भाई लोग नाहक रोते रहते हैं कि धरती से प्रेम खतम हो गया है. असल में लोग प्रेम में भी शुद्धता खोजते हैं, और प्रेम के विरोधी हो जाते हैं. वे भूल जाते हैं कि बिना नमक मिलाए सब्जी भी खुद को नहीं बनाती, बिना चांदी-ताम्बा मिलाए सोना भी गहने नहीं बनाता और बिना खाद खाए धरती भी फसल नहीं उगाती. मतलब, मेल-मिलावट जरूरी है.
प्रेम का यह मेल-मिलाव अलग-अलग रूप में सामने आता है. हिंदुस्तान की सरजमीं पर ही प्रेम के महाभारतीय किस्सों के साथ लोक, दंत और ऐतिहासिक कथाएं प्रेम के नए नित रूप चीख चीख कर बताती रही हैं- चाहे सोहणी महिवाल हो या ताजमहल या छम्मकछल्लो. इतिहास कहता है कि 1631 में मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी तीसरी पत्नी मुमताज महल की याद में ताजमहल बनवाने की सोची, जो उनके 14वें बच्चे को जनम देते समय सिधार गई थीं. भले मानुस, 14 बच्चे पैदा करके कोई औरत जिंदा रह सकती है? यह कोई कौरवों का जन्म था क्या कि घडे से निकल लिए?
शाहजहां के मन में प्रेम से ज्यादा गिल्ट उभरा होगा. उसे छुपाने के लिए ताजमहल बनवाया होगा- एक लम्बी प्रक्रिया के तहत. 1632-1648 तक. उस समय इसमें 32 करोड रुपए लगे. आज कोई दो करोड का घर ले तो इन्कम टैक्सवाले पहुंच जाते हैं. राजाओं की बात अलग है. उस मुहब्बत के राजा 1 जी के 32 करोड की बात करें तो आज के राजा 2 जी के 200 करोड कुछ भी नही है. वह भी तो प्रेमियों को दूरभाष की सुविधाजनक सुविधा दे रहे थे. चचा साहिर लुधियानवी बेवज़ह कह गए कि “इक शहंशाह ने बनवा के हंसी ताजमहल, हम गरीबों की मुहब्बत का उडाया है मज़ाक.” जवाब में किसी ने दे मारा “इक शहंशाह ने बनवा के हंसी ताजमहल, सारी दुनिया को मुहब्बत की निशानी दी है.” जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी. छम्मकछल्लो की भी एक कहानी है मैथिली में. पत्नी की याद में एक सेठ शीशमहल बनवाता है. उसमें काम करनेवाले युवा मजूर की घरवाली मर जाती है तो वह उस महल की एक ईंट उठाकर उसकी याद में रख लेता है. लकीर के फकीर कहते हैं, हनीमून के लिए आगरा मत जाना. जरूर ये बेटीवाले कहते होंगे, अपनी बेटी को मुमताज महल बनने से बचाने के लिए- तीसरी बीबी और 14 बच्चे! हे भगवान!!
बडे लोगों की बडी बातें. शाहजहां बादशाह थे सो मुहब्बत में पागल हो कर ताजमहल बनवा गए. हम प्रेम कर सकते हैं और प्रेम में पागल हो सकते हैं, मगर नतीजे में ताजमहल नहीं बना सकते. प्रेम में पागल होना हमारा मौलिक अधिकार है पर मौलिक अधिकार की रक्षा का भार किसी और पर है. इसलिए शाहजहां ने अपने प्रेम के पागलपन की निशानी में ताजमहल बनवा दिया तो किसी और ने हम पागल प्रेमियों के लिए पागलखाना. आओ, प्रेम करो, पागल बनो और यहां चले आओ. लोग फालतू कहते हैं कि आका हमारा ध्यान नहीं रखते. नहीं रखते तो पागल प्रेमी कहां जाते? वह भी आगरा में?? शाहजहां ने दिल्ली में लाल किला बनवाया तो आका ने शाहदरा में पागलखाना. औरंगजेब ने औरंगाबाद में अपनी बेगम की याद में मकबरा बनवाया तो उस मकबरे के प्रेम में कैद होनेवालों के लिए जेल बना दी गई. यानी, पता है कि ये बडे बडे बादशाह जो कुछ भी करेंगे, उसमें पागलपन का कुछ ना कुछ अंश रहेगा ही. उनके उस अंश को भी ढोने की जिम्मेदारी बेचारे आकाओं की ही तो है.
ताजमहल की एक और खासियत है उसकी बेंच. आज न तो शाहजहां बचे हैं और न उनकी प्रोपराइटी. सो छम्मकछल्लो किससे पूछे कि ताजमहल के सामने बेंच किसने बनाई? क्या खुद शाहजहां ने? या अपने आका ने? सोचा कि सभी मूर्ख तो पागल होने से रहे. कुछ महामूर्ख प्रेम करने के बाद भी पागल होने से बच जाएंगे. प्रेम के इतने बडे प्रतीक ताजमहल के सामने वे अपने प्रेम का इजहार कैसे करें? सो उन्होंने बना दी बेंच कि अब बेंच पर बैठो, सोओ, फोटो खिंचाओ और खुद में शाहजहां का बोध भरो? लोग नाहक कहते हैं कि दुनिया प्रेम के खिलाफ है. यहां कितना अच्छा इंतज़ाम है. बेंच पर बैठने का भी और पागलखाने में रहने का भी. प्रेम में पागल! आओ! आओ!! प्रेम में पागल!!! झूम झूम जाओ!!!