हे भगवान! आज मैं बहुत खुश हूँ कि मैं महुआ माजी की तरह खूबसूरत नही। हिन्दी जगत में खूबसूरत लेखिका होना मतलब- उसके चरित्र की धज्जियों का उड़ जाना है। हिन्दी जगत में स्त्री का होना ही फांसी पर चढ़ा जानेवाला अपराध है। खूबसूरत लेखिका होना भयंकरतम अपराध है। इसकी सज़ा उसके चरित्र की खील -बखिया उधेड़ कर दी जा सकती है। ऐ औरत! एक तो तू हव्वा!। सारे फसादात की जड़! दूसरा फसाद- कि तू सुंदर भी है। यह ऊपरवाला भी- बहुत हरामी है। उसकी कमीनगी देखिये कि वह इस दो टके की औरत को दिमाग नाम की चीज़ भी दे देता है। अब भला कहिए तो! रूप दे दिया तो दे दिया। उससे हमारा मन सकूँ पाता है। आँखों को ठंढक पहुँचती है। दिल को राहत मिलती है। अगर वह पट गई तो देह की पोर-पोर खिल जाती है। नहीं भी पाती तो उसे गाली देकर, बदनाम करके हमारी जीभ और रूह सकून पाती है। ए कम अक्लों ! कितने खुश हैं हम यह स्थापित करते हुए कि ऐसों-ऐसों की अक्कल घुटने में होती है। घुटने पर साड़ी अच्छी लगती है। दिमाग को भी हमने घुटने पर देकर हमने उनकी इज्ज़त ही बढाई है। असल में उनके पास दिमाग तो होता ही नही! और ज़रूरत भी क्या है भला! वे रूपसी है, कामिनी हैं, दामिनी हैं, मतवारी हैं, छममकछल्लो हैं, छमिया हैं। ये सब हमारे रस-रंजन के लिए हैं। उनकी खुशकिस्मती कि हम उन्हें अपने साथ होने-सोने-खोने के लिए रख लेते हैं। अब इनकी यह मजाल कि लिखने भी लगें, बोलने भी लगें, हुंकारने भी लगें। दुर्गा-काली कैलेंडरों और शास्त्रों में अच्छी लगती हैं। जीवन में नही। महुआ हो कि कमलेश, गीता हो कि विभा- जो बोलेगी, भाड़ में जाएगी। यह भाड़ हमने बनाया है, इसमें हिंसा, कामुकता, रासलीला की आग हम सदा जला के रखते हैं। हम एक छींटे से अपने ही अन्य लोगों का भी खात्मा करने की ताकत रखते हैं, जिनकी नज़र में स्त्री सम्माननीय है। अरी ऐ औरत! संभाल जा! तू मादा है, मादा रहेगी। मादा बनकर हमारे साथ रहेगी तो तेरे रूप पर तनिक दिमाग का दान भी कर देंगे।
इसलिए हे भगवान! अबतक अपनी कुरूपता से दुखी आज मैं बहुत खुश हूँ। पर, क्या सचमुच खुश हूँ? नहीं। रूप तो एक और विशेषण है। हमारे लिए तो औरत का होना ही अपराध है। हम औरत बनकर सेवाभाव से दासी बने रहें, तो किसी को कोई आपत्ति नही होगी, न किसी गोस्वामी जी की आत्मा में किसी प्रकाश का पुंज लहराएगा, न किसी के मन में किसी के प्रति राग-रंजन का अनिल या अनल बहराएगा। न किसी रण का बांका छलिया रूप अंधेरगर्दी मचाएगा। हमें कहा जाता है कि ना, ना, ना! हमारे विमर्श को नारीवादी रूप मत दीजिए। हम भी कहते हैं कि ना जी ना, हम तो अपने को रूप-अरूप से अलग-विलग रखकर सिर्फ और सिर्फ अपने कर्म और अपने लेखन और अपने प्रोफेशन पर ध्यान देते हैं। तब भी पेट में मरोड़ होने लगती है।
हे भगवान! अब हम तुमको गरिया रहे हैं। क्यों, तूने हमें बनाया? दिन-रात की इस इज़्ज़तपोशी के लिए! एक बार इन इज़्ज़तदानों को भी औरत बना दे और ऐसे ही विभूषणों से विभूषित कर दे। हमारी साड़ी, हमारी देह, हमारी नाक, हमारी आँख, हमारी चितवन, हमारी गढ़न! सब उनमें भर दे! सुनने दे उन्हें भी ये सब कुछ! फिर हम भी पूछें कि 'आब कहू, मोन केहेन लगइए।"
वैसे हिन्दी में किसी की किसी भी उपलब्धि पर पड़ोसी के पेट में दर्द उठाना स्वाभाविक है। हमारी भिखारी और लोलुप प्रवृत्ति किसी को खुश, और परवान चढ़ा नही देख सकती। उसे यह रोने में अच्छा लगता है कि हिन्दी में पैसा नही, नाम नहीं, और जैसे ही किसी को यह मिलता है, हम उसके खिलाफ लामबंद होने लगते हैं। मतलब साफ है कि उसकी साड़ी कि उसकी कमीज मेरे से सफ़ेद कैसे? वह चाहे महुआ माजी हो या सुरेन्द्र वर्मा। हमें कभी भी अपने नाम, दाम, काम का चाँद नही चाहिए। न न न! हमें तो चाहिए, किसी महुआ को या किसी सुरेन्द्र वर्मा को नहीं। हमें मिले तो हमी सबसे लायक, कोई और है तो घनघोर नालायक!
महुआ का उपन्यास अच्छा नही है, तो उसे अपनी मौत मर जाने दीजिये। चोरी का है तो चोरी का इलज़ाम लगाये। उपन्यास के लिखने, घटिया या बढ़िया होने का उसके रूप या उसकी साड़ी -शृंगार से क्या वास्ता! वैसे हम भी ना! हम हिंदीवालों को सजने-सँवरने से भी बहुत परहेज है। एक मंत्री जी भी चार बार कपड़े बदलते हैं तो सुर्खियों में आ जाते हैं। टीवी उनके काम पर नही, उनके कपड़ों पर उतर आता है। हमारी यह फितरत है। महुआ कि कमलेश कि गीता कि विभा कि मैत्रेयी कि शीला कि मुन्नी कि इमरती कि जलेबी- हमारे काम पर नहीं, हमारे रूप पर जाइए। अगर हमने कुछ कर लिया तो हम शिवरानी हो जाएंगे, जिनकी कहानी प्रेमचंद ही लिखते थे। हमारे तो घर के मर्दों में भी इतनी ताब नही कि वे कहें कि हाँ जी हाँ! उनकी पत्नी एक शख्स नहीं, एक शख्सियत है। मन के भीतर इतना डर और कहने को इतने रणबांकुरे!