हमारा देश विद्वानों का देश है. पहले विद्वानों के लिए कोई भाषा निर्धारित नहीं थी. कालिदास, चरक, पाणिनी, सूर, तुलसी, मीरा, महात्मा फुले, तुकाराम, शरत, बंकिम, प्रेमचंद, सुब्रमणियम भारती, सभी विद्वान थे. आज के समय में ये सब विद्वान की सीढी से खींचकर उतार दिए जाते. क्यों? क्योंकि उनको आज के भारतीय विद्वानों की जबान जो नहीं आती. और जिसे यह ज़बान नहीं आती, वह अनपढ कहलाता है या कम अक्ल का. यह इस महान देश की नई बुद्धिजीवी अवधारणा है. देश की सारी बहसें ये सभी बुद्धिजीवी करते हैं और अंग्रेजी में करते हैं. इतने बडे देश में 28 संविधान मान्यता प्राप्त भाषाओं के बावजूद हमारा देश इतना दरिद्र है कि वह अपनी भाषा में बहस नहीं कर सकता, काम नहीं कर सकता, नीति नहीं बना सकता. करेगा, इसे बस योगा उअर अम्र्त्य सेन की तरह पश्चिम से आने दीजिए. यह पश्चिम का पुरस्कार है और उधर से समादृत होनेके बाद ही हम अपनों का आदर करते हैं.
हमारे महान बुद्धिजीवी देश से भारतीयता के खत्म होने की चिंता में दुबले हो रहे हैं. वे इस पर विचार करते हैं, बहस करते हैं, सेमिनार करते हैं, सभी अंग्रेजी में करते हैं, अखबारों में कॉलम दर कॉलम लिखते हैं, अंग्रेजी में लिखते हैं, मगर कहते हैं कि अंग्रेजी उनकी सभ्यता, संस्कृति को खाए जा रही है. इन बुद्धिजीवियों को यही समझ में नहीं आ रहा है कि इस समस्या से कैसे निपटा जाए, जैसे कालिदास को कहते हैं कि यह समझ में नहीं आया था कि जिस पेड की डाल पर बैठे हैं, उसे क्यों ना काटा जाए?
छम्मकछल्लो को एक कहावत याद आती है- सोए को जगाया जा सकता है, जगे हुए को कैसे जगाया जाए?” इतने बडे बडे विद्वान और बुद्धिजीवी और एक इतनी छोटी सी बात नहीं समझ पा रहे? सभी देश की अन्य तमाम भाषाओं की बात करते हैं. हिंदी से सभी भारतीय भाषाओं को खतरा है, इसलिए सभी भाषा, बोलियां अपना अपना अस्तित्व ले कर सामने आ खडी हुई हैं. अभी अभी छम्मकछल्लो ने एक बहुत बडे पत्रकार के लेख से फिर पढा. हिंदी से देश की भाषाओं को खतरा है, इसकी चिंता है, वाजिब है. वे महान नेता के कामराज का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि उन्होंने जीवन भर तमिल के अलावा एक भी शब्द अन्य भाषा के नहीं बोले, मगर वे सबसे अधिक पॉवरफुल नेता थे.
छम्मकछल्लो को यही नही समझ में आया कि पॉवर का भाषा से क्या ताल्ल्कु? छम्मकछल्लो जब पढती थी तो उसका छात्र नेता महाविद्यालय, विश्वविद्यालय के प्रतिनिधियों को बडे ठसके के साथ कहता था कि वह तो हिंदी में ही बोलेगा. समझना आपका काम है. हे प्रखर पत्रकार जी, ताकत की केवल एक ही भाषा होती है- “ताकत”.
छम्मकछल्लो ने कई फोरम में यह बात रखी कि अगर हिंदी से देश को खतरा है, अगर अंग्रेजी देश की सभ्यता, संस्कृति को खाए जा रही है तो इसका उपाय तो दीजिए. आखिर सुझाव बुद्धिजीवी ही दे सकते हैं. सभी बडे लोग यह तपाक से कहते हैं कि क्या ज़रूरत है हिंदी को सभी पर थोपने की? और अंग्रेजी? यह तो ज़रूरी है. यह ना आई तो हम विश्व से बाज़ी नहीं मार सकते. मारिए, बाज़ी. इसके लिए अगर अपना घर होम करना पडे तो कीजिए, अपनी भाषा, संस्कृति, सभ्यता को लात मारनी पडे तो मारिए. हमें यह देखना है कि हम पॉवरफुल हो रहे हैं कि नहीं? पॉवर यानी ताकत तो फिरंगी रूप रंग, वेश भूषा, हाव भाव, अकडन, जकडन, तकडन से ही आता है.
3 comments:
ाच्छा लगा आपका आलेख। धन्यवाद।
धन्यवाद निर्मला जी, बहुत दिन बाद मुखातिब हुई हैं. विश्वास है, सब कुशल मंगल होगा.
.......hmmmm...
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