मांगिए मांगिए, साल के 365 दिन को राष्ट्रीय पर्व घोषित करने की मांग कीजिए. मांगने में क्या जाता है? मांगने का मतलब यह थोडे ना है कि मिल ही गया. हमारे पास मुद्दे हैं नहीं. मुद्दे तो वैसे देश में बहुत हैं, भूख, गरीबी, गुंडागर्दी से लेकर बेरोजगारी, भाषा, संस्कृति, नीति, ईमानदारी और पता नहीं क्या क्या? मगर ये सब स्थाई मुद्दे हैं, इतने कि मुद्दे बदल कर मुर्दे हो गए हैं. मुर्दे से एक दिन का प्रचार मिल सकता है, स्थाई नहीं. संत भाव से काम करनेवाले पर प्रेस और मीडिया कभी कभार मेहरबानी करते हुए उस पर दो चार लाइन लिख देता है. मगर देखिए, अगर कोई किसी को मार दे, छेड दे, हत्या कर दे, नंगा कर दे, रेप कर दे तो कितने कितने दिन तक वह खबरों के केंद्र में रहता है. महसूस कर रहे हैं न?
एक नेता जी ने कहा कि उनके यहां का एक स्थानीय पर्व अब राष्ट्रीय पर्व का रूप लेता जा रहा है, क्योंकि स्थानीय लोग देश भर में रहते हैं. पहले पर्व अपने मन, भाव, घर की शुद्धि और बाल बच्चों के कल्याण के भाव से किया जाता था. अब वह माइलेज के लिए किया जाता है. नेताओं को पता होता है कि उनकी बात लोग सुने ना सुने, प्रेस और मीडिया ज़रूर सुनता है, इसलिए वे सुनाते हैं. प्रेस और मीडिया सुनता है,.
छम्मकछल्लो आनंद में आ गई. पर्व त्योहार प्रधान देश में ये सब मांगें बिलकुल जायज हैं. धर्म ही ना हुआ तो जियेंगे कैसे? धर्म अफीम है और इसकी पिनक में रहना ज़रूरी है. राज, व्यवस्था, जनता चाहे भाड में जाए.
छम्मकछल्लो को दुख है कि साल में 365 दिन ही क्यों हैं? 730 दिन क्यों नहीं? 365 दिन तो कम पड गए हैं दिवस मनाते मनाते. दिन की तंगी के कारण एक दिन में कई-कई पर्व, त्योहार, समारोह मनाने पडते हैं. दिन की महत्ता एक दूसरे के ऊपर चढ बैठती है. ताकतवर की बात ऊपर आ जाती है. कितने लोगों को याद रहता है कि 2 अक्तूबर को शास्त्री जी भी पैदा हुए थे? . छम्मकछल्लो को दिन की कमी पर दया आती है. वह सभी को सलाह देना चाहती है कि मांगना ही है तो 365 से कम से कम दूना 730 दिनों का साल मांगिए, ताकि अपने सभी राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय, घरेलू, मोहल्ले और घर विशेष के भी सभी पर्व त्योहारों को राष्ट्रीय पर्व मान लिया जाए. जितने पर्व, उतने अवकाश. काश कि साल के सभी 365 दिन अवकाश रहते. कितना मज़ा आता, घर बैठे ही तनख्वाह मिलती रहती. दफ्तर आने जाने की किच किच से छुट्टी. इसलिए हर दिन एक त्योहार घोषित कीजिए सार्वजनिक अवकाश की मांग भी कीजिए. अवकाश मिले ना मिले, नाम तो मिलेगा न!
4 comments:
धर्म ही ना हुआ तो जियेंगे कैसे? धर्म अफीम है और इसकी पिनक में रहना ज़रूरी है. राज, व्यवस्था, जनता चाहे भाड में जाए. ..
छम्मकछल्लो को दुख है कि साल में 365 दिन ही क्यों हैं? 730 दिन क्यों नहीं? 365 दिन तो कम पड गए हैं दिवस मनाते मनाते. ..
बिलकुल काम हैं ...बल्किन पूरी तरह नाकाफी हैं...उत्सव मानाने के लिए...चलिए चल के स्वर्ग पूरी के आगे धरना प्रदर्शन करते है...भगवन कुछ दिन साल में और जोड़ दो..PLZ
श्याम, किस भगवान ने दिन, महीने, साल बनाए हैं, छम्मकछल्लो को नहीं पता. इस धरती के लोगों ने बनाए हैं, यह उसे पता है. यहीं के तो चोंचले हैं. यहीं धरना, प्रदर्शन.....! सबकुछ....
आपके ब्लॉग पर लगा हमारीवाणी का कोड पुराना है, यह कोड बदल गया है. कृपया हमारीवाणी पर लोगिन करके अपने ब्लॉग के लिए नया कोड प्राप्त करें.
"दिन की तंगी के कारण एक दिन में कई-कई पर्व, त्योहार, समारोह मनाने पडते हैं."
इतना गहन और चटपटा आपके अलावा और कौन सोच सकता है :) मज़ा आ गया !
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