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Thursday, October 22, 2009

रेप हथियार है! फौज़ तैयार करें!

http://janatantra।com/2009/10/22/vibha-rani-article-on-rape-and-women/
आज आप किसी को भी रेप के नाम पर डरा सकते हैं, धमका सकते हैं. रेप के मामले में कौन सच्चा है, कौन झूठा, यह तय करना मुश्किल है. न्याय, धर्म, प्रेम मानवता आदि की बातें इस संदर्भ में ना करें. घटना सामाजिक परिप्रेक्ष्य में घटे कि राजनीतिक. रेप के घिनौने पक्ष से कोई इंकार नहीं कर सकता. सवाल यह है कि इस घिनौने पक्ष का हमारे समाज में बने रहने का क्या कोई औचित्य है? तो जवाब है कि औचित्य है. हर उस कारक का इस समाज में औचित्य है, जिसका आपके अस्तित्व से, आपके मान से, आपके सम्मान से, आपकी निजता से वास्ता है.
बलात्कार का डर दिखाना या बलात्कार करना कोई आज की बात नहीं है. इसे आप अपने मिथकीय पात्रों में भी पा सकते हैं और अपने आज के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और ताक़तवर परिवेश में भी. ऋषि गौतम की पत्नी अहिल्या का देवर्षि इंद्र ने बलात्कार किया तो सती वृन्दा का स्वयं भगवान विष्णु ने. दुर्योधन भी पांचाली को नग्न करने में सफल हो जाता तो इसके बाद की परिणति शायद बलात्कार ही होती.
बलात्कार एक मानसिक स्थिति है, अपनी ताकत को, अपनी शक्ति को प्रदर्शित करने की स्थिति. सामनेवाले को अपने से कमतर देखने की जुगुप्सा भरी तालिबानी खुशी और संतोष. सभी को मालूम है कि यह गलत है, मगर नागासाकी, हिरोशिमा की तरह इस पर अणुबम का इस्तेमाल हो रहा है. नागाशाकी, हिरोशिमा तो दो जगहें हुईं और इनके परिणाम से दुनिया वाकिफ है और अभी तक कम से कम फिर से इस घटना की पुनरावृत्ति नहीं हुई है. हर नारी देह एक नागाशाकी, एक हिरोशिमा है, उस पर जबर्दस्ती करने का तालिबानी आतंक है, मगर इस नागाशाकी, हिरोशिमा पर बलात्कार के अणुबम गिराए और गिराए चले जा रहे हैं.
दुर्भाग्य से इसे मन से कम और शरीर से अधिक जोड दिया गया है, वह भी स्त्री देह से. बलात्कार शब्द आते ही सबसे पहले नारी की ही परिकल्पना सामने आती है. किसी पुरुष पर बलात्कार जैसी अवधारणा अभी विकसित नहीं हुई है. प्रार्थना कीजिए कि ऐसी स्थिति आए भी नहीं, क्योंकि खराब हर हालत में खराब है, उसका भोक्ता चाहे जो भी हो. आप स्वयं देखें कि किसी काम को अगर हमसे बलात करवाया जाता है तो हमारा मन कितना क्षुब्ध होता है. कई कई दिनों तक हम उस स्थिति के घेरे में रहते हैं. मगर चूंकि उसमे शरीर और यौनजनित प्रक्रिया नहीं है तो उसे काम, काम की अनिवार्यता, जीवन जीने की मज़बूरी, समझौता और पता नहीं क्या क्या नाम देकर उसे भूल जाने की सलाह दी जाने लगती है.
एक दुर्भाग्य यह भी है कि बलात्कार को व्यक्ति के स्व सम्मान पर आघात से अधिक उसे घर, परिवार, समाज, देश की प्रतिष्ठा के रूप में देखा जाता है. ऐसे में यह केवल एक अपराध या एक शारीरिक या यौनजनित प्रक्रिया भर नहीं रह जाती, बल्कि यह एक अमोघ हथियार हो जाता है. एक जाति, समाज, धर्म, देश का किसी दूसरी जाति, समाज, धर्म, देश के साथ बदला लेने का सबसे अमोघ हथियार. युद्ध की तो यह अघोषित नीति है और इसके लिए सैनिकों पर कोई कार्रवाई नहीं होती. प्रथम विश्व युद्ध से लेकर आज तक विश्व में जितने भी युद्ध हुए हैं, पराजित देश की स्त्रियों को बलात्कार की नारकीय पीडा से गुजरना पडा है. अब इस क्षेत्र में थोडी से सुगबुगाहट आई है. राजाओ, महाराजाओं के समय में भी औरतें लूट के माल के रूप में विजेता राजाओं के रनिवास में, सैनिकों के खेमों में और सामान्य नागरिकों के लिए वेश्यालयों में भेज दी जाती थीं. सनद रहे कि उनसे कोई सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता था. आज भी सवर्ण अवर्ण की लडाई में महिलाओं के साथ पाशविकता का यह नंगा खेल खेला जाता है. विरोधी पक्ष इसमें अपनी विजय समझते हैं. यह समझ में नहीं आता कि एक ओर जिस स्त्री को कमजोर, अबला की संज्ञा दी जाती है, उसी के तन पर जबरन कब्ज़ा करके विजय के किस भाव को व्यक्त किया जाता है. पर सोचने के बाद लगा कि विजय का भाव आता है, क्योंकि यह विजय नारी देह के मर्दन के भाव से नहीं है, यह विजय भाव अपने दुश्मन के विशिष्ट सम्मान के मर्दन से है. औरत को घर की मर्यादा मानना बंद कर दीजिए, उसका बलात्कार होना बंद नहीं तो कम अवश्य हो जाएगा.
मज़बूत से मज़बूत लडकी और स्त्री भी आज अणु बम विस्फोट से उतना नहीं डरती होंगी, जितना बलात्कार शब्द से. इसके पीछे वही लगातार चलने वाली मानसिक अशांति, पीडा, दुख और क्षोभ की त्रासदी है. एक सामाजिक अवहेलना, पुरुष ताक़त का जबरन स्थापन उसके अस्तित्व को खंगाल डालता है. एक अजाने डर और अविश्वास से वह जीवन भर जूझती रहती है और उस पर से समाज के लम्पटों के कुत्सित इशारे और हाव भाव कि अब तो एक मन लकडी झेल ही आई, दस मन और उठा लोगी तो तुम पर क्या फर्क़ पडेगा. तुम्हारा तो जो जो होना था, हो गया, जो जाना था, चला गया. रेप या बलात्कार हथियार है और हर कोई इस हथियार का प्रयोग अपने रक्षार्थ करना चाहता है. प्रतिपक्षी अगर लडकी है तो इस आधार पर उसे डराना धमाकाना और आसान हो जाता है. सत्ता का मद इस भाव पर मोटा रेशमी पर्दा डाल देता है. उस पर्दे के भीतर सनीली सरसराहट होती है. सनीली सरसराहट सांप की भी होती है. सत्ता के आस्तीन में सांप हमेशा छुपा बैठा होता है. अपनी सुविधा के हिसाब से कभी वह उस सांप की लपलपाती जीभ दिखा देती है, कभी उसकी फुंफकार सुना देती है और इतने से भी बात नहीं अगर बन पाती है तो वह आस्तीन के अपने दोस्त को आगे के काम को अंजाम देने के लिए छोड देती है. सत्ता की ज़बान या ताक़त में नर या मादा का भेद नहीं देखा जाता. बलात्कार करना या करवाना सदा से ताक़तवरों का प्रिय शगल रहा है और जो आपके तन, मन, सब पर भारी पडे, वह भी बिना हर्र फिटकरी के तो उस चोखे रंग के लिए कौन आगे आना पसंद नहीं करेगा?

1 comment:

pratima sinha said...

कोटिश: धन्यवाद आपको कि आपने सभ्य समाज के बाशिन्दे कहलाने उन कुछ लोगों की घटिया सोच उधेड कर रख दी जो खुद को नारी जाति का सच्चा हमदर्द और पैरौकार समझते हैं.इस क्रूर सच्चाई पर शायद कम लोग ही सोचते हैं कि बलात्कारी का विजय-दर्प किसी "कमज़ोर" औरत का मान-मर्दन करने से कहीं ज़्यादा अपने उस दुश्मन का मान-मर्दन करने से जुडा होता है,जिसके कुल की मर्यादा ढोने का जिम्मा उस औरत पर था.मैंने एक कहानी पढी थी जिसमें एक युवक अपनी बहन के बलात्कार का बदला बलात्कारी की बहन के साथ वहीं अनाचार करके पूरा करता है.विडम्बना देखिये कि दोनों ही स्थितियों में शिकार एक औरत ही बनती है.जंग की वजह चाहे जो भी हो..., जीतता रहा है हमेशा- आदमी और जीती जाती रही है हमेशा-औरत... !कौन है जो बदलेगा ये सोच, ये ज़हनियत...! अब शायद हम औरतों को ही अपना मोर्चा सँम्भालना होगा.