अरी बिटिया रुचिका, अच्छा हुआ, तुम सिधार गई. 19 साल बाद आज के इस हालात से तो बेहतर है कि तुम पहले ही चली गई. क्यों कहूं मैं कि तुम समाज से लड़ती रहो, कि समाज के सामने सर उठाकर चलो, कि समाज के डर से डरो मत, कि लोग तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, कि कानून की नज़रों में सभी एक हैं. ना बिटिया ना. तुम अधिक समझदार थी. सबसे बड़ी समझदारी तो तुमने यही दिखाई कि अपनी दोस्त अनुराधा के साथ मिल कर इस घिनौने खेल का पर्दाफाश किया. लोग फिल्मवाले को गालियां देते हैं. यह कास्टिंग काउच तो हर जगह है. फिल्मवाले तो गरीब की भौजाई की तरह हरेक के मोहरे बनते हैं, मगर तीन “पी” यानी पद, प्रतिष्ठा, पैसेवाले तो ….जो जितना बड़ा ताकतवर, उसकी कास्टिंग काउच उतनी बड़ी , उतनी ताकतवर और उतनी ही घिनौनी.
पता नहीं बिटिया, मरता तो एक अनजान भी है तो दुख होता है. हां, मैं तुम्हें प्रत्यक्ष रूप से नहीं जानती, मगर हर मां अपनी उस बेटी को जानती है, जो इस तरह के ना कहे जानेवाले ज़ुल्म का शिकार होती है. उस लिहाज़ से रुचिका, तुम मेरी बेटी हो, क्योंकि इसतरह की हर घटना के बाद उस बच्ची को ही कहा जाता है कि वह ऐसी या वह वैसी. कभी किसी आदमी को नहीं कहा जाता कि वह ऐसा तो वह वैसा. दुश्चरित्रता का यह जाल तो अनंत समय से है. किसी भी स्त्री से छुटकारा पाना हो, तुरंत उस पर दुश्चरित्रता का जाल फेंक दो, चाहे वह पत्नी से छुटकारा पाना हो या प्रेमिका से. कोई भी औरत या लड़की इस जाल से निकल ही नहीं सकती और उसी में फंसकर जान दे देगी, जैसे तुमने दे दी. मालूम नहीं, यह कौन सा नियम है, जिसमें दुश्चरित्रता का आरोप लगानेवाले इस बात को भूल जाते हैं कि उसे दुश्चरित्रता का जामा पहनाने में किसी पुरुष की भी भूमिका रहती होगी. या वह अपने से ही दुश्चरित्रता का लिहाफ ओढ़ लेती होगी? उसमें भी तुम जैसी 14 साल की बच्ची, जिसे शायद दुश्चरित्रता की मायने भी पता नहीं होंगे. ऊपरवाले ने हर कमजोर को अपने प्राण के रक्षार्थ एक न एक हथियार उसके शरीर में ही दे दिए हैं. लड़की में भी उसने 6ठी ज्ञानेन्द्रिय के रूप में यह आयुध दे तो दिया. मगर जब तक वह इसका लाभ उठाकर आगे बढे, तबतक तो उसकी राह में इतनी कांटे बिछा दिए जाते हैं कि उसके लिए जान देने के अलावा और कोई रास्ता शायद नहीं बचता.
किसने कहा था रुचिका कि तुम खिलाड़ी बनो? देश का नाम ऊंचा करो? उसके लिए सारी दुनिया भरी पड़ी है. जिस उम्र में तुम्हें हर पुरुष पिता या बड़ा भाई ही लगता होगा, उसी उम्र में उसी उम्र के लोगों के द्वारा तुम इस तरह से छली गई कि जान देनी पड़ गई तुम्हें, वह भी तरह तरह के इल्ज़ामों के साथ, अपने परिवार पर टूट रहे कहर के साथ. बचपन के वे दिन, जब तुम चिड़िये की तरह चहकती, फूल की तरह खिलती, आशाओं, उमंगों और सुहाने भविष्य के झूले पर झूलती, उस उम्र में तुम्हें ऐसे गहरे अवसाद में पहुंचा दिया गया, जहां से तुम तीन साल बाद उबरी तो, मगर जान दे कर.
तुम जी कर भी क्या करती रुचिका? कैसे यह बर्दाश्त करती कि महज 14 साल की उम्र में तुम्हें चरित्रहीन करार दिया जाए? क्या एक 14 साल की बच्ची गिरे चरित्र, चरित्रहीनता का मतलब समझती है? मुझे तो लगता है रुचिका कि जन्म लेते ही हर बच्ची को चरित्रहीन करार दिया जाना चाहिये. किसी खास उम्र तक या किसी की खास हरकत तक का इंतज़ार नहीं किया जाना चाहिये. आखिर बच्चियां जन्म लेने के बाद होश संभालने तक किसी भी के सामने उघडे बदन चली आती है. उन सभी को सबक सिखाया जाना चाहिये. उन सभी को चरित्रहीन कहा जाना चाहिये. उनकी माताओं को भी, क्योंकि तुम्हें या किसी भी बच्चे को जन्म देने के लिए उसे अपना बदन उघाडना ही पडता है. यह तो निरी चरित्रहीनता हुई कि नहीं? वैसे भी चरित्र का सारा ठेका तो औअरतों और लडकियों ने ही ले रखा है ना.
पता नहीं रुचिका, इस 14 साल की उम्र में ही तुमने अपने स्कूल को देह व्यवसाय के कितने बडे अड्डे में बदल दिया था कि तुम्हारे स्कूल ने भी कह दिया कि तुम खराब चरित्र की थी. कितनी बडी तुम्हारी शारीरिक और मानसिक ताक़त थी कि तुमने पूरे स्कूल को चरित्र के हिमालय से घसीटकर खाई में फेंक दिया. और लोग कितने डरपोक थे कि तुम्हारे इस चरित्र हनन के हथियार के आगे घुटने टेक दिए? उनके अपने अन्दर कोई बुद्धि, विवेक नहीं था कि तुम्हारी तथाकथित चरित्रहीनता की रपटीली राह पर सभी रपट गए?
ओह रुचिका, मेरी बच्ची. मैं तुममें अपना, अपनी बच्चियों का अक़्स देख रही हूं. मेरे आंसू नहीं रुक रहे. पता नहीं, यह सारा का सारा दोष मैं अपने ऊपर क्यों महसूस कर रही हूं, मुझे लग रहा है कि मेरी ही बच्ची के साथ ऐसा हुआ है. मैं सांस नहीं ले पा रही. दम घुट रहा है मेरा. इस जीते जी की घुटन से बहुत अच्छा हुआ कि तुम मर गई.
मैने मनोविज्ञान नहीं पढा है बिटिया, मगर इतना जानती हूं कि चरित्रहीन व्यक्ति के जिगर की बात नहीं है कि वह खुदकुशी कर ले. वह दूसरों को खुदकुशी करने पर मजबूर कर सकता है, खुद नहीं कर सकता, जैसे तुम्हारे मामले में हुआ. लोग कहते हैं, मुकुराहट बडी अच्छी आदत है. मगर कभी कभी यह मुस्कुराहट कैसे तंज़ में बदलती है, यह मैं अभी देख रही हूं.
यह मुस्कान, सज़ा की मुस्कान नहीं है, यह अपनी जीत की हंसी है कि देखो, देखो, मुझे देखो और मेरी व्यवस्था को देखो. मैं तो आदमी हूं, ताकतवर हूं. मेरा काम है लोगों के चरित्र की खील बखिया उधेडना और अपने को सुई की तरह तेज और नुकीला बनाए रखना कि किसी ने नज़र उठाई मेरी ओर कि बस, यह सुई उसकी आंखों मे.
मैं तो चरण धो धो कर पियूंगी तुम्हारी दोस्त अनुराधा और उसके माता पिता के. पता नहीं, मुझे अपना एक नाटक “अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो” क्यों याद आ रहा है? उस नाटक की भी अंकिता पुरुष की इसी वासना का शिकार हुई थी, वह भी अपने ही पिता और भाई द्वारा. वह भी अपने दोस्तों के द्वारा बचाई गई, उसके दोस्त के माता-पिता ने उसके लिए केस लडा. लेकिन तारीफ कि उस पिता के लिए भी कह दिया गया कि वह अपनी पुरानी दुश्मनी निकाल रहे हैं.
कैसे बर्दाश्त करेगी, एक 14 साल की बच्ची अपने कारण अपने भाई पर इतनी अत्याचारी हरकतें देखकर कि अत्याचार और अनाचार को भी शर्म आ जाए. तुम्हारे लिए अश्लील व्यंग्य करनेवाले भाडे के टट्टू. क्या कहा जाए उनके लिए? कुछ भी नहीं, क्योंकि वे तो पैसे के लिए काम करते हैं. वे कुछ भी कर सकते हैं. उनकी ज़ात, उनका ईमान सबकुछ केवल पैसा होता है.
और पत्नियों को तो तुम माफ ही कर दो रुचिका. पता नहीं किस फिल्मवाले ने यह सूक्त वाक्य हम हिन्दुस्तानी औरतों के लिए दे दिया कि आज तक भीष्म की तरह उस वाक्य के राज सिंहासन से सभी पत्नियां बंधी हुई हैं. वह सूक्त वाक्य है- “भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है.” तो हर पत्नी का आपदधर्म होता है कि वह मुसीबत में पडे अपने पति रूपी सत्यवान के प्राण को सावित्री बनकर यमराज के चंगुल से छुडाकर लाए. हमने उस पत्नी की भी दिव्य मुस्कान देखी. लगा, यमराज की व्यवस्था को भी धता बता रही हो. पति रूपी सिंहासन से बंधी उस स्त्री में तुम्हारी मां भी हो सकती है, जो पति के आगे चुप रहकर उसकी हां में हां मिलाती हुई अंडरग्राउंड हो गई. उसी पति रूपी सिंहासन से बंधी उस स्त्री में तुम्हारी दोस्त की मां भी है, जो पति के साथ साथ चलती रही. अच्छा हुआ कि तुम किसी की पत्नी बनने से पहले ही सिधार गई. क्या पता, वह पति तुम्हारी बातों को समझता. तब तो कोई बात ही नहीं होती. मगर, यदि वह भी समझने से इंकार कर देता तो?
फिर भी मैं यह कैसे मान लूं मेरी बच्ची कि इस धरती की लड़कियां अपने शरीर से अपने मन को बाहर निकल दें। अपने भीतर अपने लिए कोई इच्छा, अरमान ना पाले, अपने लिए अपनी कोई राह ना चुने, अपने साथ साथ अपने समाज, देश के नाम व प्रतिष्ठा की बात ना सोचे. अपने को केवल देह मान कर उसके बिंधने, चिंथने, टूटने, दरकने की राह तके और उसे ही अपनी नियति मानकर अपनी ज़बान काटकर अलग रख दे? नहीं रुचिका, नहीं. तुम जहां भी हो वहीं से अपने को देह की इस परिधि से बाहर निकालो, मन को मज़बूत करो और बता दो कि तुम टूट गई तो टूट गई, मगर आगे से कोई बेटी नहीं टूटेगी. सभी के मन में अनुराधा भर दो और उनके मन में भी, जो तुम्हारे अंकल- आंटी की तरह तुम्हारे साथ हैं. तुम्हारे माता-पिता, भाई, सहेली- सभी के मन में. मैं हर रुचिका को जीवित देखना चाहती हूं, मेरी बच्ची. तुम्हारा बलिदान व्यर्थ ना जाए, यह सनद रहे.
11 comments:
Sach kaha.
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क्या आपने लोहे को तैरते देखा है?
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
bahut achcha article hai vibha ji,rathore ke behuda hansi loktantra ke mur par tamacha lag rahi hai hamee.lagta hai ab hamhe aese apradheyo ko kuleaam aawaragardee kartee huee dekhnee kee aadat daam lene chaheyen.
ठुल्लागिरी की यह महिमा अपरंपार है
वैसे भी चरित्र का सारा ठेका तो औरतों और लडकियों ने ही ले रखा है ना.
क्या लिख डाला देवी आपने ,आपको शत -शत नमन
शर्मनाक घटनाक्रम
विचारोत्तेजक लेख
बी एस पाबला
बहुत मार्मिक व्यथा है रुचिका जैसी लडकियों की। मगर पलायन इसका हल नहीं है साहस से लडना होगा और ऐसे बहशियों के खिलाफ सब को एक जुट होना होगा । धन्यवाद
आप सही हैं. आपका क्रोध किसी काम का है. इसलिए लिखती रहें. पर मैं आपको बताना चाहता हूँ कि हर इंसान बुरा नही होता. राठौर बुरा था. कोई शक नहीं है, उसे सजा मिलेगी.
http://www.dafaa512.blogspot.com/
आमीन, आप बिलकुल सच कह रहे हैं. सभी ऐसे नहीं होते, इसीलिए इंसान पर से अभी पूरा विश्वास उठा नहीं है. लेकिन इंसानियत के खिलाफ कोई भी काम हो, उस पर निगाह और कलम उठनी ही चाहिये.
आपका आक्रोश सही है .. शर्मनाक है इस तरह की घटनाएं .. फिर भी जारी हैं !!
सही कहा!
ruchika kesi thi, esper bahut kaha sun chuka per wo sajjan kese the, wo tho balig the, bade the, samagdar or ejjatdar the na, unse or es purush samaj se kya ladki/bachhi/mahila ko ek ensan samagne ki umeed nahi ki ja sakti kay
hum kab es samaj ko ladkiya ke rehne layas bana payange?
kanya bhrun hatya ki chinta bhi esliya ho rahi ha ki ling anupat bagdh raha ha, ladki ke sath jo anachar hota ha, us ko bad kar ke dekhiya, kanya bhrun hatya rokne ke liya jagrukta lane ke liya kisi tarha ka karyakram chalne ki aavaskta hi nahi raha jayangee.
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