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Thursday, May 22, 2008

राजेन्द्र बाबू का पत्र- पत्नी के नाम -साभार- पुन्य स्मरण

इस पत्र से पाता चलता है कि टैब के नेता देश के लिए कितने प्रतिबद्ध रहते थे। घर-परिवार , पैसे उनके लिए बाद की बातें होती थी। मूल भोजपुएरी में लिखा पत्र यहाँ प्रस्तुत है-
आशीरबाद,
आजकल हमनी का अच्छी तरह से बानी। उहाँ के खैर सलाह चाहीं, जे खुसी रहे। आगे एह तरह के हाल ना मिलला, एह से तबीयत अंदेसा में बातें। आगे फील-पहल कुछ अपना मन के हाल खुलकर लीखे के चाहत बानीं। चाहीं कि तू मन दे के पढी के एह पर खूब बिचार करीह' और हमारा पास जवाब लिक्जिः'। सब केहू जाने ला कि हम बहुत पधालीन, बहुत नाम भेल, एह से हम बहुत र्पेया कमेब। से केहू के इहे उमेद रहेला कि हमार पढ़ल-लिखल सब रुपया कमाय वास्ते बातें। तोहार का मन हवे से लीखिह्तू हमारा के सिरिफ रुपया कम्माये वास्ते चाहेलू और कुनीओ काम वास्ते? लड़कपन से हमार मन रुपया कमाय से फिरि गेल बातें और जब हमार पढे मी नाम भेल टी' हम कबहीं ना उमेद कैनीं कि इ सब र्पेया कमाए वास्ते होत बातें। एही से हम अब ऐसन बात तोहरा से पूछत बानी कि जे हम रुपया ना कमाईं, टी; तू गरीबी से हमारा साथ गुजर कर लेबू ना? हमार- तोहार सम्बन्ध जिनगी भर वास्ते बातें। जे हम रुपया कमाईं तबो तू हमारे साथ रहबू, ना कमाईं, तबो तू हमारे साथ रहबू। बाक़ी हनारा ई पूछे के हवे कि जो ना हम रुपया कमाईं टी' तोहरा कवनो तरह के तकलीफ होई कि नाहीं। हमार तबीयत रुपया कमाए से फ़िर गेल बातें। हम रुपया कमाए के नैखीं चाहत। तोहरा से एह बात के पूछत बानीं, कि ई बात तोहरा किसान लागी? जो हम ना कमैब टी; हमारा साथ गरीब का नाही रहे के होई- गरीबी खाना, गरीबी पहिनना, गरीब मन कर के रहे के होई। हम अपना मन मी सोचले बानीं कि हमारा कवनो तकलीफ ना होई। बाक़ी तोहरो मन के हाल जान लेवे के चाहीं। हमारा पूरा विश्वास बातें कि हमार इस्त्री सीताजी का नाही जवना हाल मी हम रहब, ओही हल में रहिहें- दुःख में, सुख में- हमारा साथ ही रहला के आपण धरम, आपण सुख, आपण खुसी जनिः'। एह दुनिया में रुपया के लालच में लोग मारत जात बाते, जे गरीब बातें सेहू मारत बातें, जे धनी बाते, सेहू मारत बातें- टी' फेर काहे के तकलीफ उठावे। जेकरा सबूर बातें, से ही सुख से दिन कातात बातें। सुख-दुःख केहू का रुपया कमैले और ना कमैले ना होला। करम में जे लिखल होला, से ही सब हो ला।
अब हम लीखे के चाहत बानी कि हम जे रुपया ना कमैब टी' का करब। पहीले टी' हम वकालत करे के खेयाल छोड़ देब, इमातेहान ना देब, वकालत ना करब, हम देस का काम करे में सब समय लगाइब। देस वास्ते रहना, देस वास्ते सोचना, देस वास्ते काम करना- ईहे हमार काम रही। अपना वास्ते ना सोचना, ना काम करना- पूरा साधू ऐसन रहे के। तोहरा से चाहे महतारी से चाहे और केहू से हम फरक ना रहब- घर ही रहब, बाक़ी रुपया ना कमैब। सन्यासी ना होखब, बाक़ी घरे रही के जे तरह से हो सकी, देस के सेवा करब। हम थोड़े दिन में घर आइब, टी' सब बात कहब। ई चीठी और केहू से मत देखिः', बाक़ी बीचार के जवाब जहाँ तक जल्दी हो सके, लीक्जिः'। हम जवाब वास्ते बहुत फिकिर में रहब।
अधिक एह समय ना लीक्हब।
राजेन्द्र
आगे ई चीठी दस-बारह दीन से लीखाले रहली हवे, बाक़ी भेजत ना रहली हवे। आज भेज देत बानी। हम जल्दीये घर आइब। हो सके टी' जवाब लीखिः', नाहीं टी' घर एल पर बात होई। चीठी केहू से देखिः' मत। - राजेन्द्र
पाता- राजेन्द्र प्रसाद, १८, मीरजापुर स्ट्रीट, कलकत्ता
(अब आप सोचें कि ऐसे पत्र को पाकर उनकी पत्नी के क्या विचार रहे होंगे और देश को पहला राष्ट्रपति मिलाने में उअनाकी क्या भुमिका रही होगी?)

7 comments:

Priyankar said...

प्रेरक और सहेज कर रखने योग्य दस्तावेज . आभार!

Udan Tashtari said...

आभार इसे प्रस्तुत करने का.

अमिताभ मीत said...

अद्भुत. आभार. सहेज लिया.

Swapnil said...

aabhaar to hai hi aapka...magar mila kaha se ye patra, ye bhi to bataiye

Vibha Rani said...

title mein hi likha hai kitab ka naam- "Puny smaran" vahi se liya gaya hai.

हर्ष प्रसाद said...

haalan ki bahut bar padh chuka, phir bhi aankhen nam ho gayeen.

हर्ष प्रसाद said...

kripaya lekhak ka naam, aur prakashak ka naam bhi dein taki zaroorat padne par pustak apne kosh ke liye mangaayee jaa sake