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छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

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Friday, January 21, 2011

मूरख! अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय सम्मान ऐसे थोडे ना मिलता है!

छम्मकछल्लो खुश है. उसे एक कहावत याद आ गई-‘बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा?” छम्मकछल्लो का भी नाम है, यह जानकर वह और भी खुश है. इतना नाम कि उसे सम्मानित करने का प्रस्ताव आ गया. साहित्यकारों को सम्मानित करने की बात पर उसे बाबा नागार्जुन का कथन याद आता है- ‘जब मुंह में दांत और पेट में आंत थे, तब किसी ने नहीं किया सम्मानित. अब मुंह में न दांत है और पेट में न आंत, तो सभी सम्मानित कर रहे हैं.
छम्मकछल्लो भी उसी उम्र के इंतज़ार में थी कि बीच में ही उसे सम्मानित करने का प्रस्ताव आ गया. मन हुआ, कहे, “अभी तो उसके मुंह में दांत भी है और पेट में आंत भी. तो सम्मानित कैसे कर रहे हैं?” मगर लगा कि जब टीवी और फिल्म में मां और सास अपने बेटे बेटी और बहू की बडी बहन जैसी उम्र की होने लगी है, तो शायद यह अभिनव परिवर्तन साहित्य के क्षेत्र में भी हो गया होगा. भरी जवानी में (साहित्य में 50 की उम्र जवान ही है) कोई तुझे सम्मानित करा रहा है तो करा ले ना मूरख.”
सज्जन ने फोन किया- “मैथिली के इस अंतर्राष्ट्रीय मंच पर हम आपको सम्मानित करने जा रहे हैं. सहमति दीजिए.”
सहमति सोने का सिक्का तो है नहीं. दे दी.
“नाम लिखवा दीजिए, स्पेलिंग मिस्टेक ना हो.” चलो जी, लिखवा दिया.
“ठीक है, आप इस जगह पर आ जाइयेगा.”
छम्मकछल्लो ने निर्लज्जता से पूछा-, “समारोह स्थल पर वह खुद से पहुंच जाएगी, मगर चेन्नै से मुम्बई तक वह कैसे जाएगी?” सज्जन ने भी उतनी ही निर्लज्जता से कहा कि यह हमारी व्यवस्था में नहीं है.
यह अंतर्राष्ट्रीय मंच है. अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपने द्वारा सम्मानित करनेवालों के लिए उनके पास कोई व्यवस्था नहीं है. सज्जन ने साफ किया, “हमेंलगा कि आप मुंबई में हैं.”
छम्मकछल्लो खुश है उनकी साफगोई पर. कई तो कह देते हैं, “आ जाइये, हम देख लेंगे.” बाद में सहमति का वह ‘देख लेना’ असहमति और असम्मान का झोलंगा बन जाता है. छम्मकछल्लो के साथ कोलकाता में कुछ साल पहले ऐसा हुआ, जब उसके नाटक “पीर पराई” के मंचन के समय उसे सादर(?) बुलाया गया, हवाई जहाज से. आजतक किराए का भुगतान हो रहा है.
सम्मान का यह नज़ारा हर जगह है. एक राजभाषा सम्मान समारोह में आयोजक ने लगभग सभी को सम्मानित कर दिया. शॉल कम पड गए. उन्होंने सम्मानित किए व्यक्तियों के बदन के शॉल ले ले कर दूसरो को सम्मानित कर डाला. फोटो में सब आ गए. सम्मान करनेवाला भी खुश, सम्मान पानेवाला भी खुश. राजभाषा सम्मान के दूसरे आयोजक कहते (अघोषित) हैं, “प्रथम द्वितीय, तृतीय पुरस्कार आपके बैनर/विज्ञापन राशि के आधार पर दिया जाता है. जितना बडा विज्ञापन, उतना बडा इनाम.
हिंदी के एक कवि अपने ही नाम से अखिल भारतीय स्तर (?) का पुरस्कार देते हैं. पुरस्कार राशि अभी भी सौ के आंकडे में है, सम्मान पाने की शर्त है, “आपको मुंबई अपने खर्चे से आना-जाना, रहना, खाना है. न आने की स्थिति में पुरस्कार डाक से भेज दिया जाएगा.”
एक तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय फोरम है, सभी से Who is who? की जानकारी लेते हैं. बडे भव्य तरीके से छापने की गौरव गाथा बयान करते है और साथ में एक अच्छी खासी राशि अमेरिकी डॉलर में मांगते हैं. लोग देते भी हैं, अकह्बारों में फख्र के साथ छपाते हैं कि उनका नाम इस संस्था के लिए चयनित हुआ है.
हमारे भीतर भी शर्म नहीं है और हमारी निर्लज्जता का फायदा ये उठाते हैं. हम ऐसी जगहों पर भी अपनी प्रविष्टियां भेजते हैं, सम्मानित होने की ललक में दौडे चले आते हैं. उनके नौ की लकडी में अपने नब्बे खर्चते हैं. आयोजकों के मज़े हैं- “हर्र लगे ना फिटकिरी, रंग चोखा आए.”
छम्मकछल्लो अहमक है, मूर्ख है. उसने आयोजक के चोखे रंग में रंगने से इंकार कर दिया. पर उसे पता है, आयोजक किसी और मुल्ले को पकडेंगे, वे जाएंगे, सम्मानित होंगे, सम्मान की अपनी फोटो अपने ही कैमरे या मोबाइल से खिंचवाएंगे, उसे अपने ड्राइंगरूम में लगाएंगे, उसका जगह जगह बखान करेंगे. आखिर को सम्मानित हुए हैं भाई! अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय सम्मान ऐसे थोडे ना मिलता है!

4 comments:

रेखा श्रीवास्तव said...

क्या सोच रही हैं? जाइए और सम्मानित हो आइये. सोच लीजिये की घर जा रहे हैं - सम्मान मुफ्त का मिल जायेगा. ये सम्मान के नाम पर जो धंधा चलता है , सारे राजनीतिक फंदे हैं और खुद को लाइम लेते में लाने के तरीके हैं.

Vibha Rani said...

जी, सही कह रही हैं. पर ये बताइये कि आपका इरादा कहीं रासःट्रपति बनने का तो नहीं ह? सिर पर पल्लू. या फैशन स्टेटमेंट. यह सब आजकल फैशन में आता है, परम्परा में नहीं

Unknown said...

ha ha ha

Vibha Rani said...

कहां हैं अलबेला जी आजकल आप?