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Friday, May 30, 2008

राजेन्द्र बाबू से भी पहले तिलक-दहेज़ -साभार 'पुन्य -स्मरण'

डॉ राजेन्द्र प्रसाद के बारे भाई महेन्द्र प्रसाद देश व समाज की सेवा अपने ढंग से किया करते थे। उनके समय में छपरा में नाटक खेले जाते थे। सामाजिक नाटकों का क्या प्रभाव परता था, यह एक उदाहरण से पाता चलता है।
तिलक-दहेज़ पर आधारित नाटक 'भारत स्मरणीय' नाटक खेला गया। टैब छपरा में पंडित विक्रमादित्य मिश्र नामक बहुत बारे ज्योतिषी रहते थे। उन्होंने अपने लडके का ब्याह तय कर दिया था। वे भी यह नाटक देखने आए थे। दूसरे ही दिन उनहोंने अपने भावी समधी को बुलाकर कहा कि 'ये तिलक की राशी मैं लौटा रहा हू। ' कन्या के पपीता घबदाये क्योंकि तिलक लौटाने का अर्थ है- ब्याह से इनकार करना। पंडित जी ने कहा, 'विवाह होगा, और इसी कन्या से होगा। किन्त्न्यु कल जो मैंने नाटक देखा और उसमें लड़की के पिटा कि जो दुर्गति देखी, उससे मैं समझ गया हूँ कि तिलक लेना महा पाप है। कन्या पक्ष पैसे लेने को राजी नहीं। अंत में इस विवाद का हल निकाला गया कि तिलक के वे रुपये कन्या के लिए स्त्री-धन के रूप में मान लिया जाए और जितनी भी रस्में आदि हैं, उनमें दस्तूर के मुताबिक मट्टी रकम न दी जाए और न ली जाए। केवल एक रुपया हर रस्म पर दिया जाए और इस प्रकार आगे का लें-देन आठ- दस रुपयों में समाप्त कर लिया जाए।
थिएटर की यह ताक़त अदभुत है। और यह समझ भी कि यदि व्यक्ति चाहे तो क्या नही कर सकता?
आज भी तिलक-दहेज़ कम नहीं हुआ है। हैरानी है किवार स्वयम भी इसके पक्ष में रहता है और इस मुद्दे पर घर-परिवार की दुहाई देकर चुप हो जाता है। कुछ लडके हैं, जो माँ-बाप कि इस इच्छा को सफल नहीं होने देते। वैसे सभी लड़कों और तिलक की चाह न रखनेवाले माता-पता को सलाम। सोचें, कि अगर यह उस ज़माने में सम्भव था तो आज जबकि समय इतना आगे बढ़ गया है और लडके-लड़की दोनों अपने पैरों पर क्खादे है, तो आज यह सब क्यों मुमकिन नहीं हो सकता। छाम्माक्छाल्लो का सपष्ट मत है कि ऐसा सम्भव है। बस आपकी नज़र और मन के भाव चाहिए।

1 comment:

हर्ष प्रसाद said...

kripaya lekhak ka naam, aur prakashak ka naam bhi dein taki zaroorat padne par pustak apne kosh ke liye mangaayee jaa sake