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Thursday, October 8, 2009

जीवन की घटती लौ, पिघलती मोमबती- लिलेट दुबे का नाटक “ब्रीफ कैंडल”

http://mohallalive.com/2009/10/07/nehru-centre-theatre-festival-4th-day/

http://www.artnewsweekly.com/substory.aspx?MSectionId=1&main=1&SectionId=31&storyID=९३

नेहरू सेंटर थिएटर फेस्टिवल के चौथे दिन लिलेट दुबे ने अपने थिएटर ग्रुप ‘द प्राइम टाइम थिएटर कम्पनी’ के बैनर तले स्वयं निर्देशित अंग्रेजी नाटक “ब्रीफ कैंडल” प्रस्तुत किया. 1991 में लिलेट दुबे ने ‘द प्राइम टाइम थिएटर कम्पनी’ की स्थापना करते हुए थिएटर जगत को अंग्रेजी में अच्छे नाटक देने की कोशिश की है. अभी जुलाई में ही उनके थिएटर ग्रुप ने 15वां थिएटर फेस्टिवल मनाया. ‘द प्राइम टाइम थिएटर कम्पनी’ के कुछ मशहूर नाटक हैं, ‘वुमेनली व्यॉसेस’, जिसमें तीम महिला लेखकों वाज़ेदा तबस्सुम, महाश्वेता देवी और गीता मेहता की रचनाएं हैं, महेश दत्तानी के ’30 देज इन सेप्टेम्बर’, ‘डांस लाइक अ मैन’ प्रताप शर्मा का ‘सैमी’ सहित ‘द वेडिंग अलबम’,
“ब्रीफ कैंडल” भी महेश दत्तानी द्वारा ही लिखा गया है. लगता है, महेश दत्तानी इस ग्रुप के पसंदीदा लेखक हैं. यह होता भी है कि कई बार ग्रुप के साथ लेखक का अपनापा बनता है, दोनों एक दूसरे को समझते हैं और इस परस्पर समंवय से दोनों अपना अपना सर्वोत्तम देने की कोशिश करते हैं. इस नाटक को देखते हुए शफात खान की “शोभा यात्रा” और विजय तेन्दुलकर के ‘शान्तता कोर्ट चालू आहे’ की बहुत याद आई. इन दोनों ही नाटकों में पात्रकिसी और मकसद से सामने आते हैं और कालांतर में उनके वे काम उनके अपने ही जीवन की परते उघाडने लगते हैं. ‘शोभा यात्रा’ में एक झांकी के लिए हमारे राजनीतिक चरित्रों में सजे धजे कलाकार धीरे धीरे अपने ही जीवन और उनकी त्रासदियों में खो जाते हैं, इसी तरह जस्ट टाइम पास के लिए खेला जानेवाला नाटक ‘शान्तता कोर्ट चालू आहे’ के पात्र भी किस तरह से अपने जीवन की दुरुहताओं में जकडते चले जाते हैं, यह अनुभव करने लायक है. “ब्रीफ कैंडल” भी नाटक के भीतर नाटक की इसी अवधारणा को प्रस्तुत करता है.
जीवन के आखिरी पल गिन रहे मरीजों की आश्रय स्थली जीवन ज्योति अस्पताल अपने स्थापना दिवस के अवसर पर एक सान्स्कृतिक कार्यक्रम करने के क्रम में वहीं के एक मर चुके मरीज़ द्वारा लिखे नाटक को करने की सोचता है. इस नाटक में एक एयरलाइन द्वारा अपने यात्रियों को एक होटल में ठहराए जाने और उससे उपजी विसन्गतियों से उपजा हास्य है. अस्पताल के मरीज़ के साथ साथ वहां की एक डॉक्टर और एक अटेडेंट भी इस नाटक में भाग लेते हैं. रिहर्सल के दौरान सभी महसूस करते हैं कि उनके द्वारा निभाया जानेवाला किरदार किस तरह से उनके अपने जीवन से मेल खाने लगा है.
नाटक में प्रयोग किए गए हैं. जैसे, नाटक लिखनेवाला मृतक मरीज़ का आना. नाटक जैसे उसके ही अनुसार और उसके ही इर्द गिर्द होने लगता है. वार्षिकोत्सव का नाटक पीछे छूट जाता है और परत दर परत खुलती जाती है सभी के जीवन की अपनी अपनी विडम्बनाएं. प्रेम की अनुभूति के लिए छटपटाते लेखक और अब मृतक मरीज़ और जीवन जीने की उत्कट चाह से भरे सभी शेष मरीज़. कोई मरना नहीं चाहता. यह भाव ही जीवन पर मौत की सबसे बडी विजय है. जीवन और मौत के बीच का द्वंद्व चलता रहता है. मौत एक बार फिर से उनमें से एक और मरीज़ को लील जाती है. रिहर्सल के दौरान मर गए उस मरीज के पात्र का ज़िक्र आने पर उसका इस प्रस्तुति को पर्दे के उस पार मानो संसार के उस पार से देखना, जैसे वह अहसास करवा रहा हो कि वह है, इन लोगों के बीच में ही है. दर्शकों की विचार यात्रा साथ साथ चलती रहती है.
नाटक में हास्य के पल आते हैं, जब मृतक मरीज़ द्वारा लिखे गए नाटक का रिहर्सल होता है. कुछ तथाकथित बोल्ड दृश्य भी हैं और कुछ बोल्ड सम्वाद भी, जो भाषाई दर्शकों को शायद थोडा असहज करता है, मगर अंग्रेजी के दर्शकों के लिए यह सामान्य है. भाषाई दर्शकों में भी थिएटर या रचनात्मकता के आग्रहियों के लिए ऐसे सम्वाद सामान्य हैं. फिर उन सम्वादों के साथ विषय की गम्भीरता तुरंत ही उन सम्वादों पर से ध्यान हटा कर विषय वस्तु पर केंद्रित कर देती है.
अमर तलवार, सुचित्रा पिल्लई, जॉय सेनगुप्ता, ज़फर कराचीवाला, मानसी पारेख और सत्चित पुराणिक परिचित अभिनेता हैं. दर्शक उन्हें फिल्म खासकर टीवी पर देखते रहे हैं. नाटक में सबसे अधिक प्रभावित किया कुलकर्णी और तावडे की भूमिका में सत्चित पुराणिक ने और निराश किया केंद्रीय पात्र यानी मृतक मरीज़ की भूमिका में ज़फर कराचीवाला ने. अरे यार, मरे हुए की भूमिका निभा रहे हो, मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि मर मर कर निभाओ.
इनायत सामी की प्रकाश व्यवस्था सही थी. कभी कभी कलाकार प्रकाश व्यवस्था में दिग्भ्रमित हो सही स्थान पर नहीं पहुंच पाते थे. सेट लिलेट दुबे और भोला शर्मा का था. एक ही बेड कभी अस्पताल और कभी होटल के बेड के रूप में इस्तेमाल किया जाता था. स्क्रीन के साथ भी ऐसे ही प्रयोग किए गए थे. आधुनिक और प्रयोगवादी थिएटर की यह ख़ासियत है और इससे दर्शकों की कल्पनाशीलता में इज़ाफा होता है.
निर्देशन लिलेट दुबे का था. लिलेट दुबे फिल्म, टीवी और रंगमंच की जानी मानी अभिनेत्री हैं, हालांकि उनके अभिनय की अपनी सीमाएं हैं. यह शायद अंग्रेजी परिवेश की गहनता का असर हो. उनकी चंद चर्चित फिल्में रही हैं, ‘चलते चलते’, ‘मॉनसून वेडिंग’, ’गदर’, ‘ज़ुबेदा’, ‘बागबान’, पिंजर’ आदि. थिएटर डायरेक्टर के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई है. ‘सैमी’ नाटक के लिए इन्हें बेस्ट आय्रेक्टर अवार्ड मिल चुका है.
नाटक या ग्रुप का विवरण जानने के लिए homspuntheatre@yahoo.com पर सम्पर्क कर सकते हैं. अगर आप शो बुक कराना चाहते हैं तो ऑनलाइन बुकिंग करवा सकते हैं www.bookmyshow.com पर.
(पुन: हमारे कई हिंदीदां थिएटर प्रेमी इस नाटक में नहीं दिखे. पूछने पर बोले, “अब.. अंग्रेजी नाटक में क्या देखने को मिलेगा! वही सब..! उस ‘वही सब” का खुलासा नहीं किया गया. नेहरु सेंटर के अधिकारीगण शायद नेट, ऑनलाइन, ईमेल आदि से बावस्ता नहीं रखते. ऑनलाइन कवरेज, वेबसाइट कवरेज, ब्लॉग्स कवरेज शायद अभी भी उनके कॉन्सेप्ट में नहीं आया है और ना ही थिएटर ग्रुपों के ही. इसलिए निश्चिंत रहिये, हिंदुस्तान में कागज पर कार्रवाई होती रहेगी और अखबार भी निकलते रहेंगे.) इसके लिए भी तैयार रहिए कि आपके नेट कवरेज के लिए आपसे इसका प्रिंट आउट मांगा जा सकता है.)

2 comments:

राजीव तनेजा said...

सटीक समीक्षा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद

Samira said...


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