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Monday, October 19, 2009

टेंग्चे के सपनों में मुंबई की लोकल की नाट्य त्रासदी

http://mohallalive.com/2009/10/19/tengshe-chya-swapnat-train-in-nehru-theatre-festival/

नेहरु सेंटर थिएटर फेस्टिवल का पांचवां मराठी नाटक था – समन्‍वय, पुणे का “टेंग्शेच्या स्वप्नात ट्रेन” यानी टेंचे के स्वप्‍न में ट्रेन, ट्रेन मुंबईकर के बदन में धड़कन की तरह समायी हुई है। यह ट्रेन जीवन है, धड़कन है, समय है, समय के साथ भागती दौडती ज़‍िंदगी है, ज़‍िंदगी के आगे निकल गया समय है, समय के आगे निकल गया जीवन है। मतलब जिस भी रूप में आप चाहें, ट्रेन को अपने साथ जोड़ सकते हैं। कालांतर में व्यक्ति और ट्रेन एक दूसरे के साथ गड्ड मड्ड हो जाते हैं।
एक मोटरमैन का बेटा सिद्धिविनायक टेंग्चे अपने आसपास ट्रेन का ही माहौल पाता है। इसी ट्रेन में नौकरी पाकर उसका पिता उसका भरण-पोषण करता है और इसी ट्रेन से किसी दूसरे मोटरमैन द्वारा कुछ बच्चों के कुचल जाने का गुस्सा उसके पिता को अपनी जान दे कर झेलनी होती है। ट्रेन के सभी हादसे अब टेंग्चे के सपनों का हिस्सा बन गये हैं। आप इन हादसों के साथ खुद को पा सकते हैं, चाहे वह चलती ट्रेन मे किसी लड़की का बलात्कार हो या छीनाझपटी या धर्म के नाम पर एक विशेष वर्ग की जामाझाड़ नंगातलाशी।
यह नाटक हमारी मध्यवर्गीय या कह लें के हमारे संभ्रांत वर्ग की कलई खोलता है, जहां हम बदलाव तो चाहते हैं, मगर उस बदलाव का कारक, कारण या उसका हिस्सा बनना नहीं चाहते। बुद्धिजीवी वर्ग में यह खोखलापन कुछ और भी ज़्यादा है। टेंग्चे लेखक है और वह यह ज़ोर दे कर कहता है कि वह लेखक है, इसलिए वह केवल लेखन करेगा, क्रांति नहीं। और जब वह अपने ही धर्म और समाज के अपने ही लोगों के आतंक का खुद भुक्तभोगी बनता है, तब वहां से पलायन कर जाता है। यह एक आम मध्यवर्गीय या संभ्रांत वर्ग का चरित्र है।
शशांक शेंडे का निर्देशन कसा हुआ है। पात्र के ऊपर पात्र और चरित्र के ऊपर चरित्रों का गुंफन स्वप्न की जटिलता को दर्शाता है – साथ ही स्वप्‍न में डूबे व्यक्ति को कितना लाचार और पंगु बना देता है, यह भी बताता है। प्रकाश व्यवस्था बहुत अच्छी है। सिर्फ एक रोशनी की लकीर के सहारे ट्रेन की पटरी, तेज भागती ट्रेन की आवाज़, ट्रेन के हेडलाइट्स की पास आती रोशनी और तखत के बीच में बैठी तीनों बहनें ये बता देते हैं कि यहां आत्महत्या होने जा रही है। यह आपको जड़ बना देने के लिए काफी है। इसी तरह से तखत पर ही बैठे लोगों के ट्रेन में बैठने का आभास दे कर आत्महत्या से लेकर धार्मिक अंधत्व को बड़ी कुशलता से बुना गया है। मन के अंतर्द्वद्व और बेचैनी को प्रकाश के जरिये ही पूरी की पूरी ट्रेन और उसके कंपार्टमेंट के सहारे दिखाना और उसके साथ-साथ दर्शक के मन में भी वह अंतर्द्वद्व और बेचैनी पैदा करना एक कुशल निर्देशन की मांग करता है। बीच-बीच में चुटीले संवाद और हालात हास्य बिखेरने का काम करते रहे।
संगीत पक्ष भी नाटक को पूरा पूरा सपोर्ट करता है। मन की वेदना, बेचैनी, उलझन को आप महसूस कर सकते हैं। समन्वय पुणे का एक ऐसा ग्रुप है, जिसे 1992 में सत्यदेव दुबे के वर्कशॉप से निकले कुछ उत्साहियों ने मिल कर शुरू किया था। एकांकी प्रतियोगिताओं के आयोजन से अपनी गतिविधियां शुरू करके यह शीघ्र ही अपने नाटक में लग गया और थिएटर के अनुरूप ही निहायत प्रतिकूल परिस्थिति में अपनी रंगयात्रा शुरू करके जल्द ही राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गया है।
“टेंग्शेच्या स्वप्नात ट्रेन” के नाट्य लेखक जयंत पवार मराठी के बहुप्रसिद्ध नाट्य लेखक, साहित्यकार व नाट्य समीक्षक हैं। अपनी रचनाओं में वे सामाजिक परिप्रेक्ष्य नये तरीके से ले कर आते हैं। भूमंडलीकरण, बदलते पारिवारिक सिस्टम व जीवन शैली आदि के कारण आदमी से छूट गये अपने ही आदमी की बड़ी सघन जांच करते हैं। “अधांतर”, “माझा घर”, “काय डेंजर वारा सुटले” आदि उनके कुछ बहुचर्चित नाटक हैं। “टेंग्शेच्या स्वप्नात ट्रेन” भी सामाजिक उथल-पुथल के नये आयाम खोलता है। रंगमंच से प्रेम रखनेवालों को यदि मराठी न आती हो तो भी नाट्य अनुभव के लिए मराठी नाटक ज़रूर देखने जाना चाहिए।
(पुनश्‍च : दोपहर दो बजे का शो और नेहरु सेंटर का खचाखच भरा हॉल इस बात का संकेत था कि मराठीभाषी अभी भी नाटक के प्रति कितने गंभीर हैं। दर्शकगण में अधेड़, वृद्ध से लेकर आज के युवा तक थे, जिन्हें एक दिन पहले ही “हम कहें आप सुनें” में कोसा गया था। नाटक को जल्‍दी ख़त्म होना था। हुआ। इतने दिनों में लगातार मुझे देखनेवाले नेहरु सेंटर के कर्मियों ने मुझसे हंसते हुए पूछा – “आता तीन तास काय करायचे?” अब ये तीन घंटे आप क्या करेंगी? क्योंकि अगला शो शाम सात बजे था। हमने अगले शो की तैयारी देखी और बहुत कुछ और भी, जिसकी चर्चा फिर कभी।)

2 comments:

मनोज कुमार said...

लेखनी प्रशस्त है, बांधती है, भाषा पठनीय है।

संगीता पुरी said...

यह नाटक हमारी मध्यवर्गीय या कह लें के हमारे संभ्रांत वर्ग की कलई खोलता है, जहां हम बदलाव तो चाहते हैं, मगर उस बदलाव का कारक, कारण या उसका हिस्सा बनना नहीं चाहते।
इस नाटक का बढिया आधार है !!