कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!
सबकी मौत का एक मुअईन है
लेकिन मैं.....
मरती हूँ हर रात... (प्रतिमा सिन्हा)
(इसमें अपनी बात जोड़ रही हूँ- )
घर -बाहर, दुकान दफ्तर-चौराहा-पार्क
हर जगह हम हैं केवल मंडी- रंडी, देह -दुकान....!
हम कहते रहें की हमने उन्हें देखा
मित्रवत, पुत्रवत, भतृवत, मनुष्यवत....
लेकिन, जिन्हें हम ये सब कहते हैं, वे ही हमें बताते हैं-
कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!
अब हम भी कह रहे हैं, कि आओ और उपयोग करो- हमारा-
कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!
आँसू बहते हों तो पी जाओ।
दर्द होता हो तो निगल जाओ।
सर भिन्नाता हो तो उगल आओ अपने देह का दर्द, जहर, क्रोध -
अपनी ही माँद में।
कहीं और जाओगी तो सुनेगा नहीं कोई
अनहीन, नहीं, सुनहेगे सभी,
फिर हँसेंगे, तिरिछियाएंगे और
फिर फिर छेड़ेंगे धुन की जंग-
कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!
1 comment:
इतना अवसाद उचित नहीं है यह सही तो है कि यह कविता आज की पुरुष की मानसिकता का कराती है लेकिन शत प्रतिशत सही नहीं है अभी भी कुछ संवेदनशील पुरुष है जो स्त्री के प्रति इस प्रकार का भाव नहीं रखते क्या स्त्री को इस प्रकार गालिया दे कोस कर हम संवेदनशील पुरुषो की भावनाओं को आहात नहीं कर रहे
सम्वेदानापरक कविता के लिए आभार
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