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Friday, October 2, 2009

व्यक्ति को कोसिए, संस्था को नहीं

http://mohallalive.com/2009/10/02/vibha-rani-react-on-royalty-statements-controversy/


जी, आज छम्मक्छल्लो नहीं, विभा रानी कह रही है, क्योंकि बात पर बात जब निकलेगी तब विभा रानी के लेखन पर भी आएगी। हिंदी का साहित्य जगत शायद अभी तक छम्मक्छल्लो से वाक़िफ नहीं हुआ है। भारतीय ज्ञानपीठ में भी विभा रानी की किताबें हैं और “नया ज्ञानोदय” में रचनाएं।
मगर पहले तो यह तय कर लें कि बात रॉयल्टी और स्टेटमेंट की की जा रही है या संस्थान की। संस्थान को कभी भी उसे आज के चलानेवाले के साथ बराये मेहरबानी जोड़ कर न देखें। भारतीय ज्ञानपीठ आज भी बहुत प्रतिष्ठित संस्थान है। सिर्फ यह हो गया है कि उसे चलानेवाले संस्थान के नाम पर अपनी दुकान, अपनी लिप्सा, अपनी चाहत चला रहे हैं, अपनी राजनीति और चापलूसी की जुगलबंदी बजा रहे हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ से दो मैथिली उपन्यास (अनुवादक : विभा रानी) के अनुवाद छपे हैं : प्रभास कुमार चौधरी का “राजा पोखरे में कितनी मछलियां” और लिली रे का “पटाक्षेप”। ये दोनों ही लेखक साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता हैं। आज तक यहीं से पूरा स्टेटमेंट व रॉयल्टी मिलती रही है। यह वह सगर्व सभी को बताती रही है। हां, अभी के स्टेटमेंट पर ध्यान नहीं दिया है।
बात संस्थान की नहीं है। बात हमेशा उसे चलानेवाले की होती है। संस्थान की स्थापना हमेशा अच्छे उद्देश्यों को ले कर की जाती है। जब तक उस पर अच्छे लोग बैठे रहते हैं, संस्थान अच्छे कलेवर में रहता है। लेकिन जब उस पर बैठकर अपने सपनों की नैया अपने चहेतों को ले कर खेने जाने की इच्छा बलवती होती है, तो संस्थान का नाम खराब होता है। यह किसी भी संस्थान पर लागू होता है। जो संस्थान जितना अधिक प्रतिष्ठित होता है, उस पर ऐसी आंच उतनी ही अधिक तेज आती है।
दूसरे, बात केवल रॉयल्टी की ही न करें। जिसने भी मोहल्ला पर बेनामी पोस्ट डाला है और जिसके लिए लोग हाय तौबा कर रहे हैं कि अगर वह ख़ुद इतना बड़ा ईमानदार है तो नाम बताये, तो भैया, ऐसे मामलों में नाम छुपाना लेखक के लिए ज़रूरी हो जाता है। क्योंकि बाक़ी समय भले प्रकाशक एक दूसरे पर छींटाकशी करते रहें, मगर हैं सभी एक ही थैले के चट्टे-बट्टे। और पैसों के मामले में सभी दूध शक्कर हो जाते हैं। मुंहामुंही बात फैलती है कि अमुक लेखक पैसे के लिए बहुत किच-किच करता है और सभी प्रकाशक लामबंद हो जाते हैं और एक अघोषित नीति के तहत उस लेखक को छापना बंद कर देते हैं। अब हर लेखक प्रकाशक तो नहीं हो सकता। जैसे किसी को चीनी की ज़रूरत होने पर वह चीनी की ही दुकान खोल कर बैठ जाए, यह संभव नहीं।
अभी अभी एक नये से प्रकाशक से अपनी पांडुलिपि की बात करने पर उसने मुझसे कहा कि अब अगर उसे कहीं से एकमुश्त ऑर्डर मिल जाते हैं, तो वह किताब तुरंत छाप देगा। यानी कि प्रकाशक तो पहले से ही व्यवसायी हैं, अब वे आज के ढर्रे की पूरी की पूरी मार्केटिंग पर उतर आये हैं। नौकरी चाहिए तो बिजिनेस लाइए की तर्ज पर किताब छपानी है तो ऑर्डर लाइए! एक प्रकाशक ने कहा कि वह यह देखता है कि फलां लेखक बिकाऊ है, तभी वह उसकी किताब छापता है। उस लेखक/प्रकाशक को मेरी मैथिली की कहानियां पसंद आती हैं। उन्हें वे छापते भी हैं। मैथिली साहित्य में मेरा स्थान निर्धारण भी करते हैं, मगर हिंदी कहानियों या कथा संग्रह के नाम पर कहते हैं कि मेरा नाम तथाकथित रूप से बिकाऊ नहीं है तो भारतीय ज्ञानपीठ ने तो तब मेरी किताबों को छापा, जब मेरा नाम सचमुच उतना परिचित नहीं था। या यह भी हो सकता है कि आज भी यह ख़ामख्याली में मैं जी रही हूं कि लोग मुझे और मेरे नाम को जानते हैं।
लेकिन जैसा कि कहा कि संस्थान के साथ जब अलग क़िस्म के लोग जुड़ जाते हैं, तब संस्थान का नाम खराब होता है। भारतीय ज्ञानपीठ ने जब “नया ज्ञानोदय” प्रभाकर श्रोत्रिय के संपादकत्व में निकालना शुरू किया, तब मैं भी इससे जुड़ी। श्रोत्रिय जी ने बड़े-बड़े प्रयोग भी किये। मसलन, जेल के कैदियों की कविताएं छापीं। मुझसे कहकर जेल के बच्चों पर स्टोरी करवायी। चूंकि मैं जेलों में काम करती हूं, इसलिए उनकी अगली योजना जेल की महिला क़ैदियों पर स्टोरी करवाने की थी। लेकिन उनके जाने के कारण यह योजना क्रियान्वित नहीं हो सकी।
श्रोत्रिय जी के ही समय में मैंने एक कहानी “होठों की बिजली” भेजी थी। संयोग कि कुछ समय के बाद वे वहां से चले गये। कालिया जी के आने के बाद मैंने उनसे उस कहानी की स्थिति के बारे में जानना चाहा, मगर उनकी ओर से केवल आश्वासन मिला। श्रोत्रिय जी के समय में ही मैंने मैथिली की सुप्रसिद्ध लेखक लिली रे की कहानी “चक्र” भेजी थी, जिसे कालिया जी के संपादकत्व में “नया ज्ञानोदय” के सितंबर, 2007 के अंक में छापा गया, मगर उसका शीर्षक कर दिया गया, “बारिश और पावरोटी”। हो सकता है, कथा की ओर ध्यान खींचने के लिए उसका शीर्षक ज़रा ग्लैमरस कर दिया गया हो, मगर लिली जी के लेखन व उनके स्वभाव को देखते हुए यह शीर्षक उनकी कथा के उपयुक्त नहीं था। इस ओर और अपनी कहानी “होठों की बिजली” की स्थिति के बारे में जानने तथा अपनी कहानियों तथा नाटक की पांडुलिपि भेजने के बारे में मैंने रवींद्र कालिया जी को 10/10/2007 को एक पत्र लिखा था। मगर अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आज तक इस पत्र का जवाब देना गवारा तक नहीं किया गया।
मैं इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं कि प्रकाशक और संपादक को यह पूरा का पूरा अधिकार है कि वह अमुक किताब या रचना छापे या न छापे। मगर यह लेखक के भी उतने ही अधिकार में है कि उसके पत्र पर कार्रवाई हो और उसे तदनुसार सूचित किया जाए। मैं अपनी रचना की बाबत जवाब न आने तलक उसे किसी और को नहीं भेजती। मगर पहली बार मैंने भारतीय ज्ञानपीठ से बग़ैर कोई सूचना के “होठों की बिजली” जनमत को भेजी। पाठकों का बड़प्पन कि इसके छपते ही छम्मक्छल्लो के पास बधाइयों के फोन पर फोन आने लगे। मगर आज तक कालिया जी की तरफ से 10/10/2007 के पत्र का कोई जवाब नहीं आया।
आप लामबंद होना चाह रहे हैं तो होइए, मगर व्यक्ति के खिलाफ उठिए, संस्थान के खिलाफ नहीं। क्योंकि कल को कोई बेहतर संचालन करनेवाला आ गया तो आप ही फिर इस संस्था के गुनगान करने लग जाएंगे। इसलिए भारतीय ज्ञानपीठ को मत कोसिए। बाकी के लिए इशारा ही काफी है। आखिर को आप सभी समझदार हैं, बहुत अधिक

1 comment:

Arun Sinha said...

Vibha Rani Ji, I understand your tragedy and share your pain because I am in the same boat.First, I would like to introduce myself. I, Arun Sinha,have been creatively attached with Theatre.I started Theatre in 1975 as writer,actor,director,makeup man and other backstage artist.Today I am Founder President of PRANGAN, Patna, an eminent cultural organisation of India. I wrote a number of plays,ballades,telefilms and documentries for stage,Radio,Doordarshan at National level. My two documentries like,"BUDH BODHI BODHGAYA"(Hindi,Englih,Japanese,Chinees,Thai and Sinhali) & "PITRIPAKSHA"(Hindi,English) are of International level, sent to so many countries by Bihar Govt. But I never decided to get published my plays.The very reason you have experieced a lot. Actually in the opinion of Publishers,The creative writing is a thankless job.However I do not need Publihers,because issue/release of my DVDs is enough,nevertheless,my Plays need publishing houses.But a creative writer can not tolerate any sort of conditional publication. So your cause is very genuine. I will always plead your stand and write an article in periodicals like SHOSHIT MUKTI as well as PRANGAN'S
souvineer published during PATLIPUTRA NATYA MAHOTSAVA(All India Multilingual Brama Festival,sponsored by GOVT.OF INDIA & GOVT. OF BIHAR),which are widely circulated among various GOVT.Departments and cultural organisations all over the country.
Moreover you are more competent to teach a lesson to those villains,so I am a trivial creator,but it will satisfy my inner feelings.Thank you.