Tensions in life leap our peace. Chhammakchhallo gives a comic relief through its satire, stories, poems and other relevance. Leave your pain somewhere aside and be happy with me, via chhammakchhallokahis.
Friday, May 30, 2008
राजेन्द्र बाबू से भी पहले तिलक-दहेज़ -साभार 'पुन्य -स्मरण'
तिलक-दहेज़ पर आधारित नाटक 'भारत स्मरणीय' नाटक खेला गया। टैब छपरा में पंडित विक्रमादित्य मिश्र नामक बहुत बारे ज्योतिषी रहते थे। उन्होंने अपने लडके का ब्याह तय कर दिया था। वे भी यह नाटक देखने आए थे। दूसरे ही दिन उनहोंने अपने भावी समधी को बुलाकर कहा कि 'ये तिलक की राशी मैं लौटा रहा हू। ' कन्या के पपीता घबदाये क्योंकि तिलक लौटाने का अर्थ है- ब्याह से इनकार करना। पंडित जी ने कहा, 'विवाह होगा, और इसी कन्या से होगा। किन्त्न्यु कल जो मैंने नाटक देखा और उसमें लड़की के पिटा कि जो दुर्गति देखी, उससे मैं समझ गया हूँ कि तिलक लेना महा पाप है। कन्या पक्ष पैसे लेने को राजी नहीं। अंत में इस विवाद का हल निकाला गया कि तिलक के वे रुपये कन्या के लिए स्त्री-धन के रूप में मान लिया जाए और जितनी भी रस्में आदि हैं, उनमें दस्तूर के मुताबिक मट्टी रकम न दी जाए और न ली जाए। केवल एक रुपया हर रस्म पर दिया जाए और इस प्रकार आगे का लें-देन आठ- दस रुपयों में समाप्त कर लिया जाए।
थिएटर की यह ताक़त अदभुत है। और यह समझ भी कि यदि व्यक्ति चाहे तो क्या नही कर सकता?
आज भी तिलक-दहेज़ कम नहीं हुआ है। हैरानी है किवार स्वयम भी इसके पक्ष में रहता है और इस मुद्दे पर घर-परिवार की दुहाई देकर चुप हो जाता है। कुछ लडके हैं, जो माँ-बाप कि इस इच्छा को सफल नहीं होने देते। वैसे सभी लड़कों और तिलक की चाह न रखनेवाले माता-पता को सलाम। सोचें, कि अगर यह उस ज़माने में सम्भव था तो आज जबकि समय इतना आगे बढ़ गया है और लडके-लड़की दोनों अपने पैरों पर क्खादे है, तो आज यह सब क्यों मुमकिन नहीं हो सकता। छाम्माक्छाल्लो का सपष्ट मत है कि ऐसा सम्भव है। बस आपकी नज़र और मन के भाव चाहिए।
Thursday, May 29, 2008
महाभारत किसलिए हुआ था?
"अधिकार खो कर बैठा रहना यह महा दुशाकर्म है
न्याय्याढ़ अपने बंधू को भी दंड देना धर्म है
इस तत्व पर ही पांडवों का कौरवों से रण हुआ
जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ।"
छाम्माक्छाल्लो ने स्वामी जी से पूछा कि द्रौपदी तो बाद में अपमानित हुई सार्वजनिक, लेकिन जब वह अपने ही घर में ५ पुरुषों के बीच बाँट दी गई, टैब क्यों नहीं हुआ महाभारत? क्या जो अपराध या ग़लत काम घर, परिवार, समाज की सहमति से हो, वह ठीक और जो ना हो, वह ग़लत हो जाता है? स्वामी जी के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। छाम्माक्छाल्लो को लगता है कि यदि उसी समय द्रौपदी ने इसका विरोध कीया होता तो आज महिलाओं और बच्चियों पर जो अपने ही नजदीकियों द्वारा अत्याचार किए जा रहे हैं, वे शायद न होते।
प्रसंगवश स्वामी जी ने यह भी कहा कि गावं में आज भी स्त्रियाँ भाव से अधिक बंधी हैं, इसलिए वहांआन कलह आदि कम होते हैं, जबकि शहर में स्मार्ट स्त्रियों मी भाव को तिलांजलि दे दी है, इसलिए वे किसी के भी प्रती भावुक नहीं हैं, न घर, न पति, ना बच्चे। भाव और ह्रदय के नाम पर कबतक स्त्रियों को बरगलाया जाता रहेगा, यह पाता नहीं। छ्हम्माकछाल्लो ने कहा किस्मार्टनेस बुद्धिमानी से आती है और भाव को थोडा कम करके भुद्धि को वहाँ जगह देना आज की मांग है, ताकि स्त्रियाँ केवल छुई-मुई सी नाज़ुक सी गुडिया भर ही ना बनी रह जाए- ता उम्र, जन्म जन्मांतर। आख़िर कबतक भावना के नाम पर उन्हें दरकिनार किया जाता रहेगा? और आज जब स्त्रियाँ दिल और दिमाग दोनों से अमज्बूत हो रही हैं तो इसका असर समाज पर आ रहा है॥ आज के युवा, खासकर लड़कों की सोच में बदलाव आया है। यह सकारात्न्म्मक बदलाव अगली पीढी को और मजबूती देगा। निशचय ही इसका सेहरा आज की पढी-लिखी स्त्रियों पर जाता है, और हाँ, उनके माता-पिटा कू भी यह श्री है कि उन्होंने अपनी बेटियों को पढाया। बौद्धिक रूप से मज़बूत हो कर आज स्त्रियाँ अपने आपको हर कठिन हालत से लड़ने के लिए तैयार रखती हैं।
स्वामी जी के पास इसका भी कोई जवाब न था। न, भ्रमित ना हों कि वे कोई सड़क छाप महात्मा या साधू थे। अईईती के इंजीनियर थे। १० साल तक कार्पोरेट जगत में काम कराने के बाद अब अपना प्रतिष्ठान चलाते हैं और जगह-जगह प्रबंधन से संबंधित विषय पर अभिभाषण देते हैं।
छाम्माक्छाल्लो को लगा कि समाज में तक ये वर्ग भेद लगा रहेगा, एक सफल कार्पोरेट की संकल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि कार्पोरेट ही सबसे पहले महिलाओं को यह कहा कर खारिज कराने का प्रयास करता रहता है कि महिलायें ज़्यादा भावुक होने के कारण सही निर्णय नहीं ले पातीं, जबकि आज वे दिल और दिमाग के अद्भुत संयोजन के बल पर हर काम को बखूबी अंजाम दे रही हैं। सोच में यह बदलाव ज़रूरी है- चाहे वह द्रुँपदी हो या आज की नारी।
Wednesday, May 28, 2008
अब मम्मियों को छेड़ना होगा जेहाद
अभी भी हिन्दुस्तान में प्रेम विवाह या पानी पसंद के विवाह को उतनी वरीयता नहीं दी जाती। बच्चों को पढ़ने, पहनने की आजादी देनेवाले मैं-बाप अभी भी इस पर अपना एकाधिकार समझते हैं। लड़केवाले और लड़कीवाले का गत फर्क यहाँ ऐसा सर चढ़कर बोलता है कि शादी के नाम से नफ़रत सी होने लगती है। शादी के बाद की असमानता, असंतुलन तो बाद की चीज़ है।
लड़की आज किसी भी मामले में लड़कों से कम नहीं हैं। बेटियों को भी मैं-बाप बेटों की तरह ही पढा रहे हैं। यह संतोष की बात होते हुए भी शादी के मुद्दे पर उन्हें आजादी न देना बच्चों के प्रति कहीं न कहीं एक अविश्वास को दिखाता है। एक शादी का खर्च तो लड़का-लड़की खोजने में ही ख़त्म हो जाता है। उस पर से बार-बार लड़की को हर लड़केवाले के सामने सजा-धजा कर प्रस्तुत करना। यह अपने आप में इतना गलीज लगता है, जैसे बेटियाँ न हीन, प्रसाधन या सजावट का कोई सामान हो गई, जो पुकार-पुकार कर कहता है कि लो मैं प्रस्तुत हूँ। आओ, मुझे देखो, परखो।
परखने की घटना- कोई हाथ फैलाकर तो कोई साड़ी टखने तक उठा कर देखेंगे कि लड़की कहीं लूली- लंगडी तो नहीं। आँखें ऊपर उठावायेंगे कि कहीं वह कानी तो नहीं। सवाल ऐसे-ऐसे कि मन करे कि एक बड़ा सा पत्थर उठाक आर सामने वाले ल्के सर पर मार दिया जाए।
उससे भी हैरानी की बात है कि इन बेतियूं की माताएं यह सब परम्परा के नाम पर अच्छा समझती रहती हैं। वे ख़ुद अपने समय में अपने को बीसियों बार इस दिखाने की नारकीय स्थिति से गुजर चुकी होती हैं। फ़िर भी अपनी बेटी को भी इसी स्थिति का सामना कराने के लिए मज़बूर करती हैं। बेटियाँ अभी भी मैं- बाप के कहे अनुसार चलती हैं तो यह सोच कर कि आख़िर लो वे माँ -बाप हैं। तो माँ- बाप को भी इतना अधिकार तो देना ही होगा कि बेटियाँ अपनी पसंद का लड़का तय करे और माँ- बाप अपनी सहमति कि मुहर उस पर लगाएं। बहस बहुत हो सकती है कि अगर लड़का अच्छा न निकला तो? तो इसकी भी क्या गारंटी कि माँ- बाप द्वारा पसंद किया गया लड़का सही ही होगा? इसमें पिटा से अधिक माँ की भुमिका है। माँ अपने समय को याद करे और बेटियों को इस तरह का शो केस बनने से बचाए।
ऐसा होता है तो छाम्माक्छाल्लो इसे अपने जीवन की एक और सफलता समझेगी। हे आज की माम्मियो, आप पढी-लिखी, समझदार हैं। आप अपने बच्चों के भीतर विश्वास भरें। भरोसा रखें, वे आपका विश्वास कभी नहीं तोदेंगे। उन्हें अपना जीवन जीने व अपना जीवन साथी ख़ुद चुनने की आजादी दीजिये। आख़िर कार यह उनकी जिन्दगी है और यह जिंदगी अब आपसे ज़्यादा उम्र और संभावनाओं की है। बको अन्य भी महत्वपूर्ण काम कराने के लिए सोचने दीजिये। शादी भी एक अहम् पक्ष है, इअसके लिए उसे आजादी दें।
Thursday, May 22, 2008
राजेन्द्र बाबू का पत्र- पत्नी के नाम -साभार- पुन्य स्मरण
आशीरबाद,
आजकल हमनी का अच्छी तरह से बानी। उहाँ के खैर सलाह चाहीं, जे खुसी रहे। आगे एह तरह के हाल ना मिलला, एह से तबीयत अंदेसा में बातें। आगे फील-पहल कुछ अपना मन के हाल खुलकर लीखे के चाहत बानीं। चाहीं कि तू मन दे के पढी के एह पर खूब बिचार करीह' और हमारा पास जवाब लिक्जिः'। सब केहू जाने ला कि हम बहुत पधालीन, बहुत नाम भेल, एह से हम बहुत र्पेया कमेब। से केहू के इहे उमेद रहेला कि हमार पढ़ल-लिखल सब रुपया कमाय वास्ते बातें। तोहार का मन हवे से लीखिह्तू हमारा के सिरिफ रुपया कम्माये वास्ते चाहेलू और कुनीओ काम वास्ते? लड़कपन से हमार मन रुपया कमाय से फिरि गेल बातें और जब हमार पढे मी नाम भेल टी' हम कबहीं ना उमेद कैनीं कि इ सब र्पेया कमाए वास्ते होत बातें। एही से हम अब ऐसन बात तोहरा से पूछत बानी कि जे हम रुपया ना कमाईं, टी; तू गरीबी से हमारा साथ गुजर कर लेबू ना? हमार- तोहार सम्बन्ध जिनगी भर वास्ते बातें। जे हम रुपया कमाईं तबो तू हमारे साथ रहबू, ना कमाईं, तबो तू हमारे साथ रहबू। बाक़ी हनारा ई पूछे के हवे कि जो ना हम रुपया कमाईं टी' तोहरा कवनो तरह के तकलीफ होई कि नाहीं। हमार तबीयत रुपया कमाए से फ़िर गेल बातें। हम रुपया कमाए के नैखीं चाहत। तोहरा से एह बात के पूछत बानीं, कि ई बात तोहरा किसान लागी? जो हम ना कमैब टी; हमारा साथ गरीब का नाही रहे के होई- गरीबी खाना, गरीबी पहिनना, गरीब मन कर के रहे के होई। हम अपना मन मी सोचले बानीं कि हमारा कवनो तकलीफ ना होई। बाक़ी तोहरो मन के हाल जान लेवे के चाहीं। हमारा पूरा विश्वास बातें कि हमार इस्त्री सीताजी का नाही जवना हाल मी हम रहब, ओही हल में रहिहें- दुःख में, सुख में- हमारा साथ ही रहला के आपण धरम, आपण सुख, आपण खुसी जनिः'। एह दुनिया में रुपया के लालच में लोग मारत जात बाते, जे गरीब बातें सेहू मारत बातें, जे धनी बाते, सेहू मारत बातें- टी' फेर काहे के तकलीफ उठावे। जेकरा सबूर बातें, से ही सुख से दिन कातात बातें। सुख-दुःख केहू का रुपया कमैले और ना कमैले ना होला। करम में जे लिखल होला, से ही सब हो ला।
अब हम लीखे के चाहत बानी कि हम जे रुपया ना कमैब टी' का करब। पहीले टी' हम वकालत करे के खेयाल छोड़ देब, इमातेहान ना देब, वकालत ना करब, हम देस का काम करे में सब समय लगाइब। देस वास्ते रहना, देस वास्ते सोचना, देस वास्ते काम करना- ईहे हमार काम रही। अपना वास्ते ना सोचना, ना काम करना- पूरा साधू ऐसन रहे के। तोहरा से चाहे महतारी से चाहे और केहू से हम फरक ना रहब- घर ही रहब, बाक़ी रुपया ना कमैब। सन्यासी ना होखब, बाक़ी घरे रही के जे तरह से हो सकी, देस के सेवा करब। हम थोड़े दिन में घर आइब, टी' सब बात कहब। ई चीठी और केहू से मत देखिः', बाक़ी बीचार के जवाब जहाँ तक जल्दी हो सके, लीक्जिः'। हम जवाब वास्ते बहुत फिकिर में रहब।
अधिक एह समय ना लीक्हब।
राजेन्द्र
आगे ई चीठी दस-बारह दीन से लीखाले रहली हवे, बाक़ी भेजत ना रहली हवे। आज भेज देत बानी। हम जल्दीये घर आइब। हो सके टी' जवाब लीखिः', नाहीं टी' घर एल पर बात होई। चीठी केहू से देखिः' मत। - राजेन्द्र
पाता- राजेन्द्र प्रसाद, १८, मीरजापुर स्ट्रीट, कलकत्ता
(अब आप सोचें कि ऐसे पत्र को पाकर उनकी पत्नी के क्या विचार रहे होंगे और देश को पहला राष्ट्रपति मिलाने में उअनाकी क्या भुमिका रही होगी?)
Wednesday, May 21, 2008
फर्क विकसित और विकासशील देशों का
यही वाक़या कल छाम्माक्छाल्लो और उसके अन्य सहयोगियों के साथ हुआ।देश भर के लोग जमा थे। सभी अपना अपना प्रेजेंटेशन इ-मेल के माध्यम से भेज चुके थे। बावजूद इसके, सभी अपने साथ पेन ड्राइव व सी दी लेकर आए थे। कल भी पी सी में कुछ खराबी होने के कारण सेव किया प्रेजेंटेशन नहीं दिखाया जा सका। अंत में सभी की सी दी व पेन-ड्राइव काम आए। वह भी नहीं चलता तो लिखित डाटा व अपने दिमाग में स्टोर किए डाटा से काम चलाया जाता। हमें कल लगा था कि हिन्दी (अभी भी) के कारण यह तकनीकी बाधा है। मगर आज वह भ्रम दूर हो गया था।
छाम्माक्छाल्लो के सामने यह फर्क साफ हुआ कि विकासशील देश अपनी सुविधाओं और तकनीक पर इतने निर्भर और आश्वस्त रहते हैं कि इस तरह की अवांछित स्थिति आ सकती है, ऐसा वे सोच ही नही पाते, जबकि हम जैसे विकासशील देश के लोग हर तरह की आशंकाओं से जूझते हुए पलते-बढ़ते हैं, इसलिए हर स्थिति केलिए तैयार रहते हैं। और सबसे बड़ी बात कि दिमाग से खाली नहीं होते। जिसपर बात करनी है, उसपर पूरी तरह से मानसिक तैयारी रहती है। अपने लक्ष्य को पाने की हर कोशिश करते हैं। छाम्माक्छाल्लो को लगा कि आज यह स्थिति हमारे किसी भी व्यक्ति, अधिकारी के साथ होती तो वह अपने प्रेजेंस ऑफ माइंड से बगैर पावर प्वायंत प्रेजेंटेशन के भी एक सुंदर प्रस्तुति दे सकता था। यह अपने काम के प्रति की जिजीविषा है। अपने को प्रस्तुत कराने की लगन है। वह इस तरह तो बैरंग नहीं ही लौटता।
Thursday, May 15, 2008
घर-घर देख, एक ही लेखा
दो दिन पहले अखबार में ख़बर थी कि ब्रिटेन के पूर्व प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर की पत्नी चेरी ब्लेयर ने अपने पति पर आरोप लगाया कि उसके गर्भपात की संवेदनशील ख़बर को पति ने अपनी राज नीति के लिए इस्तेमाल किया। छाम्माक्छाल्लो खुश हो गई क्योंकि उसने अपनी किसी रचना में यह लिखा था कि अत्याचार या ज़ुल्म दिखाने के लिए पेट -पीठ पर जले का, हाथों के कटे-फटे का दिखाना ज़रूरी नही है। मन की मार बड़ी मारक होती है। इसे किसी को दिखाया भी नहिंजा सकता। इसके पहले अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की khabarein आपको पाता ही है। अपने देश मेंयः सब saamaany है। फर्क सिर्फ़ इतना है कि वहां की पत्नियों में यह साहस है कि वे अपने पतियों के ख़िलाफ़ बोल सकें। यहाँ यह्दुर्लभ है। पति-पत्नी या किसी के प्रेम प्रसंग बाहर आ ही नहीं सकते, अगर वह राजनीति में हो। खूब सारे हंगामे, खूब सारे लोगों की जान कि बलि और जिनके बारे में लिखा जाए , वे तेल लगे चमड़े पर पानी की बूँद की तरह फिसला कर निकल लें।
छाम्माक्छाल्लो सोच रही है कि आख़िर पत्नियां होती किसलिए हैं? माना कि पति के हर सुख-दुःख में उसके कंधे से कंधा मिला कर चलने के लिए, मगर इसका मतालाब्यः तो नहीं कि उसे अपने काम केलिए इस्तेमाल कर लिया जाए। उसे समझाया जाए कि यह करना पति के हक के लिए कितना ज़रूरी है। चेरी लिखती हैं कि वे दर्द और रक्त स्राव से छातापता रही थीं, और टोनी उन्हें इस बात के लिए राजी कर रहे थे कि उअके गर्भपात कीखाबर का ज़ाहिर होना देश की राजनीति के किए कितना ज़रूरी है। उम्र के मध्य में पहुंचकर उनका गर्भ ध्हरण करना टोनी को एक फीकी सी टिप्पणी करवाता है- 'मैं निश्चित नहीं हूँ कि ५० साल की उम्र में मेंएन बाप बनाना चाहता हूँ कि नहीं।
छाम्माकछ्क्ल्लो एअसे में सोचने लग जाती है कि स्त्रियाँ कितनी मज़बूर हो जाती हैं पति का साथ देने के लिए,सिर्फ़ इस कारण से कि आखिरकार यह पति का मामला है और 'भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है।' मान कर। अगर पश्चिम में सरी और हिलेरी भी ऐसा कराने ओइरउर सोचने के लिए मज़बूर हैं तो हम हिन्दुस्तानियों की तो बात ही और है। उन्हें तो घुट्टी में मिलाती है नसीहत और यह कि यही तुम्हारी नियति है। चेरी और हिलेरी, चाम्माक्छाल्लो क्या कहे आपसे और अपनी जैसी अन्यों से।
आपको कुछ लगता है तो बताएं.
Saturday, May 10, 2008
पुण्य स्मरण डा राजेन्द्र प्रसाद का.
छाम्माक्छाल्लो के एक मित्र हैं। 'मि जिन्ना' नाटक के दौरान उनसे पहचान हुई। बातों में बातें निकलती रहीं। बिहार और राजनीति की चर्चा होने पर देश के सबसे पहले राष्ट्रपति डाराजेन्द्र प्रसाद का ज़िक्र न हो, यह मुमकिन न था। जिन्ना' के दौरान उस समय कि परिस्थितियों पर चर्चा होतीं। एक आम बिहारी कायस्थ मानसिकता पर भी बात होती कि हर कायस्थ अपने को राजेन्द्र प्रसाद से नातेदारी जोड़ लेता है। नाटक के दौरान मित्र इतनी अन्दरून बातें बताते कि छाम्माकछाल्लो को हैरानी होती। और एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने अपने सम्बन्ध का खुलासा किया कि डाराजेन्द्र प्रसाद उनके परनाना हैं। फ़िर यह अनुरोध आया कि आप इस बात को सार्वजनिक नहीं करेंगी। छाम्माक्छाल्लो को यह अच्छा लगा। उसे याद आया कि किसी कार्यक्रम में नसीरुद्दीन शाह के बेटे इमाद को अपना प्रोग्राम देना था। उसने ख़ास तौर पर गुजारिश की थी कि उसके परिचय में उसके माता-पिटा का नाम न शामिल किया जाए। यह कोई हेकडी नहीं, बल्कि अपनी कूवत अपने बूते बाहर लाने लाने का साहस है।
मित्र के सव्जन्य से हमें डाराजेन्द्र प्रसाद के ऊपर उनके बेटे श्री मृत्युंजय प्रसाद की लिखी किताब मिली- "पुन्य स्मरण" छाम्माकछाल्लो किताब पढ़ने के बाद इसके कुछ हिस्से आप सबके सामने लाने का लोभ रोक नहीं पा रही है। यह इसे लिए भी ज़रूरी है कि हम जाने अपने भूले-बिसरे नेताओं को, जिन्होंने इस देश को आजाद कराने में कितनी अहम् भुमिका निभाई थी। यह केवल उनकी तपस्या नहीं थी, उनके संग उनके पूरे परिवार की आहुति होती थी।
आचार्य शिव पूजन सहाय ने डाराजेन्द्र प्रसाद को बिहारियों का 'गृह देवता' कहा है। डा विश्वनात्न प्रसाद वर्मा ने उन्हें 'हिमालय के उत्तुंग शिखर की भाँती शीर्षस्थ स्थान' दिया है। डा श्रीरंजन सूरिदेव ने कहा है कि 'वे अपने सिद्धांत के लिए ही जिए और उसी के लिए मरे।'
आगे जब कभी छाम्माक्छाल्लो उनके बारे में लिखेगी, आप देखेंगे कि किस तरह यह आदमी अपनी काबिलियत के सहारे इस ऊंचाई तक बढ़ा। देश की सेवा निस्वार्थ भाव से की। राष्ट्रपति पड़ पाकार भी जिन्हें कभी कोई अभिमान न हुआ। नेहरू से सिद्धांत को लेकर हमेशा तनी रही। असल में नेहरू नही चाहते थे कि वे देश के पहले राष्ट्रपति बनें। यहाम तक कि १३ मई, १९६२ को राष्ट्रपति पड़ से अपनी सेवा निवृत्ति के १० माह पहले डाराजेन्द्र प्रसाद सख्त बीमार पड़े। बचने कि कोई उम्मीद न थी। उन्हें एक प्राइवेट नर्सिंग होम मी दाखिल कराया गया। नेहरू जी को लगा कि अब वे शायद बच नहीं पायेंगे। इसलिए उनहोंने एक और उनकी राजकीय सम्मान के स्साथ अंत्येष्टि के लिए आदेश दिए और दूसरी और उनके तात्कालिक उत्तराधिकारी की भी सोचने लगे। इन सबके साथ ही उनके दिमाग में उनके अंत्येष्टि स्थल की भी बात घूम रही थी। "From Curzon to Nehru and after" में लिखा है- " He (Nehru) did not want th e ceremony to be performed next to Rajghat, Gandhi's cremation ground, but he feared that MP's from Bihar, Prasad's home state would insist that this site to be chosen. He accordingly asked Home Minister Shastri to find a place as far from Rajghat as possible. This was a very delicate mossion and had to be performed secretly. Shashtri, accompanied by the Chief Commissioner of Delhi, Bhagwan Sahay, was driven by Dy. Commissioner sushitlal banerji, along the banks of Jamuna and chose a spot a couple of furlongs from Rajghat for the cremation.
Fortunately, Prasad survive the illness. The site, Shashtri selected for the President's cremation was used to cremate Shashtri in 1966 and became known as Vijayghat."
छाम्माक्छाल्लो की कोशिश होगी कि वह इस तरह के प्रसंग इस किताब से व अन्य किताबों से भी दे, ताकि आप देश की इस महान विभूति को और भी अच्छे से जान सकें।
Wednesday, May 7, 2008
क्या हम सचमुच देश प्रेमी हैं?
जुस्सी- फिनलैंड के हेलसिंकी विश्व विद्यालय में हिन्दी का छात्र, लगभग ८० % दृष्ठीनता का शिकार। भारतीय दर्शन व कला, संस्कृति ने उसे हिन्दी पढ़ने की और भेजा। पिछले साल फिनलैंड में मेरी उसके साथ मुलाक़ात हुई थी। हिन्दी ब्रेल की तलाश में वह यहाँ आया है-पत्नी एवा के साथ। मुंबई आने के पहले ही उसका मेल आ गया था। यहाँ आते ही फोन। मिलाने का समय तय हुआ, दोनों आए। सहारे पर मिलाने की खुशी। मगर आते ही अपने अनुभव बयान किए, उससे सदमा लगा। मोबाइल फोन के बहाने किसी दुकानदार ने उन्हें धोखा दिया और जब एवा उनके यहाँ नेट पर काम कर रही थी, उसने अपना पर्स दुकानदार की डेस्क पर रखा था। उम्मीद तो रही ही हिगी कि सब कुछ ठीक रहेगा। पर, दूसरे दिन जब उसने अपना पर्स खोला तो उसने पाया कि उसमें से उसके २०० यूरो गायब हैं। वे पुलिस के पास गए तो उस इलाके की पुलिस ने उन्हें संबंधित पुलिस स्टेशन जाने को कहा। वे पेशोपेश में थे। मुझसे पूछा। बाद में उनकी भी राय बनी कि पैसे तो वापस मिलाने नहीं तो क्यों इस झंझट में पड़ा जाए।
एवा और जुस्सी की बात ने मुझे इस देश का वासी होने के कारन आहात किया। उनके यहाँ कोरी या इस तरह की वारदातें नहीं होतीं। सुखी, संपन्न देश। मगर हम अपने यहाँ आए मेहमानों को थागेम, उनके साथ धोखाधडी करें तो वे क्या इमेज लेकर जायेंगे हमारे देश किहोना तो यह छाहिये कि ऐसा व्यवहार दें कि वे तो ख़ुद आयें ही, साथ-साथ दूसरों को भी ले कर आयें। पर्यटन को बढावा मिलेगा, देश के खजाने में पैसा आयेगा। इसके लिए हमें कुछ भी अपने जेब से खर्च नहीं करना पडेगा। सिर्फ़ अपने आचरण, आदत मं थोडा बदलाव लाना होगा।
एवा ने यह भी बताया कि यह एक हादसा भले उनके साथ हो गया, मगर यहाँ आकर वे बेहद खुश हैं। उन्हें यहाँ कि सबसे अच्छी बात लगी - लोगों के चेहरों पर खुशी देख कर। हर उम्र, तबके के लोग दिल से ह्नासते हैं। इसका कारण उसने जानना चाहा। इस देश कि संस्कृति- धीरज, संतोष, आशावादिता कि, परिवार और रिश्तों कि मज़बूती कि, जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हमें प्रभावित करते हैं। उसने इस बात को महसूस किया कि यहाँ पर साथ रहने और अब ७ साल के बाद शादी कराने कू लेकर लोग तनिक चौंकते हैं।
जुस्सी हिन्दी कि ब्रेल सीखा कर हिन्दी ब्रेल में किताब पढ़ना चाहता है। वह हिन्दी बोल लेता है। इसका उसे फायदा मिल रहा है। कहता है- " यह मेरे लिए बहुत सुविधा जनक हो गया कि मुझे हिन्दी आती है। यहाँ बहुत से लोग ऐसे हैं जो अंग्रेजी नहीं जानते, नहीं बोलते।" वह यहाँ के नेशनल असोसिएअशन् फॉर ब्लाइंड गया, जहाँ से लौट कर उसने खुशी महसूस कि। फिनलैंड में मैंने पाया कि लोग भारत के ओप्रती बेहद आकर्षण महसूस करते हैं। यही आकर्षण लाहौर में भी महसूस किया। यहाँ के लिए आज का सबसे बड़ा आकर्षण यहाम कि हिन्दी फिल्में हैं, जिन्हें वे बॉलीवुड फ़िल्म कहते हैं। वहां इन फिल्मों के गीतों कि धुनों पर पागालूँ कि तरह नाचते हुए लोगों को देखा। जुस्सी भी यहाँ कि फिल्मों का आनंद लेना चाहता है, यहाँ कि ढेर सारी बातें जानना चाहता है। हर सैलानी के मन में यह भाव रहता है, मगर, जब उसके साथ धोखा वह अन्य ग़लत हराक़तेम होती हैं तो केवल हमारा नहीं, देश का सर नीचा होता है। क्या हम इअताने लापरवाह या अपने कर्तव्य बोध से रहित हो गए हैं कि देश और देश प्रेम जैसी कोई बात ही ना रह जाए चाँद पैसों के आगे। तो फ़िर काहे को हम देश भक्त यार। काहे को गर्व क्कारें अपनी भारतीय संस्कृति, कला, साहित्य, धरोहर, मूल्यों, आचारों, विचारों पर?
Saturday, May 3, 2008
१ मई को सलाम!
अवितोको अब अपने इस नए साल में फ़िर से तैयार है- कला, थिएटर varkshaap, नाटक के प्रदर्शन और जेल के बंदियों के लिए अलग-अलग karyakramon के साथ। isamein, उनके साथ srijanatmak kaaryakram के साथ- साथ उन्हें अपने जीवन koo नए svaroop में देखने के बारे में vichaar kiyaa jaaega। उनकी pratibhaaon को saamane लाने के liee karyakram हैं।
अवितोको हर वर्ग से judate हुए अनेक prashikShan karyakramon के साथ भी है। inamein हैं- "Time Management', Self Exploration', Know yourself Better', 'Guilt Management', राजभाषा Management Through self Management' etc.
छाम्माक्छाल्लो को इस बात का संतोष है कि आप sabakaa साथ और sahayog उसके साथ है। डर असल यह usakii अपनी nahiin, एक samaveta prayaas की yaatra है, padaav- डर- padaav तय कराने के silasile हैं।