इस नाटक को आप यूट्यूब पर भी देख सकते हैं। लिंक है- https://www.youtube.com/watch?v=XvsD194tqrQ
कई बार कुछ अवसरों पर आप
कला में कुछ शब्दों के सहारे उतरते तो हैं, पर जब उसमें डूबकर उबरते हैं तो आपके पास अपने अनुभव को बयां करने के लिए
शब्द नहीं जुटते। विस्मय या आश्चर्य जैसे शब्द छोटे जान पड़ते हैं। ऐसा ही कुछ
अनुभव था जब मैथिली व भोजपुरी अकादमी, दिल्ली द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर के सर शंकर लाल सभागार में 26 जुलाई, 2013 को मुंबई से आईं हिन्दी और मैथिली लेखन व रंगकर्म को समर्पित
नाट्यकर्मी विभा रानी द्वारा अभिनीत एकल नाटक
"नौरंगी नटनी’ की प्रस्तुति देखने का अवसर
मिला। विभा ने "नौरंगी नटनी" के तमाम अंतर्विरोधी चरित्रों को अपने अभिनय से जीवित ही नहीं किया, बल्कि
दर्शकों को उनके साथ जोड़कर उन्हें नटनी के संघर्ष में और उसके माध्यम से एक दलित-आदिवासी
स्त्री की व्यवस्था के ख़िलाफ़ उसके विद्रोह में सहभागी बना दिया। शायद ही कोई हो,
जो उस प्रस्तुति को भूल सके।
“नौरंगी नटनी” की कहानी मूलत: हिमाचल, उत्तराखण्ड और राजस्थान में प्रचलित एक लोक कथा का मिलाजुला रूप है, जिसे वरिष्ठ कथाकार संजीव ने अपने उपन्यास ‘सर्कस’ में एक दलित स्त्री के, एक मां की आंतरिक शक्ति के, भविष्य की एक संभावना के प्रतीक के रूप में प्रयोग किया है। उपन्यास में वर्णित डेढ पन्ने के इसी अंश को विभा ने एक सम्पूर्ण नाटक का स्वरूप दिया.
नाटक दरअसल राजसत्ता के
छल-कपट, लालच और अंधाभिमान की कथा है, जिसमें एक धूर्त राजा अपनी कला में निपुण
नटनी के शोषण की कोशिश करता है. और जब वह अपने स्वाभिमान से नहीं डिगती तो अपमान
से तिलमिलाया हुआ राजा उसे एक असंभव कार्य देकर छल से उसे एक सुनहरे भविष्य के
लालच से बांध देता है. राजा उसे अपने बेटे को पीठ पर बांधकर एक रस्सी पर चलते हुए तीन
पहाड़ पार करने का लालच यह कहकर देता है कि ऐसा करने पर वह अपना आधा राज्य नटनी के बेटे
को दे देगा. जीवन के प्रति नटनी की अथाह
जिजीविषा तथा अपने बालक के सुन्दर भविष्य की चाहत उसे वह चुनौती स्वीकारने के लिए
बल देती है। वह अपने बच्चे के साथ-साथ अपने समाज को गरीबी, अशिक्षा, अपमान से
मुक्त कराने और उन्हें एक सम्माननीय जीवन देने के लिए अपने जीवन को दांव पर लगाने
को तैयार हो जाती है। पूरा राज्य इस अनोखे करतब को देखने के लिए एकत्र है. बेटे को पीठ पर बांधकर एक रस्सी पर चलते हुए नटनी अपनी मंजिल की ओर बढने
लगती है. लेकिन, उसे सफलता से आगे बढते देख राजा अब परेशान होता है. आवेश में बोले
गए एक बोल के पीछे अपना आधा राज-पाट गंवाने को वह तैयार नहीं होता. लिहाज़ा, नटनी
के आगे बढने से परेशान और अपने ही वादे से मुकरता राजा नटनी द्वारा तीसरा पहाड पार
करते न करते उसकी रस्सी काट देता है. बेटे सहित नटनी मौत के मुंह
में जा समाती है. मगर, राजा के इस अनैतिक कार्य को वहां
उपस्थित जनता –जनार्दन सह नहीं पाती. भयंकर जन-विद्रोह होता है, जिसका सामना करने में असमर्थ राजा
वहां से भागता है. परंतु, अंत में वह पकड लिया जाता है. जनता अपना बदला लेती है.
अपने ही जन से पराजित राजा अन्त में मारा जाता है।
एकल नाटको में लम्बे समय से
नए-नए प्रयोग करती आ रही विभा रानी ने इसी कहानी
को आधार बनाकर इसकी एकल नाट्य प्रस्तुति “नौरंगी नटनी”
नाम से की और संघर्ष की इस लोक गाथा को अपनी सशक्त अभिव्यक्ति से एक
बार पुन: जीवित कर दिया।
विभा रानी नाटक में पल में चरित्र नटनी का चरित्र
धरतीं, जिसकी वेश -भूषा, श्रंगार, आभूषण यहाँ तक चलने की विशेष शैली होती, तो दूसरे ही
पल में एक अभिमानी राजा का चरित्र धारण करतीं, जो बड़े ही सधे हुए और अहंकारी
भाव से मंच
पर प्रकट होता. विभा अपने अभिनय से राजा के
चरित्र में पुरुषवादी मांसल लोलुपता और मन की गहरी मक्कारी जैसे गुणों को बड़ी
सहजता से उभारती हैं। जब वह आधा राज्य न देने का फैसला करते हुए अनैतिक तरीके से नटनी
की हत्या करता है, वह है- तांडव की मुद्रा पर नागार्जुन की कविता के प्रयोग के साथ
नव रस के रौद्र रस को बडी ही सघनता से प्रस्तुत करना! यह दृश्य एक स्त्री कलाकार
के द्वारा अभिनीत किया जाना सचमुच एक बड़ी चुनौती जान पड़ती है. राजा और नटनी के परस्पर
संवाद के समय दोनों चरित्रों के अनुसार तेज़ी से बदलती भाव भंगिमाएं, एक चरित्र से दूसरे में प्रवेश इतना त्वरित व सहज कि दर्शक देखते रह जाते। राजा और नटनी के इन दो प्रमुख चरित्रों
के अलावा नाटक में आए मंत्री, नटी, चोबदार, थानेदार आदि के किरदारों को भी विभा बखूबी निभा जाती हैं। थानेदार के कॉमिकल स्वरूप को विभा न
केवल सम्वाद, बल्कि पूरी भाव –भंगिमा के साथ इतने मनोरंजक तरीके से निभाती हैं कि दर्शक मुंह पर आई
मुस्कान को रोक नहीं पाते.
नाटक में कथ्य को
कहने के लिए सम्वाद के साथ-साथ कविताओं और लोकगीतों के प्रयोग से एक अलग ही प्रभाव
पैदा हुआ। साथ ही भाषा के प्रयोग भी अद्भुत थे, जिसमें व्यवस्था और क्रूर राजा के संवाद
हिन्दी में तथा नटनी और जनसामान्य के संवाद मैथिली में थे. इससे नाटक का परिवेश
क्षेत्र विशेष से निकल कर राष्ट्रव्यापी हो जाता है, साथ ही गैर मैथिलभाषी दर्शकों
के लिए भी सहज ही ग्राह्य बन गया। जन-विद्रोह को दिखाने के लिए गायन और नाटक में लोक स्वरूप का अच्छा इस्तेमाल किया
गया, जिसमें नागार्जुन और गोरख पांडे की कविताओं के प्रयोग से नाटक समाजिक सरोकारों
से जुड़कर नए अर्थ और ऊंचाई प्राप्त करता है। नाटक में आए लोकगीतों के अलावा अन्य
गीत विभा ने खुद ही लिखे और गाए हैं| नाटक के मुख्य चरित्रों के अलावा कुछ साधारण चरित्रों की बात करना
भी यहाँ इसलिए जरूरी लगता है, क्योंकि कम नाटकीयता वाले चरित्रों को एक एकल नृत्य नाटिका
में निभाना एक अलग ही चुनौती होती है। यहाँ मैं राजा का संदेश
लेकर आए थानेदार की बात कर रहा हूँ जो नटनी के दरवाजे पर पहुँचकर जिस तरह सुरती मलते हुए नटनी को राजा का संदेश सुनाता है,
वहाँ लगता है कि विभा मंच पर अपने अभिनय में स्त्री-पुरुष की सीमा से मुक्त हो
सिर्फ़ एक कलाकार ही रह जाती हैं। एकल नाटक में लगातार मंच पर उपस्थित इकलौते
कलाकार पर ही सैकड़ों आँखें लगी रहती हैं. कलाकार कैसे उन आँखों के सामने एक चरित्र
से दूसरे में खुद बार-बार बदलता रहता है, यह किसी जादू
जैसा लगता है. और कहना न होगा कि विभा इस कला की जादूगर हैं। नाटक के अन्त की ओर जाते घटना क्रम में राजा की शर्त के मुताबिक़ नटनी को अपनी दिलेरी और हिम्मत से एक -एक कर तीनों पहाड़ चढते देख घबडाया हुआ
राजा जिस बेचैनी से नटनी को पहाड़ से नीचे उतर आने का आग्रह करता है, वहाँ भी विभा अपने अभिनय के चरम पर खड़ी दिखाई देती हैं।
विभा के अभिनय की कई बारीकियाँ इस एकल प्रस्तुति में नज़र आती हैं। कहना होगा कि प्रस्तुति
का असली कमाल तो यह था कि मात्र एक ओढ़नी और एक कमरबन्ध तथा निरंतर माइम के सहारे उन्होंने
तमाम पात्रों और घटनाक्रमों को मंच पर उतार दिया और नटनी की लगातार बदलती भाव भंगिमाएं और भिन्न -भिन्न पात्रों की क्षण प्रति क्षण बदलती मुख- मुद्राओं ने, मंच पर बिना किसी साज-सज्जा के
अप्रतिमता से भर दिया.
कलाकार की कलाकारी धरी
रह जाए, अगर उसे अच्छा निर्देशक ना मिले. नाटक के निर्देशक राजेन्द्र जोशी नाटक की
प्रकाश व्यवस्था भी देख रहे थे. आम तौर पर इस तरह के नाटक के लिए चालीस से भी अधिक
लाइट्स की जरुरत पडती है. लेकिन राजेन्द्र जी की मास्टरी कम से कम लाइटों के सहारे अतुलनीय
प्रकाश सन्योजन है। लोक नाटकों में संगीत की बहुत अहम भूमिका रहती है. प्रियदर्शन पाठक ने फोक
के तत्व को पहचान कर बेहद प्रभावी संगीत दिया, जिसने नाटक में एक ही कलाकार और
उसके द्वारा निभाए जा रहे विभान रूपों को दर्शकों तक पहुंचाने में अहम भूमिका
निभाई. संगीत संचालन प्रेम शुक्ला का था, जिन्होने अपने संगीत संचालन में अपने
लम्बे अनुभव का कुशल परिचय दिया। अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित माला डे बांठिया के कॉस्ट्यूम
डिजाइन ने पूरी प्रस्तुति को विश्वस्नीय और वास्तविक बनाया।
कुल मिलाकर “नौरंगी नटनी” को देखना एक विरल अनुभव के विशाल संसार
से गुजरने जैसा रहा. ####
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