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छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

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Thursday, September 17, 2009

एक पहेली- वे हमारा छुआ खाते है, मगर हम नहीं तो कौन बडा, कौन बडा?

mohallalive।com पर पढ़े छम्मक्छल्लो का यह लेख। लिंक है- http://mohallalive.com/2009/09/17/vibha-rani-on-social-distance/

छम्मकछल्लो बचपन से कुछ बातों को ले कर हैरान है, परेशान है। बचपन से उसने कई लोगों से इस बाबत पूछा, मगर कहीं से ऐसा कोई जवाब नहीं मिला जो उसे संतुष्ट कर जाता। “बावरा मन अहेरी खोजे पिऊ कहां, पिऊ कहां?” आप सबके सामने भी वह अपनी परेशानी रख रही है।
छम्मकछल्लो के घर में शब्बीर मास्टर, उस्तानी जी, यूसुफ मियां आते थे। ये सब जब आते थे, तब उन्हें अलग से रखे चीनी-मिट्टी के कप-प्लेट में चाय-नाश्ता दिया जाता था। उनके जाने के बाद उसे फिर से धो कर अलग से रख दिया जाता। कभी अगर भूले से उस कप-प्लेट को उठा लेता घर के या अन्य लोगों के प्रयोग के लिए, तो बड़े चौकन्ने भाव से “हां-हां, हां-हां” कह कर मनाही की जाती।
छम्मकछल्लो के शहर में एक घीवाला था। उसका भी नाम शकूर या रहमान या कुछ ऐसा ही था। पूजा-पाठ हो या सामान्य दिन- पूरे मोहल्ले में घी उसी के यहां से आता था, क्योंकि उसके यहां के घी की क्वालिटी अच्छी होती थी। वजन भी अच्छा होता था। उधार भी दे देता था। तगादा भी कम करता था।
हमारे यहां जलेश्वरी भी आती थी। उसका काम होता था- पर्व-त्योहार के आने पर पूरे घर को गोबर-मिट्टी से लीपना। उसके यहां गाय थी, इसलिए वह गोबर भी अपने यहां से ले आती थी। उसे या हमारे घर के शौचालय को साफ करनेवाली को जब रोटी या कुछ भी दिया जाता था, तो देनेवाला अपना हाथ उससे कम से कम दो से तीन फीट की दूरी पर रखता।
शहर में एक मजिस्ट्रेट साहब आये। सभी उन्हें तो मजिस्ट्रेट साहब कहते, मगर उनकी पत्नी को चाची। पूरे परिवार की पढाई-लिखाई, रहने सहने के तौर-तरीके से सभी प्रभावित। मोहल्ले की चाचियां अपनी-अपनी बेटियों को स्वेटर बुनने, कढाई-सिलाई सीखने के लिए उनके पास भेजने लगीं। चाची भी बड़े प्रेम से यह सब सिखातीं। वे जब घर पर आतीं तो उनके लिए भी वही चीनी-मिट्टीवाला कप-प्लेट निकाला जाता। सभी महिलाएं उनके यहां उसी दिन जातीं, जिस दिन उनका कोई व्रत होता, ताकि उनके हाथ का खाना-पीना खाने से बचा जा सके। क्रिस्मस में वे खास तौर पर बिना अंडे का रोज केक बनाती, सभी के यहां भेजतीं, मगर उसे भी किसी शकूर, किसी जलेश्वरी, किसी हरखू को दे दिया जाता।
एक बार शहर में कोई बहुत बड़े हाकिम आये। नाम था ए राम। सभी ने घृणा से कहा – “ए राम? अब उसके साथ उठना-बैठना पड़ेगा? खाना-पीना पड़ेगा?” सभी आपस में ही खुसुर-फुसुर कर रहे थे। हिम्मत तो किसी में थी नहीं कि कोई उनके सामने यह कहता। फिर यही श्री ए राम घर पर आये। तब फूल की थाली में खाना परोसा जाता था। खाना परोसा गया और उनके जाने के बाद उस थाली-ग्लास आदि को आग में जला कर पवित्र किया गया।
ये सभी शब्बीर मास्टर, उस्तानी जी, यूसुफ मियां, शकूर या रहमान, मजिस्ट्रेट साहब, ए राम साहब वगैरह छम्मकछल्लो या अन्यों के घरों का सब कुछ खाते-पीते। न खाना किसी क्रांति जैसी घटना होती और उस शहर में ऐसी कोई क्रांति आई नहीं। सब इसी में मगन थे कि ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई उनके हाथ का नहीं खाए? हमने भी खुद को बड़ा मान लिया और खाने से मना कर दिया।हमने भी खुद को बड़ा मान लिया और खाने से मना कर दिया।हमने भी खुद को बड़ा मान लिया और खाने से मना कर दिया। मगर यही शब्बीर मास्टर, उस्तानी जी, यूसुफ मियां, शकूर या रहमान, मजिस्ट्रेट साहब, ए राम साहब वगैरह जब ईद या शबे बरात में सेवई, बर्फी आदि भेजते तो उसे कोई नहीं खाता था। उसे जलेश्वरी, फुलेसरी, सोमीदास या ऐसे ही किसी को दे दिया जाता। खुद जलेश्वरी के यहां से कोई प्रसाद या पकवान आता तो उसे किसी और जलेश्वरी या फुलेसरी या चनिया के हवाले कर दिया जाता।
चलते-चलते एक और ताज्जुब की बात कि शब्बीर मास्टर, उस्तानी जी, यूसुफ मियां, शकूर या रहमान मियां के यहां से खजूर आता, तो उसे सब खा लेते। उसी तरह जलेश्वरी के घर से आम, केले, ताड़ के फल आते तो उसे सब खा लते। तब यह कह दिया जाता कि फल में छूत नहीं होती, जैसे शकूर या रहमान मियां के यहां के घी में कोई छूत नहीं होती। छम्मकछल्लो को एक वाकया और भी याद आता है कि घर में पूजा-पाठ के समय महिलाओं के लिए हमेशा नयी साड़ी आती। अगर किसी वजह से नयी साड़ी नहीं है तो कह दिया जाता कि बनारसी साड़ी पहन लो, उसमें नये-पुराने का भेद-भाव नहीं रहता। छम्मकछल्लो की मंद बुद्धि में यही आया कि मंहगी चीज़ों में छूत नहीं लगती, चाहे वह फल हो या साड़ी।

आप छम्मकछल्लो को कह सकते हैं कि यह तब की बात होगी। आज ऐसा नहीं है। तो छम्मकछल्लो का शिद्दत से ये मानना है कि आज भी इस भाव में कमी नहीं आयी है। छम्मकछल्लो की ही अपनी बहन उसके घर पूरे 15 दिन रही और खुद रोटी बना कर खाती रही, क्योंकि छम्मकछल्लो की खाना बनानेवाली का नाम फातिमा है। वैसे फातिमा पर छम्मकछल्लो का सारा घर फिदा है, क्योंकि वह बहुत अच्छा खाना बनाती है।
तो पहेली यह कि शब्बीर मास्टर, उस्तानी जी, यूसुफ मियां, शकूर या रहमान, मजिस्ट्रेट साहब, ए राम साहब वगैरह छम्मकछल्लो या अन्यों के घरों का सब कुछ खाते-पीते रहे तो बड़ा या दिलदार कौन? हमने नहीं खाया तो छोटा या संकीर्ण कौन? बूझो तो जानें।

5 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

छम्मक्छल्लो उवाच बढ़िया रहा।
बधाई!

दिनेशराय द्विवेदी said...

शानदार आलेख है। हालांकि तीखापन कम है। निवेदन स्वीकारने के लिए धन्यवाद।

उम्मतें said...

बढ़िया !

वाणी गीत said...

संकीर्ण सोच वाले ही तो ..!!

Billo Rani said...

Billo Rani bolegi-"BINDAAS". Apun ka dil loot ke le gaiyee CHHAMMAKCHHALLO JEE.