सिनेमा एक जुनून है। गाहे-बगाहे हर कोई अपने इस जुनून के बारे में बताता रहा है। फिल्मों में भी इसका जुनून छलकता रहा है। हाल में आर बाल्की की फिल्म "षमिताभ" का गूंगा नायक इसी पागलपन का शिकार है। ....बावजूद इसके, लोग सिनेमा के प्रति एक अनासक्ति का भाव दिखाते रहते हैं। अजय ब्रह्मात्मज द्वारा संपादित और चयनित किताब "सिनेमा मेरी जान" कुछ-कुछ "बॉम्बे मेरी जान" की तरह है। इसमें सिनेमा का खुद के साथ का साक्षात्कार है, जिसमें एक जोश है, जुनून है औरचोरी-छुपे कुछ करने के अतिरिक्त आनद का एहसास भी। अपने को जीने और सिनेमा के अपने गुद्गुदे अहसास के लिए इस किताब का पढ़ना बहुत ज़रूरी है। पढे, राय दें।
सिनेमा मेरी जान आ गयी। इसमें अंजलि कुजूर, अनुज खरे, अविनाश, आकांक्षा पारे, आनंद भारती, आर अनुराधा, गिरींद्र, गीता श्री, चंडीदत्त शुक्ल, जीके संतोष, जेब अख्तर, तनु शर्मा, दिनेश श्रीनेत, दीपांकर गिरी, दुर्गेश उपाध्याय, नचिकेता देसाई, निधि सक्सेना, निशांत मिश्रा, नीरज गोस्वामी, पंकज शुक्ला, पूजा उपाध्याय, पूनम चौबे, मंजीत ठाकुर, डॉ मंजू गुप्ता, मनीषा पांडे, ममता श्रीवास्तव, मीना श्रीवास्तव, मुन्ना पांडे (कुणाल), यूनुस खान, रघुवेंद्र सिंह, रवि रतलामी,रवि शेखर, रश्मि रवीजा, रवीश कुमार, राजीव जैन, रेखा श्रीवास्तव, विजय कुमार झा, विनीत उत्पल, विनीत कुमार, विनोद अनुपम, विपिन चंद्र राय, विपिन चौधरी, विभा रानी, विमल वर्मा, विष्णु बैरागी, सचिन श्रीवास्तव, सुदीप्ति, सुयश सुप्रभ, सोनाली सिंह, शशि सिंह, श्याम दिवाकर और श्रीधरम शामिल हैं।
सभी लेखक मित्रों से आग्रह है कि वे अपना डाक पता मुझे इनबॉक्स या मेल में भेज दें। प्रकाशक ने आश्वस्त किया है कि सभी को प्रति भेज दी जाएगी।
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बाकी मित्र शिल्पायन प्रकाशन से किताब मंगवा सकते हैं। पता है- शिल्पायन,10295,लेन नंबर-1,वैस्ट गोरखपार्क,शाहदरा,दिल्ली- 110032
मेल आईडी- shilpayanboks@gmail.com
पुस्तक मूल्य- 400 रुपए
(किताब पढ़ने पर प्रतिक्रिया अवश्य दें। और खुद भी लिखें। मुझे chavannichap@gmail.com पर भेजें।)
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सिनेमा मेरी जान
चवननी चैप ब्लॉग के लिए सिनेमा से साक्षात्कार के संस्मरणों के इस सीरिज के पीछे बस इतना ही उद्देश्य था कि हमसभी बचपन की गलियों में लौट कर एक बार फिर उन यादों को ताजा करें। भारत में सिनेमा की शिक्षा नहीं दी जाती। अभी तक माता5पिता बच्चों के साथ सिनेमा की बातें नहीं करते हैं। अगर कभी चर्चा चले भी तो हम स्टारों की चर्चा कर संतुष्ट हो लेते हैं। मेरी राय है कि घर-परिवार या स्कूल से हमें सिनेमा का कोई संस्कार नहीं मिलता। हमारी सोहबत,संगत और सामाजिकता से सिनेमा का संस्कार बनता है। ज्यादातर खुद सीखते हैं और सिनेमा का भवसागर पार करते हैं। कुछ सिनेमा के मूढ़ मगज छलांग मारते ही डूब जाते हैं।
यह सीरिज मैंने हिंदी टाकीज नाम से शुरु की थी। इस सीरिज में सम्मिलित गीताश्री ने अपने संस्मरण खूब मन से लिखे थे। वे बार-बार कहती थीं कि सारे संस्मरणों को संकलित कर किताब के रूप में लाएं। सभी लेखकों ने सिनेमा का उल्लेख और वर्णन प्रेमिकाओं की तरह किया हैत्र उन्होंने ने नाम तय करने के अंदाज में सुझाया ‘सिनेमा मेरी जान’। मैंने स्वीकार कर लिया। उनके आधिकारिक आग्रह को मैं कभी नहीं टाल सका। इस पुस्तक के शीर्षक के सुझाव में सम्मोहन था।
इस संकलन के संस्मरणों को पढ़ते हुए हिंदी पट्टी से आए पाठक महसूस करेंगे कि उनके बचपन में ही किसी ने झांक लिया है। किसी ने भी फिल्मी ज्ञान देने या झाड़ने की कोशिश नहीं की है। यह बचपन के अनुभवों को सहेजती मार्मिक चिट्ठी है,जो खुद के लिए ही लिखी गई है। इसमें से कुछ संस्मरण इस सीरिज के लिए नहीं लिखे गए थे। मैंने अधिकारपूर्वक उन लेाकों के ब्लॉग से उठा लिए। ऐसे एक लेखक रवीश कुमार हैं। अगर उन्हें बुरा लगा तो वे फरिया लेंगे।
हिंदी में सिनेमा पर या तो गुरू गंभीर और अमूर्त्त लेखन होता है या फिर अत्संत साधारण और फूहड़। हिंदी सिनेमा की तरह ही आर्ट और कमर्शियल किस्म का लेखन चल रहा है। यह सीरिज एक छोटी कोशिश है यह बताने की कि लेखन में भी सिनेमा की तरह मध्यमार्ग हो सकता है। सभी के संस्मरण पर्सनल हैं। उनमें लेखक आज के व्यक्तित्व का कदापि न खोजें। हिंदी पट्टी में सिनेमा देखना एक प्रकार की गुरिल्ला कार्रवाई होती थी। सुना है कि अभी परिदृश्य बदला है। 45 से अधिक उम्र का शायद ही कोई उत्तर भारतीय होगा,जिसने सिनेमा देखने के लिए मार या कम से कम डांट नहीं खाई होगी। इसके बावजूद हम सभी सिनेमा देखते रहे। सिपेमा हमारा शौक बना। सिनेमा हमारा व्यसन बना।
अक्सर मैं सोचता हूं कि हिंदी पट्टी से प्रतिभाएं हिंदी फिल्मों में क्यों नहीं आती ? मेरी धारणा है कि सिनेमा के प्रति हमारे अभिभावकों की असहज घृणा एक बड़ा कारण है। हिंदी समाज सिनेमा देखने के लिए बच्चों को प्रेरित नहीं करता। हम सिनेमा की बातें चेरी-छिपे करते हैं। फिल्मों और फिल्म स्आरों के प्रति हिकारत और शरारत का भाव रहता है। नतीजा यह होता है कि सिनेमा का हमारा प्रेम अपराध भाव से दब और कुचल जाता है। भारत के अन्य भाषाओं के समाज में कमोबेश यही स्थिति है। ये संस्मरण हमारे अव्यक्त प्रेम की सामूहिक बानगी हैं।
मेरा दावा है कि हर एक संस्मरण का अनुभव आप को संपन्न करने के साथ सिनेमा के संस्कार भी देगा। अगर बारीक अध्ययन करेंगे तो कुछ समान सूत्र मिलेंगे,जो सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र निरूपण के लिए सहायक होंगे।- अजय ब्रह्मात्मज
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