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'आ'एम हैप्पी' किसी भी भाषण की बड़ी अच्छी शुरूआत है। हर समारोह में अतिथि वक्ता यह जरूर कहते हैं कि 'आ'एम हैप्पी' । आय एम हैप्पी कि मुझे आप लोगों ने यहाँ बुलाया। आए एम हैप्पी कि मुझे आप सबसे मिलने का मौका मिला। आएम हैप्पी कि मुझे आप सबसे बातें करने का, आप सबको जानने समझने का मौका मिला।
आयोजक भी हैप्पी कि वे इतने हैप्पी थे। हैप्पी होकर बोले। हैप्पी होकर खाया, हैप्पी होकर पिया. हैप्पी हो कर आयोजक की गाड़ी से विदा हुए. समारोह खतम होने के बाद किसी ने आयोजक से पूछा कि भई, वे हैप्पी थे, यह तो दिखा ही नहीं। आयोजक बोले – “ हैप्पी दिखने के लिए नहीं, बोलने के लिए बोला जाता है। “
हैप्पी होने के कई कारण हैं। भारत समारोहों वाला देश है। भारतीय तिथि में हर दिन दो-चार अवसर के, पावन-त्यौहार के होते हैं. कैलेंडर देखें तो हर दिवस एक न एक दिवस। इन दिवसों का सरकारी दफ्तरों में बड़ा महत्व है। सभी दिवसों पर समारोह होते हैं, महत्वपूर्ण व्यक्ति बुलाए जाते हैं। वे आते हैं और कहते हैं, 'आ'एम हैप्पी'। सुरक्षा दिवस, संरक्षा दिवस, उत्पादकता दिवस, हिंदी दिवस, यह दिवस, वह दिवस. सभी दिवसों पर शपथें भी ली जाती हैं। सच्चे भारतीय की तरह हम सभी दिवस पर शपथ लेते हैं और लेने के बाद तिलांजलि की तरह उसे त्याग भी देते हैं. शपथ खाने और खाकर भूल जाने के लिए होता है. यह मिठाई नहीं है कि उसका स्वाद लोग बरसों याद रखे.
उस दिन भी सुरक्षा दिवस पर सबने शपथ ली, समारोह के बाद मिले समोसे, बर्फी खाई। यह सब करते करते घर जाने का समय हो गया। सबने अपनी-अपनी दुकान जल्दी-जल्दी समेटी और फूट लिए। कुछ ने बिजली जलती छोडी, कुछ ने कम्प्यूटर। बिजली रानी भी उतनी ही नटखट और शैतान। निगोड़ी शोडषी नायिका की तरह इठलाकर बाहर निकली, बाहर निकल कर इधर उधर झांका, फिर लाँग से शार्ट हुई. शॉर्ट कुछ भी हो, निकर कि स्कर्ट, लोगों को ऐसे ही झटके देती है। सो, शॉर्ट होकर उसने भी झटका दिया और अपने सर्किट से बाहर निकल गई। जान का नुकसान तो नहीं हुआ, क्योंकि सभी सुरक्षा की शपथ को समोसे-बर्फी के स्वाद में मिला कर समय से पहले अपने अपने ठिकाने को पहुंचा कर उसे उपकृत कर रहे थे। बस माल में कुछ कम्प्यूटर जले, कुछ फाइलें। तो उससे लोगों को तकलीफ नहीं हुई. आखिर दफ्तर के नुक्सान के लिए कोई क्यों सोग मनाए? कंप्यूटर दफ्तर का, फाइलें दफ्तर की। बल्कि फाइलें जलने से सभी को बड़ी तसल्ली मिली. कोई भी फाइल मांगने पर कह दिया जाता- “ साब जी, अमुक फाइल? तमुक फाइल? वो फाइल तो आग में... ” यहां तक कि आग लगने के बाद की तारीख वाली फाइलें न मिलने पर भी कह दिया जाता – “ सर जी, याद है न वो जो आग लगी थी, उसमें... ” हां, कुर्सी जल जाने से लोगों को बडी तकलीफ हुई थी. आखिर को सारा खेल तो कुर्सी का ही है ना. कुर्सी नहीं रही तो बैठें कहां? चाय सुडकते हुए राजनीति और महंगाई जैसी सदाबहार और मुफतिया बातों पर अपने अपने अमूल्य विचारों के चंदोबे कैसे ताने जाएं? कैंटीन का नुकसान तो सबसे ज़्यादा दुखदाई था. हाय, समय पर चाय नहीं, नाश्ता नहीं. घरवाली एक बार के लिए रोटी का डब्बा पकडा देती है. उससे अधिक के लिए मांगने पर कटखनी बिल्ली की तरह कूदती है.
इन सबके बावजूद आ’ एम हैप्पी कि मुझे आपने सदभावना दिवस कि सांप्रदायिक एकता दिवस कि इस दिवस कि उस दिवस पर बुलाया। उस दफ्तरवाले को देखिए. वे तो कम्बख़्त हमें बुलाते ही नहीं। राजनीति करते हैं सब! साले, चोर, उचक्के। यहां के लिए वे हैप्पी हैं कि दूसरी जगहों जैसी राजनीति यहाँ नहीं खेली गई. इसका सुखद परिणाम यह रहा कि यहां के समारोह के लिए उन्हें यहाँ बुला लिया गया। इससे यह भी पक्का हो गया कि अगली बार वे उन्हें अपने यहाँ बुलाएंगे। और ये भी पक्का ही पक्का जानिए कि वहाँ जाने पर ये भी कहेंगे - 'आ'एम हैप्पी' कि आपने मुझे बुलाया।
सभी हैप्पी हैं। वे इसलिए हैप्पी हैं कि आपने उन्हें बुलाया, अपने लोगों से मिलने का मौका दिया, जिसमें वे केवल मंच पर बैठे लोगों से मिले। बाकियों के लिए मंच की माइक ही और उनके सद्ववाक्य कि आ एम हैप्पी कि मुझे आपसे मिलने का मौका मिला। पूरे समारोह में दर्शक दीर्घा में बैठे किसी से भी उनकी बात नहीं होती। किसी की शकल पर नजर भी नहीं जाती, किसी का नाम भी नहीं मालूम होता, मगर वे कहते हैं कि 'आ'एम हैप्पी' कि मुझे आप सबसे बात करने का, आप सबको जानने-समझने का मौका मिला।
वे बोलते तो हैं कि 'आ'एम हैप्पी', मगर बोलते वक्त ऐसा लगता है, जैसे बोलने से पहले उन्हें कैस्टर ऑयल पिलाया गया है या बोलने के बाद उन्हें सप्रेम नीम के जूस का भरा ग्लास पिलाया जानेवाला है। वे नहीं जानना या समझना चाहते कि हैप्पी या खुश महज शब्द नहीं, भावना की वीणा और अभिव्यक्ति की जलतरंग है। देह की भाषा, यानी बॉडी लैंग्वैज बोलने वाली भाषा से ज्यादा जानदार और प्रामाणिक होती है। इसलिए बोलने में आप कहते हैं, 'आ'एम हैप्पी', और देह बताती है, जैसे शोक-सभा में आए हैं।
वैसे हर अवसर पर 'आ'एम हैप्पी' बोलने वाले भी कम नहीं हैं। एक बड़े साहित्यकार दिवंगत हो गए। उनके लिए एक शोक सभा आयोजित हुई। यही एक ऐसा सम्मान है जिसे हम लेखक एक दूसरे को देना सबसे ज़्यादा पसंद करते हैं. मगर दिक्कत तो यह है कि हिंदी के लेखक और प्रकाशक में ऐसा छत्तीस का आंकडा रहता है कि प्रकाशक से मिली रायल्टी से वे शोक सभा स्थल तक भी नहीं जा सकते. बाकी का इन्तज़ाम कहां से और कैसे हो? लिहाज़ा, एक बड़े ही रसूख वाले व्यक्ति को वहाँ बुलाया गया, ताकि आयोजन का खर्चा निकल सके । जो धन देगा, वह बोलेगा भी. सो बोलने के वक़्त उन्होंने कहा – “ आ’ एम हैप्पी कि इस शोक सभा की अध्यक्षता करने के लिए मुझे बुलाया गया। “
एक अधिकारी की बॉस से खटपट हो गई, दफ्तर के एक आयोजन को लेकर। बॉस नाराज कि उन्हें 'वेल इन एडवांस' क्यों न बताया गया। छोटा अधिकारी मिमियाया - 'सर, आप नहीं थे सर, इसलिए सर ... ।' 'व्हाट आप नहीं थे? दफ्तर में फोन नहीं था कि मैं नहीं था?' इसी पर छोटे अधिकारी की पूरी लानत-मलामत हुई। बस, जी चार्जशीट नहीं मिली, मगर फर्मान मिला कि बॉस समारोह में शरीक नहीं होंगे। छोटे अधिकारी के काफी मिन्नत-चिरौरी के बाद वे गए। जाना ही था. आखिर उनकी भी तो गोपनीय रिपोर्ट लिखी जानी थी. बॉस मंच पर पहुंचे - तना चेहरा, जुड़ी भौंहें, कड़ी और रूखी निगाहें, मगर माइक थामते ही बोले -'आ एम हैपी टू बी हेयर।'
हैप्पी कहना उनकी नियति है। सचमुच की खुशी जब चेहरे पर आती है, तब शब्द भावनाओं के मुंहताज नहीं रहते। देह की भाषा उन शब्दों की पुष्टि करती हैं। हैप्पी कहने या दिखने से जरूरी है हैप्पी होना। यह हैप्पी होना अपने अंदर से आता है।
बहरहाल, कल फिर एक समारोह है.- मुझे मालूम है, वक्ता पूरी भीड़ को यही कहेंगे -'आ’ एम हैप्पी'. 'हैप्पी हैप्पी' का दौर यूँ ही चलता रहेगा, हर कोई जुमलेबाजी करते रहेंगे, इसलिए मैं भी बता दूं कि 'आ’ एम हैप्पी।'
2 comments:
बात तो एकदम सच्ची है. आज के दौर में हैप्पी कहना और दिखना, हैप्पी होने से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है.मार्केटिंग का ज़माना है, प्रचार और पैकिंग दोनों ही शानदार होनी ही चाहिये, वरना खरीदार कैसे मिलेगें. बहुत ही उम्दा पोस्ट, हमेशा की तरह... ! लेकिन पढकर हैप्पी हुई , ये नहीं कहूँगी. सच्ची खुशी, शब्दों की मोहताज जो नहीं होती.
इसे पढकर i am happy हुआ ।
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