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Saturday, October 10, 2009

राजा होना सुखी होने का मार्ग नहीं है, कदापि! - चाणक्य

http://www.hindimedia.in/index.php?option=com_content&task=view&id=8414&Itemid=202
http://reporterspage.com/miscellaneous/23-23
http://mohallalive.com/2009/10/10/nehru-centre-theatre-festival-6th-day/

नेहरु सेंटर थिएटर फेस्टिवल की अगली प्रस्तुति थी मनोज जोशी कृत नाटक- चाणक्य. नीति और राजनीति के बात आने पर कौटिल्य चाणक्य का नाम ना आये, यह असम्भव है. राजनीति और छल प्रपंच राजनीत का अभिन्न हिस्सा है. यह राजनीति जब व्यक्ति से उठकर समाज की ओर जाती है तो यह हितकारी होती है. इसी हित की साधना में, आर्यावर्त को एक सूत्र में पिरोने का सपना देखा था चाणक्य ने. चाणक्य के चरित्र का तेज, तप, उसकी निष्ठा, उसकी ज़िद, उसकी लगन, उसका आत्माभिमान एक बारगी ऋषि विश्वामित्र की याद दिलाता है. ज़ाहिर है कि ऐसे चरित्र, जिसमें परस्पर विवाद हो, लोगों को लुभाता है और अपने अपने क्षेत्र में उस पर काम करने के लिए उकसाता है.
चाणक्य भी एक ऐसा ही चरित्र है, जिसपर मशहूर अभिनेता मनोज जोशी ने नाटक की विधा में काम किया है. इससे पहले हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक मुद्राराक्षस ने चाणक्य पर लिखा था. जयशँकर प्रसाद के चन्द्रगुप्त नाटक में चाणक्य के चरित्र को उकेरा गया है. डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी अपना सुप्रसिद्ध टीवी सीरियल "चाणक्य" बना ही चुके हैं. इस बीच एक और नाटक आया "चाणक्य शास्त्र" जिसमें राजेन्द्र गुप्ता ने चाणक्य की भूमिका निभाई है.
जो बडा अभिनेता होता है, या जिसका प्रोडक्शन होता है, वह सामान्यत: केन्द्रीय चरित्र निभाता है. डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने भी स्वयं चाणक्य की भूमिका निभाई थी. लिहाज़ा मनोज जोशी ने भी अपने इस नाटक में चाणक्य का केन्द्रीय चरित्र निभाया है. पीरियड ड्रामा करते समय काल, पात्र, वेशभूषा, भाषा आदि का बडा ध्यान रखना होता है. इस नाटक में भी इसे निभाने की पूरी कोशिश की गई है. पीरियड ड्रामा में एक और बन्धन होता है, पात्रों की बहुतायत. चाणक्य में भी है. लेकिन नाटक में एक पात्र से कई- कई चरित्र करवा लेने की भी सुविधा रहती है, जिसका लाभ इस नाटक में भी लिया गया है. संगीत कई जगह सीरियल "चाणक्य" की याद दिलाता रहा. यह भी एक तरीके से अच्छा था, क्योंकि डॉ. द्विवेदी पात्र, पीरियड और उसके डिटेल्स आदि में बडी गहराई तक जाते हैं. उनके हाथों निकली चीज़ों में प्रामाणिकता अधिक रहती है. इस लिहाज़ से इस नाटक के संगीत और वातावरण में एक प्रामाणिकता और भी जुड जाती है.
मुद्राराक्षस ने अपने नाटक में महामात्य राक्षस की महिमा का गुणगान किया है और यह बताया है कि महामात्य राक्षस के सहयोग के बिना मगध कितना अधूरा है. इस नाटक में भी महामात्य राक्षस को महिमामंडित किया गया है. चाणक्य का सच और हमारे आज के सच में अभी भी कोई अंतर नही आया है. जगह जगह पर चाणक्य के सम्वाद इस स्थिति को उजागर कर रहे थे. राजा होना सुखी होने क मार्ग नहीं है, कदापि." यही स्थिति आज भी है, जहां हर कोई सत्ता में आना इसलिए चाहता है ताकि वह उसका उपभोग कर सके.
इस नाटक में मनोज जोशी ने एक बहुत ही अच्छी बात की और वह यह कि उन्होंने भाषा के साथ कोई समझौता नहीं किया है. लोग समझ सकें, इसलिए आज की चलताऊ हिन्दी देने का प्रयास उन्होंने कतई नहीं किया है, जो इस पीरियड ड्रामा की बहुत बडी विशेषता है. भाषा की कठिनता के कारण डॉ. द्विवेदी की भी बडी आलोचना हुई थी, मगर बाद में लोग उनके वातायन को समझने लगे थे. यहां भी लोग समझ रहे थे और समझ कर तालियां बजा रहे थे. इसलिए यह तो अब लोग ना कहें कि हिन्दी बडी कठिन है.
परंतु, भाषा पर जितना काम करना चाहिए था, वह नहीं हुआ है. स्क्रिप्ट पर मराठी गुजराती वाक्य-विन्यास का इतना अधिक प्रभाव है कि वह हिन्दी के प्रवाह को तोडता है. औरस संतान को "अनौरस", सन्धि-विच्छेद को सन्धि-रोह", विस्मृत को विस्मरित, निर्बुद्धिपन या बुद्धिहीनता को निर्बुद्धिपन, विनती को विनंति, दुन्दुभी को तुतुम्भी आदि कहना रस भंग करता था. कुछ और बानगी- "कृष्ण के पास समय, सैन्य्, शक्ति अमर्याद (असीमित के अर्थ में) थे. "नाशवंत मानव के प्रति", "आपका वैधव्य का सम्मान कीजिए. आप अपना मस्तक ढंक लीजिए.". "राजदंड का स्वीकार कीजिए". "मैं मेरे प्रतिशोध का उपाय कर लूंगा.". "स्वार्थ ही राजाओं का चालकमान था." मनोज जोशी जी से विनम्र आग्रह कि वे हिन्दी के किसी अच्छे जानकार से स्क्रिप्ट को दिखवा लें. उनसे यह भी आग्रह कि हिन्दी बुलवाते समय पात्रों के उच्चारण पर ध्यान दें. रीती, नीती, पाटलीपुत्र, चाणक्या तो सामांन्य बाते हैं. उच्चारण की मराठी, गुजराती परुषता और हर अक्षर पर बल दे कर बोलना नाटक के आनन्द में व्यवधान उत्पन्न करता है. फिल्म और टीवीवाले तो इन सब पर ध्यान नहीं ही देते, किंतु नाटककार को तो इस पर ध्यान देना होगा, क्योंकि नाटक इस सबसे अलग विधा है और यह दर्शकों के साथ उसी समय अपना सम्बन्ध बना लेता है.
(पुन: नाटक देखने के लिए पूरा हॉल भरा हुआ था. यह सुखद था, मगर यह मलयाली नाटक के निर्देशक सुवीरन की इस बात की पुष्टि भी कर रहा था कि अब वहां भी लोग मोहनलाल जैसे अभिनेताओं को लेने की कोशिश कर रहे हैं. नाटक का ग्लैमर की चपेट में आ जाना शुद्ध थिएटर को नुक्सान तो कर ही रहा है, गुमनाम, मगर प्रतिभावान कलाकरों की जगह को भी घेरे जा रहा है. इसका एक उदाहरण तो यही था कि थिएटर की भाषा में किए गए मलयाली नाटक को देखने के लिए हॉल लगभग खाली था. इस नाटक को प्रायोजक भी मिले हुए थे. कितना सुखद हो कि ऐसे प्रायोजक छोटे छोटे ग्रुपों को भी मिले. उन्हें इसकी अधिक आवश्यकता है.)

1 comment:

pratima sinha said...

इस ब्लाग को पढना, यानी ,दिल-ओ-ज़ेहन को उसकी मनचाही खुराक देना...! मैं आपके लेखन की निर्विवाद प्रशंसक हूँ. राविश कुमार जी के एक आर्टिकल के माध्यम से इस तक पहुँची थी उसके बाद तो इसे नियमित पढना जैसे आदत में शुमार हो गया है.मैं खुद थियेटर और नाट्य-लेखन से जुडी हूँ इसलिये इस पोस्ट के साथ पिछली कई पोस्टें बहुत ही अच्छी और ग्यानर्धक लगीं लेकिन सच कहूँ, उन सारी पोस्ट्स की बात ही कुछ और है जिनमें एक स्वावलम्बी,विचारशील,बुद्धिमती और संवेदनशील नारी, बिना किसी भय या द्वन्द्व के, अपनी अस्मिता,निजता,स्वाभिमान और संपूर्ण पहचान के हक में, पूरी मज़बूती के साथ मुखर होती है, फिर कोई उससे सहमत हो या असहमत, कोई फ़र्क नहीं पढता. कन्या जिमाइये...... और... हम कपडे से हैं........तो जैसे हमें आसमान से ज़मीन पर ला पटकते हैं. यहीं है, पर्दे के पीछे , समाज की सच्चाई, आज भी चाहे कोई लाख झुठलाये. मैं हर शब्द पर आपकी समर्थक हूँ और इस साहस के लिये आपकी प्रशंसक भी... !
प्रतिमा सिन्हा
http://pratimasinha.blogspot.com