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Monday, November 23, 2009

गुजरात- यानी जहां गुजरे अच्छे से रात!

http://mohallalive.com/2009/11/23/vibha-rani-reportaz-on-ahmedabad-toor/

छम्मकछल्लो के एक मित्र हैं डॉ. माणिक मृगेश. गुजरात प्रेमी हैं. वे अक्सर कहते हैं, गुजरात- यानी जहां गुजरे अच्छे से रात! और यह जो शख्स है,उसका नाम प्रवीण है। वह प्राइवेट टैक्सी का ड्राइवर है। नरोदा पटिया में रहता है। समय बिताना था। हमारी गाड़ी अपने गंतव्य को भागी जा रही थी। अहमदाबाद का नया बसा इलाका – सेटेलाइट सिटी। विकास की दौड़ में भागता शहर। चौड़ी सड़कें, चौतरफा मॉल से पटा इलाक़ा। एक फाइव स्टार होटल खुल चुका है। चार और खोलने की तैयारी है। सड़क बनने का काम हो रहा है। अभी इसके ऊपर फ्लाइओवर बननेवाला है। तब यहां का ट्रैफिक और भी कम हो जाएगा। इसरो का एक कार्यालय भी उधर दिखा। तब लगा कि एक ज़माने में यह कितना वीरान इलाका रहा होगा। आज यह अहमदाबाद का सबसे महंगा इलाक़ा है।

अहमदाबाद आना-जाना रहता है। पिछले दस-बारह सालों में इसे बढ़ते, विकसित होते देखा है। लेकिन इधर के कुछ सालों में तो विकास का जैसे कोई रेला आया है। यह भौतिक विकास है और आज इस भौतिकतावाद को हमने विकास का, आधुनिकता का अहम हिस्सा मानते हुए समझ लिया है कि यही विकास है। इसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। आप कैसे किसी को कह सकते हैं कि उसके पास अपना एक घर न हो, घर हो तो उसमें बिजली पानी न हो, आसपास अच्छी दुकानें न हों, साफ और चौड़ी सड़कें न हों, घर में टीवी से लेकर सोफा सेट, मोबाइल, आयी पॉड तक सभी आधुनिक उपकरण न हो। यही सब तो विकास है, और क्या चाहिए?

पंद्रह दिन पहले कच्छ इलाके में गयी थी। 2002 के भूकंप के बाद वहां के हालात को देख कर लगा ही नहीं कि यहां इतनी बड़ी आपदा आयी थी। भुजोरी गांव का कला ग्राम तो अपने आप में एक अदभुत स्थल है। कुछ नहीं तो बस जाइए, शांति से एक दो घंटे बैठकर आ जाइए। विकास के क्रम में छूटती हैं परंपराएं, परंपरागत सामान, पहनावा, खान-पान, रीति-रिवाज़। पूरे कच्छ और कच्छी कढ़ाई के लिए मशहूर भुजोरी गांव में आधुनिक फैशन के कपड़े तो मिले, मगर ठेठ पारंपरिक पहनावा, ठेठ गहने लाख खोजने पर भी नहीं मिले। गुजराती खाना नहीं मिला किसी भी अच्छे होटल में। वही मेनू वाला पंजाबी, चाइनीज़ और दक्षिण भारतीय खाना। यह पूरे देश में है। स्थानीय खाने के लिए आप तरस जाइएगा। विकास की इस गति में पारंपरिक वस्तुओं की बलि चढ़ती रही है।

गुजरात में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं। पहले जब भी कभी जाना होता था, सुनते आते थे कि इस इलाक़े में दंगा हुआ, उस इलाके में दंगा हुआ। गोधरा कांड तो गुजरात के लिए एक काला अध्‍याय है। गोधरा के बाद भी गुजरात का विकास हो रहा है और लोग देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं। गोधरा के बाद भी यहां वही सरकार है। आगे भी शायद वही रहे। आखिर क्यों? इतने दर्दनाक, हौलनाक कांड के बाद भी? ऐक्टिविस्ट, एनजीओ, फिल्म मेकर्स कुछ दूसरी तस्वीरें बताते हैं, यहां की एक आम जनता कुछ दूसरी। एक कहता है, “सड़क इतनी अच्छी बन गयी है कि अहमदाबाद से सूरत की दूरी चार घंटे में तय हो जाती है। आईआईएम तो है ही। शिक्षा का स्तर भी पहले से बेहतर हुआ है।”

मैंने प्रवीण से गुजरात के हालात, रहन-सहन, देश-दशा पर बात करनी शुरू की। उसने खुशी-खुशी बताना भी शुरू किया। उसकी बातचीत में कोई राजनीतिक गंध नहीं थी। न ही हालात को छुपाने की कोई मंशा। यह उसकी कहानी है, उसकी ज़बानी। मेरी भी मंशा किसी को उछालने या उसे बेहतर साबित करने की नहीं है।

“यहां हालात एकदम सही है। चारो ओर डेवलपमेंट खूब हो रहा है। प्रॉपर्टी का रेट बढ़ गया है। सड़क देखिए, कितनी अच्छी हो गयी है। बिजनेस बढ़ने से होटल भी बढ़े हैं। ये देखिए सेंट लॉरेन होटल। अभी अभी खुला है। शहर का सबसे बड़ा फाइव स्टार होटल है। इंडिया और श्रीलंका के सारे क्रिकेटर्स यहीं ठहरे हैं।”

“ओह! जभी कल यहां शाम में खूब भीड थी?”

“हां, रही होगी। उनलोगों को देखने के लिए। शाम में आते हैं न। मैं तो तीन दिन से उनलोगों को देख रहा हूं।” प्रवीण की आवाज़ में उन सबको देख पाने का गर्व भरा हुआ था।

“तुम्हें कौन क्रिकेटर पसंद है?”

“मुझे तो मैं ही पसन्द हूं, जब मैं खेलता हूं… अब तो नहीं खेल पाता हूं। अब मैं काम करने लगा हूं न! एक संडे मिलता है, उसमें बहुत से काम रहते हैं। जैसे इसी संडे को काम था। बेटी का ड्रेस लेना था, मार्केट जाना था। उसके बाद साहब ने (जिनकी गाड़ी प्रवीण चलाता है) फैमिली के साथ खाने पर बुला लिया। समय कहां मिलता है? ये साहब बहुत अच्छे हैं।”

“और यहां की सरकार?”

“वह भी। हमारा जो पूरा इलाका है न, वह इसी पार्टी का है। हम तो जब भी वोट देंगे, इसी को देंगे।”

“इतना सब होने के बाद भी?”

“देखिए मैडम, वो एक कांड था, हो गया। उसमें भी यहां के लोगों ने कुछ नहीं किया। जो बाहर से आते हैं, दंगे कराते हैं और चले जाते हैं। हां, वो हुआ। उस बार। जो हुआ, वह अच्छा नहीं हुआ, हम जानते हैं। मगर यह हम सबने नहीं कराया है। हमलोग तो अभी भी एक साथ रहते हैं, हमलोगों का काम एक दूसरे के बगैर चल ही नहीं सकता।”

“आपलोग तो अब अलग-अलग बस्ती बना कर रहने लगे हैं, ऐसा हमने सुना है।”

“हां, रहते हैं, मगर अलग हो कर भी एक ही हैं। वो बस्ती के इस पार हैं तो हम उस पार। आमने-सामने। हम सभी एक दूसरे के यहां जाते हैं। एक दूसरे के यहां खाते-पीते हैं। उनके यहां जब शादी होती है, वे हमलोगों को बुलाते हैं और हमलोगों के लिए अलग से वेज खाना पकवाते हैं।”

“क्या तुमलोग भी ऐसा करते हो कि जब तुम्हारे यहां शादी होती है तो तुमलोग उन सबके लिए अलग से नॉनवेज खाना बनवाओ?”

“नहीं, हमलोग ऐसा नहीं करते हैं। अगर वे लोग कोई मांगते हैं तो हमलोग अलग से शादी के बाद उनके लिए एक पार्टी रखते हैं और उसमें उन सबको नॉनवेज खिलाते हैं। मगर जेनरली कोई मांगता नहीं है। उन लोगों को मालूम रहता है न कि हमलोग नहीं खाते हैं, तो वे लोग कुछ कहते भी नहीं हैं। बस चुपचाप खा लेते हैं।”

“आपके घरों की महिलाएं उनके यहां का खा-पी लेती हैं? आम तौर पर आदमी तो उतना भेदभाव नहीं रखते हैं, जितना कि औरतें?”

“नहीं। नॉनवेज नहीं खाती हैं। हां, हां, बाकी का खाती हैं, चाय-नाश्ता करती हैं। नहीं, कोई भेद नहीं करतीं। उनकी औरतें भी हमारे यहां आती हैं, तो खा पीकर जाती हैं। दरअसल, मैंने आपको बोला न कि यहां आपस में हमलोगों का कोई झगड़ा है ही नहीं।”

“अपलोगों के धंधे अलग अलग हैं?”

“हैं, मगर सभी के काम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। अब मैं आपको अपने यहां के धंधे के बारे में बताता हूं। हमलोगों के यहां सिलाई का धंधा होता है और उनलोगों के यहां कढ़ाई का। माने बोले तो लेडीज लोगों का ड्रेस। साड़ी सब रहता है न। तो कढ़ाई का काम वो लोग करते हैं, और सिलाई का काम हमलोग। अब इसमें कैसे एक दूसरे से अलग हो सकते हैं हमलोग, बताइए आप ही? वैसे ही है। चावल हम उगाते हैं, तो पापड़ वो लोग बनाते हैं। अभी तो ये लोग भी इस गोर्मिंट को मानने लगे हैं। आप ही देखिए न, पहले तो हर दस पंद्रह दिन में कहीं न कहीं दंगा, मारपीट होता ही रहता था। अब आप एक गोधरा को छोड़ दो। लेकिन उसके बाद बोलो तो कहीं भी गुजरात में उसके बाद दंगा हुआ है? सो अब तो ये लोग भी बोलता है कि बाबा ऐसी ही गोर्मिंट चाहिए। सुकून से तो रहने को मिलता है न।”

“शायद गोधरा के बाद सभी डर गये होंगे?”

“नहीं, ऐसा नहीं है। वे अभी भी हमारे साथ रहते हैं और हम उनके साथ। मेरे कई मुस्लिम दोस्त हैं, वे सभी गरबा में आते हैं, हमारे साथ डांस करते हैं। हम भी उनके ताजिये में जाते हैं। ईद में जाते हैं। मैंने बोला न कि ये सब काम जो है न, वो बाहरवालों के हैं। यहां के लोगों की आपस में कोई दुशमनी नहीं है।”

“जो रिफ्यूजी कैंप लगे थे, अभी सब है ही?”

“नहीं, सब हट गये। एकाध कोई होगा तो पता नहीं।”

“तो तुम्हें लगता है, यहां सब ठीक है?”

“हां मैडम, सभी ठीक है। आप ही बताओ न, आप तो खुद ही अपनी आंख से सब देख रही हैं। यहां लोगों को क्या चाहिए? दो रोटी और सुकून की ज़‍िंदगी। वह मिल रही है।”


4 comments:

संजय भास्‍कर said...

यहां लोगों को क्या चाहिए? दो रोटी और सुकून की ज़‍िंदगी। वह मिल रही है।”
shandaar

अजय कुमार said...

दो रोटी और सुकून की ज़‍िंदगी। वह मिल रही है।”

यही तो चाहिये, अच्छा लेख, और लोगों के विचार भी सामने लायें

विधुल्लता said...

स्थानीय खाने के लिए आप तरस जाइएगा। विकास की इस गति में पारंपरिक वस्तुओं की बलि चढ़ती रही हैये सच है गुजरात ही क्यों अमूमन देश के हर राज्य में यही हाल है ..हमेशा की तरह रोचक लेखन बधाई

निर्मला कपिला said...

बहुत बडिया प्रस्तुति शुभकामनायें