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Friday, November 12, 2010

क्या देवियों को माहवारी नहीं आती?

   छम्मकछल्लो परेशान रहती है. तन की परेशानी तो वह झेल लेती है, मगर मन अहमक बडा बेहूदा है. जब-तब, जिस तिस रूप में उसे परेशान करता रहता है. सबसे बडी परेशानी तो यही है कि वह लडकी बनकर क्यों जन्मी? लडकी नहीं बनती तो लडकी से सम्बंधित परेशानियों से दो चार नहीं होती और ना ही अपने ही कारण अपनी ही परेशानी का सबब बनती.
    छम्मकछल्लो को ऊपरवाले विधाता, नियामक या निसर्ग से कोई परेशानी नहीं है. उसने तो इतना बढिया मनुज तन हमें दे कर भेजा है इस धरती पर. मगर इस धरती के विधाता या नियामक की बडी बडी बातें वह समझ नहीं पाती. क्या करे! औरत जो ठहरी! कम अकल, मूढ मगज!
    ये सभी विधाता या नियामक देवियों की बातें करते हैं. छम्मकछल्लो की समझ में यही आता है कि देवियां तो स्त्री रूप ही हुईं. इन विधाताओं या नियामकों को भी उनको स्त्री मानने से कोई उज़्र नहीं, मगर स्त्रियों की स्त्रियोचित बातों को मानने समझने से है. छम्मकछल्लो की परेशानी बढ जाती है जब ये सभी विधाता या नियामक देवी को अलग और स्त्रियों को अलग करके देखने लगते हैं. स्त्री को देवी के रूप में देखते ही वह सर्वशक्तिमान, समर्थ, दुश्मनों का नाश करनेवाली, सभी दुखों को दूर करनेवाली हो जाती हैं और इसी देवी के स्त्री रूप में परिवर्तित होते ही वह सभी बुराइयों की जड, कमअक्ल, मूरख, वेश्या, छिनाल, वस्तु, नरक की खान और जाने क्या क्या हो जाती है.
    छम्मकछल्लो को लगता है कि कभी भूलवश किसी सिरफिरे संत या विचारक ने स्त्रियों को देवी की परम्परा में डाल दिया, जिसे हमारे महान लोग अबतक आत्मसात नहीं कर पाए, इसलिए उसको कमअक्ल, मूरख, वेश्या, छिनाल, वस्तु, नरक की खान जैसे तमाम विशेषणों से अलंकृत करके छोड दिया कि “ले, बडी देवी बनकर आई थी हमारे सर चढने, अब भुगत!”
    छम्मकछल्लो इस समाधान से खुश हो गई. लेकिन उसके दिमाग में फिर भी एक कीडा काटता रहा. वह यह कि स्त्री से परे देवी की परिकल्पना सुंदर, सुडौल, स्वस्थ रूप में की जाती है. सभी देवियों की मूर्तियां देख लीजिए. सुंदर, सुडौल, स्वस्थ देवी की परिकल्पना से छम्मकछल्लो के कुंद दिमाग में यह भी आने लगता है कि इस सुंदर, सुडौल, स्वस्थ देवी को स्त्री शरीर की रचना के मुताबिक माहवारी भी आती होगी? और यदि माहवारी आती है तब तो उनके लिए भी मंदिरों के पट चार दिनों के लिए बंद कर दिए जाने चाहिए? उन्हें भी अशुद्ध माना जाना चाहिए. अपनी जैवीय संरचना के कारण ऋतुचक्र में आने पर स्त्रियों को अशुद्ध माना जाता है, तो देवियों को क्यों नहीं? वे भी तो स्त्री ही हैं. एक बार कहीं पढा कि देवी के एक मंदिर की चमक अचानक कम पाई गई. एक अभिनेत्री ने अपने अपराध बोध से उबरते हुए कहा कि वह उस मंदिर में अपनी माहवारी के समय गई थी. वो हंगामा बरपा कि बस. छम्मकछल्लो पूछना चाहती थी कि मंदिर देवी का, मंदिर मे माहवारी के दौरान जानेवाली भी स्त्री, तब देवी क्या बिगडैल सास बन गई कि अपनी ही एक भक्तिन से पारम्परिक सास-बहू वाला बदला निकालने लगी और अपनी चमक कम कर बैठी. छम्मकछल्लो को तो यही समझ में आया कि ज़रूर उस समय देवी को भी माहवारी आई होगी, अधिक स्राव हुआ होगा. अधिक स्राव के कारण क्लांत हो कर मलिन मुख हो गई होंगी. विधाताओं या नियामकों ने डॉक्टरों को तो दिखाया नहीं होगा. वैसे भी छोटी छोटी बीमारियों में औरतों को डॉक्टरों के पास ले जाने का रिवाज़ कहां है अपने यहां? बस, प्रचार कर दिया कि वे अशुद्ध हो गईं.
   देवी को पता नहीं किन किन नदियों के जल से शुद्ध किया गया होगा. छम्मकछल्लो फिर से फेर में पड गई कि यह शुद्धि भी किससे? नदियों से. नदियां भी तो स्त्री रूप ही मानी जाती हैं ना! तभी उसके दिमाग की घंटी बजी, नहीं, नहीं, शुद्धि नदियों से नहीं, नदियों के जल से. अब जल, पानी, नीर सभी पुरुष माने गए हैं. तो आ गए न राम की तरह उद्धारकर्ता जल महाशय! ज़रा समझाइये इस मूरख छम्मकछल्लो को. खामखां फितूर पैदा करती रहती है.

17 comments:

अन्तर सोहिल said...

गहरा कटाक्ष किया है आपने, इस पुरुषवादी समाज पर
औरतों को देवी भी पुरूष समाज ने अपने फायदे के लिये ही बनाया है।

प्रणाम

अन्तर सोहिल said...

सीता की पूजा की है, द्रोपदी की नहीं
मेरे विचार में सीता से ज्यादा द्रोपदी पूज्य होनी चाहिये।

प्रणाम

विजय तिवारी " किसलय " said...

विभाजी
आपकी मानसिकता के अनुरूप ये आलेख भले ही आपको अच्छा लगे परन्तु
क्या भारतीयता और धार्मिक सन्दर्भों में ये बातें आपको शोभा देती हैं?
कोई भी असम्मानजनक या आस्था को ठेस पहुँचाने वाले शब्द या अभिव्यक्ति को लोग अपने ईश्वर के लिए व्यक्त नहीं करते.
जिस तरह कि स्वयं आप या कोई भी महिला अपनी सगी बेटी , बहिन, बहू या स्वयं की माहवारी, गर्भाधान या गर्भपात का ढिंढोरा नहीं पीटतीं. हमें सदा यह ध्यान रखना होगा कि हम इंसान हैं देवी-देवता नहीं. उनमें हमसे परे शक्तियाँ और हमसे परे संरचनाएँ भी होती हैं जैसे गणेश,दुर्गा , ब्रह्मा, विष्णु आदि को ले लें .. या हो सकता है वे उस समय स्वयं मंदिर में नहीं रहतीं होंगी, तब आप क्या कहेंगी ????????
- विजय तिवारी ' किसलय' , जबलपुर

हिन्दी साहित्य संगम जबलपुर

Vibha Rani said...

विजय जी, ईश्वर को किसी ने देखा नहीं है. ईश्वरत्व हम सबमें है. इसी की पहचान कर लेना अपनी आस्था है. मेरा ध्यान बस अपने इतने अच्छे धर्म की अच्छाई को सामने लाने पर है और इस बात पर कि लोग उसे देखें, उसके नाम पर तथाकथित आस्था, अंध श्रद्धा आदि से उसे ना जोदें. ढिंढोरा पीटनेवाली बात तो अपना दान धर्म भी नहीं है. इसीलिए शाश्त्रों में गुप्त दान की बात कही गई है. अगर देवी 'उस समय' मंदिर से चली जाती हैं तो चमक वैसे ही फीकी पड जाएगी. उसके लिए इस धरती पर की स्त्री कैसे दोषी हो जाती हैं?

दीपशिखा वर्मा / DEEPSHIKHA VERMA said...

आप बिलकुल खरी खरी और हटके बात करती हैं .मुझे भी कई बार समझ नहीं आता कि स्त्री को उस समय अपवित्र क्यूँ माना जाता है .बल्कि मैं तो उन दिनों खुद को सबसे ज़्यादा पवित्र समझती हूँ कि मुझमे एक जीवन का एक बीज बसता है.जब छोटी थी , ये बातें नयी थीं ..तब इस मामले में माँ की अक्सर सुना और माना करती थी , पर बढ़ते बढ़ते बायो पढ़ा और जाना की जिसे लोग गन्दा खून कहते हैं , वो सबसे ज़्यादा ओक्सिजिनेटेड ब्लड होता है .

भगवान और मंदिर से ज़्यादा लगाव नहीं है , इसलिए ज़्यादा अखरते भी नहीं वो दिन . . .

नकारात्मक कमेन्ट के चलते , इन सब विषयों पे बात कभी रुकनी नहीं चाहिये . धर्म की धूल ही ऐसी है कि कभी कभी सच पे चढ़ जाती है वो सच व्यक्त किया जाए तो लोगों को थोड़ी ठेस तो लगती है .

36solutions said...

जिस भाव से आपने यह आलेख लिखा है उसके आधार पर हम आपके विचारों से सहमत हैं, रही बात आलेख के शीर्षक की तो देवियों को माहवारी बिल्‍कुल आती होगी और देवी-देवता टट्टी भी करते होंगें किन्‍तु हमारी आस्‍था मंदिरों में देवी-देवताओं के टट्टी करती मूर्तियॉं को स्‍थापित करने से रोकती हैं। ठीक उसी प्रकार से जैसे कि हम अपने माता पिता के संभोग से उत्‍पन्‍न हुए हैं फिर भी जब अपने माता-पिता के चित्र की कल्‍पना अपने मन में करते हैं तो उनके संभोगरत चित्र की कल्‍पना नहीं करते. लीक से हटकर सोंचने की कोशिस हम कर ही नहीं पाते.

photo said...

mam y aap k man may kitni gandge bhara hay osay darsata hay

sameer yadav said...

क्षमा करेंगे, सब जायज है...मुद्दा भी सही है. लेकिन स्त्री और उसकी समस्याओं पर विमर्श करते हुए क्या आराध्य के प्रति अपेक्षित मर्यादा को यूँ अनावृत कर दिया जाये. तथाकथित देवी-देवता तो कभी हमारे ग्रह पर उपस्थित होकर इन स्त्रीजनित नियम कायदे को नहीं बनाए होंगे, जिन पर लेख केन्द्रित है. हाँ उनके प्रतिनिधियों ने यह किया है. जो कभी आपकी वेदनाओं के लिए प्रत्यक्ष जिम्मेदार नहीं, आपके प्रश्नों पर अपना पक्ष नहीं रख सकते. उनके प्रति ऐसी वैचारिक नग्नता क्यों ? आक्रोश पुरुष, समाज, रुढियों के प्रति है...लेकिन निशाना मस्त राम साहित्य की भाषा शैली से अदृश्य "बिगबॉस" पर.

विजय तिवारी " किसलय " said...

Vibha Rani said... विजय जी, ईश्वर को किसी ने देखा नहीं है. ईश्वरत्व हम सबमें है. इसी की पहचान कर लेना अपनी आस्था है. मेरा ध्यान बस "अपने इतने अच्छे धर्म" की "अच्छाई" को सामने लाने पर है और इस बात पर कि लोग उसे देखें, उसके नाम पर "तथाकथित आस्था, अंध श्रद्धा" आदि से उसे ना जोड़ें. ढिंढोरा पीटनेवाली बात तो अपना दान धर्म भी नहीं है. इसीलिए शास्त्रों में गुप्त दान की बात कही गई है. अगर देवी 'उस समय' मंदिर से चली जाती हैं तो चमक वैसे ही फीकी पड़ जाएगी. उसके लिए इस धरती पर की स्त्री कैसे दोषी हो जाती हैं?
विभा जी,
नमस्कार.
मेरी बात आप तक पहुंची, आपने पुनः बहाना व्यक्त की.
सच मानिए. यह आपके लिए व्यक्तिगत न होकर सामान्य बात थी.
"अपने इतने अच्छे धर्म"
"अच्छाई"
"तथाकथित आस्था, अंध श्रद्धा"
जब आप इन बातों का उल्लेख कर रही हैं तब
मैं समझता हूँ इसके आगे मुझे और कुछ नहीं कहना चाहिए.
गंभीर चिंतन, मनन एवं अध्ययन से आप खुद ही इन बातों की मूल तक पहुँचने में सक्षम हैं.
और रही बात ईश्वर को देखने या न देखने की तो मैं भी बेहद स्पष्टवादी और सकारात्मक प्रवृत्ति का हूँ. मैं भी रूढ़िवादिता में किंचित विश्वास नहीं करता.
मेरी पंक्तियाँ स्वयं सिद्ध हैं --

ईश वंदन स्थली हैं,
दीन-दुखियारों के घर.
नित्य सेवा-साधना में,
जाए कट सारी उमर..

अतः आप मेरी भावनाओं को अवश्य समझेंगी.
आपका
- विजय तिवारी "किसलय'
हिन्दी साहित्य संगम जबलपुर

विजय तिवारी " किसलय " said...

विभा जी,
नमस्कार.
मेरी बात आप तक पहुंची, आपने पुनः बहाना व्यक्त की.
सच मानिए. यह आपके लिए व्यक्तिगत न होकर सामान्य बात थी.


कृपया ""आपने पुनः बहाना व्यक्त की."" के स्थान पर ""आपने पुनः भावना व्यक्त की."" पढ़ें
यांत्रकीय त्रुटी के लिए खेद है

Vibha Rani said...

@विजय जी, आपकी बातें मैं समझ रही हूं. आपके प्रतुत्तर के लिए आभार. संजीव जी, निस्संदेह हम अपने से बडे और आरध्यों के प्रति आदर भाव रखते हैं. आपने सही कहा कि हम अपने माता पिता के सम्भोग से पैदा हुए हैं और देवी देवता टट्टी सूसू भी करते होंगे. परंतु, माता पिता के सम्भोग को या देवी देवता के टट्टी को गर्हित कर्म के रूप में नहीं देखा जाता, जबकि स्त्रियों की माहवारी तो उसकी शुद्धता अशुद्दहता से जोड दी गई है. स्त्रियों के हर कर्म के पीछे दस तर्क हैं. आपने सू सू पंटी की बात की है तो आप यह भी देखते होंगे कि इस प्राकृतिक ज़रूरत को तो समाज की एक आबादी सडक पर निपटा देती है, और दूसरी आबादी को इसके लिए कोना तलाशना पडता है. अगर कहीं वह सडक किनारे बैठ गई तो निर्लज्ज हो जाती है. इन बातों से उबरने की ज़रूरत है. हम पहले मनुष्य हैं, फिर स्त्री पुरुष, फिर सगे सम्बंधी.

shyam gupta said...

भई, जैसा प्रक्रति व ईश्वर या विग्यान--जो भी जैसा समझे ने अन्तर बनाया है वह रहेगा ही, गन्दगी की मूर्खतापूर्ण बातों से व्यर्थ में अपने मन को ही कष देना होता है।
--छम्मक छल्लो जी बतायें कि क्या वे स्वयं पुरुषॊ के साथ कच्छा( बिना अधोवस्त्र) पहनकर नहा सकती हैं, सडक पर मल व ,मूत्र त्याग के लिये खुले में बैठ सकती हैं?
---समाज न पुरुषवादी होता है न महिलावादी--बस यथातथ्यों पर ध्यान रखना पडता है सभी को।
-- मासिक धर्म का अर्थ ही है --धर्म अर्थात आवश्यक क्रिया---इसको वास्तव में अपवित्र थोडे ही मानाजाता है अपितु उस समय स्त्री विभिन्न इन्फ़ैक्सनों के प्रति संवेदनशील होती है एवं रक्त बहने से अशक्त होती है, कार्य करने से अधिक रक्तस्राव की सम्भावना रहती हैजो कपडों में व अन्य स्थानों में टिप-टिप कर सकता है’ अतः दैनिक कार्य से दूर रखा जाता था। आज इस सेनिटेरी नेपकिन के जमाने में कितनी महिलाओं को और कितने लोग अस्पर्श्य मानते है? गांवों में जहां ये सुविधाएं नहीं है बाहां ही यह चलन है पर अस्प्र्श्यता की बात आज वहां भी नहीं के बरावर है। व्यर्थ की लकीर पीट कर पना नाम करना ही एसे लोगों का मूल उद्देश्य होता है।

Vibha Rani said...

डॉ. श्याम गुप्ता जी, बहुत सही तरीके से आपने विज्ञान के माध्यम से व्याख्यायित किया है और यही इस लेख का उद्देश्य है. न मैं नग्नता की बात करती हूं, ना उसकी पक्षधर हूं. कोई भी सम्वेदंशील और साफ सफाई के आग्रही पुरुष या स्त्री सडक किनारे नहीं बैठ सकते. परंतु इसे धर्म और स्त्री पुरुष के खाके में बांध देने पर दिक्कत शुरु होती है. और यही कि जब यह हमारी शारीरिक संरचना का हिस्सा है तो इसे ऐसा अशुद्ध या अपवित्र क्यों माना जाता है कि आप मंदिर ना जा सकें, पूजा ना कर सकें, अचार और घी ना छू सकें. इस ढोंग से उबरने की ज़रूरत है.

Anonymous said...

Dear Chhammakchhallo, Read "Kya deviyo ko Mahvari nahi Aati?". Cool writing. If i am not wrong Kamaksha Devi Temple in Assam closes its Grabhgriha for three day for Men, when it is belived that the Devi is going through her Mahvari. - KoolDevil

Vibha Rani said...

Thanks Anonymus! If Kamakhya temple is kept closed for 3 days in every month, perhaps it is with this belief that at Kamakhya, YONI of Sati was fallen. But what about other temples of Devi? And what is wrong if women go with this natural cycles like our any other natural calls? Our other natural calls are not considered as 'Apavitra" then why this period?

Unknown said...

baat kuchh lakeer se hat gayee. shayad vibhaa ji jo kahna chahtee thee usse kuchh kee aastha par chot lagee aur kuchh vimarsh bhee saamne aaya.

shuddh ashuddh kee baat alag hai lekin is samay ke baad stree aur nirmal aur nirmal aur nirmal jaror ho jatee hai. purush ke liye aisee koi vyabasthaa karne mai vidhataa se chook hui lagtee hai.

you rocks in your writting vibha ji

shiva abhimanyu singh said...

vibha ji mujhe aapka lekh bahut accha laga sath hi ye bhi taslli mili ki mera sath dene wala bhi koi hai,in vicharo ke karan mujhe bhi aksar alochna sunni padti hai lekin irada kisi ki dharmik bhawna ko thes pahuchane ka nahi hota, lakshya ekmatra yahi hai ki humre samajh me astha aur riti-riwaz ke naam par jo pakhand hota hai use door karein lekin aisa karne wale ko log nastik kahne lagte hai jabki aisa nahi hai..........