बहुत दिन बाद लिखी हाथ से पाती.
बहुत दिन बाद छुई कलम की नोक,
बहुत दिन बाद आदरणीय का सम्बोधन,
बहुत दिन बाद 'आपकी' का लिखना,
बहुत दिन बाद 'पत्रोत्तर देंगे' की मांग,
बहुत दिन बाद लिफाफे पर पता.
बहुत दिन बाद गोंद का उपयोग
बहुत दिन बाद एक सुख का अहसास
बहुत दिन बाद एक खुली खुली सी सांस
यह नहीं है कोई कविता,
सच में हुआ ऐसा, बहुत दिन बाद.
6 comments:
वो तो ठीक है, पर यह सब सारा झंझट भरा काम नहीं लगा?
और, पोस्ट बक्से में लिफ़ाफ़ा डालने जाते वक्त ट्रैफ़िक जाम से जूझना... :(
रवि जी, लगा. परंतु कभी कभी इसका भी आनंद जीवन में नया रस भरता है. झंझट के मारे हम हर काम छोड नहीं सकते ना.
अब यह भी एक आश्चर्य करने की बात हो गयी है ....
जगजीत सिंह की एक गज़ल इस पंक्ति से शुरु होती है - तेरे हाथों से लिखे खत मैं जलाता कैसे...?
सच, खत की खुश्बू वही जान सकता है जिसने इस खुश्बू को महसूसा हो. हमअको अब तक आशिकी का वो ज़माना याद है जब स्कूल से आकर हम डाकिये की राह में दरवाज़े पर खडे हो जाते थे. वो मेरी प्यारी दोस्त के खत जो लाता था.अब खट-पट टाइप कर ई-मेल भेज देने में सहूलियत और आराम तो होता है मगर ऊँगलियों का वो एहसास जाता रहा इसका अफ़सोस भी होता है. विभा दी सचमुच मन छू गयी ये कविता सी सचबयानी और रवि जी झंझट से अब कौन और कितना बचा है... अब तो ज़िन्दा रहना भी एक झंझट ही है सर... क्या किया जाए ???
हां संगीता जी, आप ठीक कह रही हैं. प्रतिमा, हर काम का अपना एक सौंदर्य और संतोष बोध होता है.तुम्हारी बयानबाज़ी का रूमानीपन बहुत भाता है.
ठीक ही कहा है. अब तो कलम से लिखते समय हाथ दर्द होने लगते हैं. टाइप करना आसान लगता है. लेकिन अब भी मेरे लिए सादे कागज़, कलम, कापियाँ, डायरी और स्टेशनरी का और सामान रूमानी एहसास से कम नहीं है.
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