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Thursday, June 12, 2014

बाबाओं के देश से!


छम्‍मकछल्‍लो को देश के सभी बाबाओं पर अगाध आस्‍था है। पूरा देश इनके प्रति आस्‍था रखता है। बाबाओं पर आस्‍था देश पर आस्‍था है। बाबा का सम्मान देश का सम्मान है! देका सम्‍मान तो करना पड़ता है न! अब कोई हमारा सम्‍मान ना करे तो हम क्‍या करें! मर्जी उनकी। आखिर, भाव है उनके।
भावों के भाव बड़े मोल- भाववाले होते हैं। बाजार-भाव उठता-गिरता रहता है। बाजार के साथ वे स्वच्छ आशा से ओतप्रोत राम और देव, कृष्‍ण और बापू, भगवान और परमात्मा होते रहते हैं।
देश में बाबा अनादिकाल से हैं। प्राचीनकालीन बाबाओं ने कभी दधीचि बनकर अस्थि-दान किया तो कभी विश्वामित्र बनकर दूसरी सृष्टि का निर्माण। बाबा आज भी हैं। आज के बाबा अपने आश्रमों का निर्माण करते हैं और भक्तों से अस्थि-दान की अपील करते हैं। आज के बाबाओं का इस धरा पर होना बड़ा लाजमी है, वरना देश डूब जाएगा रसातल में।
अपने यहाँ एक बा‍बा तुलसीदास भी हो गए। तनिक पढ़े-लिखे थे। सो रामचरित मानस लिख गए। लिख तो डाला, मगर पता नहीं, किस-किस इंफीरियैरिटी कॉम्‍प्‍लेक्‍स से भरे रहे कि पूछिए मत! लिख मारा
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी,
सकड़ ताड़ना के अधिकारी
      कोई-कोई कहते हैं
ये सब ताड़न के अधिकारी
जो लाइन अच्‍छी लगे, रख लीजिए। पाठान्तर होने से मूल भाव थोड़े ना बदले हैं।
      रोने की बारी आई तो तुलसी बाबा ने सजीव-निर्जीव, को एक ही श्रेणी में रख दिया, जैसे
हे खग-मृग हे मधुकर श्रेणी, तुम देखी सीता मृगनैनी।
और भी कि
घन घमंड, नभ गरजत घोरा, प्रियाहीन डरपत मन मोरा!

कहकर पक्षी, पशु, मेघ, भंवरे सबको एक ही जमात में शामिल कर दिया। राम को अपने इस वियोग में कोई मनुष्‍य नजर नहीं आया, जिनसे वे सीता का अता-पता पूछते। इससे पता चलता है कि तब भी लोकापवाद का कितना भय था। जानवर, चिडि़या, मेघ, बादल थोड़े ना चुगली की चटनी चाटते हुए आपस में कहते फिरेंगे कि देखो, राम की लुगाई गुम गई। यह अमित वरदान तो मनुष्‍य के पास सुरक्षित हैलुगाई राजा की गायब हो या रंक की, उसका गायब होना ही ड़ा चटखारेदार विषय है। निश्चित रूप से राम डर गए होंगे। जंगल में थे। वनवासी के रूप में। राजगद्दी भरत के हाथ में थी। सहायता मांगते, पता नहीं, मिलती कि नहीं। सामने भावावेश में खड़ाऊँ उठा लेना और घर पहुँचकर इतने सालों बाद भी उसी भाव पर टिके रहना- दोनों में बड़ा अंतर है! मनुष्‍य जन्‍म लिया था, सो उसकी हर ऊंच-नीच से वाकिफ थे। तुलसी बाबा ने तो राम के लिए मनुष्‍य की श्रेणी ही नहीं रखी वानर सेना बनाई राक्षसों से लड़ने के लिए। उससे अधम रूपवाले ढोल, गंवार, शुद्र, पसु, नारी का वर्गीकरण अलग से
      छम्‍मकछल्‍लो को लगता रहा कि क्‍या सोचकर तुलसी बाबा ने ढोल को ताड़न का अधिकारी बनाया? बताइये जरा! ढोल अपनी देह पर मनुष्य के हाथों के थापों के असंख्‍य दर्द झेलकर वह नाद, वह संगीत उत्‍पन्‍न करता है, जिस पर मन झूम जाता है। उसी ढ़ोल को ताड़न का अधिकारी बना दिया? हवन करते हाथ जले, इसी को कहते हैं शायद! ज़रूर तुलसी बाबा ने झूम बराबर झूम शराबी जैसा कुछ सुन लिया होगा अपने समय में! यह झूम-पदार्थ शायद वे लेते नहीं होंगे, इसलिए खीझ, क्षोभ और गुस्से में भरकर ढोल को ताड़न की श्रेणी में रख दिया।
गंवार!’ कोई पूछे उनसे कि आप क्‍या इंग्‍लैंड से उठ कर आए थे कि अमेरिका से? या खुद को गंवार मानकर उसी इंफीरियॉरिटी कॉम्‍प्‍लेक्‍स में जीते और गाते रहे
            चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़
            तुलसीदास चन्दन रगड़ें, तिलक करें रघुवीर!
चन्दन घिसनेवाला ओबामा या पुतिन तो नहीं ही कहलाएगा न! गंवार, माने बोका! बेवकूफ!! हर गंवई गंवार! उनका गंवार शब्द इतना प्रचलित हुआ कि इस नाम से हिन्दी में एक फिल्‍म भी बन गई। शब्द का ऐसा असर हुआ कि आजतक किसी गंवई को कोई सम्‍मान या आदर से नहीं देखता। सबकी नजरों में गांव के लोग गंवार, जाहिल, असभ्‍य हैं। ऐसे लोग मनुष्‍य तो कतई नहीं हो सकते।  
फिर शूद्र कैसे मनुष्‍य हो जाएंगे? वर्ण-व्‍यवस्‍था में उन्‍हें पैरों का स्‍थान दे दिया। कह तो दिया कि उसकी पूजा करो। आज भी लोग सम्मान जताने के लिए पैर छूते हैं। हालांकि अब गाल से गाल सटाकर पुच्च पुच्च ध्वनि निकालते हैं। तुलसी बाबा! इस पुच्च पुच्च को ढ़ोल की ध्वनि के साथ नादमय किया जाए तो कैसा लगेगा! शूद्रों को पैर पर बैठा दिया, लेकिन माथेवाले बुद्धिमान भूल गए कि पैर नहीं रहेंगे तो क्‍या माथे के बल चलोगे? बाबा ने उसी समय कह दिया कि शूद्र को पीटो। आज चाहे कर लीजिए लाख दलित-विमर्श! मन में जो छूत-अछूत बैठा है, वह न हरिजन कहलाने से गया न दलित कहने से जा रहा है! विश्वास न हो तो आरक्षण की चर्चा जरा किसी से छेड़ दीजिए!
पशु तो वैसे ही पशु है जंगली हो या घरेलू। बाबा ने वैसे अच्‍छा किया कि इन्‍हें मनुष्‍य से दूर रखा। मनुष्‍य तो जब जिधर सुन्‍दर देखा, उधर की आंख चला देते हैं, जो रसीला देखा, उधर हाथ बढ़ा देते हैं। जानवर बिचारे! जब तक छेड़ो नहीं, भौंकते नहीं। जबतक भूख ना लगे, किसी को मारते नहीं।
और नारी! बाबा ने तो कमाल कर दिया ऐसा कि आजतक स्‍त्री मनुष्‍य रूप में नहीं आ पाई है। मनुष्‍य तो छोडि़ए, वह औरत भी नहीं है। वह मादा है, भोग्‍या है, मां है, बीबी है, बहन है, बेटी है, वेश्‍या है, मगर औरत नहीं है। वह देवी है, दासी है, पर स्‍त्री नहीं है। आज स्त्री-विमर्श चल रहा है। स्त्री अपने खोल से आगे आने के लिए स्वतंत्र-चेता होने जाती है, तो उसे मर्दों के खेला में स्त्री के नाच की संज्ञा दी जाने लगती है। सात दिन से सत्तर साल तक की स्त्री आज भोग्या है। जलाते रहिए कैन्डल! कितना जलाएंगे? इतने ताड़न के बाद भी किस नारी के ताड़न की बात कही बाबा ने? कहीं रत्‍ना तो नहीं?
बाबा की दूरदृष्टि तेज थी। आखिर मानस लिखा है! उन्‍हें अहसास हो गया था कि आनेवाले समय में मनुष्‍य अपने दिमाग की कौड़ी चलाएगा और खुद को स्‍थापित करने के लिए दो तत्वों का सहारा लेगा दलित और स्‍त्री! जैसे नेतागण गरीबी और विकास का झंडा लहराते हैं, जैसे तमाम धार्मिक बाबा लोग बड़े-बड़े मखमली आसनों पर बैठकर नश्‍वरता और अनश्‍वरता का पाठ पढ़ाते हैं, जैसे स्वच्छ दरबार लगाकर वे भक्‍तों की फरियाद सुनते हैं। उनके हाथ के इशारे भर से फरियादी के दुख दूर हो जाते हैं। जो जित्‍ता बड़ा बाबा, उसकी महिमा उतनी ही न्‍यारी। सभी जानते हैं, बाबा लोग चमत्‍कार नहीं, जादू करते हैं। विदेशी उनके चमत्‍कारों की पोल खोलते हैं, फिर भी वे मरते नहीं, परम तत्व में विलीन होते हैंउनके देह- त्‍याग पर बड़े-बड़े नेता सहित देश के प्रधानमंत्री तक श्रद्धांजलि देने जाते हैं। हाय रे परसाई जी की विकलांग श्रद्धा का दौर!
दलित और स्‍त्री पहले तो मनुष्‍य ही नहीं हुए और यहाँ दोनों एक साथ हो गए यानी दलित स्‍त्री! यह तो कान में कनखजूरा घुसने की स्थिति है। औरत वैसे ही चटखारेदार विषय! दलित स्‍त्री तो गरीब की भौजाई!से हर कोई जैसे चाहे सलूक कर सकता है। किसी को अपना बड़प्‍पन और दलित वर्ग के प्रति अपनापन दिखाना हुआ तो उसके घर रूककर भोजन कर लिए, तो किसी को उस भोजन में हनीमून दिख जाता है। सभी को पता है कि एक शाम खाना खा लेने से या किसी के पैर छू लेने से न दलितों का कुछ बननेवाला है न स्त्रियों का कुछ संवरनेवाला है! लेकिन, इन पर पतली कमर है, तिरछी नज़र है कहने और रखनेवालों को मुन्नी बदनाम हुई से लेकर बहुत कुछ मिल जाता है- जैसे चाँद से चाँदनी भी है और चाँद से मधुचन्दा भी! चाँद कम रसीला थोड़े ना था, वरना ऋषि गौतम की पत्नी अहिल्या को छल से हासिल कराने के लिए वह क्यों इंद्र का साथ देता! काम गलत तो लो दाग- इन्द्र भी और चाँद तुम भी!
हनीमून औकातवालों को दिखता है। दलित को दाल-रोटी मिल जाए, यही बहुत है। स्त्री तो हनीमून का वह सूटकेस है, जो अटैची बन साथ चलने के लिए मजबूर है। आज के बाबा लोग बड़े-बड़े औकातवाले लोग हैं। उनके बड़े-बड़े भक्‍त होते हैंबड़े-बड़े उनके उपदेश होते हैंवे बड़े-बड़े त्‍यागी होते हैंबड़े-बड़े ब्रह्मचारी होते हैंये सभी से बड़े-बड़े त्‍याग, संयम और ब्रह्मचर्य की अपील करते रहते हैं। वो दूसरी बात है कि कभी कभी अपने ही संयम की तथाकथित बड़ी-बड़ी रजाई में से उनके ही संयम की लार बह जाती है। हनीमून तो छोटी सी बात है।

और हम औरतें! छोटी! तुच्छ!! और दलित औरतें तो उससे भी गई-बीती! औरतें ऐसी उलझनभरी शय हैं, जिनका नाम दिखता है, शरीर दिखता है, मगर वे खुद नहीं दिखतीं। फिर भी गजब तुलसी बाबा की महिमा कि बावजूद इसके, वे ताड़न की अधिकारी हैं। चलिए, कहीं तो कोई अधिकार दिया आपने! तो प्रेम से बोलिए तुलसी के संग-संग सभी बाबाओं की जय! ####

Monday, December 3, 2012

राजेन्द्र बाबू का पत्र- पत्नी के नाम


राजेन्द्र बाबू का पत्र- पत्नी के नाम -साभार- पुन्य स्मरण- समर्पण- उनके जन्म दिन पर- तेरा तुझको सौंपत, क्या लागे है मोय?एक बार फिर से अपने ही इसी ब्लॉग से।

इस पत्र से पता चलता है कि तब के नेता देश के लिए कितने प्रतिबद्ध रहते थे। घर-परिवार , पैसे उनके लिए बाद की बातें होती थी। मूल भोजपुएरी में लिखा पत्र यहाँ प्रस्तुत है-
आशीरबाद,
आजकल हमनी का अच्छी तरह से बानी। उहाँ के खैर सलाह चाहीं, जे खुसी रहे। आगे एह तरह के हाल ना मिलला, एह से तबीयत अंदेसा में बातें। आगे फिर। पहले कुछ अपना मन के हाल खुलकर लीखे के चाहत बानीं। चाहीं कि तू मन दे के पढी के एह पर खूब बिचार करिह' और हमारा पास जवाब लिखिह''। सब केहू जाने ला कि हम बहुत पढली,  बहुत नाम भेल, एह से हम बहुत पैसा कमाएब। से केहू के इहे उमेद रहेला कि हमार पढ़ल-लिखल सब रुपया कमाय वास्ते बातें। तोहार का मन हवे से लीखिह्तू हमारा के सिरिफ रुपया कमाए वास्ते चाहेलू और कुनीओ काम वास्ते? लड़कपन से हमार मन रुपया कमाय से फिरि गेल बाटे और जब हमार पढे मे नाम भेलत' हम कबहीं ना उमेद कैनीं कि इ सब पैसा  कमाए वास्ते होत बाटे। एही से हम अब ऐसन बात तोहरा से पूछत बानी कि जे हम रुपया ना कमाईं, त' तू गरीबी से हमारा साथ गुजर कर लेबू ना? हमार- तोहार सम्बन्ध जिनगी भर वास्ते बातें। जे हम रुपया कमाईं तबो तू हमारे साथ रहबू, ना कमाईं, तबो तू हमारे साथ रहबू। बाक़ी हमरा ई पूछे के हवे कि जो ना हम रुपया कमाईं त' तोहरा कवनो तरह के तकलीफ होई कि नाहीं। हमार तबीयत रुपया कमाए से फ़िर गेल बातें। हम रुपया कमाए के नैखीं चाहत। तोहरा से एह बात के पूछत बानीं, कि ई बात तोहरा कइसन लागी? जो हम ना कमैब त' हमारा साथ गरीब का नाही रहे के होई- गरीबी खाना, गरीबी पहिनना, गरीब मन कर के रहे के होई। हम अपना मन मी सोचले बानीं कि हमारा कवनो तकलीफ ना होई। बाक़ी तोहरो मन के हाल जान लेवे के चाहीं। हमारा पूरा विश्वास बातें कि हमार इस्त्री सीताजी का नाही जवना हाल मे हम रहब, ओही हल में रहिहें- दुःख में, सुख में- हमारा साथ ही रहला के आपण धरम, आपण सुख, आपण खुसी जनिःहें । एह दुनिया में रुपया के लालच में लोग मराल जात बाते, जे गरीब बाटे सेहू मरत बाटे, जे धनी बाटे, सेहू मारत बाटे- फेर काहे के तकलीफ उठावे। जेकरा सबूर बाटे, से ही सुख से दिन काटत बाटे। सुख-दुःख केहू का रुपया कमैले और ना कमैले ना होला। करम में जे लिखल होला, से ही सब हो ला।
अब हम लीखे के चाहत बानी कि हम जे रुपया ना कमैब त' का करब। पहीले त' हम वकालत करे के खेयाल छोड़ देब, इमातेहान ना देब, वकालत ना करब, हम देस का काम करे में सब समय लगाइब। देस वास्ते रहना, देस वास्ते सोचना, देस वास्ते काम करना- ईहे हमार काम रही। अपना वास्ते ना सोचना, ना काम करना- पूरा साधू ऐसन रहे के। तोहरा से चाहे महतारी से चाहे और केहू से हम फरक ना रहब- घर ही रहब, बाक़ी रुपया ना कमैब। सन्यासी ना होखब, बाक़ी घरे रही के जे तरह से हो सकी, देस के सेवा करब। हम थोड़े दिन में घर आइब,त' सब बात कहब। ई चीठी और केहू से मत देखिह', बाक़ी बीचार के जवाब जहाँ तक जल्दी हो सके, लीखिह'। हम जवाब वास्ते बहुत फिकिर में रहब।
अधिक एह समय ना लीक्हब।
राजेन्द्र
आगे ई चीठी दस-बारह दीन से लीखले रहली हवे, बाक़ी भेजत ना रहली हवे। आज भेज देत बानी। हम जल्दीये घर आइब। हो सके टी' जवाब लीखिः', नाहीं टी' घर एल पर बात होई। चीठी केहू से देखिः' मत। - राजेन्द्र
पाता- राजेन्द्र प्रसाद, १८, मीरजापुर स्ट्रीट, कलकत्ता
(अब आप सोचें कि ऐसे पत्र को पाकर उनकी पत्नी के क्या विचार रहे होंगे और देश को पहला राष्ट्रपति देने में उनकी क्या भुमिका रही होगी?)

Sunday, May 15, 2011

अहा! छह महा देवियों से परिपूरन यह महा भारत!


      छम्मकछल्लो छमछमा रही है. देश की आधा दर्जन महा महिलाओं से सुशोभित, अभिमंडित, अचम्भित यह देश. वंदना करो इसकी. अर्चना करो इसकी. देश ने नहीं देखा कि वे महिला हैं, खाली औरत. देश ने देखा उसका जीवट. उसकी लगन, कुछ कर पाने का उसका जोश, आदिकाल से चले आ रहे शासक को बदल देने की जनता की चाह! भ्रष्टाचार से खीझे, दुखी, गुस्साए लोग! इन सबने जनता की चाहत को वाणी दी. जनता ने उनकी वाणी को अपने हाथों से लगाए मुहर का सहारा दिया. क्लीन स्वीप आउट! वाह रे इस देश की जनता.कौन कहता है कि लीडरों से देश का विश्वास उठ गया है!
      अब बारी इन लीडरों की है के वे जनता की उम्मीदों पर खरे उतरें. इतिहास का शायद यह पहला मौका है, जब देश की प्रथम महिला से लेकर देश की सबसे बडी राष्ट्रीय पार्टी की अध्यक्ष सहित देश के चार राज्यों की कमान इन महा महिलाओं के हाथों में होगी. देश को बहुत आशा है. इन आशाओं की जडों में अपनी कार्य कुशलता का खाद-पानी डालो हे महा देवियो! वरनाइसी जनता को आपकी जड में मट्ठा डलते देर न लगेगी.
      छम्मकछल्लो को भी इन महा महिलाओं से बहुतेरी उम्मीदें हैं. उनके सुशासन में शायद अब लोग यह कहना भूल जाएं कि औरतों की अक्कल सिर में नहीं, घुटने में होती हैं. शायद लोग यह कहना भूल जाएं कि बच्चा मां की शकल ले ले, कोई बात नहीं, अकल वह मेरी ले. शायद लोग यह कहना भूल जाएं कि औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं. शायद लोग यह कहना भूल जाएं कि चूल्हा-चौका औरतों को ही फूंकना चाहिए. शायद लोग यह कहना भूल जाएं कि औरतों की कमाई खाने से बेहतर है के मर जाएं. शायद लोग यह कहना भूल जाएं कि औरतें केवल माल है. शायद लोग यह कहना भूल जाएं कि औरतों को घर के अंदर ही रहना चाहिए.
      छम्मकछल्लो चाहती है कि देश में फिर से खुशहाली आए. छम्मकछल्लो सर्वे के ग्राफ पर यकीन करती है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां कम बेईमान होती हैं. वे कम घूसखोर होती हैं. दीन-दुनिया में अपनी भद मचने की फिक्र उन्हें अधिक रहती है. महिलाएं कोमल दिल की होती हैं. वे दिल से फैसले लेती हैं. महिलाओं के ये गुण हमारी इन आधा दर्ज़न महा महिलाओं में आए और राज्य और देश को इन गुणों का उपहार दे. जनता का विश्वास तो यही कहता है. बाकी तो दिन बताएगा कि कितनी औरतें अभी भी दहेज, रेप, घरेलू हिंसा, आपसी प्रतिस्पर्धा, खाप, ऑनर किलिंग और पता नहीं, किस किसकी शिकार हुईं?  

Wednesday, January 12, 2011

सपने में शास्त्री जी.

छम्मकछल्लो बहुत दिन से लिख नहीं पा रही है. क्यों के बहुत से बहाने हैं. इस बहाने को तोडने के लिए कल रात उसके सपने में शास्त्री जी आ गए. लीजिए, आप भी पूछ रहे हैं, कौन शास्त्री जी? कभी आपने पूछा, कौन गांधी जी, कौन नेता जी, कौन लोकनायक जी? बडके लोगन की बारात में छोटके लोगन छुप जाते हैं. छोटके लोगन आजकल ऊ नहीं हैं, जो कर्म से छोटे होते हैं. छोटके लोगन ऊ हैं, जो आज की ज़ुबान में अपनी मार्केटिंग करना नहीं जानते. या फिर छोटके लोग ऊ हैं, जो इस लोकशाही में राजतंत्र लेकर नहीं आए, या छोटका लोगन ऊ है, जो कभी घूस नहीं खाया, बेईमानी नहीं किया. इसी सबके कारण अपने शास्त्री जी छोटे रह गए, इतने कि किसी को यादो नहीं रहता है कि कब ऊ जन्मे आ कब सिधार गए? ले बलैया के, अभीयो नहीं बूझे? अरे, अपने भारत के सबसे सीधे, सच्चे प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी. एक तो उनके जन्म दिन पर गांधी बाबा कब्ज़ा बोल गए. बडे के आगे छोटे को कौन याद रखता है? खैर, जनम की तारीख पर किसी का अधिकार नहीं, मगर दो बडे नेता हों तो दोनों को उतना ही सम्मान देना हमारे अधिकार में तो है. मगर हमको याद दिलाना पडता है कि 2 अक्तूबर को हमारे शास्त्री जी का भी जनम दिन है.
अब हमको यह भी याद दिलाना पडता है कि आज उनकी पुण्यतिथि है. सच पूछिए तो छम्मकछल्लो को भी याद नहीं था. याद दिलाने के लिए शास्त्री जी को रात उसके सपने में आना पडा. छम्मकछल्लो से पूछे- “का जी, हम तुम सबको याद हैं?”
छम्मकछल्लो को लगा कि धरती फट जाए और वह उसमें सीता मैया की तरह समा जाए. भला कहिए तो, अभी न तो इतनी उमिर बीती है और न स्मृति पर ऐसा आक्रमण हुआ है और न ही वह किसी बडे लोग की गर्दुमशुमारी में जा पहुंची है.
छम्मकछल्लो ने हाथ जोडे- “शास्त्री जी, शर्मिंदा मत कीजिए. आपसे सम्बंधित हमें बहुत सी बातें याद हैं.”
“जैसे?” शास्त्री जी जैसे छम्मकछल्लो की परीक्षा लेने लग गए.
छम्मकछल्लो के सामने बचपन रील की तरह खुलने लगा- “शात्री जी, हमको याद है, आप जब प्रधान मंत्री बने थे, तब हमारा स्कूल और उस स्कूल में पढानेवाली मेरी मां सहित हमारे छोटे से शहर के लोग बडे ही खुश हुए थे. सबको आपकी सादगी इतनी भाई थी कि पूछिए मत. भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय आपने जितना कडा रुख लिया था, हमको उसकी धुंधली याद अभी भी है. अमेरिका से गेहूं आयात की बात हो रही थी. आपने कहा था कि अगर हम सभी एक शाम भोजन ना करें तो उस एक शाम के खाने की बचत से इतना गेहूं बचेगा कि देश को गेहूं निर्यात करने की ज़रूरत ही नहीं पडेगी. आपने सोमवार की शाम इसके लिए मुकर्रर किया था. तब सभी शाम में अमूमन रोटी ही खाते थे. मुझे याद है शास्त्री जी कि आपकी इस बात को हमारे शहर ने एक आंदोलन की तरह लिया था. मेरी मां ने स्कूल के सभी बच्चों से कहा था कि वे सोमवार की शाम खानाना खाए. मां ने भी नहीं खाया था और हम सबने भी नहीं. दूसरे दिन मां ने सभी बच्चों से पूछा था. एक बच्ची रो पडी. सुबकते हुए उसने बताया कि उसकी तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए उसकी मां ने उसे जबरन खाना खिला दिया था.
आपने जय जवान, जय किसान का नारा दिया था. हम मनोज कुमार की फिल्म “उपकार” देख रहे थे. उनके एक गीत में आपकी तस्वीर आते ही हमें रोमांच आ गया था. आज तक आता है. हमने अपने अंग्रेजी की किताब में आप पर एक लेख पढा था- नन्हे, द लिटिल ग्रेट मैन”. मां से इसका मतलब पूछा था. मां ने बताया था कि आपका शारीरिक कद बहुत छोटा था, इसलिए. लेकिन आपका मानसिक कद कितना बडा था शास्त्री जी!
शास्त्री जी हंसे, फिर तनिक स्नेह से छम्मकछल्लो के सिर पर हाथ फिराया. छम्मकछल्लो ने कहा, “शास्त्रीजी, हमारे घर काम करनेवाली दाई थी-चनिया. 11 जनवरी की हाड कंपाती सुबह थी. पांचेक बज रहे होंगे. हम सब रजाई में घुसे थे. वह बाहर से ही छाती पीतते हुए मां को पुकार रही थी- “दीदीजी यै दीदी जी, शास्त्री जी मरि गेलखिन्ह.” वह चौक के रास्ते से आ रही थी, जहां पर रेडियो और लोग थे. रेडियो पर समाचार था और सभी लोग खामोश.
मां एकदम से चौंक उठी थी, संग में हम सब. मां ने दरवाजा खोला और चनिया एकदम से मां से लिपटा कर ऐसे भोकासी पारकर रोने लगी, जैसे उसके घर का अपना कोई गुजर गया हो. हां शास्त्रीजी, आपको कोई भी पराया नहीं मानता था.
“तब आज क्या हो गया है कि लोग हमें भूल गए हैं? मैं इसी देश का हूं भाई. अपने देश से आज भी वैसे ही लगाव और प्यार है मुझे.”
“आज शास्त्री जी, देश लोकतांत्रिक राजतंत्र हो गया है. इसमें सभी अपनों को याद रखते हैं, अपने परिवार की बंशवेल बढा रहे हैं. हम सब अनाथ की तरह घूम रहे हैं. फिर से जनम लीजिए शास्त्री जी, फिर से आइये, देश को आपकी बहुत ज़रूरत है. और लीजिए, कि शास्त्री जी भी हमारे संग रोने लगे.