http://janatantra।com/2009/10/25/review-of-dayashankar-ki-diary/
http://www.artnewsweekly.com/substory.aspx?MSectionId=1&left=1&SectionId=31&storyID=102#
जब भी कोई नाटक किया जाता है तो उसे एक टीम के रूप में ही तैयार किया जाता है. मगर कई बार हो यह जाता है कि एक नाटक शुद्ध रूप से निर्देशक का नाटक हो जाता है तो कई बार वह एक्टर का हो कर रह जाता है. एकजुट थिएटर ग्रुप, मुंबई द्वारा प्रस्तुत नाटक “दयाशंकर की डायरी” देखते समय यही लगा कि यह नाटक निर्देशक और टीम से निकल कर एक्टर के प्लेट्फॉर्म पर आ कर खड़ा हो गया है. “दयाशंकर की डायरी” नाम से लगता है कि डायरी के पन्नों में दर्ज किस्सों की परतें खुलेंगी, मगर यह डायरी से अलग दयाशंकर की आत्मकथा कहने लगती है.
इस एक पात्रीय नाटक के कलाकार हैं जाने माने कलाकार आशीष विद्यार्थी. सपना देख रहे एक आम आदमी की त्रासदी उसे पागलपन से लेकर मौत के मुंह तक धकेल देती है और यह स्थिति समाज से यह सवाल पूछती है कि क्या आम आदमी को आज सपने देखने की भी इज़ाज़त नहीं है? इस त्रासदी पर आप मायूस हो सकते हैं, मगर आज की हक़ीक़त यही है. जी हां, आज आम आदमी सपने से भी महरूम कर दिया गया है. उसे कोई हक़ नहीं कि वह सपने देखे. और अगर वह देखने की जुर्रत करता है तो दयाशंकर की तरह ही अपने हश्र के लिए तैयार रहे. इस आम आदमी की तरह ही एक दूसरे आम आदमी के पास इतनी फुर्सत नहीं है कि वह दयाशंकर जैसे आम आदमी के हालात को, उसके मनोभाव को, उसके सपने को समझे और तदनुसार उसके साथ व्यवहार करे. आज आम आदमी में भी एक वर्ग ऐसे आम आदमी की है जो इन सबके मज़े लेता है और पान की पीक की तरह उस पर थूक कर चला जाता है.
नादिरा ज़हीर बब्बर ने इसकी स्क्रिप्ट भी लिखी है और इसका निर्देशन भी किया है. “दयाशंकर की डायरी” नाटक 1998 में नेहरु सेंटर थिएटर फेस्टिवल में ओपन किया गया था और अबतक देश व विदेशों में इसके लगभग 150 से 200 तक शो हो चुके हैं. इस नाटक को तैयार करने में नादिरा जी की मेहनत भी झलकती है और आशीष विद्यार्थी की भी. एकपात्रीय नाटक गहरे धैर्य, समझ, सम्वेदनशीलता, कलाकार की अभिनय क्षमता के साथ साथ शो को अपेक्षित समय तक ले जाने की कुशलता की भी मांग करता है. आशीष ने इस सभी का परिचय इसमें देने की कोशिश की है और उसमें सफल भी हुए हैं.
आशीष राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पास आउट हैं. अभिनय पर उनकी मास्टरी है. दिल्ली में उन्होंने पीयूष मिश्रा और एन के शर्मा के ‘एक्ट1” के साथ कई नाटक किए. मुंबई में भी अपने संघर्ष के दिनों में वे पृथ्वी फेस्टिवल में और वैसे भी काफी प्लेटफॉर्म पर शो किए. फिर आम एनएसडीयन की तरह वे भी फिल्मों का रुख कर गए. ‘द्रोहकाल” और “इस रात की सुबह नहीं” से उन्हें अधिक पहचान मिली. उन्हें नेशनल अवार्ड भी मिला है. 2009 की उनकी फिल्में हैं, ‘रेड अलर्ट’, रंगरसिया’ और ‘लाहौर’. वे अबतक 64 -65 फिल्में कर चुके हैं, जिनमें नकारात्मक भूमिकाएं उन्हें अधिक मिली है. पता नहीं, मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का क्या गणित है कि उत्तर भारत से आनेवाले अधिकतर कलाकारों को निगेटिव भूमिकाएं ही मिलती हैं, चाहे वे आशुतोष राणा हों या गोविंद नामदेव या मुकेश तिवारी या अखिलेंद्र मिश्र या वीरेंद्र सक्सेना. आशीष समेत ये सभी बेहतरीन कलाकार हैं, मगर इंडस्ट्री को शायद ऐसे ज़हीन कलाकारों की या तो ज़रूरत नहीं या उसको इन सबका उपयोग करने की कला ही नहीं आती. फिर भी, सभी फिल्मों का रुख करते हैं. क्यों? इस पर फिर कभी.
पूरे नाटक में आशीष एक कुशल अभिनेता की तरह दिखे, लेकिन साथ ही, कहीं कहीं वे चूके भी. खासकर लड़की या महिला का अभिनय करते वक़्त. लडकियां सभी समय एकदम नाजुक, कोमलांगी नहीं रहतीं. पर यह हमारी साइकी है. सम्वाद अदायगी बहुत अच्छी थी, मगर भदेस बोली के चक्कर में वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के बदले कभी कभी हरियाणा के लग जा रहे थे. प्रकाश व्यवस्था कहीं कहीं तो बेहद सटीक थी. नादिरा जी के नाटकों में प्रकाश पर काफी ध्यान दिया जाता है, एक साथ वे कई कई लाइट्स के प्रयोग करती हैं. संगीत थोडा लाउड था, जो नाटक की गम्भीरता के बदले उसे कहीं कहीं तमाशाई फील दे रहा था.
मुंबई के थिएटर का एक पक्ष यह भी हो गया है कि स्क्रिप्ट में लाफ्टर्स डाले जाने लगे हैं. इससे दर्शकों को फौरी तौर पर सुकून तो मिल जाता है, मगर उसी पल वे विषय की गम्भीरता से भी हट जाते हैं और फिर विषय की गम्भीरता तक पहुंचने में उन्हें जितना वक़्त लगता है, उतने में नाटक बहुत आगे निकल जाता है और नाटक किताब तो है नहीं कि जहां से छूट गया, वहां से आप दुबारा पकड लें. और थिएटर भी केवल मनोरंजन नहीं है कि उसे बस उसी के खांचे में देखा जाता रहे.
नादिरा जी के पूर्ववर्ती नाटकों की वह गम्भीरता और मेहनत इस नाटक में दिखती है, जिस गम्भीरता और मेहनत ने उन्हें मुंबई के थिएटर परिदृश्य में एक अलग मुकाम दिलाया है. दयाशंकर जैसे व्यक्ति की एक त्रासदी यह भी है कि वह दयाशंकर है. उसकी यह त्रासदी बाद में भी बनी रहेगी. मान लीजिए कि दयाशंकर को उसके एमएलएसाहब की बेटी स्वीटी मिल भी जाती तो क्या वह उसके साथ विवाह करके सुखी और सहज रह लेता? क्या वह एक नए फ्रस्ट्रेशन का शिकार नहीं होता कि उसकी बीबी उसके हिसाब से नहीं रहती कि वह अपने बाप के पद और पैसे के मद में है कि उसे उसकी और उसके पोजीशन की परवाह ही नही है, जैसा कि आम जीवन में होता है या ‘राजा हिंदुस्तानी’ तक की फिल्मों में यह अहम दिखता रह्ता है? दयाशंकर जैसे लोग अपनी ही त्रासदियों के जाल में घिरे रहने को अभिशप्त होते हैं. यह नाटक का दूसरा पक्ष है. इसे अलग कर दें तो “दयाशंकर की डायरी” हो सकता है कि आपमें से कइयों को अपने जीवन के करीब लगे, बेहद क़रीब.