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Thursday, July 23, 2009

आइये खेलें पुरस्कार- पुरस्कार

भाई, छाम्माक्छाल्लो की नज़र में पुरस्कार की बड़ी कीमत है. पुरस्कार ना हो तो लोगों का कद वैसे ही कम हो जाता है, जैसे हाई हील की सैंडिल ना पहनने पर लड़कियों का कद. जिस किसी ने भी जीवन में कोई पुरस्कार नही जीता, समझिये, उसकी तो वाट ही लग गई. खेल हो, फिल्म हो, नाटक हो, लेखन हो या और कोई विधा, जबतक आप पुरस्कार नहीं हासिल करते हैं, लोग आपको अं वें ही समझते रहते हैं. अब देखिये ना, जबतक सत्यजित रे को आस्कर के लिए नामित नहीं किया गया, तबतक उन्हें भारत रत्न के लायक नही समझा गया. अमर्त्य सेन को नोबल पुरस्कार मिलाने से पहले कौन जानता था? लेखन के क्षेत्र में तो पुरस्कार की महिमा अपरम्पार है. कई लेखक तो लिखते ही इसलिए हैं की उन्हें अपने हर लेखन पर दो-चार पुरस्कार लेने हैं. ऐसे लेखक छपने से पहले ही चर्चित हो जाते हैं. उन्हें सही पता होता है की उनकी कृति कब छपेगी, कहा से छपेगी, कौन उसे विमोचित करेगा, कौन उस पर चाय-पानी पिलाएगा, कौन खाने-पीने या पीने-खाने का आयोजन करेगा, किस सस्न्था के द्वारा उसकी २००-३०० प्रतिया खरीद कर हित-मित्रों को भेंट की जायेंगी. सब तय रहता है. पुरस्कार की यह महिमा राजभाषा हिन्दी के साथ भी है. यहाँ मुम्बई में कई अनेक संस्थाएं हैं जो हर साल राजभाषा पुरस्कार का वितरण करते हैं. बड़ी जनतांत्रिक और ईमानदार व्यवस्था है इनके पास. वे पहले सभी दफ्तरों से पुरस्कार के लिए प्रविष्टियाँ मंगाते हैं, फिर उनके पास पहुंचाते हैं -" आप हमें इतने का बैनर या विज्ञापन सपोर्ट कर देंगे तो हम आपको इस पुरस्कार से नवाजेंगे. मसलन, उनकी पहली मांग पूरी तो आपको पहला पुरस्कार. छाम्माक्छाल्लो कई बार पुरस्कार लेनेवालों से पूछ चुकी है, "गुरु, कितने में मिला?' वे कभी -कभी मुस्कुरा देते हैं, कभी-कभी बड़ी साफगोई से बता भी देते हैं. एक बार तो एक संस्था ने ७ ट्राफी के बल पर ५७ कार्यालयों को पुरस्कृत कर दिया. मंच से विजेता (?) जैसे ही ट्राफी ले कर परदे के पीछे पहुंचे थे, उनसे ट्राफी ले ली जाती थी और मंच से पुकारे गए दूसरे विजेता को दे दी जाती थी. बाद में सूना ट्राफी के सभी दावेदार इसके लिए लड़ पड़े थे. भाई, फोटो तो खिंच गई, अब दफ्तर ट्राफी मांगेगा तो कहा से देंगे? और पैसे दिए हैं सो अलग। लेखन के क्षेत्र में भी कुछ ऎसी ही स्थिति है. किताबों से ज़्यादा पुरस्कार की संख्या है।एक संस्था है जो लेखकों को १०००, ७०० और ५०० रूपए के पुरस्कार देती है. पुरस्कार अखिल भारतीय स्तर का है (?) इसलिए पुरस्कार की प्रविष्टि के आमंत्रण पर ही लिख दिया जाता है की विजेता को अपने खर्चे पर मुम्बई आकर पुरस्कार लेना होगा. छाम्माक्छाल्लो कोपता नहीं की यह पुरस्कार लेने कौन आता है, मगर हर साल प्रविष्टि के लिए आमंत्रण छपता है. अभी हाल में एक लेखक को सम्मानित किया गया. पर देखिये दुर्भाग्य लेखक का की हिन्दी का की उसे पुरस्कार लेने के लिए अपने दफ्तर से अनुमति नही मिल सकी. अब हिन्दी का लेखक कोई विक्रम सेठ तो हैनहीं की उसे तीन साल बाद की किताब के लिए आज करोडों के अग्रिम मिल जाए. यहाँ तो एक बार सुरेन्द्र वर्मा की "मुझे चाँद चाहिए" के लिए कुछ लाख का अग्रिम मिला था तो हमारी देवदास सरीखी लेखक बिरादरी उदास हो गई थी. कुछ चुन्नीलाल स्टाइल से उसकी मीन मेख निकालने लगे. बहरहाल, हिन्दी का लेखक अपनी किताब के बल पर जीवन क्या, अपनी लेखनी भी नही चला सकता, लिहाजा उसे कहीं ना कही, कोई ना कोई रोजगार, धंधा, नौकरी-पानी तो करनी ही पड़ेगी. अब नौकरी में ना करी तो होता नही, सो नियोक्ता जो कहेगा, कर्मचारी को मानना पडेगा. किसी ने बताया की उसके खिलाफ करोडों के गबन का मामला चल रहा है. सुनकर छाम्माक्छाल्लो का मन मयूर नाच उठा. हिन्दी का लेखक और गबन? हिन्दी का तो हर लेखक मार्क्स को घोंटकर आगे बढ़ा हुआ होता है। उसकी नज़र सर्वहारा पर होती है। उसकी बेचारगी का वर्णन वह मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह करता है। प्रेमचंद का उपन्यास गबन याद आ गया. लेकिन उसमे और इसमे फर्क है। पहला फर्क तो यही है की हिन्दी का लेखक अब बहादुर हो गया है। उसे खतरों से खेलने आने लगा है। अब करना ही है तो करोडों का करो. कितनी तरक्की कर गया है अपना लेखक. संस्था ने कहा की हम लेखक का नहीं, उसकी कृति का सम्मान कर रहे हैं. छाम्माक्छाल्लो का कलेजा गर्व से फूल उठा. हाँ, सही तो. व्यक्ति से क्या मतलब? मतलब तो कृति से है. अब अपने यहाँ ही तो रत्नाकर हो गए- डाकू, जिसने न जाने कितनों को लूटा होगा, कितनों की जानें ली होंगी. अगर हम उनके इस रूप को ही याद करते तो उनके बाल्मीकी रूप और उनकी रामायण को तो गतालाखाते में ही डाल आये होते ना की नहीं?। छाम्माक्छाल्लो को गर्व है की हम अपनी परम्परा का पालन बहुत निष्ठा और ईमानदारी से कर रहे हैं. अब से हम शपथ भी ले सकते हैं की किसी भी लेखक या किसी भी व्यक्ति को पुरस्कृत करने से पहले उसकी जाती जिंदगी से कोई वास्ता नहीं रखेंगे। वह स्मगलर हो, दादा हो, कातिल हो, धोखेबाज हो, मगर लिखता हो तो उसे पुरस्कार दिया जा सकता है. आखिर यह हमारा देश है. इसी देश में रत्नाकर हुए हैं और हम भी इसी देश के निवासी हैं.

3 comments:

राजीव तनेजा said...

ज़बरदस्त व्यंग्य.....

Udan Tashtari said...

चलो, एक बार खेल ही लें.

Unknown said...

नीलाभ का एक गीत याद आ रहा है, हमको दे दो एक वजीफी हमको दे दो एक इनाम..हर तरफ अब यही अफसाने हैं..कहाँ जाइयेगा...किसे रोइयेगा..