. लोग कहते हैं, फिल्मकार ज़्यादा तेज हैं, हम कहते हैं, लेखक अधिक. तभी तो आपने देखा कि जिस जिगोलो पर छ्म्मकछल्लो की कहानी तीन साल पहले छप चुकी थी, उस जिगोलो पर रिपोर्ट टीवीवाले आज दे रहे हैं. जिस पकडौआ विवाह पर दस साल पहले कहानी लिख दी गई थी, उस पर आज फिल्म बनी और रष्ट्रीय पुरस्कार पा भी गई. छम्मकछल्लो के साथ तो और भी अजब गजब हो जाता है. उसने छम्मकछल्लोकहिस नाम से ब्लॉग कई साल पहले से चलाया तो ‘देव डी’ में अनुराग कश्यप ने अपनी हीरोइन की चैट ही छम्मकछल्लो के नाम से करवा दी.

यह सब परम्परा है, बौद्धिक परम्परा की अमानतदारी, खयानतदारी हमेशा रहती है जारी. इसलिए छम्मकछल्लो अपने देश की इन सभी परम्पराओं पर नाज़ करती है.

एक परम्परा है, किताबें ले कर दो मत. लौटा ही दिया तो बुद्धिजीवी क्या कहलाए? आज ही छम्मकछल्लो अपने एक सहयोगी से कह रही थी कि किताबें लौटाने के लिए थोडे ना होती हैं. दरअसल वे छम्मकछल्लो की पत्रिका देर से लौटाने के लिए उससे क्षमा मांग रहे थे. वे अच्छे हैं, बेहद अच्छे, मगर अभी तक वे बुद्धिजीवी के स्तर तक नहीं पहुंच सके, इसलिए पत्रिका व किताब दोनों ही लौटा दी.

अपनी एक और परम्परा है, अपना घर साफ हो, गली हमारी थोडे ही है. इस परम्परा का हम जी भर कर पालन करते हैं. अपनी चीज़ हो तो खूब हिफाज़त से रखते हैं, दूसरे की चीज़ पर कैसी मरव्वत? सारा प्रयोग उस पर कीजिए. आपको पूरी छूट है.

वैसी ही एक परम्परा है, अपनी बहन बीबी को घर के अंदर रखिए, मगर दूसरों की बहन बीबी पर अपना पूरा अधिकार जताइए. अपने लिए सीता जैसी बीबी चाहिए, मगर तितली जैसी हसीना पर दिल फिर से बाग-बाग हो जाता है. ओए जी, मेरी रक्षा करना आप पाठको, दिल बार बार बाग-बाग हुआ जा रहा है. अब अपनी परम्पराएं हैं ही ऐसी. तितलियों पर भंवरे की तरह उडनेवाले देश के सच्चे वीर बांकुरों से ज़रा आप पूछकर देखिए कि क्या वे इस तितली को जीवन संगिनी बनाएंगे तो वे ऐसे छूटेंगे जैसे किसी ने जबरन उसी तितली से इनको राखी बंधवा दी हो.

एक परम्परा है, स्त्रियों को हमेशा अपने से कम करके आंको. सामंती सोच की यह धार अभी तक नहीं मिटी है, भले देश 64 साल पहले आज़ाद हो गया. बेटियों को पुश्तैनी ज़मीन में हिस्सा मत दो, भले इसके लिए कानून बन गए हैं. दहेज के नाम पर चाहे जितनी बलि ले लो, कानून के रखवाले आपका कुछ भी नहीं बिगाड सकते. चाहे तो कोई कोरे कागज़ पे मुझसे करा ले सही.

ये सब हमारे देश की कुछ महान परम्पराएं हैं. हम इनके बर-अक्स कुछ भी करना पसंद नहीं करते. करेंगे तो हमारी परम्परा, हमारी संस्कृति खाक में न मिल जाएगी? आखिर हम क्या देंगे अपनी अगली पीढी को? हरी भरी धरती, साफ पानी, साफ हवा, प्रदूषण रहित वातावरण,प्रेम करने, समझने की आज़ादी, स्वस्थ भोजन, खुला आसमान- यह सब कुछ तो दे नहीं सकते. तो यही कुछ चंद परम्पराएं दे आएं? आखिर देने का कुछ तो धर्म निभाएं ना हम परम्परावाले भी.

Wednesday, September 1, 2010

तुम भूल न जाना थूकने को.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. तुम यह मत देखो कि जगह कितनी साफ है, बल्कि यही देखो कि जगह कितनी साफ है और उसे अपने महान थूक से और भी थूकीकृत कर दो.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. तुम यह मत देखो कि तुम्हारे थूकने से जगह गंदी होती है. ये मुंसीपालटीवाले आखिर हैं किसलिए? पगार पाते हैं कि नहीं ये सब के सब हरामखोर? इन्हें रखा किसलिए गया है? साफ सफाई के लिए ना! तो जब हम थूकेंगे नहीं तो जगह गंदी कैसे होगी? जगह गंदी नहीं होगी तो फिर सफाई कैसे होगी? सफाई नहीं होगी तो उनकी नौकरी जस्टीफाई कैसे होगी? जस्टीफाई नहीं होगी, फिर तो छंटनी करनी पड जाएगी ना कामगारों की. और आप तो साहब जानते हैं कि आजकल वैसे ही नौकरी के लाले पडे हुए हैं. ठेकेदार, नौकरीदार सब एक न एक बहाने से लोगों की काम पर से छुट्टी कर रहे हैं. अब तुमने थूकने से भी छुटी कर दी तो इनकी नौकरी चली नहीं जाएगी? इसलिए इनकी नौकरी बचाने के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो ये निकम्मे मुंसीपाल्टीवाले काम नहीं करेंगे. बैठे बैठे खाने से इनकी देह पर धूल जम जम कर बडी बडी तोंद और मोटी मोटी चमडी में बदलती जाएगी. इससे इनकी सेहत पर बडा खतरा आयेगा. आजकल तो इंशुरेंसवाले भी बडी ढीलमढील चलने लगे हैं हेल्थ इंश्योरेंस के मामले में. तो काम नहीं करने से ये बीमार पडेंगे. ठीक से इंश्योरेंस नहीं हुआ तो घर के पैसे दवा दारू में भस्म होने लगेंगे. दारू तो फिर भी ठीक है, इससे मन को, तन को किक मिलती है, मगर दवा पर पैसे? लाहौल विला कूवत. इसलिए लोगों की सेहत बुलंद रखने के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो लोगों को कैसे पता चलेगा कि हमारे अंदर कितनी बडी बडी ताकतें छुपी हैं. एक ताकत तो थूक कर किसी को बेइज़्ज़त करने की है. लोग मुंह पर थूक देते हैं. एक ताकत शान जताने की है. कई लोग शान से कहते हैं कि वे तो उसके दरवाज़े थूकने भी नहीं जाएंगे. एक ताकत है अपने अहम के प्रदर्शन की. कई लोग कहते हैं कि वे उनकी चीज़ लेंगे? उनके मुंह पर थूक ना देंगे लेने से पहले? भाई लोग बडे बडे तालिबानी रास्ता अपनाते हैं बदला लेने का. देखिए अपने यहां कितना शुद्ध शाकाहारी तरीका है बदला लेने का. ना कोई खून ना कोई कत्ल. बस थूको और बदला ले लो. बदला लेने के इस सस्ते, सुलभ और शाकाहारी तरीके के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो पता कैसे चलेगा कि हमारे मुंह के अंदर ही कितना धन छुपा है. कम्बख्त न जाने कौन कौन से देश हैं जो सडक और सार्वजनिक स्थानों पर थूकनेवाली अपनी जनता पर जुर्माने ठोक देती है. इस हिसाब से तो हम लाखों करोडों का रोजाना थूक देते हैं. सरकार की वित्त व्यवस्था को हमारी इस थूक सम्पदा पर गर्व करना चाहिए और अपने बजट में इस सम्पदा से आय का भी प्रावधान कर देना चाहिए. सरकार की आय बढाने के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो गंदगी नहीं फैलेगी. इससे बीमारियों के कीडे मकोडों पर कितना संकट आ जाएगा? हमारा देश तो अहिंसा का हिमायती है ना? संकट सिर्फ इन कीडों मकोडों पर ही नहीं, इस बहाने से इस देश की चिकित्सा व्यवस्था पर भी मुसीबत आ जाएगी. डॉक्टर, कम्पाउंडर, नर्स, नर्सिंग होम, अस्पताल, दवाइयां सभी के धंधे चलने चहिए कि नहीं? इनके धंधे बंद होंगे तो देश के बेरोजगारी में फिर से कितना इज़ाफा हो जाएगा, लभी सोचा भी है? इसलिए, देश के बीमारों का इलाज करनेवालों को बेरोजगारी से बचाने के लिए और देश मेके कीडों मकोडों की सुरक्षा के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो देश की कई- कई स्वयंसेवी संस्थाओं का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा. ये संस्थाएं, स्वास्थ्य, जनता, गरीब और पता नहीं किन किन मुद्दों पर लोगों का ध्यान आकर्षित करती रहती हैं. इनसे मुद्दों को वहीं जस का तस बने रहने में मदद मिलती है, मगर संस्थाओं का उन्नयन होता चला जाता है. इन संस्थाओं के ऊन्नयन के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो हमारे देश की थूकने और थूक कर जगह लाल कर देने की सबसे बडी परम्परा का निर्वाह नहीं हो पाएगा. लोग सफेद थूक फेंकते हैं, जिसका कोई रंग नहीं होता. यह फिर दिखता नहीं. इसी दिखने के पीछे तो दुनिया तबाह है. इसलिए अपनी थूक दिखाने के लिए हम पान का इस्तेमाल करते हैं. ‘ये लाल रंग, कभी नहीं छोडेगा. पान की बिक्री भी रोजगार से जुडी हुई है. मेंहदी भी लाल रंग छोडती है, मगर वह यह कभी नहीं कहती कि लाल रंग छोडने के लिए वह घरों, दफ्तरों की दीवारें रंगेगी या सडक को लाल कर देगी. गनीमत है कि ये सिर्फ पान की लाली से सडक को रंगने की बात कर रहे हैं, खून की लाली से नहीं. इसलिए जन कल्याण और जीवन रक्षा के लिए पान खा खा कर हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको.

हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको. कि अगर तुम थूकोगे नहीं तो इस देश के सभी धर्मों के देवताओं को भी रोजगार मिलना बंद हो जाएगा. आपने देखा है ना कि लोगों के थूकने की इस कला से कुछ नासपीटे लोग खब्त खा खा कर घरों, दफ्तरों की दीवारों पर भगवानवाली टाइल्स चिपका देते हैं. यहीं और सिर्फ यहीं पर सर्व धर्म सम भाव दिख जाता है. राम, शिव, साईंबाबा, गुरु नानक देव, सभी, मतलब सभी. अब राम पर थूकोगे तो गुरु नानक देव पर भी छींटा गिरेगा, ईशू मसीह पर थूकोगे तो मक्का मदीना पर भी थूक की फुहारें पडेंगी. इसलिए, कोई किसी पर नहीं थूकता. जगह भी साफ, साम्प्रदायिक सद्भावकी भी स्थापना और देवी देवताओं को रोजगार भी. स्वर्ग में बैठे बैठे अपनी देह पर जंग लगा रहे थे. बिना काम धंधे के इन्हें रोज छप्पन भोग चाहिये. बहुत तंगी का ज़माना है भाई. बच्चे लोग बडे होने तक मा-बाप का खाते हैं, बुढापे में जब उन्हें खिलाने की बात आती है तो वे बोझ हो जाते हैं. मा-बाप ने खिलाया, तब भी बदले में खिलाने के लिए बच्चों के पास पैसे नहीं हैं, और तुम तो भगवान हो. रोज रोज बिना काम के कैसे खिलाएं भाई? इसलिए, भगवान को रोजगार देने के लिए हे इस देश के महान थूकनहारो, तुम थूको और जी भर कर थूको.

इसके बावज़ूद अगर आपमें से कुछ भले मानुसों की मति फिर गई हुई हो और वे थूकने से सकुचा रहे हों तो उनके लिए छम्मकछल्लो का यह स्नेह भरा आमंत्रण है, ठुकराइयेगा मत, प्लीज़!!!!!!!!!

“भेज रही हूं नेह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें थुकाने को,

हे मानस के राजहंस, तुम भूल न जाना थूकने को.”