शीर्षक के अनुप्रास अलंकार पर मत जाइए. इस कथ्य पर यकीन कीजिए कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है. छम्मकछल्लो ने बचपन में पढा था कि किसी देश की रानी को चलने पर अपने पैर गंदे हो जाना पसंद नहीं था. लाख उपाय सोचने पर फैसला हुआ कि जहां जहां रानी साहिबा चलेंगी, वहां वहां कालीन बिछा दिए जाएं. यह श्रम और समय साध्य तो था ही, यह भी पता नहीं होता था कि रानी जी कब, कहां, किधर और कितनी दूर तक चलना पसंद करेंगी? बडे लोगों की बडी बात? पूछे कौन? जान गंवानी है क्या? फिर एक ने सुखाया कि जब जब रानी चलें, उनके पैरों में रूमाल या कोई कपडा बांध दिया जाए. इससे उनके पैर गंदे नहीं होंगे. और लोग बताते हैं कि इस तरतीब से रानी जी बहुत प्रसन्न हुईं. और यहीं से जूते चप्पल की ईजाद हुई.
प्रसन्नता भी आविष्कार को जनम देती है. रानी जी की इसी प्रसन्नता ने जूते-चप्पलों की ईजाद की. अब तो जूते-चप्पलों की इतनी बडी बडी कम्पनियां और इतने डिजाइन और वेराइटी आ गए हैं कि आपकी एक महीने की पगार निकल जाए, एक जोडी जूते-चप्पल खरीदने में. जूते-चप्पल गहने की तरह सम्मान का प्रतीक हो गए हैं. लोग केवल कपडे-गहने नहीं, जूते-चप्पल भी देखते हैं. जितने मंहगे जूते-चप्पल, उतनी अधिक कद्र.
समय के साथ जूते-चप्पल लोगों की शान के साथ प्रसिद्धि का प्रतीक बन गए. जूते-चप्पल भले हमारे पैर और हमारे शान की रक्षा करते हैं, सच तो यह है कि इसे अभी भी शूद्र की तरह देखा जाता है. लोग बाग एक से एक जूते-चप्पल पहनते हैं, लेकिन वे घर में इसे पहन कर नहीं घुसते. उसके लिए घर के बाहर एक कपाट बना देते हैं. घर से लक-दक निकलते हैं, बाहर जूते-चप्पल पहनते हैं, बाहर से आते ही सबसे पहले घर के बाहर इसे उतारते हैं, फिर घर में घुसते हैं. सोचिए, हजारों का खर्च इस पर, जैसे और जितने कपडे, उससे मैचिंग उतने जूते-चप्पल खेल के समय अलग, बाजार के समय अलग, शादी-ब्याह में अलग, स्कूल-कॉलेज, अस्पताल में अलग, मगर सबका अंत? घर के बाहर रखे अलमीरा में.
भला हो अपने बडे लोगों का, जिनकी महिमा से जूते-चप्पल शान की वस्तु बन गए. बडे लोगों की महिमा ही बडी होती है. वे चाहें तो राख और धूल को भी सोना बना दें, ये जूते-चप्पल क्या चीज़ है? एक बार एक ने बुश पर जूता फेंक दिया. वे मुस्कुरा कर रह गए. फिर किसी ने अपने चिदम्बरम साहेब के ऊपर फेंक दिया. वे भी मुस्का के रह गए. अभी किसी ने अपने स्वनाम धन्य महान सुरेश कलमाडी जी पर फेंका. वे भी मुस्काए और बडे ठसक के साथ चलते रहे. इससे यह साबित होता है कि ये बडे लोग तुच्छ से तुच्छ वस्तु को भी शबरी के जूठे बेर की तरह महान बना सकते हैं और खुद भी इस तरह से महान बन जाते हैं.
होगा कोई समय, जब जूते-चप्पल अपने ऊपर फेंका जाना अपमान समझा जाता था. नासमझ लोग अभी भी यही समझते हैं और इसी समझ की समझदानी से काम चलाते हुए इतने मंहगे जूते-चप्पल लोगों पर त्याग देते हैं- वह भी केवल एक. इससे यह पता चलता है कि वे त्यागी तो हैं, पर ईर्ष्यालु भी हैं. अरे भाई, जब एक चप्पल दे दी तो दूसरी भी दे दो. उनके पास एक सेट तैयार हो जाएगा. क्या पता, एक कलेक्शन ही उनका बन जाए. ये बडे लोग हैं, जो जूते-चप्पल पाने को अपनी प्रसिद्धि का उपकरण मानते हैं और पैरों के साथ साथ बदन और सर पर भी बडे प्रेम और श्रद्धा से धारण करते हैं. जनता और व्यवस्था के प्रति अपना पूरा आदर, मान और निष्ठा जताते हैं. चप्पल चेहरे पर चमत्कारी असर करती है. वह लोगों के मुख म्लान नहीं करती, उनकी चमक को और भी बढा देती है.
2 comments:
अथ जूतम पैजार कथा :) रोचक !
धन्यवाद अरविंद जी.
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