हम बहुत धार्मिक हैं. इतने कि जब-तब हमारी धार्मिक भावना आहत होती रहती है. ज़ाहिर है कि यह आहत करने का काम कोई दूसरा ही करेगा. हम कभी भी अपने -आप से आहत नहीं होते. कोई अपने पैरों पर खुद से कुल्हाडी मारता है क्या?
देश धार्मिक है, हम धार्मिक हैं तो सारे समय देश में धर्म की धज फहराती रहती है. श्रावण मास के आते ही पूजा-पाठ, व्रत-उपवास के अम्बार लग जाते हैं. जिसकी जैसी श्रद्धा, वैसी भक्ति. आखिरकार यह धर्म और उससे उपजी श्रद्धा का मामला है.
मुँबई में ग़नपति यानी गणेश चतुर्थी का बहुत महत्व है. इसकी महिमा तो अब इतनी है कि अब मुंबईकर या महाराष्ट्रीयन से अधिक गैर मुंबईकर या ग़ैर महाराष्ट्रीयन इसे मनाते हैं. चलिये, इससे कोई फर्क़ नहीं पडता कि कौन सा पर्व कौन मना रहा है. छम्मक्छल्लो को अपना कलकता-प्रवास याद आता है, जब उत्तर भारतीयों का एक दल अष्टयाम के लिए चन्दा मांगने पहुंचा था और इस बिना पर अधिक चन्दा चाह रहा था, क्योंकि यह "अपनी" पूजा है. गैर की पूजा कौन सी हुई, यह पूछने पर तपाक से उत्तर भी मिला था कि वही, जो बंगाली लोग सब करता है, यानी कि दुर्गा पूजा. छम्मक्छल्लो को हंसी आ गई थी यह सुनकर कि अब दुर्गा पूजा खालिस बंगालियों की पूजा हो गई.
पूजा कोई भी हो, कोई भी करे, श्रद्धा जैसा तत्व सभी में एक समान रहता है. सभी अपनी अपनी श्रद्धा, आस्था से पूजा करते हैं, मगर बस पूजा तक. सभी पूजा में विसर्जन की भी प्रथा है. विसर्जन के बाद देवी-देवता का आसन हिला दिया जाता है, कह दिया हाता है-"स्वस्थानम गच्छतु:" यानी," हे देव, आप जहां से आये थे, वहीं के लिए पुन: प्रस्थान कीजिये". टपोरी ज़बान में कहें तो " जा रे बाबा, अपने घर जा, बहुत किया तेरा, खाली-पीली अब ज्यास्ती मुंडी पर बैठने का नहीं". और फिर देव प्रतिमा जा कर पानी में डाल आइये. पानी में डालने तक तो खूब जय-जय, खूब-खूब श्रद्धा का प्रदर्शन, और पानी में डालने के बाद पीठ फेरते ही देव, तू जा खड्डे में.
गणपति का विसर्जन दूसरे दिन, पांचवे दिन, सातवें दिन और दसवें दिन यानी कि अनंत चतुर्दशी के दिन होता है. हर दिन के विसर्जन के दूसरे दिन समुद्र का किनारा छम्मक्छल्लो ने देखा - फूल, पत्ते, माला, के अलावे अंग-भंग हुई प्रतिमा. सिर कहीं तो हाथ कहीं तो सूंढ कहीं. समुद्र तो अपनी लहरों में कुछ बहा कर ले जाता नहीं. वह दूसरे दिन "त्वदीयं वस्तु गोविन्दे, तुभ्यमेव समर्पिते" की तरह किनारे पर सबकुछ छोड देता है. भक्तों की श्रद्धा यहां काम नहीं करती. वह इन सबसे भी दूर रहती है कि इन मूर्तियों के बनने या उनके सजावट में कितने केमिकल्स का इस्तेमाल हुआ? इन केमिकल्स से समुद्रे जीव का कितना नुकसान होगा? आस-पास कितनी गन्दगी फैलेगी, उससे कितनी बीमारियां होंगी? यह सब होता है, होने दो. ग्लोबल वार्मिंग बढ रही है, बढने दो. देश भर में बारिश कम हुई, होने दो, पर्यावरणवादी लाख प्रदूषण -प्रदूषण चिल्लाते रहें, चिल्लाने दो. अपन का क्या? अपन इन सबले लिए थोडे ना बने हैं. इन सबके लिए एनजीओ और पागल लोग हैं जो कुछ ना कुछ करते रहते हैं. आखिर उनको भी तो काम-नाम मिलना चाहिये कि नहीं?
एक ने कहा कि पूजा-पाठ पर इतना खर्च ना करके ये सार्वजनिक वले इन पैसों से स्कूल-कॉलेज, अस्पताल क्यों नहीं खुलवाते? असमर्थ बच्चों की फीस क्यों नहीं भर देते? गरीबों का इलाज क्यों नहीं करा देते? फिर खुद ही उत्तर भी दे दिया कि तब लोग उनके बारे में जानेंगे कैसे? या फिर इन सब पचडे में कौन पडे? अपन का काम तो बस मस्ती करने का है, सो करेंगे. बाकी दुनिया जहन्नुम में जाये. एक ने कह, सरकार को फिक्स कर देना चाहिये कि इतनी संख्या से और इतनी ऊंचाई से ज़्यादा की मूर्ति नहीं बनेगी. फिर खुद ही उत्तर भी दे दिया- " धर्म के मामले में तो सरकार भी नहीं बोलेगी"
छम्मक्छल्लो को एक लतीफा याद आ गया. अलग-अलग धर्मों के कुछ आदमी एक नाव पर सवार थे. नाव में छेद हो गया. पानी भर गया. नाव डूबने लगी. सभी ने अपने-अपने धर्म के भगवानों को याद किया और सभी धर्म के देवता आ कर उनकी जान बचा गये. एक ने गणपति को पुकारा. गणपति आये और नाचने लगे. आदमी ने गुस्से से कहा, "मेरी जान जा रही है, मैने अपनी जान बचाने के लिए आपको पुकारा औअर आप हैं कि जान बचाने के बदले नाच रहे हैं? गणपति ने कहा, "याद करो, जब मैं डूब रहा होता हूं तब तुमलोग भी इसी तरहे से नाच रहे होते हो." और गणपति वहां से अंतर्ध्यान हो गये. हम भी उनके विसर्जन के बाद वहां से अंतर्ध्यान हो जाते हैं. अपनी-अपनी श्रद्धा है. कोई कचरा लगाता है, भगवान के नाम पर तो कोई उसकी साफ-सफाई करता है, भगवान के ही नाम पर.
6 comments:
तीखा...अन्दर तक बेंधने वाला व्यंग्य लिखने के लिए बधाई स्वीकार करें
बहुत सुंदर व्यंग्य। आप लेखन मे नए प्रतिमान स्थापित कर सकती हैं।
द्विवेदी जी,
छम्मकछल्लो जी तो पहले ही स्थापित लेखिका हैं. आपकी कई पुस्तकें, नाटक इत्यादि प्रकाशित हैं
छमकछल्लो जी, बधाई. आपने जो बताया सच्चाई ही है, जिस प्रयोजन से सार्वजनिक गणेशोत्सव प्रारंभ हुआ था मैं समझता हूं अब वो सिद्ध हो चुका है. अब इससे कई समस्याऐं उत्पन्न हो रही है जैसे आम जनता को परिवहन में आने वाली समस्याऐं, बढ़ता ध्वनि प्रदूषण,चंदा देने की मजबूरी आदि.
मूर्तियों की उंचाई बढ़ाने की होड़ है.विसर्जन के समय बिजली, केबल के तार छिन्न-भिन्न हो जाते हैं.प्रशासन पर कई प्रकार के बोझ पड़ते हैं. कुल मिला कर भक्ति न रह कर यह एक प्रकार का मनोरंजन, दिखावा हो गया है और अंत में इन पंडाल आयोजकों ने गणेश जी को विध्नहर्ता से विध्नकर्ता बना दिया है.
विजयप्रकाश
very nice nd to the point. gud work mam.
kitna aacha or saccha likha hai, ki dharm k naam per kya kya nahi kar baithte.. bhaut khushi hui aapka ye article padh kar.
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