छठ पर्व अभी अभी बीता है. छठ पर्व की बडी महत्ता है. सभी धर्म और सभी पर्व की बडी महत्ता है. आजकल पर्व की महत्ता की जगह महत्वाकांक्षा की महत्ता समाने लगी है. महत्ता हो और महत्ता की राजनीति ना हो, ऐसा कभी भी, किसी भी काल या देश में नहीं होता है.
लोग पर्व की महत्ता गाते हैं और अपनी महत्ता जताते हैं. महत्ता फिर आगे बढ कर ताकत और ताकत प्रदर्शन से जुड जाता है. फिर वह बाहुबली का खेल हो जाता है. जो जितना बडा बलवान, उसकी महत्ता उतनी ही महान. महान की महत्ता में पर्व की महत्ता दम तोड देती है. इससे किसी का कुछ नुकसान नहीं होता. नुकसान भौतिक चीज़ों का होता है तो वह दीखता है. हाथ-पैर टूटने फूटने का नुकसान देखता है. मन के टूटने फूटने का?
बिहार के लोग पहले भी सभी देश, राज्य में बसे हुए हैं. जो जहां रहता है, वहीं अपना पर्व मनाता है. सभी के लिए सम्भव नहीं होता, हर साल गांव घर का रुख करना. पहले बिहारी किसी अन्य प्रवासी की तरह ही जहां हैं, वहीं अपना पर्व मनाते थे, बगैर किसी शोर शराबे के, पूरे आस्था और विश्वास के साथ. फिर अचानक से इसमें महत्ता का बल जुड गया. फिर व्रत को जन साधारण से जोडने की मुहिम चल पडी. मुंबई में जुहू तट भर गया.
अब भीड जमा हुई, तो भीड का मनोरंजन भी चाहिये. श्रद्धा और आस्था गई भाड में. मनोरंजन का स्तर धीरे धीरे कैसे नीचे सरकता है, इसे साल दर साल के प्रोग्राम से समझा जा सकता है. इस बार मुंबई के छठ घाट पर बने बडे स्टेज पर कोई गीत गानेवाली कमर लचका लचकाकर गा रही थी- “बीडी जलाए ले जिगर से पिया, जिगर मां बडी आग है.” वह इशारे भी कर रही थी कि आओ भाई, इस जिगर की आग को बुझाओ, तनिक बीडी जलाओ.
दिल्ली में छठ घाट पर लेजर शो था. उसमें आलिंगनबद्ध युवा थे और उसके बाद सस्ते और फूहड तरीके से दिल में चला हुआ तीर और फिर अंग्रेजी में “I Love You!”
छठ पर्व पर गाए जानेवाले सभी पारम्परिक गीत गुम हो गए. छठ घाट पर मनोरंजन चाहिए या श्रद्धा? छम्मकछल्लो नहीं समझ पा रही. कल को इन घटिया मनोरंजन के कारण छठ जैसे पर्व में भी हल्कापन आयेगा और टिहकारियों-पिहकारियों पर छठ न मनानेवाले लोग नाखुशी ज़ाहिर करेंगे तब मामला सीधा सीधा श्रद्धा से जुड जाएगा. फिर नारे छूटेंगे, गालियां फूटेंगी, बाहुबल के प्रदर्शन होंगे, अखाडेबाज़ी के अड्डे बनेंगे. सबकुछ होगा, केवल श्रद्धा और आस्था नहीं रहेगी. तब श्रद्धा और आस्था यकीन मानिए, भाव से व्यक्ति हो जाएंगी और लोग पूछ बैठेंगे, “ये श्रद्धा और आस्था कौन है? कहां रहती हैं? दोनों बहने हैं? क्या इनका इस छठ पर्व से कोई सम्बंध है? क्या ये सूर्य की पत्नियां हैं या कुछ और लगतीहैं?” उत्तर दीजिए. छम्मकछल्लो को तो नहीं सूझ रहा कुछ भी!
Tensions in life leap our peace. Chhammakchhallo gives a comic relief through its satire, stories, poems and other relevance. Leave your pain somewhere aside and be happy with me, via chhammakchhallokahis.
Friday, November 19, 2010
Wednesday, November 17, 2010
सलाह का मुफतिया बाज़ार!
हम आपको सलाह देने आए हैं- मुफ्त के, मानिए. मानने के बडे फायदे हैं. सबसे बडा तो यही कि तब आप भी ऐसे मुफतिया सलाह देने के हक़दार बन जाएंगे. आज के जमाने में जब लोग मुफत में बदन की मैल भी नहीं देते, ऐसे में सलाह! वह भी अपने दिमाग से निकाल कर! एकदम ओरिजिनल!!. अच्छा है कि सलाह पर अमेरिका का पेटेंट नहीं हुआ है. हर अव्वल चीज अपने यहां की अमेरिका ले जाता है. अब एक नौकरी थी, जिसके लालच में हम अपने बच्चों को पैदा होने से पहले ही अंग्रेजी पढाने लगे थे, उसे भी ओबामा आ कर चट कर गए. अपने गोरे लोगों के लिए काम खोजने यहां आए थे. हे भगवान! ये दुर्दिन! भला बताइये? इतने सुकुमार ये गोरे लोग? हम कालों के आगे टिक सकते हैं क्या? और हमारा? जिस अंग्रेजा उअर अंग्रेजी के हम गुन गाते न थकते हैं, अब उसे पढ कर भी हमारे नौनिहाल उनके यहां भागे भागे नहीं जा सकेंगे. कहीं ओबामा को स्वदेश और स्वदेशी की धुन तो नहीं लग गई? वैसे भी ये गांधीके बडे प्रशंसक हैं.
पर बात मुफ्त सलाह की है. दीजिए. सर दर्द है तो सर तोडने की सलाह दीजिए, गले में दर्द है तो गला दबाने की सलाह दीजिए. बुखार है तो सुई लगवाने की सलाह से लेकर हर उसकी सलाह दीजिए, जिसकी सलाहियत आपके पास हो या ना हो. आखिर सलाह देना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसके लिए आप हमें रोक नहीं सकते. नई नई तकनीक है. ठीक है कि अपन कूढ मगज बुड्ढे लोग हैं तो इसका यह मतलब थोडे ना है कि सलाह देने से बाज आ जाएं? आखिर को आज के नए बच्चों से उम्र में बडे हैं. उम्र से बडे हैं तो अनुभव में भी बडे हैं. इसलिए सलाह देना हमारा मौरूसी हक़ बनता है.
अब आप छम्मकछल्लो से सलाह मांग रहे हैं? देने के बदले लेना चाहते हैं? तो भैया, अपनी चिंदी जैसी बुद्धि में यही सलाह आती है कि बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख की तरह बिन मांगे सलाह देना मत शुरु कीजिए.
मगर सलाह पर हम चलने ही लगे तो हम, हम क्या हुए? ये देखिए उन साहब को. उनके पेट में मरोडें उठ रही हैं. और इधर अपन के भी कि जल्दी से उनको सलाह का एक तगडा काढा पिला आएं. फिर वे उलटें, पलटें, अस्पताल भागें, उनकी बला से. अपन ने तो सलाह की तोप दाग दी किसी भारी विजेता की तरह और जीते हुए योद्धा की तरह मुस्कुरा भी रहे हैं. आप भी तनिक मुस्कुरा दीजिए. हमारे पास इसके लिए भी सलाह है. खूब-खूब है-
सलाह नाम की लूट है, लूट सके सो लूट
अंत काल पछताएगा, जब प्राण जाएंगे छूट!
छम्मकछल्लो अपने प्राण गंवाना नहीं चाहती. वह संत है. सलाह लेना भी नहीं चाहती, बस दानी भाव से देना चाहती है. चाहिए तो बोलिए.
पर बात मुफ्त सलाह की है. दीजिए. सर दर्द है तो सर तोडने की सलाह दीजिए, गले में दर्द है तो गला दबाने की सलाह दीजिए. बुखार है तो सुई लगवाने की सलाह से लेकर हर उसकी सलाह दीजिए, जिसकी सलाहियत आपके पास हो या ना हो. आखिर सलाह देना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसके लिए आप हमें रोक नहीं सकते. नई नई तकनीक है. ठीक है कि अपन कूढ मगज बुड्ढे लोग हैं तो इसका यह मतलब थोडे ना है कि सलाह देने से बाज आ जाएं? आखिर को आज के नए बच्चों से उम्र में बडे हैं. उम्र से बडे हैं तो अनुभव में भी बडे हैं. इसलिए सलाह देना हमारा मौरूसी हक़ बनता है.
अब आप छम्मकछल्लो से सलाह मांग रहे हैं? देने के बदले लेना चाहते हैं? तो भैया, अपनी चिंदी जैसी बुद्धि में यही सलाह आती है कि बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख की तरह बिन मांगे सलाह देना मत शुरु कीजिए.
मगर सलाह पर हम चलने ही लगे तो हम, हम क्या हुए? ये देखिए उन साहब को. उनके पेट में मरोडें उठ रही हैं. और इधर अपन के भी कि जल्दी से उनको सलाह का एक तगडा काढा पिला आएं. फिर वे उलटें, पलटें, अस्पताल भागें, उनकी बला से. अपन ने तो सलाह की तोप दाग दी किसी भारी विजेता की तरह और जीते हुए योद्धा की तरह मुस्कुरा भी रहे हैं. आप भी तनिक मुस्कुरा दीजिए. हमारे पास इसके लिए भी सलाह है. खूब-खूब है-
सलाह नाम की लूट है, लूट सके सो लूट
अंत काल पछताएगा, जब प्राण जाएंगे छूट!
छम्मकछल्लो अपने प्राण गंवाना नहीं चाहती. वह संत है. सलाह लेना भी नहीं चाहती, बस दानी भाव से देना चाहती है. चाहिए तो बोलिए.
Tuesday, November 16, 2010
बच्चा बोला ‘साला’, ‘कमीना’
किसी ने अपने ब्लॉग पर लिख दिया कि उनका बच्चा ‘साला ’बोलना सीख कर आ गया. कम्बख्त आस पास का माहौल! छम्मकछल्लो को कम्बख्त आस पास के माहौल की बात पर हैरानी हुई. गाली किसी खास कौम, जाति, समाज या मोहल्ले की बपौती है क्या? मां-बहन की शुद्ध देसी गालियों से लेकर लोग साला, कुत्ता, कमीना बोलते हैं. फिर एलीट जबान में बास्टर्ड, बिच, फक यू बोलते हैं, और इसी से अपने अधिक पढे लिखे होने का अहसास भी होता है.
गाली तो हमारी फिल्मों का भी हिस्सा है. ‘शोले’ में वीरु कहता है, ‘बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना.’ किसी और फिल्म में कहा जाता है, ‘कुत्ते, कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊंगा”. लोगों को सम्वाद याद रखने में दिक्कत हुई, इसलिए फिल्मों के नाम ही रख दिए गए- ‘गुंडा’, ‘आवारा’, ‘लोफर’, ‘420’, कमीने, ’बदमाश’ और ‘बदमाश’ से मन नहीं भरा तो ‘बदमाश कम्पनी’ भी. इससे भी आगे निकले तो गाने में भर दिया- ‘साला, मैं तो साहब बन गया.’ इसे तब के हमारे आइकन दिलीप कुमार ने गाया था. तो आज के शाहरुख क्यों पीछे रहें? उन्होंने भी गा दिया ’इश्क़ कमीना.’ शाहरुख आज के बच्चों के भी आइकन हैं. छम्मकछल्लो के एक मित्र के बेटे की शिकायत पहुंची पडोसी द्वारा कि बच्चे को ज़रा समझाइये, बैड वर्ड्स बोलता है. बच्चा मानने को तैयार नहीं कि उसके द्वारा बोला गया शब्द खराब है. उसने अपने पापा से यही सवाल किया कि अगर यह बैड वर्ड है तो शाहरुख ने क्यों गाया- ’इश्क़ कमीना’?
बच्चों पर हैरान मत होइए. पहले स्वयं को देखिए कि कहीं हम खुद ही तो बैड वर्ड्स नहीं बोल रहे? फिर जरा अपने आइकन सब से कहिए कि भई, ज़रा ज़बान संभाल के! बच्चे ना केवल सुन और समझ रहे हैं, बल्कि सवाल खडे कर रहे हैं कि आपके द्वारा बोले जानेवाले शब्द बैड वर्ड्स कैसे हो सकते हैं? खुद को तो हम समझा लें. बच्चों को कैसे समझाएं कि कम औकातवाले बोलते हैं तो यह गाली है, ऊंची औकातवाले बोलते हैं तो यह डायलॉग है. ‘दबंग’ में सलमान बोलते हैं, ‘इतने छेद करूंगा शरीर में कि भूल जाओगे कि सांस किधर से लें और पादें किधर से?” कोई बच्चा इसे दुहरा दे तो वह अकारण डांट खा जाएगा.
चलते चलते एक लतीफा- “एक आदमी ने दूसरे आदमी से पूछा कि भाई साब, शहर में कौन कौन सी पिक्चर लगी है?
आदमी ने जवाब दिया- ‘गुंडा’, ‘आवारा’, ‘लोफर’, ‘420’, कमीने, ’बदमाश’
पहले आदमी ने उसे कसकर झांपड लगाया और कहा- ‘मैने फिल्मों के नाम पूछे, अपना परिचय नहीं.”
गाली तो हमारी फिल्मों का भी हिस्सा है. ‘शोले’ में वीरु कहता है, ‘बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना.’ किसी और फिल्म में कहा जाता है, ‘कुत्ते, कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊंगा”. लोगों को सम्वाद याद रखने में दिक्कत हुई, इसलिए फिल्मों के नाम ही रख दिए गए- ‘गुंडा’, ‘आवारा’, ‘लोफर’, ‘420’, कमीने, ’बदमाश’ और ‘बदमाश’ से मन नहीं भरा तो ‘बदमाश कम्पनी’ भी. इससे भी आगे निकले तो गाने में भर दिया- ‘साला, मैं तो साहब बन गया.’ इसे तब के हमारे आइकन दिलीप कुमार ने गाया था. तो आज के शाहरुख क्यों पीछे रहें? उन्होंने भी गा दिया ’इश्क़ कमीना.’ शाहरुख आज के बच्चों के भी आइकन हैं. छम्मकछल्लो के एक मित्र के बेटे की शिकायत पहुंची पडोसी द्वारा कि बच्चे को ज़रा समझाइये, बैड वर्ड्स बोलता है. बच्चा मानने को तैयार नहीं कि उसके द्वारा बोला गया शब्द खराब है. उसने अपने पापा से यही सवाल किया कि अगर यह बैड वर्ड है तो शाहरुख ने क्यों गाया- ’इश्क़ कमीना’?
बच्चों पर हैरान मत होइए. पहले स्वयं को देखिए कि कहीं हम खुद ही तो बैड वर्ड्स नहीं बोल रहे? फिर जरा अपने आइकन सब से कहिए कि भई, ज़रा ज़बान संभाल के! बच्चे ना केवल सुन और समझ रहे हैं, बल्कि सवाल खडे कर रहे हैं कि आपके द्वारा बोले जानेवाले शब्द बैड वर्ड्स कैसे हो सकते हैं? खुद को तो हम समझा लें. बच्चों को कैसे समझाएं कि कम औकातवाले बोलते हैं तो यह गाली है, ऊंची औकातवाले बोलते हैं तो यह डायलॉग है. ‘दबंग’ में सलमान बोलते हैं, ‘इतने छेद करूंगा शरीर में कि भूल जाओगे कि सांस किधर से लें और पादें किधर से?” कोई बच्चा इसे दुहरा दे तो वह अकारण डांट खा जाएगा.
चलते चलते एक लतीफा- “एक आदमी ने दूसरे आदमी से पूछा कि भाई साब, शहर में कौन कौन सी पिक्चर लगी है?
आदमी ने जवाब दिया- ‘गुंडा’, ‘आवारा’, ‘लोफर’, ‘420’, कमीने, ’बदमाश’
पहले आदमी ने उसे कसकर झांपड लगाया और कहा- ‘मैने फिल्मों के नाम पूछे, अपना परिचय नहीं.”
Friday, November 12, 2010
क्या देवियों को माहवारी नहीं आती?
छम्मकछल्लो परेशान रहती है. तन की परेशानी तो वह झेल लेती है, मगर मन अहमक बडा बेहूदा है. जब-तब, जिस तिस रूप में उसे परेशान करता रहता है. सबसे बडी परेशानी तो यही है कि वह लडकी बनकर क्यों जन्मी? लडकी नहीं बनती तो लडकी से सम्बंधित परेशानियों से दो चार नहीं होती और ना ही अपने ही कारण अपनी ही परेशानी का सबब बनती.
छम्मकछल्लो को ऊपरवाले विधाता, नियामक या निसर्ग से कोई परेशानी नहीं है. उसने तो इतना बढिया मनुज तन हमें दे कर भेजा है इस धरती पर. मगर इस धरती के विधाता या नियामक की बडी बडी बातें वह समझ नहीं पाती. क्या करे! औरत जो ठहरी! कम अकल, मूढ मगज!
ये सभी विधाता या नियामक देवियों की बातें करते हैं. छम्मकछल्लो की समझ में यही आता है कि देवियां तो स्त्री रूप ही हुईं. इन विधाताओं या नियामकों को भी उनको स्त्री मानने से कोई उज़्र नहीं, मगर स्त्रियों की स्त्रियोचित बातों को मानने समझने से है. छम्मकछल्लो की परेशानी बढ जाती है जब ये सभी विधाता या नियामक देवी को अलग और स्त्रियों को अलग करके देखने लगते हैं. स्त्री को देवी के रूप में देखते ही वह सर्वशक्तिमान, समर्थ, दुश्मनों का नाश करनेवाली, सभी दुखों को दूर करनेवाली हो जाती हैं और इसी देवी के स्त्री रूप में परिवर्तित होते ही वह सभी बुराइयों की जड, कमअक्ल, मूरख, वेश्या, छिनाल, वस्तु, नरक की खान और जाने क्या क्या हो जाती है.
छम्मकछल्लो को लगता है कि कभी भूलवश किसी सिरफिरे संत या विचारक ने स्त्रियों को देवी की परम्परा में डाल दिया, जिसे हमारे महान लोग अबतक आत्मसात नहीं कर पाए, इसलिए उसको कमअक्ल, मूरख, वेश्या, छिनाल, वस्तु, नरक की खान जैसे तमाम विशेषणों से अलंकृत करके छोड दिया कि “ले, बडी देवी बनकर आई थी हमारे सर चढने, अब भुगत!”
छम्मकछल्लो इस समाधान से खुश हो गई. लेकिन उसके दिमाग में फिर भी एक कीडा काटता रहा. वह यह कि स्त्री से परे देवी की परिकल्पना सुंदर, सुडौल, स्वस्थ रूप में की जाती है. सभी देवियों की मूर्तियां देख लीजिए. सुंदर, सुडौल, स्वस्थ देवी की परिकल्पना से छम्मकछल्लो के कुंद दिमाग में यह भी आने लगता है कि इस सुंदर, सुडौल, स्वस्थ देवी को स्त्री शरीर की रचना के मुताबिक माहवारी भी आती होगी? और यदि माहवारी आती है तब तो उनके लिए भी मंदिरों के पट चार दिनों के लिए बंद कर दिए जाने चाहिए? उन्हें भी अशुद्ध माना जाना चाहिए. अपनी जैवीय संरचना के कारण ऋतुचक्र में आने पर स्त्रियों को अशुद्ध माना जाता है, तो देवियों को क्यों नहीं? वे भी तो स्त्री ही हैं. एक बार कहीं पढा कि देवी के एक मंदिर की चमक अचानक कम पाई गई. एक अभिनेत्री ने अपने अपराध बोध से उबरते हुए कहा कि वह उस मंदिर में अपनी माहवारी के समय गई थी. वो हंगामा बरपा कि बस. छम्मकछल्लो पूछना चाहती थी कि मंदिर देवी का, मंदिर मे माहवारी के दौरान जानेवाली भी स्त्री, तब देवी क्या बिगडैल सास बन गई कि अपनी ही एक भक्तिन से पारम्परिक सास-बहू वाला बदला निकालने लगी और अपनी चमक कम कर बैठी. छम्मकछल्लो को तो यही समझ में आया कि ज़रूर उस समय देवी को भी माहवारी आई होगी, अधिक स्राव हुआ होगा. अधिक स्राव के कारण क्लांत हो कर मलिन मुख हो गई होंगी. विधाताओं या नियामकों ने डॉक्टरों को तो दिखाया नहीं होगा. वैसे भी छोटी छोटी बीमारियों में औरतों को डॉक्टरों के पास ले जाने का रिवाज़ कहां है अपने यहां? बस, प्रचार कर दिया कि वे अशुद्ध हो गईं.
देवी को पता नहीं किन किन नदियों के जल से शुद्ध किया गया होगा. छम्मकछल्लो फिर से फेर में पड गई कि यह शुद्धि भी किससे? नदियों से. नदियां भी तो स्त्री रूप ही मानी जाती हैं ना! तभी उसके दिमाग की घंटी बजी, नहीं, नहीं, शुद्धि नदियों से नहीं, नदियों के जल से. अब जल, पानी, नीर सभी पुरुष माने गए हैं. तो आ गए न राम की तरह उद्धारकर्ता जल महाशय! ज़रा समझाइये इस मूरख छम्मकछल्लो को. खामखां फितूर पैदा करती रहती है.
छम्मकछल्लो को ऊपरवाले विधाता, नियामक या निसर्ग से कोई परेशानी नहीं है. उसने तो इतना बढिया मनुज तन हमें दे कर भेजा है इस धरती पर. मगर इस धरती के विधाता या नियामक की बडी बडी बातें वह समझ नहीं पाती. क्या करे! औरत जो ठहरी! कम अकल, मूढ मगज!
ये सभी विधाता या नियामक देवियों की बातें करते हैं. छम्मकछल्लो की समझ में यही आता है कि देवियां तो स्त्री रूप ही हुईं. इन विधाताओं या नियामकों को भी उनको स्त्री मानने से कोई उज़्र नहीं, मगर स्त्रियों की स्त्रियोचित बातों को मानने समझने से है. छम्मकछल्लो की परेशानी बढ जाती है जब ये सभी विधाता या नियामक देवी को अलग और स्त्रियों को अलग करके देखने लगते हैं. स्त्री को देवी के रूप में देखते ही वह सर्वशक्तिमान, समर्थ, दुश्मनों का नाश करनेवाली, सभी दुखों को दूर करनेवाली हो जाती हैं और इसी देवी के स्त्री रूप में परिवर्तित होते ही वह सभी बुराइयों की जड, कमअक्ल, मूरख, वेश्या, छिनाल, वस्तु, नरक की खान और जाने क्या क्या हो जाती है.
छम्मकछल्लो को लगता है कि कभी भूलवश किसी सिरफिरे संत या विचारक ने स्त्रियों को देवी की परम्परा में डाल दिया, जिसे हमारे महान लोग अबतक आत्मसात नहीं कर पाए, इसलिए उसको कमअक्ल, मूरख, वेश्या, छिनाल, वस्तु, नरक की खान जैसे तमाम विशेषणों से अलंकृत करके छोड दिया कि “ले, बडी देवी बनकर आई थी हमारे सर चढने, अब भुगत!”
छम्मकछल्लो इस समाधान से खुश हो गई. लेकिन उसके दिमाग में फिर भी एक कीडा काटता रहा. वह यह कि स्त्री से परे देवी की परिकल्पना सुंदर, सुडौल, स्वस्थ रूप में की जाती है. सभी देवियों की मूर्तियां देख लीजिए. सुंदर, सुडौल, स्वस्थ देवी की परिकल्पना से छम्मकछल्लो के कुंद दिमाग में यह भी आने लगता है कि इस सुंदर, सुडौल, स्वस्थ देवी को स्त्री शरीर की रचना के मुताबिक माहवारी भी आती होगी? और यदि माहवारी आती है तब तो उनके लिए भी मंदिरों के पट चार दिनों के लिए बंद कर दिए जाने चाहिए? उन्हें भी अशुद्ध माना जाना चाहिए. अपनी जैवीय संरचना के कारण ऋतुचक्र में आने पर स्त्रियों को अशुद्ध माना जाता है, तो देवियों को क्यों नहीं? वे भी तो स्त्री ही हैं. एक बार कहीं पढा कि देवी के एक मंदिर की चमक अचानक कम पाई गई. एक अभिनेत्री ने अपने अपराध बोध से उबरते हुए कहा कि वह उस मंदिर में अपनी माहवारी के समय गई थी. वो हंगामा बरपा कि बस. छम्मकछल्लो पूछना चाहती थी कि मंदिर देवी का, मंदिर मे माहवारी के दौरान जानेवाली भी स्त्री, तब देवी क्या बिगडैल सास बन गई कि अपनी ही एक भक्तिन से पारम्परिक सास-बहू वाला बदला निकालने लगी और अपनी चमक कम कर बैठी. छम्मकछल्लो को तो यही समझ में आया कि ज़रूर उस समय देवी को भी माहवारी आई होगी, अधिक स्राव हुआ होगा. अधिक स्राव के कारण क्लांत हो कर मलिन मुख हो गई होंगी. विधाताओं या नियामकों ने डॉक्टरों को तो दिखाया नहीं होगा. वैसे भी छोटी छोटी बीमारियों में औरतों को डॉक्टरों के पास ले जाने का रिवाज़ कहां है अपने यहां? बस, प्रचार कर दिया कि वे अशुद्ध हो गईं.
देवी को पता नहीं किन किन नदियों के जल से शुद्ध किया गया होगा. छम्मकछल्लो फिर से फेर में पड गई कि यह शुद्धि भी किससे? नदियों से. नदियां भी तो स्त्री रूप ही मानी जाती हैं ना! तभी उसके दिमाग की घंटी बजी, नहीं, नहीं, शुद्धि नदियों से नहीं, नदियों के जल से. अब जल, पानी, नीर सभी पुरुष माने गए हैं. तो आ गए न राम की तरह उद्धारकर्ता जल महाशय! ज़रा समझाइये इस मूरख छम्मकछल्लो को. खामखां फितूर पैदा करती रहती है.
Thursday, November 4, 2010
जेल की व्यवस्था (व्यथा)- कथा में भी पचास से पचीस सौ का चमत्कार.
जी नहीं. आज छम्मकछल्लो आपको जेल में आयोजित किसी कार्यक्रम की रिपोर्ट देने नहीं जा रही और ना ही वह जेल के बंदियों की दस्तान बताने जा रही है, बल्कि वह जेल की ही व्यथा-कथा कहने जा रही है. जेल को समझने के लिए सबसे पहले तो हिंदी फिल्मों के तथाकथित जेल के खाके से बाहर निकलना ज़रूरी है, जहां जेल का मतलब नर्क का दूसरा द्वार है. अत्याचार के सारे प्रबंध जहां खुली किताब की तरह दिखाए जाते हैं.
जेल देश की एक बेहद सम्वेदनशील संस्था है, जहां दुनिया के वे तथाकथित सबसे खतरनाक लोग रखे जाते हैं, जिन खतरनाक लोगों से देश की कानून व्यवस्था को सबसे बडा खतरा महसूस होता है. उन खतरनाक लोगों को अपने पास रखनेवाली जेल नामधारी इस संस्था से लोगों की बडी बडी उम्मीदें रहती हैं, नियम कायदे, कानून मानने की, मनवाने की, एकदम छक चौबस्त, चुस्त-दुरुस्त. व्यवस्था के शीर्ष पर बैठा हर ओहदेदार यही चाहता है कि उसके यहां, उसके समय में सबकुछ ठीक ठाक रहे. मगर इस ठीक ठाक रहने के लिए जो कुछ करना होता है , उसके नाम पर काम कम और आश्वासन अधिक होते हैं.
जेलों में काम करते हुए छम्मकछल्लो बार बार जेल के कर्मियों और अधिकारियों से दो चार होती रही है, जेल की व्यवस्था पर अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर करती रही है. जेल के अधिकारी, कर्मचारी हंसते रहे हैं- छम्मकछल्लो के इस मासूम सवाल पर. “बच्चा आपका, मगर बच्चा कैसे खायेगा, कैसे पियेगा, कैसे रहेगा, कैसे पलेगा, कैसे बढेगा, यह सब तय करेगा कोई और. आप बस बच्चे के केयेर टेकर बने रहिए. केयर टेकर भी नहीं बने रहने देते. तब कहते हैं कि बच्चे को अपना ब्च्चा मानकर चलिए. अगर अपना बच्चा माना तो मानने के अधिकार भी तो दीजिए. वो नहीं, बस, बने रहिए. अरे मैडमजी, हमारे हाथ में कुछ हो तब तो हम कुछ करें? हाथ पैर बांध कर कहिए कि दौड पडो मैराथन में. हम क्या करें. नौकरी है, सो दौडते रहते हैं, हाथ पैर बांध कर.”
समझ में नहीं आ रहा ना आपको कुछ भी? छम्मकछल्लो को भी नहीं आया था. जब आया, तब वह आपको भी समझाने आ गई है. समझने की कोई जबर्दस्ती नहीं है. दिल में आए तो समझिए, नहीं तो आप भी दो चार जुमले उछाल दीजिए उनके खिलाफ. बोलने की आज़ादी तो आखिर सबको है ही ना!
1 देश की हर जेल में कैदी उसकी क्षमता के दो से तीन गुना अधिक रखे जाते हैं. यानी, अगर एक जेल में 800 कैदी को रखने की क्षमता है तो उसमें दो से ढाई हज़ार कैदी रखे जाते हैं. कैदी को अपनी मर्ज़ी से रखना या जेल की क्षमता के मुताबिक रखना जेलवालों के हाथ में नहीं है. उन्हें तो जब, जिस समय, जितने कैदी भेजे जाते हैं, उन्हें रखना होता है. जेल हमेशा रिसीविंग एंड पर होता है. उसे जितने लोग भेजे जाएंगे, उन्हें रखना ही है. वह विरोध या प्रतिरोध दर्ज़ नहीं कर सकता. क्षमता से तीन चार गुना कैदी हो तो जेल कैसे उस अव्यव्स्था या कुव्यवस्था से निपटे, इस पर कोई नहीं सोचता. आपके अपने दो कमरे घर में अगर चार के बदले चौबीस लोग रहेंगे तो?
2 जेल को हमेशा प्रोटेक्शन या कोर्ट प्रोटेक्शन के लिए स्थानीय पुलिस पर निर्भर रहना होता है. पुलिस के मिलने पर ही वह कैदी को कोर्ट जाने के लिए छोड सकता है.
3 जेल के भीतर कोई हादसा होने पर भी जबतक पुलिस नहीं आती, जेल अपने से कुछ भी नहीं कर सकती.
4 डॉक्टर या स्वास्थ सेवाओं के लिए जेल को सिविल हॉस्पीटल पर निर्भर रहना होता है. वह अपनी मर्ज़ी से किसी भी मरीज का इलाज नहीं करा सकती. किसी का केस बिगड जाने पर भी जेल डॉक्टर पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकती.
5 जो भी संसाधन हैं, उन पर क्षमता से कई गुना अधिक दवाब है.
6 जेल के भीतर का सारा निर्माण कार्य पीडब्ल्यूडी के अधीन है. जेल अपनी मर्ज़ी या अपनी जरूरत से एक ईंट भी जेल के भीतर नहीं बिठा सकती.
7 जेलों में जो आवक है, वह लगातार बढ रही है. इसका सीधा सम्बध लॉ एंड ऑर्डर से जुडता है.
8 बेल प्रोसेस में खामी की वजह से लोगों को जमानत मिलने में भी काफी देर हो जाती है. जमानत देने दिलाने में जेल की कोई भूमिका नहीं होती. इस कारण भी कई लोग ज़रूरत से अधिक समय तक भीतर रह जाते हैं, जिनका भार जेल को उठाना होता है.
9 स्टाफ की भर्ती जेल की बंदी क्षमता के अनुसार रहती है, बल्कि उससे भी कम और कैदी क्षमता से ढाई-तीन गुना अधिक होते हैं. लिहाज़ा, हर स्टाफ पर बहुत अधिक बोझ पडता है. यह कैसे सम्भव है कि मुट्ठी भर स्टाफ पूरे जेल की निगरानी कर सकें?
10 खाना बनाना यहां की सबसे बडी समस्या है. अगर एक जेल में दो हजार कैदी हैं तो इसका मतलब कि तीन वक्त का खाना मिलाकर छह हज़ार लोगों के लिए खाना बनाना होता है. मगर यहां रसोइये का कोई पद नहीं है. कैदी ही मिल जुल कर खाना बनाते हैं. जेल कोशिश करता रहता है कि ठीक-ठाक खाना पकानेवालो से खाना बनवाया जाए. मगर हर बार ऐसा तो हो नहीं सकता. नतीज़न, सब कुछ होने के बावज़ूद खाने अच्छा नहीं बन पाता.
11 खाने का वजन तय है. 100 मिली दूध, केला के साथ नाश्ता, फिर दिन का भोजन, शाम की चाय और रात का भोजन. जेल में खाना अधिकारियों द्वारा चख कर ही कैदियों को बांटा जाता है.
12 पांच कैदियों को ले कर पन्च कमिटी बनाई जाती है.
13 अच्छे रेकॉर्डवाले कैदियों की सज़ा कम करने के लिए सरकार से सिफारिश की जाती है. यह नियम के अनुसार होता है. सिफारिश का मंज़ूर होना या न होना जेल के हाथ में नहीं है.
14 दिक्कत सबसे बडी यह है कि जेल के पास बहुत से सुझाव हैं, जेल की स्थिति सुधारने के लिए, इसका भार कम करने के लिए, इसकी प्रशासन व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए. परंतु, किसे फुर्सत है जेल की सुनने की? जेल को सुनाने के लिए सबके पास बहुत कुछ है, मगर जेल की सुनने के लिए?
15 नियम, कायदे, कानून बाबा आदम के ज़माने के बने हुए हैं. समय के अनुसार उनमें बदलाव की ज़रूरत है. पर कौन करे यह बदलाव?
16 जेल आग के गोले के बीच रखी संस्था है. इसके ऊपर सभी की निगाहें लगी रहती हैं. जेल में कुछ बुरा हुआ, प्रशासन सहित प्रेस, मीडिया सभी उसके ऊपर चढने के लिए तैयार बैठे रहते हैं. मगर जब जेल में कुछ अच्छा होता है, कैदी अपने प्रयासों से या एनजीओ आदि की सहायता से कुछ करते हैं तो जेल के पास इसे बताने के लिए कोई साधन नहीं है, क्योंकि जेल मैन्युअल के अनुसार जेल के अंदर की कार्रवाई का प्रचार प्रसार वर्जित है. खोजी पत्रकार और स्टिंग ऑपरेशवालेजाने कहां से कहां पहुंच जाते हैं, उसके लिए उसे व्यवस्था से अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं पडती, मगर जेल में अच्छे कार्यक्रम होते हैं तो उनकी भी रिपोर्ट नहीं करने दी जाती. नतीजन, लोगों के पास जेल के केवल नकारात्मक रूप ही सामने आपाते हैं.
17 हर कोई अपने सद्प्रयास प्रेस या मीडिया को बताना चाहता है. मगर जेल यदि अपने सद्कार्यों के लिए मीडिया या प्रेस से सम्पर्क करना चाहे तो वह नहीं कर सकती है. अगर कोई अधिकारी जेल की अच्छाइयां या उसके नियम कानून ही किसी को या मीडिया और प्रेस को बताए तो आन्तारिक व्यवस्था ही उस पर चढ बैठती है कि यह मीडिया सैवी है.
18 इन सबके बावज़ूद कहा जाता है कि जेल सबसे बेहतर निष्पादन दे. ऐसी जगह, जहां सामान्यत: सभी नकारात्मक किस्म के लोग आते हैं, उनके बीच नकारात्मक माहौल में रहते हुए सदैव सकारात्मक परिणाम देते रहने की अपेक्षा हमसे की जाती है.
19 जेल के अधिकारी कहते हैं कि यह तो हमारे लोगों का जादू है कि हम पचास से पचीस सौ को काबू में रख ले पाते हैं. वे तो वीरता का काम करते हैं. जेलकर्मियों को खुद पता नहीं होता कि जेल में राउंड लेते समय या जेल के भीतर काम करते समय कब कोई बंदी उन पर किस बात को ले कर हमला कर दे? आए दिन आप ये खबरें पढते होंगे.
20 अब भी आप कहते हैं कि जेल के लोग कुछ नहीं करते और सारे अनाचार जेलों में ही होते हैं. जेल इनका प्रशिक्षण स्थल है. तो जेल का यही कहना है कि बाहर के सारे अपराध बंद कर दीजिए, उनका यहां आना छूट जाएगा. न वे यहां आएंगे, न वे तथाकथित तौर पर और कुछ सीखेंगे. मगर कैदियों की बढती तादाद कुछ और ही कहते हैं. आप क्या कहते हैं?
जेल देश की एक बेहद सम्वेदनशील संस्था है, जहां दुनिया के वे तथाकथित सबसे खतरनाक लोग रखे जाते हैं, जिन खतरनाक लोगों से देश की कानून व्यवस्था को सबसे बडा खतरा महसूस होता है. उन खतरनाक लोगों को अपने पास रखनेवाली जेल नामधारी इस संस्था से लोगों की बडी बडी उम्मीदें रहती हैं, नियम कायदे, कानून मानने की, मनवाने की, एकदम छक चौबस्त, चुस्त-दुरुस्त. व्यवस्था के शीर्ष पर बैठा हर ओहदेदार यही चाहता है कि उसके यहां, उसके समय में सबकुछ ठीक ठाक रहे. मगर इस ठीक ठाक रहने के लिए जो कुछ करना होता है , उसके नाम पर काम कम और आश्वासन अधिक होते हैं.
जेलों में काम करते हुए छम्मकछल्लो बार बार जेल के कर्मियों और अधिकारियों से दो चार होती रही है, जेल की व्यवस्था पर अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर करती रही है. जेल के अधिकारी, कर्मचारी हंसते रहे हैं- छम्मकछल्लो के इस मासूम सवाल पर. “बच्चा आपका, मगर बच्चा कैसे खायेगा, कैसे पियेगा, कैसे रहेगा, कैसे पलेगा, कैसे बढेगा, यह सब तय करेगा कोई और. आप बस बच्चे के केयेर टेकर बने रहिए. केयर टेकर भी नहीं बने रहने देते. तब कहते हैं कि बच्चे को अपना ब्च्चा मानकर चलिए. अगर अपना बच्चा माना तो मानने के अधिकार भी तो दीजिए. वो नहीं, बस, बने रहिए. अरे मैडमजी, हमारे हाथ में कुछ हो तब तो हम कुछ करें? हाथ पैर बांध कर कहिए कि दौड पडो मैराथन में. हम क्या करें. नौकरी है, सो दौडते रहते हैं, हाथ पैर बांध कर.”
समझ में नहीं आ रहा ना आपको कुछ भी? छम्मकछल्लो को भी नहीं आया था. जब आया, तब वह आपको भी समझाने आ गई है. समझने की कोई जबर्दस्ती नहीं है. दिल में आए तो समझिए, नहीं तो आप भी दो चार जुमले उछाल दीजिए उनके खिलाफ. बोलने की आज़ादी तो आखिर सबको है ही ना!
1 देश की हर जेल में कैदी उसकी क्षमता के दो से तीन गुना अधिक रखे जाते हैं. यानी, अगर एक जेल में 800 कैदी को रखने की क्षमता है तो उसमें दो से ढाई हज़ार कैदी रखे जाते हैं. कैदी को अपनी मर्ज़ी से रखना या जेल की क्षमता के मुताबिक रखना जेलवालों के हाथ में नहीं है. उन्हें तो जब, जिस समय, जितने कैदी भेजे जाते हैं, उन्हें रखना होता है. जेल हमेशा रिसीविंग एंड पर होता है. उसे जितने लोग भेजे जाएंगे, उन्हें रखना ही है. वह विरोध या प्रतिरोध दर्ज़ नहीं कर सकता. क्षमता से तीन चार गुना कैदी हो तो जेल कैसे उस अव्यव्स्था या कुव्यवस्था से निपटे, इस पर कोई नहीं सोचता. आपके अपने दो कमरे घर में अगर चार के बदले चौबीस लोग रहेंगे तो?
2 जेल को हमेशा प्रोटेक्शन या कोर्ट प्रोटेक्शन के लिए स्थानीय पुलिस पर निर्भर रहना होता है. पुलिस के मिलने पर ही वह कैदी को कोर्ट जाने के लिए छोड सकता है.
3 जेल के भीतर कोई हादसा होने पर भी जबतक पुलिस नहीं आती, जेल अपने से कुछ भी नहीं कर सकती.
4 डॉक्टर या स्वास्थ सेवाओं के लिए जेल को सिविल हॉस्पीटल पर निर्भर रहना होता है. वह अपनी मर्ज़ी से किसी भी मरीज का इलाज नहीं करा सकती. किसी का केस बिगड जाने पर भी जेल डॉक्टर पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकती.
5 जो भी संसाधन हैं, उन पर क्षमता से कई गुना अधिक दवाब है.
6 जेल के भीतर का सारा निर्माण कार्य पीडब्ल्यूडी के अधीन है. जेल अपनी मर्ज़ी या अपनी जरूरत से एक ईंट भी जेल के भीतर नहीं बिठा सकती.
7 जेलों में जो आवक है, वह लगातार बढ रही है. इसका सीधा सम्बध लॉ एंड ऑर्डर से जुडता है.
8 बेल प्रोसेस में खामी की वजह से लोगों को जमानत मिलने में भी काफी देर हो जाती है. जमानत देने दिलाने में जेल की कोई भूमिका नहीं होती. इस कारण भी कई लोग ज़रूरत से अधिक समय तक भीतर रह जाते हैं, जिनका भार जेल को उठाना होता है.
9 स्टाफ की भर्ती जेल की बंदी क्षमता के अनुसार रहती है, बल्कि उससे भी कम और कैदी क्षमता से ढाई-तीन गुना अधिक होते हैं. लिहाज़ा, हर स्टाफ पर बहुत अधिक बोझ पडता है. यह कैसे सम्भव है कि मुट्ठी भर स्टाफ पूरे जेल की निगरानी कर सकें?
10 खाना बनाना यहां की सबसे बडी समस्या है. अगर एक जेल में दो हजार कैदी हैं तो इसका मतलब कि तीन वक्त का खाना मिलाकर छह हज़ार लोगों के लिए खाना बनाना होता है. मगर यहां रसोइये का कोई पद नहीं है. कैदी ही मिल जुल कर खाना बनाते हैं. जेल कोशिश करता रहता है कि ठीक-ठाक खाना पकानेवालो से खाना बनवाया जाए. मगर हर बार ऐसा तो हो नहीं सकता. नतीज़न, सब कुछ होने के बावज़ूद खाने अच्छा नहीं बन पाता.
11 खाने का वजन तय है. 100 मिली दूध, केला के साथ नाश्ता, फिर दिन का भोजन, शाम की चाय और रात का भोजन. जेल में खाना अधिकारियों द्वारा चख कर ही कैदियों को बांटा जाता है.
12 पांच कैदियों को ले कर पन्च कमिटी बनाई जाती है.
13 अच्छे रेकॉर्डवाले कैदियों की सज़ा कम करने के लिए सरकार से सिफारिश की जाती है. यह नियम के अनुसार होता है. सिफारिश का मंज़ूर होना या न होना जेल के हाथ में नहीं है.
14 दिक्कत सबसे बडी यह है कि जेल के पास बहुत से सुझाव हैं, जेल की स्थिति सुधारने के लिए, इसका भार कम करने के लिए, इसकी प्रशासन व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए. परंतु, किसे फुर्सत है जेल की सुनने की? जेल को सुनाने के लिए सबके पास बहुत कुछ है, मगर जेल की सुनने के लिए?
15 नियम, कायदे, कानून बाबा आदम के ज़माने के बने हुए हैं. समय के अनुसार उनमें बदलाव की ज़रूरत है. पर कौन करे यह बदलाव?
16 जेल आग के गोले के बीच रखी संस्था है. इसके ऊपर सभी की निगाहें लगी रहती हैं. जेल में कुछ बुरा हुआ, प्रशासन सहित प्रेस, मीडिया सभी उसके ऊपर चढने के लिए तैयार बैठे रहते हैं. मगर जब जेल में कुछ अच्छा होता है, कैदी अपने प्रयासों से या एनजीओ आदि की सहायता से कुछ करते हैं तो जेल के पास इसे बताने के लिए कोई साधन नहीं है, क्योंकि जेल मैन्युअल के अनुसार जेल के अंदर की कार्रवाई का प्रचार प्रसार वर्जित है. खोजी पत्रकार और स्टिंग ऑपरेशवालेजाने कहां से कहां पहुंच जाते हैं, उसके लिए उसे व्यवस्था से अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं पडती, मगर जेल में अच्छे कार्यक्रम होते हैं तो उनकी भी रिपोर्ट नहीं करने दी जाती. नतीजन, लोगों के पास जेल के केवल नकारात्मक रूप ही सामने आपाते हैं.
17 हर कोई अपने सद्प्रयास प्रेस या मीडिया को बताना चाहता है. मगर जेल यदि अपने सद्कार्यों के लिए मीडिया या प्रेस से सम्पर्क करना चाहे तो वह नहीं कर सकती है. अगर कोई अधिकारी जेल की अच्छाइयां या उसके नियम कानून ही किसी को या मीडिया और प्रेस को बताए तो आन्तारिक व्यवस्था ही उस पर चढ बैठती है कि यह मीडिया सैवी है.
18 इन सबके बावज़ूद कहा जाता है कि जेल सबसे बेहतर निष्पादन दे. ऐसी जगह, जहां सामान्यत: सभी नकारात्मक किस्म के लोग आते हैं, उनके बीच नकारात्मक माहौल में रहते हुए सदैव सकारात्मक परिणाम देते रहने की अपेक्षा हमसे की जाती है.
19 जेल के अधिकारी कहते हैं कि यह तो हमारे लोगों का जादू है कि हम पचास से पचीस सौ को काबू में रख ले पाते हैं. वे तो वीरता का काम करते हैं. जेलकर्मियों को खुद पता नहीं होता कि जेल में राउंड लेते समय या जेल के भीतर काम करते समय कब कोई बंदी उन पर किस बात को ले कर हमला कर दे? आए दिन आप ये खबरें पढते होंगे.
20 अब भी आप कहते हैं कि जेल के लोग कुछ नहीं करते और सारे अनाचार जेलों में ही होते हैं. जेल इनका प्रशिक्षण स्थल है. तो जेल का यही कहना है कि बाहर के सारे अपराध बंद कर दीजिए, उनका यहां आना छूट जाएगा. न वे यहां आएंगे, न वे तथाकथित तौर पर और कुछ सीखेंगे. मगर कैदियों की बढती तादाद कुछ और ही कहते हैं. आप क्या कहते हैं?
Wednesday, November 3, 2010
काम मत कर, काम की फिक्र कर, फिर उस फिक्र का ज़िक्र कर.
छम्मकछल्लो को वे लोग पसंद नहीं हैं जो लगातार काम करते रहते हैं. आखिर कर्म ही जीवन है. ऐसे कर्मवानों के प्रति वह अगाध श्रद्धा व भक्ति भाव से भर उठती है. छम्मकछल्लो को समझ में नहीं आता कि आखिर ये लोग इतनी मेहनत कर कैसे लेते हैं?
छम्मकछल्लो उन पर वारी वारी जाती है जो काम नहीं करते. आखिर मनुज तन एक बार मिलता है. न कोई अगला जनम जानता है, न पिछला. तो एक जो मानुस तन मिला है, उसे भी काम करके नष्ट कर दें तो जीवन में रह क्या जाएगा? अल्हुआ, सतुआ, घडीघंट?
ऐसे लोग काम नहीं करते, काम की फिक्र करते हैं, इतनी कि उस फिक्र में दूसरे के बदन की हड्डियां दिखने लगती हैं, वे खुद काम की चर्बी से इतने दब-ढक जाते हैं कि उनका बदन मांस का थल थल आगार हो जाता है.
वे काम भले ना करें, मगर काम की फिक्र में जी जान एक किए रहते हैं. चूंकि फिक्र में जी जान एक किए रहते हैं, इसलिए इस फिक्र का ज़िक्र भी ज़रूरी है. सो वे फिक्र का ज़िक्र करते हुए अपना अमूल्य मानुस तन सार्थक करते रहते हैं. पत्नी उनके जीवन का अभिन्न अंग और अर्धंगिनी होती है. इसलिए आधा ज़िक्र वे अपने पूरे तन मन से करते हैं और आधे का भार अपनी प्रियतमा पर छोड देते हैं. पतिव्रता पत्नी पातिवर्त्य धर्म निभाती हुए उनके कार्य के अखंड रामायण से सभी को कृतार्थ किए रहती हैं.
श्री भगवद दास- हमेशा देर तक बैठने के हिमायती. दिन भर पी सी पर लगे रहनेवाले. उनकी पत्नी यह कहते न अघाती हैं कि उनके पति के बल पर ही दास साहब की कम्पनी टिकी है, वरना कब की अधोगति में पहुंच गई होती. वे यह नहीं कहतीं कि देर तक बैठने के कई फायदे हैं. सबसे बडा फायदा, बॉस के गुडविल में आ गए. गुडविल में आ गए तो प्रमोशन पक्का, हर जगह तारीफ पक्की. वे रोल मॉडल हो गए. बॉस कहने लगे, देखिए दास साब को, कितने कर्मठ हैं, देर तक बैठ कर काम करते हैं. मतलब, बाकी आप सब कितने अहमक हैं. ऑफिस का समय खत्म हुआ नहीं कि निकल लिए. वे यह क्यों मानें कि काम के आठ घंटे में अगर आप प्लानिंग करके काम करेंगे तो काम हो जाते हैं. देर तक बैठने के दूसरे फायदे में से एक फायदा अर्थ का है. दास बाबू तब तक बैठते, जबतक देर तक बैठने की तय मियाद पूरी ना हो जाती, ताकि उस दिन का ओवरटाइम पक्का हो जाए. काम आधा घंटा पहले भी खत्म हो जाए तब भी मजाल कि वे पहले निकल लें? मगर गाज़ गिरे कम्पनी के नीति नियामक पर. एक सर्कुलर निकाल दिया कि देर तक बैठने का कोई पैसा नहीं मिलेगा. बस जी, दास बाबू घर के दास हो गए. उनके सारे काम आश्चर्यजनक तरीके से 9-5 के भीतर होने लगे.
श्रीमती खान कहती हैं कि उनके शौहर को तो जी खाने की भी फुर्सत नहीं होती. वे नहीं बतातीं कि खान साब घर का खाना खराब नहीं करते, रेस्तरां आबाद करते हैं. विभाग है, जब तब अधिकारी लोग दौरे पर पहुंचते रहते हैं. खान साब उन्हें रेस्तरां ले जाते हैं. इससे उनकी रिपोर्ट भी अच्छी हो जाती है और घर का अपना खाना भी बच जाता है. एकाध बढिया मेंनू घर के लिए भी बंध जाता है.
झा साब बगैर बोले काम करते रहते हैं. नतीजन, तीन से सात साल हो गए, अगले ग्रेड की बाट जोहते. मोहतरमा खान के दावे पर मैडम झा खीझती हैं और कह देती हैं कि हां जी, मेरे झा जी तो काम ही नहीं करते. यह बात फैल जाती है.
यह हिंदुस्तान है और हिंदुस्तान में सफल वही होता है, जो काम के बदले काम की फिक्र करता है और फिर उस फिक्र का जिक्र ढोल, नगाडे के साथ करता है.
आप बहुत काम करते हैं? तो, अहमक हैं, चुगद हैं, परले सिरे के बेवकूफ हैं. हज़रत, दास साब से, खान साब से, उनके बॉस से सीखिए. अपनी जिंदगी हलकान मत कीजिए. बस काम की फिक्र कीजिए और फिक्र का ज़िक्र कीजिए. छम्मकछल्लो तबतक औरों को भी धन तेरस के अवसर पर उपदेश का यह धन दे कर आती है.
छम्मकछल्लो उन पर वारी वारी जाती है जो काम नहीं करते. आखिर मनुज तन एक बार मिलता है. न कोई अगला जनम जानता है, न पिछला. तो एक जो मानुस तन मिला है, उसे भी काम करके नष्ट कर दें तो जीवन में रह क्या जाएगा? अल्हुआ, सतुआ, घडीघंट?
ऐसे लोग काम नहीं करते, काम की फिक्र करते हैं, इतनी कि उस फिक्र में दूसरे के बदन की हड्डियां दिखने लगती हैं, वे खुद काम की चर्बी से इतने दब-ढक जाते हैं कि उनका बदन मांस का थल थल आगार हो जाता है.
वे काम भले ना करें, मगर काम की फिक्र में जी जान एक किए रहते हैं. चूंकि फिक्र में जी जान एक किए रहते हैं, इसलिए इस फिक्र का ज़िक्र भी ज़रूरी है. सो वे फिक्र का ज़िक्र करते हुए अपना अमूल्य मानुस तन सार्थक करते रहते हैं. पत्नी उनके जीवन का अभिन्न अंग और अर्धंगिनी होती है. इसलिए आधा ज़िक्र वे अपने पूरे तन मन से करते हैं और आधे का भार अपनी प्रियतमा पर छोड देते हैं. पतिव्रता पत्नी पातिवर्त्य धर्म निभाती हुए उनके कार्य के अखंड रामायण से सभी को कृतार्थ किए रहती हैं.
श्री भगवद दास- हमेशा देर तक बैठने के हिमायती. दिन भर पी सी पर लगे रहनेवाले. उनकी पत्नी यह कहते न अघाती हैं कि उनके पति के बल पर ही दास साहब की कम्पनी टिकी है, वरना कब की अधोगति में पहुंच गई होती. वे यह नहीं कहतीं कि देर तक बैठने के कई फायदे हैं. सबसे बडा फायदा, बॉस के गुडविल में आ गए. गुडविल में आ गए तो प्रमोशन पक्का, हर जगह तारीफ पक्की. वे रोल मॉडल हो गए. बॉस कहने लगे, देखिए दास साब को, कितने कर्मठ हैं, देर तक बैठ कर काम करते हैं. मतलब, बाकी आप सब कितने अहमक हैं. ऑफिस का समय खत्म हुआ नहीं कि निकल लिए. वे यह क्यों मानें कि काम के आठ घंटे में अगर आप प्लानिंग करके काम करेंगे तो काम हो जाते हैं. देर तक बैठने के दूसरे फायदे में से एक फायदा अर्थ का है. दास बाबू तब तक बैठते, जबतक देर तक बैठने की तय मियाद पूरी ना हो जाती, ताकि उस दिन का ओवरटाइम पक्का हो जाए. काम आधा घंटा पहले भी खत्म हो जाए तब भी मजाल कि वे पहले निकल लें? मगर गाज़ गिरे कम्पनी के नीति नियामक पर. एक सर्कुलर निकाल दिया कि देर तक बैठने का कोई पैसा नहीं मिलेगा. बस जी, दास बाबू घर के दास हो गए. उनके सारे काम आश्चर्यजनक तरीके से 9-5 के भीतर होने लगे.
श्रीमती खान कहती हैं कि उनके शौहर को तो जी खाने की भी फुर्सत नहीं होती. वे नहीं बतातीं कि खान साब घर का खाना खराब नहीं करते, रेस्तरां आबाद करते हैं. विभाग है, जब तब अधिकारी लोग दौरे पर पहुंचते रहते हैं. खान साब उन्हें रेस्तरां ले जाते हैं. इससे उनकी रिपोर्ट भी अच्छी हो जाती है और घर का अपना खाना भी बच जाता है. एकाध बढिया मेंनू घर के लिए भी बंध जाता है.
झा साब बगैर बोले काम करते रहते हैं. नतीजन, तीन से सात साल हो गए, अगले ग्रेड की बाट जोहते. मोहतरमा खान के दावे पर मैडम झा खीझती हैं और कह देती हैं कि हां जी, मेरे झा जी तो काम ही नहीं करते. यह बात फैल जाती है.
यह हिंदुस्तान है और हिंदुस्तान में सफल वही होता है, जो काम के बदले काम की फिक्र करता है और फिर उस फिक्र का जिक्र ढोल, नगाडे के साथ करता है.
आप बहुत काम करते हैं? तो, अहमक हैं, चुगद हैं, परले सिरे के बेवकूफ हैं. हज़रत, दास साब से, खान साब से, उनके बॉस से सीखिए. अपनी जिंदगी हलकान मत कीजिए. बस काम की फिक्र कीजिए और फिक्र का ज़िक्र कीजिए. छम्मकछल्लो तबतक औरों को भी धन तेरस के अवसर पर उपदेश का यह धन दे कर आती है.
Tuesday, November 2, 2010
तन, मन हमारा, अधिकार तुम्हारा!
छम्मकछल्लो को इस देश की परम्परा पर नाज़ है. सारी परम्पराओं में एक परम्परा है, हम स्त्रियों के तन मन पर आपका अधिकार. हमारे द्वारा घर और पति और ससुराल की हर बात को शिरोधार्य करना. हम क्या खाएंगी, पहनेंगी, पढेंगी, इसका निर्णय हम नहीं, आप करेंगे. यह उस महान परम्परा को भी पोषित है कि हमें या तो अक्ल नहीं होती या होती है तो घुटने में होती है. अब जब अक्ल ही नहीं होती या घुटने में होती है, तो हम खुद से क्या और कैसे कर सकती है कुछ भी. छम्मकछल्लो छुटपन में अपनी हम उम्र लडकियों के जवाब सुनती थी,
“क्या पढना चाहती हो?”
“बाउजी बताएंगे.”
“ क्या बनना चाहती हो?
“बाउजी बताएंगे.”
“क्या पहनना चाहती हो?”
“बाउजी बताएंगे.”
“कहां जाना चाहती हो?”
“ बाउजी बताएंगे.”
और बाउजी, प्राउड फादर होते थे या नहीं, पता नहीं, मगर अपना मौरूसी हक़ समझते थे, बेटी की सांस का एक एक हिसाब रखना.
जमाना बदला नहीं है बहुत अधिक. गांव, शहर, कस्बा, महानगर! कुछ नज़ारे ज़रूर बदले मिलते हैं. मगर गहरे से जाइये तो बहुत कुछ बदला नहीं दिखेगा. ना ना न! इसमें अमीर गरीब, छोटे बडे का कोई मामला नहीं है. छम्मकछल्लो अच्छे अच्छे घरों में जाती रही है. खाते पीते समृद्ध लोग. हर माह एकाध गहने गढवा देनेवाले लोग. हर महीने सोना, टीवी, फर्नीचर, अन्य साजो सामान खरीदनेवाले लोग. हर दिन नया नया और अच्छा अच्छा खाने पीनेवाले लोग. वे सब कभी फख्र से, कभी सलाह से, कभी उपदेश से कहते हैं, “मैंने बेटी को बोल दिया है कि “बेटे, जो मर्ज़ी हो, पहन, मगर जींस, टॉप मत पहनना, स्लीवलेस ड्रेस मत पहनना.”
“ मेरे घर में भाभीजी (छम्मकछल्लो), पत्नी को कह दिया है कि बेटी के लिए ड्रेस खरीदते वक्त यह ध्यान रखे कि गला पीछे से भी गहरा ना हो, आस्तीन कम से कम केहुनी तक हो.”
“अभी कितनी उम्र होगी बिटिया की?” भाभीजी (छम्मकछल्लो) पूछ लेती है.
“अभी तो भाभी जी नौंवा चढा है.”
“अरे, तो अभी तो पहनने दीजिए ना उसे. अभी तो बच्ची है.”
“आप नहीं समझती हैं भाभी जी, अभी से आदत लग जाएगी तो बडी होने पर नहीं सुनेगी. लडकियों को कंट्रोल करके तो रखना ही होता है.”
भाभी जी (छम्मकछल्लो) चुप हो जाती है. बेटियों को दिल से, देह से, दिमाग से कंट्रोल करके रखना ही होता है, रखिए, वरना लडकी हाथ से निकल जाएगी, हाथ से निकली तो इज्जत निकल जाएगी. इज़्ज़त का ठेका उन्हें ही तो दे दिया गया है. ढोओ, बेटी, ढोओ.
छम्मकछल्लो अभी अभी एक बहुत बुजुर्ग सज्जन से मिली. बहुत बडे गांधीवादी हैं, जेपी के बहुत बडे भक्त हैं, आज़ादी की लडाई में जेल जा चुके हैं. अभी अपने बलबूते बहुत कुछ अर्जित किया है, धन, मान, नाम, सबकुछ. बात पर बात निकली तो कहने लगे, बेटे की शादी बगैर सोने के किया, अभी पोते की भी कर रहा हूं. ना मैं सोना ले कर जाऊंगा, न लडकीवालों को सोना लाने दूंगा.”
छम्मकछल्लो का माथा श्रद्धा से झुक गया. ऐसे ऐसे लोग समाज में हो तो दहेज की शिकार होने से ना जाने कितनी बहू बेटियां बच जाएंगी. तभी उन्होंने सोने को संदर्भित करते हुए कहा कि जब हम 7वीं 8वीं में थे, हमसे पूछा गया था कि शादी में तुमलोगों को कितना सोना चाहिये? तब देश आज़ाद नहीं हुआ था. सभी ने कहा कि जब शादी होगी, तब देखा जाएगा. मैंने कहा कि मैं वादा करता हूं कि मेरी पत्नी सोना नहीं पहनेगी. और आज तक उसने सोना नहीं पहना.”
पत्नी की ओर से बगैर उसके मन को जाने समझे, उन बुजुर्ग द्वारा की गई प्रतिज्ञा! छम्मकछल्लो को नहीं पता कि उनकी पत्नी को सचमुच सोने से लगाव था या नहीं, मगर आम औरतों की तरह यदि उन्हें भी लगाव रहा होगा तो सोचिए कि इस प्रतिज्ञा का उनके मन पर कितना असर पडा होगा! गांधी जी भी बा को बस ऐसे ही ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ लेते रहे, उन्हें शौचालय की सफाई, गहने दान देने पर विवश किया. मन मार कर बा ने भी सब किया. मन मार कर आज भी लडकियां करती हैं, बाउजी के लिए, पति के लिए, बच्चे के लिए, समाज के लिए.
“अभी कौन बनेगा करोडपति” की एक प्रतिभागी ने बताया कि उसे साडी पहनना बिल्कुल नहीं अच्छा लगता. खाना बनाना तनिक भी नहीं भाता. पढाई में उसकी बहुत रुचि है. वह हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढना चाहती थी. शादी के बाद सबकुछ से उसने समझौता कर लिया है, मगर पढाई से नहीं कर पाई है, वगैरा, वगैरा. अपनी क्लिपिंग देखते समय वह रो पडी. उसने यह कहा कि वह क्लिपिंग में अपनी बेटी को देख कर भावुक हो गई, मगर शो के दौरान वह यह कहती रही कि साडी में उसे फ्रीनेस नहीं लगती, वह अभी भी पढना चाहती है, हर दिन साडी पहनते समय वह यह सोचती है कि साडी किसने बनाई?” साथ में पति और पिता आए थे. पति ने यही कहा कि “उन्हें उसके शलवार सूट पहनने से इंकार नहीं है, मगर साडी में वह ज्यादा सुंदर लगती है.” भई वाह! छम्मकछल्लो या कोई स्त्री अपने घर के पुरुषों या पति से कहे कि वे धोती में अधिक सुंदर और पारम्परिक लगते हैं, तो क्या वे सब इसे मानकर धोती पहनने लगेंगे. ना जी ना, माफ कीजिए, इसे तनिक भी नारीवादी नज़रिये से नहीं पूछा जा रहा.
प्रतिभागी अच्छे खाते पीते घर की युवती थी. मन में सवाल यहीं पर खडे होते हैं कि क्या लडकियों को अभी भी अपने मन से पहनने पढने, कैरियर बनाने की आज़ादी नहीं है? क्या उस युवती की जगह उसका भाई हॉर्वर्ड में पढना चाहता, तो उसके पिता उसे भेजते नहीं? भाई जींस पहनना चाहता तो क्या उसे मना किया जाता? भाई घर का काम नहीं करना चाहे तो क्या उस पर दवाब दिया जाता? भाइयो, इतनी तो आज़ादी उसे दे दीजिए कि वह अपने मन की पहन सके, पढ सके. आपका जींस पहनना अगर बुरा नहीं है तो किसी सविता, कविता, सरोज या रिया द्वारा कैसे हो सकता है? कुछ अगर गलत और बुरा है तो सबके लिए है. हां, बडे और ओछे का मामला है, स्त्री धन है और धन पर उसके मालिकों, यानी बाप, भाई, पति, बेटे का अधिकार है कि वह अपने धन का चाहे जैसा इस्तेमाल करे, आप बोलनेवाले कौन?
“क्या पढना चाहती हो?”
“बाउजी बताएंगे.”
“ क्या बनना चाहती हो?
“बाउजी बताएंगे.”
“क्या पहनना चाहती हो?”
“बाउजी बताएंगे.”
“कहां जाना चाहती हो?”
“ बाउजी बताएंगे.”
और बाउजी, प्राउड फादर होते थे या नहीं, पता नहीं, मगर अपना मौरूसी हक़ समझते थे, बेटी की सांस का एक एक हिसाब रखना.
जमाना बदला नहीं है बहुत अधिक. गांव, शहर, कस्बा, महानगर! कुछ नज़ारे ज़रूर बदले मिलते हैं. मगर गहरे से जाइये तो बहुत कुछ बदला नहीं दिखेगा. ना ना न! इसमें अमीर गरीब, छोटे बडे का कोई मामला नहीं है. छम्मकछल्लो अच्छे अच्छे घरों में जाती रही है. खाते पीते समृद्ध लोग. हर माह एकाध गहने गढवा देनेवाले लोग. हर महीने सोना, टीवी, फर्नीचर, अन्य साजो सामान खरीदनेवाले लोग. हर दिन नया नया और अच्छा अच्छा खाने पीनेवाले लोग. वे सब कभी फख्र से, कभी सलाह से, कभी उपदेश से कहते हैं, “मैंने बेटी को बोल दिया है कि “बेटे, जो मर्ज़ी हो, पहन, मगर जींस, टॉप मत पहनना, स्लीवलेस ड्रेस मत पहनना.”
“ मेरे घर में भाभीजी (छम्मकछल्लो), पत्नी को कह दिया है कि बेटी के लिए ड्रेस खरीदते वक्त यह ध्यान रखे कि गला पीछे से भी गहरा ना हो, आस्तीन कम से कम केहुनी तक हो.”
“अभी कितनी उम्र होगी बिटिया की?” भाभीजी (छम्मकछल्लो) पूछ लेती है.
“अभी तो भाभी जी नौंवा चढा है.”
“अरे, तो अभी तो पहनने दीजिए ना उसे. अभी तो बच्ची है.”
“आप नहीं समझती हैं भाभी जी, अभी से आदत लग जाएगी तो बडी होने पर नहीं सुनेगी. लडकियों को कंट्रोल करके तो रखना ही होता है.”
भाभी जी (छम्मकछल्लो) चुप हो जाती है. बेटियों को दिल से, देह से, दिमाग से कंट्रोल करके रखना ही होता है, रखिए, वरना लडकी हाथ से निकल जाएगी, हाथ से निकली तो इज्जत निकल जाएगी. इज़्ज़त का ठेका उन्हें ही तो दे दिया गया है. ढोओ, बेटी, ढोओ.
छम्मकछल्लो अभी अभी एक बहुत बुजुर्ग सज्जन से मिली. बहुत बडे गांधीवादी हैं, जेपी के बहुत बडे भक्त हैं, आज़ादी की लडाई में जेल जा चुके हैं. अभी अपने बलबूते बहुत कुछ अर्जित किया है, धन, मान, नाम, सबकुछ. बात पर बात निकली तो कहने लगे, बेटे की शादी बगैर सोने के किया, अभी पोते की भी कर रहा हूं. ना मैं सोना ले कर जाऊंगा, न लडकीवालों को सोना लाने दूंगा.”
छम्मकछल्लो का माथा श्रद्धा से झुक गया. ऐसे ऐसे लोग समाज में हो तो दहेज की शिकार होने से ना जाने कितनी बहू बेटियां बच जाएंगी. तभी उन्होंने सोने को संदर्भित करते हुए कहा कि जब हम 7वीं 8वीं में थे, हमसे पूछा गया था कि शादी में तुमलोगों को कितना सोना चाहिये? तब देश आज़ाद नहीं हुआ था. सभी ने कहा कि जब शादी होगी, तब देखा जाएगा. मैंने कहा कि मैं वादा करता हूं कि मेरी पत्नी सोना नहीं पहनेगी. और आज तक उसने सोना नहीं पहना.”
पत्नी की ओर से बगैर उसके मन को जाने समझे, उन बुजुर्ग द्वारा की गई प्रतिज्ञा! छम्मकछल्लो को नहीं पता कि उनकी पत्नी को सचमुच सोने से लगाव था या नहीं, मगर आम औरतों की तरह यदि उन्हें भी लगाव रहा होगा तो सोचिए कि इस प्रतिज्ञा का उनके मन पर कितना असर पडा होगा! गांधी जी भी बा को बस ऐसे ही ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ लेते रहे, उन्हें शौचालय की सफाई, गहने दान देने पर विवश किया. मन मार कर बा ने भी सब किया. मन मार कर आज भी लडकियां करती हैं, बाउजी के लिए, पति के लिए, बच्चे के लिए, समाज के लिए.
“अभी कौन बनेगा करोडपति” की एक प्रतिभागी ने बताया कि उसे साडी पहनना बिल्कुल नहीं अच्छा लगता. खाना बनाना तनिक भी नहीं भाता. पढाई में उसकी बहुत रुचि है. वह हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढना चाहती थी. शादी के बाद सबकुछ से उसने समझौता कर लिया है, मगर पढाई से नहीं कर पाई है, वगैरा, वगैरा. अपनी क्लिपिंग देखते समय वह रो पडी. उसने यह कहा कि वह क्लिपिंग में अपनी बेटी को देख कर भावुक हो गई, मगर शो के दौरान वह यह कहती रही कि साडी में उसे फ्रीनेस नहीं लगती, वह अभी भी पढना चाहती है, हर दिन साडी पहनते समय वह यह सोचती है कि साडी किसने बनाई?” साथ में पति और पिता आए थे. पति ने यही कहा कि “उन्हें उसके शलवार सूट पहनने से इंकार नहीं है, मगर साडी में वह ज्यादा सुंदर लगती है.” भई वाह! छम्मकछल्लो या कोई स्त्री अपने घर के पुरुषों या पति से कहे कि वे धोती में अधिक सुंदर और पारम्परिक लगते हैं, तो क्या वे सब इसे मानकर धोती पहनने लगेंगे. ना जी ना, माफ कीजिए, इसे तनिक भी नारीवादी नज़रिये से नहीं पूछा जा रहा.
प्रतिभागी अच्छे खाते पीते घर की युवती थी. मन में सवाल यहीं पर खडे होते हैं कि क्या लडकियों को अभी भी अपने मन से पहनने पढने, कैरियर बनाने की आज़ादी नहीं है? क्या उस युवती की जगह उसका भाई हॉर्वर्ड में पढना चाहता, तो उसके पिता उसे भेजते नहीं? भाई जींस पहनना चाहता तो क्या उसे मना किया जाता? भाई घर का काम नहीं करना चाहे तो क्या उस पर दवाब दिया जाता? भाइयो, इतनी तो आज़ादी उसे दे दीजिए कि वह अपने मन की पहन सके, पढ सके. आपका जींस पहनना अगर बुरा नहीं है तो किसी सविता, कविता, सरोज या रिया द्वारा कैसे हो सकता है? कुछ अगर गलत और बुरा है तो सबके लिए है. हां, बडे और ओछे का मामला है, स्त्री धन है और धन पर उसके मालिकों, यानी बाप, भाई, पति, बेटे का अधिकार है कि वह अपने धन का चाहे जैसा इस्तेमाल करे, आप बोलनेवाले कौन?
Monday, November 1, 2010
‘ताकत’ की भाषा
हमारा देश विद्वानों का देश है. पहले विद्वानों के लिए कोई भाषा निर्धारित नहीं थी. कालिदास, चरक, पाणिनी, सूर, तुलसी, मीरा, महात्मा फुले, तुकाराम, शरत, बंकिम, प्रेमचंद, सुब्रमणियम भारती, सभी विद्वान थे. आज के समय में ये सब विद्वान की सीढी से खींचकर उतार दिए जाते. क्यों? क्योंकि उनको आज के भारतीय विद्वानों की जबान जो नहीं आती. और जिसे यह ज़बान नहीं आती, वह अनपढ कहलाता है या कम अक्ल का. यह इस महान देश की नई बुद्धिजीवी अवधारणा है. देश की सारी बहसें ये सभी बुद्धिजीवी करते हैं और अंग्रेजी में करते हैं. इतने बडे देश में 28 संविधान मान्यता प्राप्त भाषाओं के बावजूद हमारा देश इतना दरिद्र है कि वह अपनी भाषा में बहस नहीं कर सकता, काम नहीं कर सकता, नीति नहीं बना सकता. करेगा, इसे बस योगा उअर अम्र्त्य सेन की तरह पश्चिम से आने दीजिए. यह पश्चिम का पुरस्कार है और उधर से समादृत होनेके बाद ही हम अपनों का आदर करते हैं.
हमारे महान बुद्धिजीवी देश से भारतीयता के खत्म होने की चिंता में दुबले हो रहे हैं. वे इस पर विचार करते हैं, बहस करते हैं, सेमिनार करते हैं, सभी अंग्रेजी में करते हैं, अखबारों में कॉलम दर कॉलम लिखते हैं, अंग्रेजी में लिखते हैं, मगर कहते हैं कि अंग्रेजी उनकी सभ्यता, संस्कृति को खाए जा रही है. इन बुद्धिजीवियों को यही समझ में नहीं आ रहा है कि इस समस्या से कैसे निपटा जाए, जैसे कालिदास को कहते हैं कि यह समझ में नहीं आया था कि जिस पेड की डाल पर बैठे हैं, उसे क्यों ना काटा जाए?
छम्मकछल्लो को एक कहावत याद आती है- सोए को जगाया जा सकता है, जगे हुए को कैसे जगाया जाए?” इतने बडे बडे विद्वान और बुद्धिजीवी और एक इतनी छोटी सी बात नहीं समझ पा रहे? सभी देश की अन्य तमाम भाषाओं की बात करते हैं. हिंदी से सभी भारतीय भाषाओं को खतरा है, इसलिए सभी भाषा, बोलियां अपना अपना अस्तित्व ले कर सामने आ खडी हुई हैं. अभी अभी छम्मकछल्लो ने एक बहुत बडे पत्रकार के लेख से फिर पढा. हिंदी से देश की भाषाओं को खतरा है, इसकी चिंता है, वाजिब है. वे महान नेता के कामराज का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि उन्होंने जीवन भर तमिल के अलावा एक भी शब्द अन्य भाषा के नहीं बोले, मगर वे सबसे अधिक पॉवरफुल नेता थे.
छम्मकछल्लो को यही नही समझ में आया कि पॉवर का भाषा से क्या ताल्ल्कु? छम्मकछल्लो जब पढती थी तो उसका छात्र नेता महाविद्यालय, विश्वविद्यालय के प्रतिनिधियों को बडे ठसके के साथ कहता था कि वह तो हिंदी में ही बोलेगा. समझना आपका काम है. हे प्रखर पत्रकार जी, ताकत की केवल एक ही भाषा होती है- “ताकत”.
छम्मकछल्लो ने कई फोरम में यह बात रखी कि अगर हिंदी से देश को खतरा है, अगर अंग्रेजी देश की सभ्यता, संस्कृति को खाए जा रही है तो इसका उपाय तो दीजिए. आखिर सुझाव बुद्धिजीवी ही दे सकते हैं. सभी बडे लोग यह तपाक से कहते हैं कि क्या ज़रूरत है हिंदी को सभी पर थोपने की? और अंग्रेजी? यह तो ज़रूरी है. यह ना आई तो हम विश्व से बाज़ी नहीं मार सकते. मारिए, बाज़ी. इसके लिए अगर अपना घर होम करना पडे तो कीजिए, अपनी भाषा, संस्कृति, सभ्यता को लात मारनी पडे तो मारिए. हमें यह देखना है कि हम पॉवरफुल हो रहे हैं कि नहीं? पॉवर यानी ताकत तो फिरंगी रूप रंग, वेश भूषा, हाव भाव, अकडन, जकडन, तकडन से ही आता है.
हमारे महान बुद्धिजीवी देश से भारतीयता के खत्म होने की चिंता में दुबले हो रहे हैं. वे इस पर विचार करते हैं, बहस करते हैं, सेमिनार करते हैं, सभी अंग्रेजी में करते हैं, अखबारों में कॉलम दर कॉलम लिखते हैं, अंग्रेजी में लिखते हैं, मगर कहते हैं कि अंग्रेजी उनकी सभ्यता, संस्कृति को खाए जा रही है. इन बुद्धिजीवियों को यही समझ में नहीं आ रहा है कि इस समस्या से कैसे निपटा जाए, जैसे कालिदास को कहते हैं कि यह समझ में नहीं आया था कि जिस पेड की डाल पर बैठे हैं, उसे क्यों ना काटा जाए?
छम्मकछल्लो को एक कहावत याद आती है- सोए को जगाया जा सकता है, जगे हुए को कैसे जगाया जाए?” इतने बडे बडे विद्वान और बुद्धिजीवी और एक इतनी छोटी सी बात नहीं समझ पा रहे? सभी देश की अन्य तमाम भाषाओं की बात करते हैं. हिंदी से सभी भारतीय भाषाओं को खतरा है, इसलिए सभी भाषा, बोलियां अपना अपना अस्तित्व ले कर सामने आ खडी हुई हैं. अभी अभी छम्मकछल्लो ने एक बहुत बडे पत्रकार के लेख से फिर पढा. हिंदी से देश की भाषाओं को खतरा है, इसकी चिंता है, वाजिब है. वे महान नेता के कामराज का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि उन्होंने जीवन भर तमिल के अलावा एक भी शब्द अन्य भाषा के नहीं बोले, मगर वे सबसे अधिक पॉवरफुल नेता थे.
छम्मकछल्लो को यही नही समझ में आया कि पॉवर का भाषा से क्या ताल्ल्कु? छम्मकछल्लो जब पढती थी तो उसका छात्र नेता महाविद्यालय, विश्वविद्यालय के प्रतिनिधियों को बडे ठसके के साथ कहता था कि वह तो हिंदी में ही बोलेगा. समझना आपका काम है. हे प्रखर पत्रकार जी, ताकत की केवल एक ही भाषा होती है- “ताकत”.
छम्मकछल्लो ने कई फोरम में यह बात रखी कि अगर हिंदी से देश को खतरा है, अगर अंग्रेजी देश की सभ्यता, संस्कृति को खाए जा रही है तो इसका उपाय तो दीजिए. आखिर सुझाव बुद्धिजीवी ही दे सकते हैं. सभी बडे लोग यह तपाक से कहते हैं कि क्या ज़रूरत है हिंदी को सभी पर थोपने की? और अंग्रेजी? यह तो ज़रूरी है. यह ना आई तो हम विश्व से बाज़ी नहीं मार सकते. मारिए, बाज़ी. इसके लिए अगर अपना घर होम करना पडे तो कीजिए, अपनी भाषा, संस्कृति, सभ्यता को लात मारनी पडे तो मारिए. हमें यह देखना है कि हम पॉवरफुल हो रहे हैं कि नहीं? पॉवर यानी ताकत तो फिरंगी रूप रंग, वेश भूषा, हाव भाव, अकडन, जकडन, तकडन से ही आता है.
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