छम्मकछल्लो की बात! भाई, अपन शाकाहारी हैं, सिर्फ भोजन से! मन में मांस और मांसलता घूमती रहती है। यह मांसलता देह से भी
जाहिर होती है। क्योंकि देह में ही मन है। बिना देह के भगवदगीता भी आत्मा की कोई व्याख्या नहीं कर पाती। और केवल आत्मा को देखने के लिए बिना देह का होना– माने अपुन तो खल्लास! फिर काहे का मन, काहे की आत्मा!
धत् तेरे की!
छम्मकछल्लो और उसका समाज – भ्रमित, दिग्भ्रमित, मनभ्रमित, देहभ्रमित! एक आम
भारतीय मध्यवर्ग की ऊहापोह से लबरेज! आखिर हम आते भी तो इसी वर्ग से हैं! उच्च
वर्ग तो अपने शीन-काफ-लाम-बाम में मस्त-व्यस्त
रहता है। वह शान से –‘द ग्रेट इंडियन मिडल क्लास’ भी लिखता है और इरोटिका भी – क्राइम फिक्शन भी
और पल्प फिक्शन भी। हर
लेखन में उसका बाजार है, उसकी मान है, प्रतिष्ठा है। वह तमाम फेस्टिवलों, आयोजनों
में बुलाया जाता है, वहाँ अपनी बात कहकर, दूसरों की सुनकर समृद्ध होता
है। वहां यह अवधारणा नहीं है कि अपनी बात कह दी और दूसरे की बात आने पर उठाकर चाय पीने
चल दिये। वहाँ यह कहकर नहीं दुरदुराया जाता कि छि:! महिला होकर इरोटिका! औरत होकर क्राइम और खून-खराबा वाला लेखन! राम-राम! हरे-हरे:!
लेकिन छम्मकछल्लो के समाज को यह सब गंदा और अश्लील
लगता है। उसे सबकुछ पर्दे के पीछे करना अच्छा लगता है, जैसे कुछ भले बाप अपने
बेटों को सीख देते हैं- “प्यार –व्यार ठीक है। दसियों से कर लो। खेलने-खाने की
उम्र है! लेकिन, शादी तो वहीं होगी, जहां हम चाहेंगे!” छम्मकछल्लो के लोग भी कहते हैं, रात
में जितना खेलना-कूदना है, खेल-कूद लो। रात इसीलिए तो बनाई गई है। लेकिन, इसे
लेखन में मत लाओ। लाए भी तो लेखक लाए- लेखिका तो हरगिज नही! जघन्य पाप है यह!
स्त्री-विमर्श के हंता, भजमंता दोनों परेशान
हैं- छम्मकछल्लो और उस जैसी अन्य लेखिकाओं द्वारा तथाकथित इरोटिका लिखे जाने से।
सभी को साहित्य और संस्कृति का हनन लग रहा है। लेखक जब लिखता है, संस्कृति
का रक्षक होता है। छम्मकछल्लो को याद आती है, बहुत पहले की एक कहानी।
उसे कहानी के लेखक या शीर्षक याद नहीं। लेकिन, कहानी का लब्बोलुआब यह
था कि एक माँ अपनी कुछेक माह की बच्ची को उसके पिता के पास छोड़कर बाजार गई है।
बच्ची ने डाइपर गीली कर दी है। अब सारी कहानी उसी के पीछे है कि बाप कैसे अपनी
बच्ची का डाइपर बदले! बदलते समय बच्ची नंगी हो जाएगी। वह उसके नंगे जिस्म को कैसे
छू पाएगा? छूते समय वह खुद को कैसे संतुलित रख पाएगा? उसके नंगेपन को देखकर वह
कैसे खुद को जज़्ब कर पाएगा?
सच कहते हैं, छम्मकछल्लो का माथा घूम गया। उस लेखक और उसके माध्यम
से उस पात्र के प्रति मन घृणा से गिनगिना गया। चंद महीने की अपनी ही बेटी के प्रति
अगर किसी बाप के मन में ऐसे विचार उमड़े तो ऐसे बाप को तो वहीं समाज और घर निकाला
दे दिया जाना चाहिए। ऐसे-ऐसे महान पुरुष हों तो इस भारतीय संस्कृति और साहित्य का
तो ऊपरवाला ही मालिक है। लेकिन, उससे भी महान बात तो यह हुई कि अन्य लेखक और समीक्षक
भाइयों ने उसे घोर ही नहीं, घनघोर यथार्थवादी लेखन करार दिया।
छम्मकछल्लो के मन में आया कि पूछे, “भाई, ऐसे
मे तो औरत हर समय काम- दग्ध होती रहेगी। बेटे को जन्म देने से लेकर कम से कम 5-6
साल तक तो वह उसे नहलाती –धुलाती है ही, दिन भर में कई-कई बार उसकी
नैप्पी बदलती है। बिचारी औरत! अब अगर वह उसी लेखक की तरह धर्म संकट में पड़ी तो
सबसे पहले हमारे यही लेखक-समीक्षक उसमें माँ का महान रूप खोजने लग जाएंगे और नारी
या उस महिला पात्र की खील-बखिया उधेड़ देंगे। साथ ही, उस लेखिका के खिलाफ
भारतीय संस्कृति के क्षरण का इलज़ाम लगाकर उसपर केस-मुकदमा भी ठोंक दें तो कोई
हैरानी की बात नहीं होगी।
हाय रे छम्मकछल्लो! आज भी औरत की सबसे बड़ी पहरेदारी उसकी देह को
लेकर है। औरत देह से शुद्ध तो सबकुछ शुद्ध। याद है अपर्णा सेन की फिल्म “परोमा” या
दीपा मेहता की “फायर”? देह के खुलते ही परोमा को घर में सबसे नफरत भरी
दृष्टि मिलने लगती है तो ‘फायर’ में सास की सेवा कर रही शबाना आजमी पर सास थूक देती
है। ध्यान दें, दोनों ही चरित्र अपने कर्तव्य-पालन में कहीं से चूकी नहीं हैं। परोमा बनी
राखी भी घर के सारे काम पूर्ववत करती रहती है और शबाना आजमी भी सास की सेवा। लेकिन, अपनी
देह और उसकी आज़ादी पर ध्यान रखते ही उसके ऊपर से लोगों के भाव बदल जाते हैं। क्या
पुरुषों के साथ ऐसा संभव है? यदि हाँ, तो ऐसी कहानी लिखने या
ऐसी सोच रखनेवालों के प्रति समाज क्यों नहीं उठता? महिलाओं को देह और सोच
की आजादी क्यों नहीं मिल रही? देह पर लिखनेवालियों के प्रति छम्मकछल्लो का लेखन –समाज
इतना कठोर और क्रूर क्यों है? छम्मकछल्लो को जवाब नहीं मिल रहा। आपके पास है तो
दीजिये, ज़रा! ###
1 comment:
हम और हमारा समाज दोहरी ज़िन्दगी जीते हैं...दोहरी ज़िन्दगी में भी कई परतों वाला पर्दा होता है....आपने पर्दे के पीछे वाला सवाल पूछ लिया....कोई कैसे जवाब दे !!!!
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