"लमही" के अप्रैल, 2014 के अंक में प्रकाशित 5 कविताएं. आपके विचार आमंत्रित हैं.
1 मन पिऊ- मन पिऊ!
आज मैंने चाहा था कि...
तुमसे बात करूं!
पूछूं, कि क्या सचमुच तुम
थाम लोगे
मेरी गिरती बांहों, उठती
सांसों
और चढ़ती आंखों को
बांध दोगे इन्हें राग के
अनछुए घेरों में
और छू लोगे मेरा माथा अपने
होठों से
’पुच्च’ की
तरंगित ध्वनि के साथ!
आज मैंने चाहा था कि
तुम्हारे कन्धे पर अपना
सिर टिकाकर
थाम लूं तुम्हारी हथेली!
एक-एक उंगली की एक-एक पोर को
सहलाते हुए
पूछूं – धड़कन
बढ़ी क्या?
सांसें चढ़ी क्या?
तन जिया क्या?
मन पिऊ पिऊ बोला क्या?###
2 मेरा
शहर
यह मेरा शहर है छोटा सा
गांव से कटा, कस्बे से सटा
बड़े शहर से फटा- हटा
गुड्डी
बकाट्टा सा मेरा शहर!
बड़े शहर की धूल से लुटता
मेरा यह छोटा सा शहर
गांव-कस्बे की धूल से
पगलाता मेरा यह छोटा सा शहर
धुर्र
बादल के घने नाते-रिश्ते
अरे
लो! धंस गई घर की
दीवाल
सूखे, दरके खेतों के भीतर- नींव
बनकर नई इमारत की!
बनेगी,
तो देखअना, कैसे चमकेगी, कैसे दमकेगी!
भूल
जाओगे,
यहां
कभी था तुम्हारा खेत या छोटी सी दुकान!
बड़ा शहर आता है बुलडोजर
बनकर
पाटकर दरकी दीवाल और खेत
बना देता है समतल
बो देता है उनमें
नया टीवी,
नए मोबाइल, नया सोफा, नया आईना!
और इन्टरनेट का एकांझ बीज।
बड़ा शहर खोलता है मुंह- हंसने के लिए
समा जाते हैं उसमें गांव-कस्बे
जाने
कब और कैसे!
दूध-लस्सी की सिट्ठी तले बहकर चाय-कोला
मेरा यह छोटा सा शहर
जब कभी जगता भी है ऊंनींदा सा,
रुंआसा
सा तो
उसे दे दी जाती है
पान की दुकान में फंसी दारू की
पाउच-
पुचकार
कर- पुच्च पुच्च!
निमंत्रित
करता है दिन-
आओ,
आओ! गराड़ा करो, पान खाओ,
और भूल जाओ
कि भोला सा यह देश हमारा है,
यह छोटा सा शहर हमारा है
यह खोया सा सपना हमारा है।
मेरे इस छोटे से शहर में
हर साल आती है विकास की आंधी
रोप जाती है कुछ बड़े-बड़े
उत्पादों
के पोस्टरों विशालकाय पेड़
बन जाते हैं विकास की आंधी
तले
बिजली, पानी, अस्पताल, स्कूल
– इतिहास के पन्ने।
बजट में विकास है,
विकास में निकास है,
निकास के पैरों तले, भरे गले रूंध जाता है
मेरा यह छोटा सा शहर,
न गांव बचा पाता है उसे
न कस्बा!
दरअसल वो खुद ही हो जाते हैं
प्रागैतिहासिक काल की गाथा
मेरा यह छोटा सा शहर तो अभी भी
इतिहास में ही दफन है। ###
3 मैं - भूरी माटी सी!
यह मैं ही हूं
अपनी मादक गन्ध
और सुरभित हवा के संग
अपनी बातों के खटमिठ रस
और तरंगित देह-लय के संग
यह मैं ही हूं
फैले आसमान की चौड़ी बांहों
की तरह
यह मैं ही हूं
कभी हरी तो कभी दरकी धरती की
भूरी माटी की तरह।
समय ने छेड़ी है एक नई तान
देह मे दिये हैं अनगिन विरहा
गान
मन की सीप में बंद हैं
कई बून्द- स्वाति के!
सबको समेटने और सहेजने को
आतुर,
व्याकुल, उत्सुक
यह मैं ही हूं ना!
----
4 लड़की!
मत निकलो हद से बाहर।
देवियों की पूजा वाला है यह
देश!
बनती है बड़ी-बड़ी
मूर्तियां, देवी की!
सुंदर मुंह, बड़े-बड़े वक्ष और
मटर के दाने जैसे उनके निप्पल
भरे-भरे नितंब और
जांघों के मध्य सुडौल चिकनाई
उसके बाद ओढ़ा देते हैं
लाल-पीली साड़ी
गाते हैं भजन-सिर हिला के,
देह झुमा के.
लड़की!
तुम भी बड़ी होती हो
इन्हीं आकारों-प्रकारों के
बीच,
दिल्ली हो कि बे- दिल
तुम हो एक मूर्ति महज
गढ़ते हुए देखेंगे तुम्हारी
एक-एक रेघ
फिर नोचेंगे, खाएंगे
रोओगी तो तुम्ही दागी जाओगी
–
क्यों निकली घर से बाहर?
क्यों पहले तंग कपड़े?
क्यों रखा मोबाइल?
लड़की!
बनी रही देवी की मूर्ति भर
मूर्ति कभी आवाज नहीं करती
बस गढती रहती है- वक्ष, निप्पल, ज़ंघाएं!
होती रहती है दग्ध-विदग्ध, चलता रहता है भोग-विलास
जगराता,
अन्धियाता!
नहीं कह पाती कि आ रही है
उसे शर्म
हो रही है वह असहज
अपने वक्ष और नितंब पर
उनकी उंगलियां फिरते-पाते
किसी का कोई भी धर्म यहां
नहीं होता आहत।
कि हताहत
सुघड़ता के नाम पर
यह कैसा बलात्कार? ####
5. उगते
रहे कनेर!
तुम्हारी आंखों की पुतली
में उगते रहे पीले कनेर
लाल अड़हुल, चंपई हरसिंगार!
आंखों के कोनो से आती रही
मॉलश्री की भीनी-भीनी खुशबू,
जब
इन आंखों को ओढ़ लिया मैंने
अपने होठों पर
तो
इन्हीं आंखों की पुतली
चमक उठी मेरे माथे पर
बनकर बिंदिया –
बड़ी-बड़ी,
लाल-लाल
गोल-गोल।
(-----)
No comments:
Post a Comment