माँ सभी को भगवान की तरह मुसीबत में याद आती है या दिखावे के समय।
जैसे शादी या रिजल्ट के समय। दोनों ही बखत लोग साथ मे होते हैं। अब उन्हें गाना तो
पड़ता है कि
“उसको नहीं देखा हमने कभी, पर इसकी ज़रूरत क्या होगी,
ऐ माँ तेरी सूरत से
अलग भगवान की मूरत क्या होगी?
बाकी समय वह बोझ है, खर्चे का कारण है,
बुढ़ापे की झिक झिक है, चिढ़ का बायस है। जिस बच्चे की हर बात का बिना चिढ़े
माँ मुस्कुराकर जवाब देती और पुलकित होती रहती है, वही संतान उसकी बात पर
या तो कुढ़ती है या मुंह फेरकर अपने काम में लग जाती है। मुनव्वर राना ने लिखने को
लिख दिया:
“किसी के हिस्से मकान आया, किसी के हिस्से दुकान आई
मैं सबसे छोटा था, मेरे हिस्से मे माँ आई।“
बाद में लोगों ने कहा- “मियां, बुढ़ापे का बोझ अपने माथे
लेकर कविताई करते हो? नादान हो कि अहमक़?” लोग न नादान बनना चाहते
हैं न अहमक़। फिर भी, माँ से जताते हैं मुहब्बत!
नरेंद्र चंचल गा-गाकर थक गए:
“चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है।“
हम अपनी माँ के पास जाने के बदले पहाड़ पर बैठी माँ के पास चले
जाते हैं और वहाँ से गाते हैं-
“प्रेम से बोलो, जय माता की।“
क्या चंचल ने केवल पहाड़ पर बसती और शेर पर सवार माता के लिए ही
गाया होगा? नौ महीने तो उन्हें भी उनकी अपनी ही माँ ने अपने पेट में रखा होगा- पहाड़ पर
बसती और शेर पर सवारी करती माता ने तो नही।
फिलमवाले पहले अच्छे थे। माँ, बहन, भाई, होली,
दीवाली, राखी, लोरी सभी पर गीत लिखते थे। होली में मद और मादकता है, इसलिए आज भी यदा-कदा
होली गीत फिल्माए जाते हैं। माँ पर तो मुझे लगता है, सबसे ज़्यादा गीत लिखे
गए।
“जिनकी माँ होती है, खुशकिस्मत होते हैं,
जिनकी माँ नही होती, जीवन भर रोते हैं।“
छममकछल्लो इन गीतों से ही आज की बात पूरी करेगी। जो गीत भूल या
छूट जाए, उसे माँ की बाकी जगत सन्तानें पूरा करेगी। देख भी लें। हो जाए आज फिर से एक
और परीक्षा!
छममकछल्लो जैसी संतान माँ को मस्का मारती है और बड़े आराम से अंटी
ढीली कर जाती है। माँ अपने भूले-बिसरे गर्व में कहती रहती है- “अरे मेरे पास तो
सात-सात बेटे हैं। एक –एक कौर भी एक –एक बेटा देगा तो पेट भर जाएगा।“ किसी भी बेटे
के पास कौर का एक टुकड़ा भी नहीं होता, भले माँ दूसरों के बेटों
से एक कौर भात या एक रोटी मांगे। और क्यों ना मांगे! आखिर को वह उसकी जगत माता है
और वह उसकी जगत संतान! केवल गाने से काम थोड़े न बनता है! लेकिन, संतान
गाती है-
“कौन सी वो चीज है जो
यहाँ नहीं मिलती,
सबकुछ मिल जाता है, लेकिन हाँ, माँ
नहीं मिलती।“
खुश माँ डगरे का बैगन बन जाती है, जिसे जो चाहे, जिधर
से डुला ले। दिक्कत यह है कि माँ को पत्नी की तरह एक पतिव्रत नहीं बनाया गया। एक
बच्चा ही जनती तो शायद एक संतान की माँ का खिताब मिल भी जाता। लेकिन इसमें भी उसकी
मर्ज़ी कहाँ रही? जितनी मर्ज़ी घरवालों की, बच्चे जने और अपने बच्चों की माँ के साथ साथ
जगज्जननी बने। माँ मुसकुराती है और प्यार से जगत संतान के लिए पूरी-छोले बनाती है।
कर्जा चढ़ा तो क्या हुआ! बच्चे तो खुश! बच्चे पूरी-छोले खाने से पहले गाते हैं-
माँ मुझे अपने आँचल में छुपा ले, गले से लगा ले,
कि और मेरा कोई नहीं।
और खाने के बाद-
“माँ तुझे सलाम, अम्मा तुझे सलाम” गाते
अपनी राह निकल जाते हैं।
हमारी महान भारतीय संस्कृति कहती है कि हम पेड़-पौधे, पशु
पक्षी, नदी- तालाब, पत्थर- माटी, धरती सभी को माँ कहकर
पूजते हैं। इतनी माँओं को पूजने के क्रम में अपनी माँ छूट जाती है तो कोई अपराध तो
नहीं हो जाता! कितनी माँ को याद रखे कोई! अपनी संस्कृति में सीता,
दुर्गा, काली, शक्ति, पार्वती, संतोषी- सभी माँ हैं। पता नहीं, राधा,
रुक्मिणी, सत्यभामा माताएँ क्यों नहीं कहलाईं? गहन शोध का विषय है ये।
लेकिन छममकछल्लो नहीं करेगी यह शोध। उसकी जगत सन्तानें ले ये जिम्मा! केवल:
“बीबी, बेटी, बहन, पड़ोसी, सबमें थोड़ी-थोड़ी सी,
दिन भर एक रस्सी के ऊपर, चलती नटनी जैसी माँ”
कहकर उसे महानता के “हर-हर गंगे, पाप
तरंगे” कहकर झाड पर चढ़ा देंगे और अगली ही लाइन में उतार कर गर्त में भी फेंक
देंगे- “पुण्य हमारे घर, पाप तुम्हारे घर!” लो जी, और खिलाओ पूरी-छोले!
अपने पूतों को जनमते ही धार में बहानेवाली जगत पूतों पर वरदान की लहरें
बहाती माँ गंगा तो और भी रहस्यमई हैं। गंगोत्री से निकलकर परम पावन आर्यावर्त के
शहर दर शहर होते हुए, वहाँ की भूमि और वाशिंदों को पुण्यवान करती, उनके धंधे-
पानी का सारा इंतज़ाम करती गंदी होती चली जाती है- “राम तेरी गंगा मैली हो गई,
पापियों के पाप ढोते-ढोते!”
वह कहती है- “मेरे बेटो! मेरी आरती मत उतारो, मुझे ज़रा
साफ कर दो, ताकि मैं अपनी साफ लहरों के साथ बहकर तुमलोगों को भी साफ रख सकूँ।“ मगर बच्चे
बड़े हो गए है- कद्दावर! राष्ट्र के पहरुए! वे कहते हैं- “चुप बुढ़िया! बैठी रह एक
कोने में! हम जवान गबरू लोग! जो चाहेंगे, करेंगे, जैसे
इस देश की अन्य लड़कियों, औरतों के साथ करते हैं।“ और आरती के बाद का सारा जमा
कचरा उसी गंगा में बहा देते हैं, जिसकी अभी-अभी माँ कहते हुए आरती उतारी है! गंगा तो माँ
है ना, सो चुप लगाना ही उसका धर्म है। आखिर बड़े बड़े लोग उसे माँ कहते हैं, धर्म
और संस्कृति के नाम पर उसकी रक्षा के लिए तैयार हैं। रक्षक मुसकाते और गाते हैं-
“तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है,
प्यारी-प्यारी है,
ओ माँ, ओ माँ!”
बड़े-बड़े लोग अपनी सगी माँ से भी आशीष लेने जाते हैं, जैसे
माँ को देखे और उनके चरण छूए बिना उनकी भोर ही नहीं होती। पद और पद का ताज पहनते वक़्त
उसे टीवी के सामने बैठा देते हैं। साहेब जी, आपकी माँ के लिए क्या आपके
दरबार में इतनी जगह नहीं कि वह आपका राज्याभिषेक अपनी आँखों से देखे, दूर की
दृष्टि से नहीं! दरबार तो ऐसे ही बूढ़े लोगों से भरा पड़ा है। माँ के लिए जगह नहीं थी
या कोई प्रोटोकॉल था? दूसरी माँ तो होती हैं अपनाए अपने लाडले-लाडलियों के संग।
जैसा कि छममकछल्लो ने ऊपर कहा कि माँ तो माँ है। वह हर हाल में खुश
रहती है और संतान के भले के लिए ही सोचती है। लेकिन हम उसकी संतान! जब दिखावे का
समय हो, नजरें और हाथ माँ के पैरों पर। माँ भोली है, प्यारी है, इसलिए
निश्छल भाव से सर पर हाथ फेरती आशीष देती है। इस देने के क्रम में हम देखते हैं कि
बच्चे का सर थोड़ा गंजा हो जाता है, चेहरे पर थकान झलकती है, बाल, दाढ़ी, मूंछ
के संग-संग भौंहों के बाल भी सफ़ेद हो जाते हैं। लेकिन, माँ के लिए तो हर उम्र
का बच्चा उसकी गोद के बच्चे सा ही होता है- मासूम, प्यारा। हालांकि वह सब
समझती है और मन ही मन कहती है-
“ अम्मा देख, हाँ देख, तेरा मुंडा बिगड़ा जाए!”
लेकिन बिगड़े छोरे को संभालने के
लिए उसके हाथ अब बेहद कमजोर हो चले हैं। उस हिलते हाथ से केवल सर ही फेरा जा सकता
है। उसे अपनी उम्र का भी तो अंदाजा है। दम अटकते देर ही कितनी लगती है! तब महान
भारतीय संस्कृति के मुताबिक मुखाग्नि के लिए तो इसी बिगड़े छोरे से ही आस रहेगी ना!
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