Tensions in life leap our peace. Chhammakchhallo gives a comic relief through its satire, stories, poems and other relevance. Leave your pain somewhere aside and be happy with me, via chhammakchhallokahis.
Wednesday, July 29, 2009
हे भीष्म पितामह! काश कि यह नपुंसक भीड़ आपने खड़ी न की होती!
हे भीष्म पितामह, आपने बहुत से काम किये। अपनी खिलती जवानी में अपना यौवन पिता को दे दिया। आप तो पितृभक्त बन गये, मगर इस तरह से एक बुड्ढे, खूसट को जवानी के और अधिक उपभोग के लिए, उसे खुला खेल फर्रुखाबादी के लिए छोड़ दिया। पता नहीं, यह कारण है या क्या कि आज छेड़खानी के जितने भी मामले आते हैं, उनमें से अधिकतर अधेड़, बूढों द्वारा की गयी छेड़खानी के मामले आते हैं। यह इस देश की लगभग हर स्त्री का, हर लड़की का अनुभव है। मुझे लगता है कि अगर आपने अपना यौवन अपने पिता को न दिया होता, तो बुढ़ापे में काम-भाव को ज़रूरत से अधिक भुनाने की कोशिश न की गयी होती। और तब से चली आ रही इस परंपरा से हमारी आज की कितनी लड़कियों का बचाव हो गया होता।
हे भीष्म पितामह, काश कि आप माता सत्यवती के कहने पर उनके रोगग्रस्त पुत्र के लिए एक तो छोड़िए, तीन-तीन कन्याओं का अपहरण कर न लाये होते कि भाई, जिसे मर्जी, उसे चुन लो। आखिर मर्द हो। और जब उनमें से एक अंबा ने कह दिया कि वह तो पहले ही किसी को वरण कर चुकी है, तब अपनी महानता दिखाते हुए उसे छोड़ भी आये। हे भीष्म पितामह, आपको अपने ही इस महान आर्यावर्त की परंपरा का नहीं पता कि नारी एक बार घर से निकली क्या कि बस वह दूषित, जूठन और न जाने क्या-क्या हो जाती है? उसमें भी अपहृत नारी? अपने भावी पति से दुत्कारे जाने के बाद जब वह आपके पास आयी, तब आपने भी उसे अस्वीकार कर दिया। आप तो अपने वचन के पक्के थे, सो कह दिया कि भई, मैं तो अपनी प्रतिज्ञा के साथ जियूंगा, मरूंगा। इसे गांव की भाषा में कमर कस के या लंगोट कसके रहना कहा जाता है। पर हे भीष्म पितामह, इस परंपरा पर आपका ही समय बीतते न बीतते उस पर धूल छा गयी।
हे भीष्म पितामह, काश कि आपने तथाकथित वंश परंपरा की रक्षा के लिए, हस्तिनापुर की गद्दी की रक्षा और अपने वचन की पूर्ति के लिए अपने जीवन की बलि न दी होती। इस सत्ता से बंधे रहने का लाभ भारत देश को कितना मिला, यह तो सभी देख ही रहे हैं, मगर इस सत्ता से बंधे रहने के तर्क के कारण सही-ग़लत की परिभाषा ही समाप्त हो गयी। यह स्थापित हो गया कि राजा जो करे, सब सही, और उसके सभासदों का यह दायित्व है कि वह उसके हर हां और ना में अपना सर हिलाता रहे।
नतीजा, आज का सता-प्रबंध भी आपके ही चरण-चिन्हों पर चल रहा है। विश्वास न हो तो कभी आकर देख लें।
हे भीष्म पितामह, यह सत्ता से कैसा बंधना हुआ कि आपके और आपके समस्त सभासदों, बड़ों और आदरणीयों के बीच आपकी ही कुलवधू द्रौपदी आपके ही घर के एक सदस्य के हाथों नग्न की जाती रही और आप समेत आपकी पूरी सभा मूक बनी रही। इससे तो अच्छा आज का समय है कि आज लोग स्त्रियों को नग्न तो करते हैं, मगर दूसरे के घरों की।
हे भीष्म पितामह, काश कि द्रौपदी को नग्न करते समय आपने अपनी ज़बान खोली होती, अपना विरोध दर्ज़ किया होता तो एक नपुंसक भीड़ की परंपरा का जन्म न हुआ होता। आज उस नपुंसक भीड़ का खामियाज़ा हर देशवासी को भुगतना पड़ रहा है। आज किसी को खुलेआम मारा-पीटा जाता हो, उसकी दिन-दहाडे़ हत्या की जाती हो, उसे सरे बाज़ार नग्न किया जाता हो, मारा-पीटा जाता हो, पूरी की पूरी जनता ख़ामोश खड़ी तमाशा देखती रह जाती है। पितामह, उसे एक डर व्यापे रहता है कि अगर उसने मुंह खोला, तो कहीं उसी की जान पर न बन आये। हे भीष्म पितामह, कहीं आपने भी तो उसी डर से मुंह् बंद नहीं रखा था? दुर्योधन के गुस्से का आपको तो पता था ही। अब वह दुर्योधन गली-गली में मौजूद है। जिसमें जितनी ताक़त, वह उस स्तर का दुर्योधन।
हे भीष्म पितामह, काश कि आपने भाई-भाई के बीच के झगडे़ को पनपने न दिया होता। धृतराष्ट्र लाख राजा थे, मगर थे तो आपसे छोटे। आप उन्हें समझा सकते थे। और उसके बाद दुर्योधन को तो आप डांट-फटकार सकते थे। अब देखिए कि इस परंपरा के कारण आज भाई-भाई में कोई एका नहीं रही। भाई-भाई की यह दीवार हस्तिनापुर् के तख्त तक पहुंची और इस देश के दो टुकडे़ करा गयी।
हे भीष्म पितामह, काश कि अपने भावी पति द्वारा दुत्कारे जाने पर लौटी अंबा को आपने पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया होता। तब शायद आज लड़कियां सामान और भोजन की तरह उपभोग की वस्तु ना मानी जातीं। उन्हें घर की इज़्ज़त के नाम पर कहीं भी डूब मरने को विवश न किया जाता।
हे भीष्म पितामह, इन सबसे ऊपर यह कि काश, जिस देश की सता से बंधे रहने को आप जीवन भर विवश रहे, उसी देश के रक्षार्थ आपने अपने वचन को तोड़ दिया होता। जिस माता सत्यवती के कारण आपने आजन्म अविवाहित रहने का वचन अपने पिता को दिया था, उसी माता सत्यवती के आग्रह पर आपने अपना वचन भंग कर दिया होता और माता की आज्ञा से विवाह कर लिया होता। आपकी महानता पर तब भी कोई आंच ना आती, क्योंकि तब आप अपनी माता की आज्ञा का पालन कर रहे होते, जिस माता की आज्ञा पर श्री राम वन को चले गये थे। परंतु, तब यह होता कि आप देश के प्रहरी भर न होते, इस देश के राजा होते। देश पर आपका राज होता। आपकी कर्मठता, कुशलता की छाप से यह देश और समृद्ध और बलवान हुआ होता। तब आपकी अपनी संतान हुई होती, जो निश्चित रूप से आपकी ही तरह स्वस्थ, बलवान और अधिक विवेकशील होती। तब इस आर्यावर्त का स्वरूप कुछ दूसरा होता। तब महाभारत न हुआ होता, तब किसी दूसरे ही भारतवर्ष की नींव रखी गयी होती और उस नींव पर खडे़ भारतवर्ष की कोई दूसरी ही तस्वीर हम सबके सामने होती।
Monday, July 27, 2009
नारी को निर्वस्त्र करना तो हमारी परंपरा रही है
mओहाल्ला लाइव पर पढ़े एक छाम्माक्छाल्लो का एक और आलेख। लिंक है- http://mohallalive.com/2009/07/27/naked-women-n-our-tradition/
लोग खामखां चिल्ला रहे हैं, शोर मचा रहे हैं! अख़बारों में लेख लिख रहे हैं, धरने-प्रदर्शन कर रहे हैं, कानूनी जाच और कार्रवाई की मांग कर रहे हैं! क्यों भई, तो महज एक नारी को निर्वस्त्र करने के लिए! यह भी कोई बात हुई? यह कोई इतना बड़ा मसला है कि लोग उसके लिए सत्ता पर बरस पड़ें!
सुना कि छत्तीसगढ़ में एक महिला शिक्षक को निर्वस्त्र करके उसके साथ होली खेली गयी। फिर सुना-देखा कि पटना में भी किसी महिला को निर्वस्त्र कर दिया गया। यह तो मूल प्रवृत्ति की ओर जाने की बात है। आखिर में हम पैदा तो नंगे ही होते हैं न! तो फिर इस नंगी को बार-बार देखने की जुगुप्सा हमसे यह काम करवा देती है। दरअसल हम चाहते नहीं हैं। मगर हो जाता है, क्या कीजिएगा… यह दिल की बात है, दिल से सीए-वैसे काम हो जाते हैं।
बात नारी को निर्वस्त्र करने की रही है। यह इसलिए होता आ रहा है, क्योंकि हमने नारी को ही घर की इज्ज़त मान लिया है। यह भी मान लिया है कि उसके वस्त्र उतरते ही उसकी और उसके पूरे खानदान की मान-प्रतिष्ठा भी उतर जाती है। कभी सुना कि किसी ने किसी पुरुष को निर्वस्त्र कर दिया? जी नहीं, यह मान लिया जाता है कि ऐसा कर भी दिया जाए, तो उसकी इज्ज़त नहीं जाएगी। और जब इज्ज़त ही नहीं गयी तो उस पर मेहनत कर के फायदा? इंसान का स्वभाव है, कम मेहनत में ज़्यादा लाभ हासिल करना। नारी को निर्वस्त्र कर देना सबसे सस्ता, सरल, सुहावना और कम मेहनत का काम है। लो जी, हमने काम भी कर दिया और फल भी एकदम चंगा मिल गया।
लोग यूं ही परेशान होते रहते हैं, इन सब बातों पर। यह तो हमारी परंपरा में आता है। कहते हैं कि तीनों देवता यानी ब्रह्म, विष्णु और महेश सती अनुसूया के रूप पर बड़े मोहित थे। एक दिन वे तीनों अनुसूया के पास पहुंचे। अनुसूया ने तीनों की आवभगत की और फिर आगमन का उद्देश्य पूछा। तीनों ने कहा कि वे उन्हें निर्वस्त्र देखना चाहते हैं। अब घर आये अतिथि की मांग पूरा करना धर्म माना जाता था। अनुसूया में शायद वो तेज रहा हो, इसलिए कहते हैं कि उन्होंने अपने ताप के बल पर तीनों को बाल रूप में परिवर्तित कर दिया और खुद निर्वस्त्र हो गयीं। बच्चे के सामने मां जिस भी रूप में रहे, वह मां ही रहती है।
महाभारत में आ जाइए। दुर्योधन की जीवट इच्छा थी कि वह पांचाली को निर्वस्त्र करे। कह सकते हैं आप कि पांचाली ने उसका अपमान किया था, तो किसी के अपमान की सज़ा उसे निर्वस्त्र करना तो नहीं है। लेकिन यह हुआ।
आज भी यही हो रहा है। नारी को निर्वस्त्र दो कारणों से किया जा रहा है। या तो उसके प्रति नफ़रत हो या उससे या उसके घरवालों से बदला लेना हो। नारी बदला लेने का औज़ार बन गयी है। यह महाभारत काल से चला आ रहा है। युद्ध में भी बलात्कार युद्ध की रणनीति का एक अघोषित पहलू हुआ करता है, जो आज तक बदस्तूर कायम है।
मैं यह नहीं समझ पाती कि एक ओर तो समाज नारी को कमज़ोर, अबला दुर्बल समझता है, दूसरी ओर अपनी विजय का हेतु भी उसे ही बनाता है। यह सोचने की बात है कि एक कमज़ोर पर विजय हासिल कर के हम कौन सी जीत हासिल करते हैं?
दूसरी बात कि बदलाकारियों के लिए सबसे आसान होता है घर की इज्ज़त नारी की मर्यादा का भंगन। तारीफ़ है कि इससे हम सभी अभी तक उबरने की कौन कहे, इसकी ओर सोचते तक नहीं हैं।
तीसरी बात है – नंगेपन की ओर हमारा आकर्षण। हम चाहे जितने भी सभ्य हो लें, हो लेने का दावा करें, मन में एक आदम प्रवृत्ति छुपी रहती है और यह आदम प्रवृत्ति यह काम करवाती है। मुझे लगता है कि निर्वस्त्र करनेवालों से यह सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि ऐसा करके आप अपने भीतर कैसा संतोष और खुशी महसूस करते हैं। और अगर करते हैं, तो क्या वे तब भी यही महसूस करेंगे, अगर कोई उनके घर की स्त्रियों के साथ ऐसा करे? और अगर नहीं तो फिर वे दूसरों की स्त्रियों के साथ ऐसा क्यों करते हैं?
बहरहाल। एक जवाब तो यह लगता है कि वे यह ज़रूर कहेंगे कि ऐसा कर के हम अपनी परंपरा का पालन कर रहे हैं। आखिर हजारों साल पुरानी, समृद्ध परंपरा को छोड़ा भी कैसे जा सकता है? आइए, हम भी इसी परंपरा के हवन में कुछ समिधा डाल आएं। कुछ और को निर्वस्त्र कर आएं। परंपरा का निर्वहन पुण्य का काम है और आइए, इस पुण्य के हम सब सहभागी बनें।
Saturday, July 25, 2009
सेक्स? माइंड इट प्लीज!
मोहल्ला लाइव पर पढ़ें छाम्माक्छाल्लो का यह आलेख। लिंक है-http://mohallalive.com/2009/07/25/sex-mind-it-please/
आजकल सेक्स पर इस देश में बहुत चर्चा चल रही है। एक वर्जित फल, खाएं कि न खाएं, एक छुपी-छुपी सी चीज़, दिखाएं कि ना दिखाएं। बहुत बहस चल रही है कि इस “सच का सामना” किया जाए या नहीं। लोग बाग इसे निजता पर चोट मान रहे हैं। कितनी अच्छी बात है। हम इतने खुले तो। पर यह तो देखें कि निजता है क्या? निजता तो अपने खाने, पहनने, रहने, फिल्म देखने, भोजन करने, बहस करने तक सभी में है। मगर इन सब पर बातों के चलने पर उसे निजता पर प्रहार नहीं माना जाता है। सेक्स पर बात कर दी तो निजता पर प्रहार हो गया।
कहावत है, बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा? छम्मक्छल्लो भी इसे मानती है। सुना है कि एक चैनल द्वारा दिखाया जानेवाला रियैल्टी शो का मामला लोकसभा तक पहुंच गया है। जगह-जगह ब्लाग पर तो लोग चर्चा कर ही रहे हैं। चैनल को लानत-मलामत भेज ही रहे हैं।
आज सेक्स सबसे बडा सच है। सेक्स है तो दुनिया है, दुनिया की रीति-नीति है। सेक्स नहीं है तो जीवन में कुछ भी नही है। लेकिन सेक्स तो करो, उसे महसूस भी करो, उसका आनंद भी उठाओ, मगर उस पर किसी को बोलो नहीं, वरना वह अश्लील हो जाएगा। इस अश्लीलता की क्या सीमा है, किसी को नहीं पता। हमारी नज़र में तो भद्दे तरीके से खानेवाला, भद्दे तरीके से बोलने वाला, भद्दे तरीके से हरक़त करनेवाला भी अश्लील है। मगर जैसे पंकज का मतलब केवल कमल ही मान लिया जाता है, वैसे ही अश्लील का मतलब भी केवल यौनजनित प्रक्रिया ही मान ली जाती है।
यह यौनजनित प्रक्रिया भी कैसे अलग-अलग सांचे मे ढल कर निकलती है, वह देखिए। एक ही क्रिया-प्रक्रिया एक समय में जायज़ और दूसरे समय में नाजायज़ बन जाती है। अब देखिए न, हम सबकी पैदाइश इस सेक्स की ही बदौलत है। अगर किसी को इस पर कोई शक है तो बेशक वह विज्ञान का सहारा ले सकता है। लेकिन चूंकि हमारी–आपकी पैदाइश एक मान्य सीमा रेखा के तहत हुई है, इसलिए हम नाजायज़ नही हैं, हमारे आपके बच्चे भी नहीं हैं, मगर यही मान्यता जब किसी और के साथ नहीं होती तो उसकी संतान को अवैध मान लिया जाता है। उसकी इज़्ज़त, उसके खानदान की प्रतिष्ठा पर आंच आ जाती है। वह किसी को अपना मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह जाता। देखिए न, कुंती ने अपने पति की सहमति या अनुमति से अन्य देवताओं के संयोग से पुत्र पैदा किये तो उसे सभी ने हाथोहाथ लिया, मगर वही कुंती कर्ण को अपना पुत्र नहीं कह सकी। द्रौपदी को पांच पतियों की पत्नी बना दिया गया, यह समाज की मर्यादा के साथ हुआ, मगर सीता को रावण के यहां से आने पर अग्नि परीक्षा के लिए कहा गया। किसी ने यह नहीं कहा कि 14 साल तक तो राम और लक्ष्मण भी जंगल में रहे, वे भी तो कहीं जा सके होंगे, मगर नहीं। यौन शुचिता की परीक्षा पुरुषों के लिए नहीं होती। जिस दिन यह सब होने लगे, यक़ीन मानिए, उस दिन यौन शुचिता की परिभाषा ही बदल दी जाएगी।
आज लोगों के लिए यौन संबंध ही सबसे बड़ा सच हो गया है। अब देखिए न, अगर घर की लक्ष्मी अपने पति के अलावा किसी और का ध्यान न करे तो वह देवी की तरह पूजनीया हो जाती है। मगर वही लक्ष्मी अपनी सारी ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हुए भी अगर यौन इच्छा से प्रेरित हो कर कहीं किसी ओर मुड़ गयी तो उसके लिए लोगों के मनोभाव देख लीजिए। क्या यह संभव नहीं कि कोई स्त्री अपने पति से संतुष्ट न हो? पति से इस बाबत कहने पर भी इसका उस पर कोई असर ना पड़े, उल्टा पति उसे अपने अहम पर चोट मान ले और तब और भी ज्यादा अपने ही मन की करे? ऐसे में अगर वह किसी और जगह अपने मन की संतुष्टि की तलाश करे तो इसे ग़लत क्यों मान लिया जाना चाहिए? भले ही वह घर की तमाम ज़िम्मेदारियों को पूरे तन-मन से निबाहती आ रही हो? क्यों आज भी “भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है” पर ही उसे टिके रहना चाहिए? और क्यों समाज की सारी शुचिता का ठीकरा औरतों, लड़कियों पर ही फूटना चाहिये? क्यों समाज में सेक्स ऐसा तत्व मान लिया जाना चाहिए कि उसके ही ऊपर घर का सारा शिराज़ा टिका दिया जाये? क्यों एक स्त्री अपने अन्य संबंधों की बात करे तो उसे निर्लज्ज, यहां तक कि वेश्या सरीखा मान लिया जाए? संबंधों की सबसे मज़बूत कड़ी सेक्स को ही क्यों मान लिया जाए?
इसका जवाब भी है। हम देख रहे हैं कि मन से तो हम अब पवित्र रहे नहीं। छल, कपट, धोखा, झूठ, बेईमानी हमारे चरित्र में रक्त की तरह घुल-मिल गये हैं। एक वाक़या याद आता है। पड़ोस में एक बार डकैती पड़ी थी। डाकू सभी कुछ ले गये थे। यहां तक कि महिलाओं की नाक की कील भी छीन कर ले गये थे। मगर उन लोगों ने उस घर की जवान बेटी-बहुओं पर निगाह नहीं डाली। बस जी, वे तो देवता की तरह पवित्र हो गये। उनके सारे अत्याचार छुप गये। सभी जगह उसके इसी सौदार्य की चर्चा होती रही। मतलब कि देह ही और देह की पवित्रता ही हमारे चरित्र का एकमात्र पैमाना हो गया है।
तो आइए साहबान, अगर यही है तो आज से हम यह कसम खाते हैं कि देह की इस शुचिता को बनाये रखने के लिए हम हरसंभव प्रयास जारी रखेंगे। आइए और सबसे पहले महामुनि वेदव्यास को अपने शास्त्र से निकाल फेंकें। सभी कोई मिल जुल कर खजुराहो, कोणार्क आदि की मूर्तियों को नष्ट कर दें। याद रखें, इसे किसी विधर्मियों ने नहीं, हमी लोगों ने बनाया है। संभोग, सेक्स आदि शब्द को अपने जीवन से ही निकाल दें। भूल जाएं कि यह हमारे जीवन का एक अनिवार्य तत्व भी है। मनोवैज्ञानिक चाहे लाख कहें कि यह लोगों को स्वस्थ रखता है, हम तो इसे अश्लील ही मानते हैं भई. आखिर अपने धर्म, अपनी मर्यादा की रक्षा का सवाल है।
हम यह कतई नहीं कहते कि आप सारे समय सेक्स और सेक्स ही करते और कहते रहें। लेकिन सेक्स को आप हौआ न बनाएं, उसे एक मर्यादित रूप में रहने दें। मर्यादित से मतलब, छुपी चीज़ नहीं। यह जीवन की अन्य क्रियाओं की तरह ही उतनी ही सामान्य प्रक्रिया हो कि जब भी आपकी ज़रूरत हो, आप उसे उजागर कर सकें। खराब मानेंगे तो खराब बात तो सडक पर थूक फेंकना और कचरा फेंकना भी है। मगर हममें से कितने लोग इसे अश्लील मानते हैं और दुबारा ऐसा न करने की सोचते हैं?
Friday, July 24, 2009
गोत्र के रक्षको, हम आपकी पूजा करते हैं.
छाम्माक्छाल्लो को अपने देश के धर्म, जाती, वर्ग, वर्ण आदि पर पूरी श्रद्घा है और वह इसे पूजती है. वह यह मानती है कि देश के कण- कण का, इसके अनु-अनु का विकास हो. यह तभी संभव है, जब देश के कण- कण का, इसके अनु-अनु का अलग-अलग विवेचन हो. यह क्या बात हुई कि आप कहेंगे कि देश में एका हो जाय और सभी एक हो कर रहें. रहेंगे तो अपना अस्तित्व कहाँ जाएगा. और जब अस्तित्व ही नही रहा तो दुनिया में क्या भाड़ झोंकने आये हैं? देखिये, देश जबतक अलग-अलग रहेगा, देश का विकास होगा। धर्म के नाम पर विकास होगा, जाति के नाम पर विकास होगा, वर्ण के नाम पर विकास होगा, स्त्री के नाम पर विकास होगा, दलित के नाम पर विकास होगा। और तो और, गोत्र के नाम पर विकास होगा. यह सब समाज को मजबूत बनाने के लिए किया गया था. देखिये, हम कहते हैं कि लोग भाई-भाई की तरह रहें, सभी स्त्री, लड़की को माँ-बहन की तरह देखें. गोत्र की स्थापना इसीलिए तो की गई कि शुचिता बनी रहे. कितना अच्छा है, किसी तरह की गंदगी नहीं फ़ैल सकती. देश का सनातन सपना भी इसके झंडे तले सच होता है. अरे भाई, प्रेम का, एका का. लेकिन कूढ़ मगज, आज के लोग इसमें पलीता लगाने की सोचते रहते हैं. सोचते हैं, देश में टीवी आ गया, सिनेमा आ गया, देश चाँद पर पहुँच गया तो अपने सनातन व्यवस्था को आग के हवाले कर देंगे? इतना कमजोर समझ रखा है? नहीं, इसलिए छाम्माक्छाल्लो सभी के प्रति भक्ति भावः से नत मस्तक है. धर्म, गोत्र, जाती सभी व्यवस्था की पूजा करती है. अब इस पूजा की आंच में कोई जल जाता है तो जले. धर्म के नाम पर दंगे फूटते हैं तो फूटे. जाती न मिलाने पर या दूसरी जाती में शादी कर लेने पर जाती से बाहर कर दिए गए तो किये गए. जोडों की जान ले ली गई तो ले ली गई. सामान गोत्र में शादी करने पर दूल्हे को मार डाला गया तो मार डाला गया। जाती, गोत्र, धर्म के नाम पर इतनी बलि तो होती ही रहती है, होनी ही चाहिए. आख़िर इताना पुराना समाज है। यह सब तो हवं कुंद है, जिसमें किसी न किसी को समिधा तो बनाना ही पङता है. समान गोत्र में सभी भाई- बहन तो किसी के प्रति किसी के मन में मलिन भाव नहीं आयेंगे। अब आए और शादी भी कर ली तो सज़ा तो मिलनी ही चाहिए ना। सो मिली। अब इस पर इतनी चीख पुकार मचाने की क्या ज़रूरत? औअर मचाने से ही क्या हमें न्याय मिल जाएगा? क्या रूप कुनार को न्याय मिल गया? खैरलांजी को मिल गया? अभी-अभी सविता नाम की टीचर को निर्वस्त्र कर के घुमाया गया, उसको न्याय मिल गया? कितनी दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, कितनों को मौत के घाट उतार दिया गया, सभी को न्याय मिल गया? रहने देन। हमारी यद् दाश्त वैसे भी बहुत कमजोर है। लोगों के सामने भी बहुत सी प्राथमिकताएं हैं। अभी कल कोई नया, ज़्यादा सनसनीखेज़ समाचार मिलेगा, सब उस तरफ़ को लपक लेंगे। गोत्र-वोटर चला जाएगा चूल्हे में।
इसलिए छाम्माक्छाल्लो बहुत खुश है. हे धर्म, जाती, वर्ण, गोत्र के रक्षकों, आपसे छाम्माक्छाल्लो की गुजारिश है कि अनंत -अनंत काल तक ऐसा करते रहें, चाहे दुनिया कही से कही तरक्की कर ले, चाहे विज्ञान कितना भी आगे बढ़ जाए, चाहे तकनीक के बल पर हम इंटरनेट और बेतार के तार से संचार करने लगें, आप सब अपनी मान्यताओं के संग बने रहे, प्लीज. आखिर देश के अनु-अनु के विकास का सवाल है. इस विकास के रास्ते में जो भी आये, उसे चीर कर रख दें. हमें आपकी व्यवस्था पर बड़ा भरोसा है- सचमुच.
Thursday, July 23, 2009
आइये खेलें पुरस्कार- पुरस्कार
Wednesday, July 22, 2009
आइये, हम बलात्कार के लिए प्रस्तुत हैं.
Saturday, July 18, 2009
सच का सामना?मुश्किल है दिल को थामना?
Friday, July 17, 2009
देवी-देवताओं के अपमान से पहले
छाम्माक्छाल्लो आजकल बहुत उदास है। वह एक सच्ची हिन्दू है और इसलिए उसका मन फूल से भी कोमल है. उसकी भावना इतनी कमजोर है की बार-बार लगातार उसे झटके दिए जाते हैं और उन झटकों से उसके मन की कोमल भावनाएं आहात होती रहती हैं. पहले उसकी भावना लोगों के नाम पर आहत हो जाती थी. एक पॉप सिंगर हैं- पार्वती खान. कहते हैं की वे मशहूर लेखक राही मासूम राजा की पुत्रवधू हैं. अब माँ- बाप ने नाम रख दिया पार्वती. उन्हें पता नही था की वे बाद में किसी खान से शादी कर लेंगी और नाम हो जाएगा पार्वती खान. छाम्माक्छाल्लो के कोमल ह्रदय की तरह ही किसी एक सच्चे हिन्दू ह्रदय की कोमल भावना इतनी आहात हुई थी की अखबारों तक में लिख मारा कि देवी के नाम के आगे विधर्मी नाम लगाने से उनका मन बहुत आहत हो रहा है। हिन्दी और मैथिली की मशहूर लेखक हैं- उषा किरण खान। शुद्ध मैथिल ब्राह्मण हैं। (उषा जी इस जातिसूचक संबोधन के लिए माफ़ करें।) इतना ही नहीं, वे बाबा नागार्जुन की भतीजी है। उनकी शादी आई पी एस अधिकारी रामचंद्र खान से हुई। रामचंद्र खान भी शुद्ध ब्रह्मण हैं। (फ़िर से माफी)। मगर आजतक उनके नाम को ले कर किसी की भावना आहत नही हुई। अब बिहार के लोग ऐसे ही पागल हैं तो क्या कीजियेगा? रामचंद्र के आगे खान लगाने पर भी आत्मा आहत नही हुई।
अंडा सेहत के लिए लाभदायक है. लेकिन मेरा सच्चा हिन्दू मन इसका विज्ञापन देख कर बहुत आहत हो जाता है. यह दूसरी बात है कि अंडा खाने के समय यह आहत नहीं होता. छाम्माक्छाल्लो की तरह ही देश और संसार की बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू मांसाहार का सेवन करते होंगे. मगर वे सब सच्चे हिन्दू हैं. मांस खाने से उनका मन आहत नही होता, मगर मांस वाले बर्गर के विज्ञापन पर देवी माँ लक्ष्मी की तस्वीर से आहत हो-हो कर लास्ट-पस्त हो गया. एक सच्ची हिन्दू की तरह छाम्माक्छाल्लो का मन देवी -देवता को कभी जूते के तो कभी कच्छे- बनियान के तो कभी किस्सी और के विज्ञापन पर देख कर आहत होता रहता है। छाम्माक्छाल्लो अपने देवी-देवता से पूछना चाहती है कि क्या उन्हें पता है कि उनका पमान हो रहा है या वे यीशु मसीह की तरह कहना चाहेंगे कि इन्हें क्षमा कर दो, ये नही जानते कि ये क्या कर /कह रहे हैं.
छाम्माक्छाल्लो को लगता है कि उसका सच्चा हिन्दू मन एक अबोध बच्चे की तरह हो गया है. जिस तरह एक बच्चे को छेड़ दो तो वह यह समझ नहीं पाटा कि उसे छेड़ा जा रहा है. वह रोना, ठुनकना, बिसूरना शुरू कर देता है. चिधानेवाले को बच्चे की इस हरकत पर मजा आता है. वह इसका आनंद लेने लगता है. बच्चा जब ज्यादा ठुनकता है तो चिधानेवाला उसे प्यार से गोद में उठा लेता है, उसे थपकियाँ देता है, उसे सौरी भी बोलता है. बच्चा मान जाता है. चिधानेवाला फिर कुछ देर बाद अपनी हरकत शुरू कर देता है.छाम्माक्छाल्लो का सच्चा मन भी इसी बालक की तरह है. देवी-देवता के नाम पर लोग तरह-तरह के खेल कर देते हैं. हम अपमानित होने लगते हैं, गुस्से में भभकने लगते हैं. गुस्सा दिलानेवाले इसका मज़ा लेता रहते हैं और जब गुस्सा फूटने के कगार पर पहुंचता है तब झट से माफी मांग लेते हैं. यह उनके लिए एक मनोरंजक खेल हो जाता है. मगर छाम्माक्छाल्लो क्या करे. वह तो एक सच्ची हिन्दू है. वह आहत और अपमानित होती रहती है. छाम्माक्छाल्लो अपनीसंसार ही के तरह संसार के सभी हिन्दुओं से कहना चाहती है कि हे महामानव सच्चे हिन्दुगन, आप सब पहले मांस खाना छोड़ दीजिये ताकि मांस पर जब हमारे देवी देवता को बिठाया जाए तो हम उस पर और दूनी-चौगुनी तेजी से प्रतिक्रया दे सकें, वरना यह तो दिखावा सा लगता है. विश्व के शीत प्रदेशों के क्लाइमेट के कारण वहा रहनेवाले लोगों के लिए maanasaahaar आपद धर्म की बात हो जाती है, छाम्माक्छाल्लो इसी आपद केकारण मांसाहारी बनी। वैसी जगहों में बसनेवाले हमारे ये भोले-भाले सच्चे हिन्दू अपने धर्म के अपमान की बात करते हैं तो समझ में नहीं आता कि यह कौन सा धर्म है? क्या यह वह धर्म है जहा, जीव ह्त्या की बात अपराध मानी जाती है. तो अब बलि को देवी का प्रसाद कहकर उसे हत्या जैसे शब्द से बचा लें तो अलग बात है। बहरहाल छाम्माक्छाल्लो बहुत दुखी और उदास है। आप उसकी उदासी को दूर करने में थोड़ी सहायता कीजिए ना.
Thursday, July 16, 2009
कौमार्य परीक्षण -लड़कों का?
अब देखिए न, कहने को हम हिन्दू हैं, हिन्दू संस्कृति हमारे खून में रची बसी है, इतनी कि जब-तब हमारा यह हिन्दू खून खौल उठता है/ यह तब खौल उठता है, जब हमारे देवी देवता पर कोई आक्रमण (?) कर देता है, उसे अपने विज्ञापन का आधार बना देता है. हमारा खून खौल उठता है, जब कोई विधर्मी (?) हमारी बेटी को अपनी बहू या बीबी बनाना चाहता है.
हम उससे भी आगे होते हैं, जब हम किसी भी लड़की को छेड़ना अपना बेसिक आनंद मान लेते हैं. किसी लड़की को छेड़ना और उसका डर कर, सहम कर वहां से चुप-चाप निकल जाना- वल्लाह! क्या आनंददायी दृश्य होता है. मैं तो अपने सभी भाई- बन्धु से कहूंगी कि छेडो और मजे ले-ले कर छेड़ो, ऐसा फोकटिया और आत्मा को तृप्त कर देनेवाला निर्मल आनंद और कहाँ मिलेगा? कोई अगर आवाज़ निकाले तो उसे ही गलत बता कर उसी पर इतना चीखो, चिल्लाओ कि हिन्दी फिल्म की नायिका की तरह वह दुबक कर बैठ जाये या हिन्दी फिल्म की नायिका की तरह सभी उसे दोष देने लगें.
बलात्कार तो और भी स्वर्गीय आनंद है. आप कल्पना नही कर सकते कि इसमें बलात्कार करनेवाला कितना दिग्विजयी का भाव महसूस करता होगा? कही तो कुछ ऐसा है जो उसे तृप्त करता है, जिस कारण वह इस काम को लिए प्रवृत्त होता है. उसे यह बिलकुल घिनौना नहीं लगता होगा, मेरा दावा है.
इन सब मामलों में लड़कियों की सुनना तो और भी निरी बेवकूफी है. इसलिए हे बंधुओ, कभी भी इन सब मामलों में किसी लड़की की मत सुनो. यह सब उनकी बदतमीजी का फल है. लोग ठीक ही तो कहते हैं कि वे ऐसे देह उघाडू कपडे पहनेंगी तो लोगों का मन तो मचलेगा ही. इसलिए उन्हें सात परदों में रखो. लडके अधनगे घूमते है तो घूमने दो. उसमें कोई बुराई नहीं. लड़की ओ देख कर लडके बेकाबू हो जाते हैं तो यह सरासर लड़कियों का दोष है. और अगर लड़कों को देख कर लड़कियां अपने मन के बहकने की बात कहें तो भी दोष उन्ही का है. हिम्मत कैसे कर सकती हैं ये लड़कियां, कमजात! घर की इज्ज़त का कोई ख्याल ही नही. पता नही कैसे भूल जाने की हिम्मत कर लेती हैं ये कि घर की इज्ज़त लड़कियां ही हैं. शायद लड़कों के आवारा निकलने पर माँ-बाप की इज्ज़त में चार चाँद लग जाते हैं.
बहुत अच्छी बात है कि अपने सारे नीति-नियम लड़कियों पर डालो. जैसे घर के सारे काम के साथ-साथ पूजा-पाठ से लेकर नियम, रस्म, तीज त्यौहार लड़कियों- औरतों को जिम्मे छोड़ दिए जाते हैं, उसी तरह पहनने- ओढ़ने के कायदे कानून भी उन पर डाल दो. उसके बाद कहते रहो, "ये औरतें और उनके दस चोंचले ". मेरा मन तो यह सब सुन कर इतना प्रफुल्लित हो उठता है कि मन करता है उन लोगों के चरण धो-धो कर पियूं.
आखिर औरतें होती ही हैं सभी तरह की जिम्मेदारियों को ढोने के लिए और सभी कुछ के लिए उन्हें जिम्मेदार माने जाने के लिए. घर का बच्चा जब पास होता है तो बाप कहता है, मेरा बच्चा है." अगर फेल होता है या कम नंबर आते हैं तो कहता है, "कैसी माँ हो?" पति बहुत गर्व से कहते हैं, "बच्चा माँ की खूबसूरती ले ले, कोई बात नहीं, मगर दिमाग बाप का ले. " यानी यह तय है कि माँ जो है वह कम अक्ल की ही होगी. और यह सब देख सुन कर आत्मा बड़ी प्रसन्न होती है कि यह हमारी उस हिन्दू संस्क्रती में रहनेवाले लोग कहते हैं जो संस्कृति असुरों से रक्क्षा के लिए देवी की गुहार लगाती है, जो यह कहती है कि जहा नारी की पूजा होती है वहा देवता निवास करते हैं. चूंकि पूजा नहीं होती, इसलिए देवता अब बीडी तो कच्छे-बनियान तो कुछ और के विज्ञापन में खपा दिए जाते हैं.
सच मानिए, मैं बहुत खुश हूँ, अपनी हिन्दू संस्कृति की यह उन्नति देख कर. अभी समलैंगिकता पर बहस चल रही है. हम शिखंडी जैसे महाभारत को चरित्र को भूल जाते हैं, विष्णु के मोहिनी रूप को दरकिनार कर देते हैं. अब एक और बहस चल गई है. सुना है कि मध्य प्रदेश में अब लड़कियों के कौमार्य का परीक्षण किया जानेवाला है. मेरा तो मन मयूर नाच उठा. आखिर घर की इज्ज़त हैं नारियां. तो कौमार्य नष्ट करके आनेवाली लड़कियों के चरित्र का क्या भरोसा? आगे जा कर क्या पता वह क्या गुल खिलाये, ससुराल की इज्ज़त को धूल धूसरित कर दे. इसलिए पहले से ही जांच कर घर लाओ.
मुझे केवल एक ही सवाल परेशान कर रहा है. करता रहता है. अब क्या कीजियेगा इस मूढ़ मगज का कि कोई सीधी सी बात मेरे भेजे में घुसती ही नही. यह कौमार्य परीक्षण केवल लड़कियों का ही क्यों? लड़कों का क्यों नही? क्या कौमार्य नष्ट करने या होने में लड़कों की कोई भूमिका नहीं? क्या कौमार्य घर के पुराने बर्तन -कपडे हैं जो उसे अकेले भी कोई नष्ट कर दे सकता है? क्या लड़कों के पास कौमार्य जैसा कोई तत्व नही होता? क्या लड़कों का कोई चरित्र नही होता? चलिए मान लिया कि कौमार्य परीक्षण में फेल लड़की की शादी नही होगी, जैसीकरानी, वैसी भरनी, तो उसके कौमार्य को नष्ट करने में जो वीर बालक सहायक की भूमिका निभा रहा होगा, उसके कौमार्य का क्या होगा? या यह मान लिया जाय कि लड़कों में या तो कौमार्य होता ही नहीं या उसके कौमार्य की चिंता की ही नही जानी चाहिए. आखिर को वह मर्द बच्चा है और इस तरह के तोहमत उस पर लगाना ठीक नहीं. यह हमारी हिन्दू संस्कृति का वीर बालक है. और वीर बालकों और वीर पुरुषों के बारे में कहा जाता है कि वे दस द्वार से भी आयें तो भी उन पर तोहमत नही लगाईं जा सकती. मेरा ही दिमाग खराब है. उल-जलूल बातें सोचने लगता है.
Tuesday, July 14, 2009
ओह, यह जकड़न
Monday, July 13, 2009
"ऐसा भी क्या मेजर!"
अन्यथा पत्रिका में छाम्माक्छाल्लो की एक कहानी"ऐसा भी क्या मेजर!" लिंक नीचे है। पढ़ कर ज़रूर बताएं।
www.anyatha.com/VibhaRani(10th)1.htm