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Tuesday, October 13, 2009

रुकती नहीं "हमसफ़र" की कहानी कभी भी

http://mohallalive.com/2009/10/13/nehru-centre-theatre-festival-8th-day/

http://janatantra।com/2009/10/12/review-of-hum-safar/

नेहरू सेंटर थिएटर फेस्टिवल की अगली प्रस्तुति के रूप में सलीम आरिफ निर्देशित और जावेद सिद्दीक़ी लिखित नाटक “हम सफ़र” का मंचन किया गया। इस बार के नेहरू सेंटर थिएटर फेस्टिवल में मंचित अब तक के नाटकों में से यह पहला नाटक रहा है, जो आपके अपने जीवन के ज़्यादा नज़दीक है। रिश्ते जीवन का आधार होते हैं। इसमें टूटन इंसान से ही नहीं, बल्कि उससे संबंधित अन्य रिश्तों से भी बहुत कुछ छीन लेता है। पति व पत्नी के रिश्ते वैसे भी बहुत बारीक धागे से बंधे होते हैं, जिस पर अहम की मोटी-मोटी बोशीदा चादरें टांग दी जाती हैं। नतीज़न धागे को टूटना ही होता है।
“हम सफर” भी रिश्तों की इसी दरकन, टूटन और उसके बाद छीजे हुए जीवन की कहानी है। भले ही दोनों को लगे कि तलाक के बाद जीवन नये सिरे से शुरू किया जा सकता है, मगर एक दूसरे से अलग होने की टीस और खालीपन, अकेलेपन को मन से महसूस ही किया जा सकता है। भले दिल बहलाने के लिए आप गालिबन बहुत से रास्ते खोज लें और कहें कि जी हम बड़े सुखी हैं और जी हमें कोई फर्क़ नहीं पड़ता।
नाटक इस रूप में सुखांत कहा जा सकता है कि अंत में सोनल अपने पति समीर को दुबारा स्वीकार कर लेती है। पति भी इसके लिए अपने तईं बड़ी कोशिश करता है। और अंत में एक परंपरावादी सामाजिक हिंदी सिनेमा की तरह सब कुछ सुखांत : “मेरा पिया घर आया, हो राम जी।”
जावेद सिद्दीक़ी हिंदुस्तान के मर्द और अब बुज़ुर्ग हो चुके लेखक हैं। हिंदुस्तानी आदमी कभी नहीं चाहता कि वह जो कर रहा है, वही उसकी बीवी भी करे। जावेद साहब ने सोनल को थोड़ा-सा “साहब, बीबी, गुलाम” की मीना कुमारी बना कर उसे सिगरेट व शराब की तरफ मुड़ता दिखा दिया है, मगर महेश भट्ट के “अर्थ” की तरह दरवाज़े पर आये पति को यह कहलाने का साहस नहीं रच सके कि जो तुमने किया, अगर वही मैं करके तुम्हारे पास आती, तो क्या तुम मुझे स्वीकार कर लेते?” बल्कि हुआ तो यह कि अपने अकेलेपन से छुटकारा पाने की कोशिश में सोनल जब समीर के दोस्त सागर से दूसरी शादी करने की सोचती है, तो न केवल समीर अपने अधिकार की लड़ाई की बात करके उसे रोकने की कोशिश करता है, बल्कि उस शादी को रोकने के लिए सोनल की सत्रह वर्षीया बेटी सागर के बेटे से रिश्ता क़ायम कराके बिन ब्याहे उसके बच्चे की मां बना दिया जाता है।
ऐसी सोच किसी बुज़ुर्ग की ही हो सकती है। आज का युवा लेखक तो बेटी से कहलवाएगा कि जिस आदमी ने तुम्हारी फिक्र नहीं की, उसके पीछे अपने आप को होम करने का फायदा? आज की युवा पीढ़ी शादी टूटने के बाद दूसरे जीवन की सोचती है और कहती है कि मेरी अपनी ज़िंदगी नहीं है क्या? भले ही इसका अनुपात कम है, मगर यह है। यह आज के युग का बदलता सच है, जिसे हमें मानना है। जावेद साहब “आपकी सोनिया” में भी पिता से नफरत कर रही सोनिया से अपने पिता के लिए अंत में कहलवा ही देती है, “मेरे पापा।”
सलीम आरिफ भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पास आउट हैं और फिल्म, थिएटर, अकादमिक गतिविधियों से एक साथ जुड़े हुए हैं। इनके खाते में डिज़ाइनर के रूप में “सरदार पटेल”, “हु तु तु”, “माचिस”, “गुरु” आदि फिल्में हैं, तो “भारत एक खोज”, “चाणक्य” जैसे सीरियल भी हैं। थिएटर निर्देशक के रूप में भी “ताजमहल का टेंडर”, क़ैफी साब”, खराशें”, “आपकी सोनिया”, श्याम रंग” आदि नाटक हैं, जो बेहद प्रसिद्ध हैं। इनका काम अलग से इन पर लेख की मांग करता है।
लुबना सलीम अच्छी अभिनेत्री हैं और अपने चंचल और मुस्काते व्यक्तित्व के साथ नाटक में एक नया लुक देती हैं। "बकरी" नाटक में बकरी की भुमिका के लिए वे बहुत चर्चित रही हैं। आपने उन्हें “बा, बहू और बेबी” सीरियल में लीला भाभी के रूप में देखा होगा। इसी तरह से इस नाटक के नायक किरण करमरकर को “कहानी घर घर की” के ओम अग्रवाल के रूप में नहीं भूले होंगे। क्या कीजिएगा जनाब कि सीरियल की प्रसिद्धि नाटक से अधिक होती है, इसलिए यह परिचय भी देना पड़ता है। फिल्म, सीरियल में काम करके लोग प्रसिद्ध और सेलेब्रेटी बन जाते हैं और तब उनका बाज़ार भाव भी बढ़ जाता है। मुंबई थिएटर आजकल इसकी गिरफ़्त में कुछ ज़्यादा ही है। यह बाज़ार के साथ-साथ निर्देशक की भी मजबूरी है।
नेहरू सेंटर थिएटर फेस्टिवल में अब तक दिखाये गये नाटकों के बड़े-बड़े सेट के बाद अत्यंत सीमित सेट डिजाइन के कारण मन को बडा सुकून मिला। एक पात्रीय या दो पात्रीय नाटक इंटीमेट थिएटर के लिए ज़्यादा मुनासिब होते हैं। सलीम आरिफ ने इंटीमेट थिएटर का फील देने के लिए सेट को मंच के आधे से लगाया, जिससे फैलाव थोड़ा कम हुआ और भाव की सघनता बढी।
इस नाटक की सबसे बडी उपलब्धि रही, गुलज़ार की अपनी आवाज़ में उनकी ही कुछ नज़्में। दृश्य से जो कुछ बचा रह जाता था या यूं कह लें कि दृश्य जो नहीं कह पाते थे, उसकी कमी गुलज़ार की नज़्में पूरी कर दे रही थीँ। उम्‍मीद है कि गुलज़ार अपनी सघन आवाज़ का दिलकश इस्तेमाल औरों के लिए भी करेंगे। “एसे कम्यूनिकेशंस” की यह प्रस्तुति लोगों को इसलिए भी भायी कि लोग इस विषय से अपने आप को अपने आप ही जोड़ ले रहे थे।
(पुनश्‍च : मुंबई के ट्रैफिक पर यहां की बारिश की तरह ही ऐतबार नहीं किया जा सकता। ट्रैफिक में फंस कर आधे घंटे देर से पहुंचने के बाद भी नेहरू सेंटर को धन्यवाद की अन्दर जाने दिया। विषय को भी धन्यवाद कि कुछ छूटा सा नहीं लगा। एक दर्शक ने कहा कि वह कुछ देर बाद यह इंतज़ार करने लगा कि कब दृश्य ख़त्म हो और गुलज़ार बोलें। भाषाई थिएटर के खाली हॉल को यह नाटक भर रहा था। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि नाटक की भाषा के ही रूप में सही, हिंदी को सर्वमान्यता मिल गयी?)

3 comments:

pratima sinha said...

अपने शहर में नाटक हो रहा हो तो वहाँ ज़रूर ही जाना मेरी प्राथमिकताओं में से एक होता है,हालात चाहे जो भी हों.मगर दूसरे शहर में हुए मंचनों की खबर ही पढकर संतोष करना मजबूरी हो जाती है.लेकिन पिछले कुछ दिनों का ये सुन्दर अनुभव शब्दातीत है कि मैं यहाँ अपने शहर में बैठे-बैठे ही नेहरू सेन्टर थिएटर फ़ेस्टिवल की नाट्य-प्रस्तुतियों का आनन्द आपके ब्लाग के माध्यम से लेती रही और सारा मंचन अपनी आँखों के सामने होता सा मह्सूस होता रहा.निश्चित रूप से ये मेरी कल्पना शक्ति के साथ-साथ आपकी सशक्त समीक्षात्मक लेखनी का भी कमाल था.मैंने जावेद सिद्दकी लिखित नाटक "हमसफ़र" नहीं देखा है लेकिन अब देखने का जी चाह रहा है.हमारा समाज आज भी तलाक को एक परेशानी के रूप में ही लेता है मगर सच तो ये है कि तलाक अक्सर परेशानी नहीं बल्कि परेशानी का एक मात्र हल होता है.जिसके साथ पल काटना दूभर हो, उसके साथ पूरी ज़िन्दगी काटने की मजबूरी निभाना आसान नहीं... और जो तलाक को आगे की ज़िन्दगी के खालीपन और अकेलेपन से जोडते हैं, उन्हें बता दूँ कि अगर कोई औरत अपनी अस्मिता और आत्मसम्मान के हक में पूरे होशोहवास में खुद ये निर्णय लेती है तो आगे आने वाली ज़िन्दगी में कोई और उसके साथ हो या न हो... कम से कम वो खुद अपनी पूर्णता के साथ अपना सफ़र तय करने का माद्दा भी ज़रूर रखती है.
दरअसल मुश्किल ये है कि हमारे समाज में औरतों को इस कदर भीरू और मानसिक परावलम्बी बना दिया जाता है कि वो खुद ये निर्णय करने की सोच भी नही सकती .तलाकशुदा कहलाना उनके लिये नर्क भोगने समान होता है.इसलिये वो इस स्थिति से बचने के लिये किसी भी हद तक जाने का जिगर रखती हैं.वो जानती हैं कि पति के घर से उनकी अर्थी निकले,इसी में उनका सम्मान है.इसीलिये हमारे समाज में तलाक औरतों पर थोपे गये वो भयावह निर्णय होते हैं ,जो उन्हें आखरी हद तक तोड जाते हैं.जाने क्यों मेरे मन में एक ऐसा नाट्यालेख लिखने की प्रेरणा सी जाग रही है, जिसमें मैं इस सच को उजागर कर सकूँ.

Vibha Rani said...

प्रतिमा जी, आपका स्वागत है. आप ज़रूर लिखें. मुझे भी पढाएं.

योगेन्द्र मौदगिल said...

बेहतरीन प्रस्तुति....