"इंडियन विमेन प्रेस कोर" (IWPC) द्वारा 2012 के प्रथम कथा सम्मान से सम्मानित तथा "हंस" के अप्रैल 2014 के अंक में प्रकाशित यह कहानी एक नए तरह के विकसित हो रहे समाज का बजबाजाता रूप है, जहां एक ओर अर्थ की सत्ता शासक की सत्ता के साथ रंगरेलियाँ मचाती हैं तो दूसरी ओर जीवन को नेमत मानते हुए हर हाल में जीवन को जीने की सौगंध है। जीवन गंगा की निर्मल धार की तरह ही पवित्र है और इसकी लहरों की तरह ही सतत चलायमान। इसे 'हंस' के पाठकों का आसीम प्यार मिला है। IWPC और 'हंस' को अनेकश: धन्यवाद और सभी पाठकों का आभार। आप भी पढ़ें और अपनी राय दें।
गंगा जी के निर्मल धार
‘बहती गंगा की धार के नाविक
डूब न जाना पार!
ताल-
ताल पर धर लो बैयां
लहर-लहर मंझधार!’
पढ़ी होगी कभी यह कविता सुगनी ने। कोर्स में या यूं ही किसी साहित्यिक पत्रिका में। वह सब याद करने का अब न तो उसका मन है, न बखत और ना ही कोई ठौर!
ठौर औरत का? अपना? – सुगनी हँसती है- बाप, भाई, पति,
बेटा– जैसे अर्थी के चार कंधे–
‘राम नाम सत्त है, मुएले में गत्त है।’
मौत की धार निर्मल
नहीं होती, जबतक देह की बची हड्डी गंगा में ना डूबे।
‘ना’ सुगनी नहीं करती। धरे है संकल्प –क्यों मरे? मानुस जनम बार-बार थोड़े ना मिलता है। और मरने से फायदा? गुंजन कि गंजन– जिंदगी भरे न ई
सब।
मां ने एकाध बार टोका- ‘शरम कर! ससुर के साथ! राम-राम!’
सुगनी ने माई को बरजा- ‘बुढ़बे को कोनो लाज-शरम नहीं त’ लाज-शरम का ठीकेदारी हमी सम्हाले हैं?’
सुगनी सुग्गा जैसी हरियर होती गई-
‘सुगनी
चिरैया सगुन लिए जाए रे,
केला के पत्ता हवा में उड़ा जाए रे।“
कंठ में सुगनी की आसमानी ऊंचाई भेदती तान और गले में सुग्गा जैसी लाल धारी –पोत मोती की लाल माला! झमटगर आवाज में सुगनी झूमर उठाती-
‘रात सैंया मोती की लड़ तोर दियो रे!’
गीत के टंकार के
संग-संग उठती आस-पास की भौजाइयों की टिहकारी और लौंडो-लपाड़ों की पिहकारी। सुगनी भौजाइयों की टिहकारी का जवाब मन की हरियरी से देती और
लौंडो-लपाड़ों को वो खींच मारती कि वे सब मजबूरन उसे दीदी और बहन की चद्दर ओढ़ाने
में अपनी इज्ज़त समझते!
हरी-हरी दूब पर ओस की पनियाली बुन्न जैसा ही सुगनी का करतब फैल गया– टोला मोहल्ला,
जबार, गांव- कोई
ठिठियाया, अधिकतर छीछीयाए। छी: छी:!
‘ना! सैंया नहीं, सैंया का बाप!’ सुगनी ठठाती। उसके ठठाने से सूरज बादल में छुप जाता है और चांद अमावस बन जाता
है। सुगनी जीभ फैलाती है– लप-लप-लप- नागिन जैसी! फुंफकारती भी है! उसके हिरदे में आग है– दावानल,
जठरानल...!
दावानल- जंगल की आग-
लाल-लाल! ऊपर और ऊपर उठती ज्वाला। जठरानल–जठर यानी पेट की आग! जीवन की सबसे बड़ी आग। इस आग
के बुझने के बाद ही और कोई आग सुहाती है। यह आग सुगनी की देह के दावानल में घुसकर राड़ मचाती रहती है।
सुगनी की देह में राड़ मचने से पहले उसकी मांग में राड़ मच गया. राड़ से रांड और अब
रांड से रंडी...!
पागल लोग सोचते हैं कि
मौत का कोई बहाना होता है।
हह! सुगनी कनछती- मौत, बस मौत है –जिनगी- तेल के नीचे दबे पानी जैसी भारी और सच! मौत-
पानी से ऊपर छलछलाती, पसरती- तेल सी हल्की! इतने ही हलके से मौत उसकी
मांग को पोछ उसे लाल से उजला बना गई।
सुगनी मन को समझाती- ‘बढ़िया है! सिन्दूर-चूड़ी, टिकुली-आलता
का खर्चा बचा. रोज-रोज नई साड़ी-गहने की फर्माइश के नखरदार तारे भी टूट-छूट, बिखर-भखर गए। अब बिना
रंग-कलफ और सलमे-सितारे की पुरानी-धुरानी चार साड़ी में भी
जिनगानी चल जाएगी- ब्याह से पहले गरीब बाप के घर जैसी। कमीज, शलवार,
दुपट्टे, चप्पल, बिंदी का कोई मैच नहीं। पहले दाल-भात-तरकारी का मैचिंग, फिर बाकी मैचिंग!
नाम देहाती होने से सुगनी देहाती भुच्च
नहीं हो जाती है। बीए पास, सुन्दर, लंबी, छरहरी, तराशी, मादक देह! दिन में नदी पर पड़ रही सूरज की किरण जैसी झिलमिलाती और रात में
भगजोगनी जैसी भकभकाती। देह सजाने के लिए उसके पास भाषा है और लोगों के जीवन का कलफ उतारने के लिए व्यंग्य। इसलिए मैचिंग याने मेल के मैच को खेल के मैच से जोड़ दिया– ‘हा, हा, हा, हा! परसाई जी को पढ़े हैं
भाई! उनका पासंगो नहीं है, फिर
भी...’ सुगनी हंसती है, फूल झड़ते हैं। काश, जो हाथ और मांग की तरह देह
और पेट के भी सूने, सूखे
रहने की व्यवस्था होती– देह की व्यवस्था,
समाज की व्यवस्था! पेट की व्यवस्था, प्रकृति की व्यवस्था।’
‘सुगनी बेकल भेल पीटे करेजबा से
जुनि छोड़ जाव’ हमरा बिदेसिया!’
सुगनी का मरद ऐसा
बिदेसिया बन गया, जहां से कोई लौटता नहीं। नसीबवाली सुगनी! न किसी ने उपराग
दिया, न खटवांग सुनाया। लेकिन सुगनी औरत है।
इसलिए औरत का रखवार कोई ना कोई तो होना ही चाहिए। सुगनी को भी मिला। मरद से ऊपर
ससुर- रक्षक, संरक्षक। बोले बाउजी से- ‘क्यों जाएगी अपने नइहर? ई घर उसका है। जमीन-जैदाद उसकी है!’
बाउजी धन्य-धन्य हो उठे। गांव-जबार वाह-वाह
कर उठा। डूब गई उस वाह-वाही में सुगनी की मसोमाती आह– रक्षक ससुर के तक्षक होने की आह... तक्षक के भक्षक होने की आह! तक्षक की लप-लप जीभ सुगनी की देह को चाटती- ऊपर
से नीचे, नीचे से ऊपर! कुलबुलाती जीभ सारे खोह, दराड़ खोज आती! सुगनी की देह में तक्षक
दांत गड़ाकर उलटता है और अपनी देह का सारा विष सुगनी पर उड़ेल कर ससर जाता है।
सुगनी फूट पड़ती है बाउजी के सामने- ‘हमको यहां से ले चलिए। हम कुटिया-पिसिया करके गुजारा कर लेंगे।‘ बस इतना ही। ‘ई विषधर नहीं सहा जाता हमसे-’ सुगनी के कण्ठ में ही दम तोड़ देता है। कैसे बोले, एक बाप से दूसरे बाप की बात!
‘कवन
दुखे बेटी! एतना भरगर कुल-खानदानवाले ससुर जी हैं। एतना मान-सम्मान से रखे हुए
हैं। जवान- मसोमात पुतोह को तो लोग एक कपड़ा में भगा देते हैं।‘
‘माई को लाइये।
हम उनसे बतियाएंगे।‘
‘अइसन कौन बात
है जो तुम हमसे नही कह सकती?”
नासमझ बन गए बाउजी- ‘मसोमात बेटी को छाती पर बैठा लें? जन-मजूरिन घर की रहती तो कर लेती कुटिया-पिसिया।’
‘साड़ी में फॉल लगाएंगे, फ्रॉक– बेलाउज सीकर, स्वेटर –शाल बुनकर गुजारा करेंगे। बीए पास हैं। कोनो काम कर लेंगे। ट्यूशन
पढ़ा लेंगे।’
‘मातबर लोग हैं रे तुम्हारे
ससुर! हम न ठठ पाएंगे उनसे
रार ठानकर।’
बेटी कुमारी हो कि बियाही, सधवा कि विधवा– बेटी का रखवइया,
उसका खिवइया कोई नहीं। खाली कहने भर को गीत गाती रहती हैं सभी बेटियाँ-
‘अम्मा कहे बेटी निति उठि अइहे,’
बाबा कहे छओ मास रे!
हर माई की कामना की
बेल और बेटी के मन की नकेल बाप के बोल के
नीचे दबती आई है। सुगनी और उसकी माई के बोल भी बाप के बोल के नीचे दब गए। उफ़्फ़! ई मन भी ना! बड़ा विचित्र होता
है ओ राम जी! जिनगी का मोह तो उससे भी बड़का थेथर! हरमजादा न डूबने देता है, न फंदा
लगाने।
सुगनी मन को समझा लेती
है। सुगनी तिरिया बन जाती है- ‘देवो न जानाति, कुतौ मनुष्य:?’ न समझने में ही भलाई है। समझे तो परलय! सुगनी विषधर ससुर की देह का जहर पीने लगती है- अपनी देह की खोह-दराड़ों से... अब तो और दूने-चौगुने वेग से। औरत सब सह सकती है, सौत नहीं। सौत बनाने के लिए सात फेरे की ज़रूरत नही। सात फेरेवाली सास बेटे के पहले ही
सुरग पहुँच गई थी- शायद बेटे का ख्याल रखने के लिए।
लोग-बाग पूछते। सभी बरज
देते- ‘ना, ना! दुलहीन तो ऊ सुरगवासी रमेन्दर जी की ही है! ... बाकी...’ बेटे रमेन्दर जी की बहू का पोर-पोर तन सोखनेवाले बाबू सतेन्दर जी नाम
कैसे दें? समाज क्या
कहेगा?
सुगनी हँसती है- मातबर
लोगों को समाज कुछ नहीं कहता। तब-तक तो और भी नहीं, जबतक चिंगारी पर राख पड़ी है। सतेन्दर जी रात में चिंगारी कुरेदते, उसकी ताप में
देह सेंकते, भकभका कर गर्मी का लावा फेंकते और फिर उस चिनगी को दिन की राख से तोप देते।
सुगनी के दोनों छोटका देवर भी जवानी पाकर बियाह दिए गए। दोनों कनियाइन घर का रंग-ढंग देखकर हकबकाती रही। सुगनी तोते जैसा मिठ-मिठू बोलती, मैना जैसा घर भर घूमती। नई
कनियाइनें अपने घरवालों से खूब-खूब लड़ी -‘बेलज्जा! उसको बुलाते क्या हो? भौजी? कि माई?’
इन सवालों से परे सुगनी देह और मन से गदरा रही थी। सतेन्दर बाबू हर महीने एक गहना गढ़वाते! जब रमेन्दर जी की घरवाली थी, तब सोना छह हजार भरी था। तब नाक का एगो कीलो
रमेन्दर जी नहीं गढ़वा दिये। ... अभी एकतीस
हजार का रेट है, तइयो हर महीना...एगो गहना! सुगनी ठठाती है-
‘बैगनबाड़ी में बुढबा डोलाबे बैगना,
बैगनबाड़ी में।‘
सुगनी उफनती
है समन्दर के ज्वार जैसी- ‘ये लो..... मैं आ गई.....’
दोनों देवरानी कबकबाती
है- लाल ओल जैसी- ‘बुढ़वा सारा पाई लुटा देगा ई रंडी के ऊपर!... खेत-पथार भी इसके नाम लिखने
जा रहा है...’
‘तो उपाय क्या है?’
‘सुता दो– परमानिन्टी।’
‘जिससे हमलोग हवालात का
जांता पीसें – परमानिन्टी।’
‘सोच गे बहिना!’
‘सोचने दे गे बहिना।’
दोनों कनियाइनें सोचती रही। सुगनी हरियर से लाल, पियर, चंपई, तोतापंखी होती रही। सतेन्दर
बाबू का दबदबा! किसकी मौत से आसनाई हो
गई है कि एको आखर बोले?
शहर का रुख करते अपने मरद से कनियाइनें
बोलीं - ‘हमलोग तुम्हारे
पास कब जाएंगे?’
‘जहिया औकात हो जाएगा।’
‘बाउजी से पइसा ले लो।’
‘देह में घुन नहीं लगा है। अपने कमाई से तुमको रखेंगे।’
‘हमको पहुंचा दो नैहर। ई रंडीबाजी आ भंडुआपनी हमसे न देखा जाएगा।‘
लेकिन खुदगर्ज़ दोनों बेटों की खुदगर्ज़ दोनों बीबियों ने खुद ही इरादा बदल दिया – ‘न खाने-चबाने देंगे ई रांड को सारा अमरूद, चना! दोनों
ने रीत-शरम छोड़ अपने-अपने मरद की आरती उतारी- ‘जाओ हे हमर मांगिया के सूरूज, हमारे जिनगी के चन्दा! हम तुम्हरी बाट निहारेंगे। जिस दिन हियरा की तान छेड़ोगे– आओ री...’ उसी तान की डोरी चढ़े पलखत में पहुंच
जाएंगे... तुम्हारे पास, तुम्हारे शहर की तखत तक।’
‘तबतक?’
‘तबतक गे बहिना, सेंध काटेंगे।’
एक ने काटा गोल सेंध, एक ने काटा चौखुट (चौकोर)। दोनों
हंसतीं- ‘किसी सेंधमार से पूछिए गोल आ चौखुट सेंध की बारीकी।
सुगनी अवाक! अरे, उसका तो मरद बिन अता-पतावाले देस चला गया। पतावाले देस के माय-बाउजी ने अपने साथ ले जाने से मना कर दिया। और, भाई-भौजाई कब किसके हुए हैं? गीत है ना-
‘भैया कहे बहिनी काज-परोजन,
भौजी
कहे मत आओ रे!’
भाई-भौजाई तक तो मामिला पहुंचबे नहीं किया। इहां तो बाबुए जी मना कर दिए- ‘पार न पाएंगे रे तुम्हारे ससुर से... अब जैसा भी है, देखो। जो उचित लगे, करो।‘
सुगनी सोचना छोड़ चुकी थी कि ऊ मसोमात है कि सोहागिन! बाकीर ई दुनू? इन दोनों का छहफुटा जीवित मरद है, नइहर से माय-बाप, भाई-भौजाई सब पुछवइया हैं। फिर भी ये सब?....
‘एगारह चूड़ी कांच के
बारह
बेटी बाप के
तेलिया
तेलाई के
चौदह
मूड़ी भाई के
नाच
करे भौजाई के! ’
सुगनी तो नाच ही रही है। बचपन में ई फकरा पढ़ती थी खेलते समय। अभी सतेन्दनर बाबू गाते हैं, उसकी
देह को नचाते हुए-
‘नाच मेरी बुलबुल कि पइसा मिलेगा।’
लेकिन, ये दोनों? ये दोनों कनियाइनें समझ बैठी थी कि जीवन में होता है- भैया! सबसे बड़ा रूपय्या! दोनों निश्चिंत कि समझा लेंगी
अपने-अपने मरद को। अपनी कमाई के बल-बूते ही शहर ले जाने की कसम खाए उनके मरद डोल जाएंगे
पैसे के आगे। बुझा लेगी उनको-“ई साझा संपत्ति है। साझा हक है इसपर। सतेन्दर बाबू और उनकी अथाह संपत्ति पर खाली ई रांड अपना हक कैसे जमाए
रहेगी?’
सुगनी हकबकाती।
माना कि उसके समय सतेन्दर बाबू धरम-अधरम भूल गए। तो इसका मतलब ई तो नहीं कि हर समय
मरदे-मानुस दोषी कहाएं? ई दुनू राधा - सिया रानी! बेवा
सुगनी अपनी देह को गंगा जी की
निर्मल धार की तरह पवित्र रखना चाह रही थी। लेकिन धार की पवित्रता पर अपने विष की
धार बहाकर सतेंदर बाबू ने उसे मटमैला नही, भयानक विषैला
बना दिया- मगध की विषकन्या! मगर, ई दुनू राधा- सिया! सतेंदर बाबू की बरसती विष की धार को ई दुनू खुशी-खुशी अपनी मरज़ी से अपने भीतर समाने को ओताहुल –
‘लिखते हैं खत में कि जी हैं कुशल से
हम भी टिके हैं यहां, अपने ही बल
से।’
ओ मेरे बलम देवता! तुम धरे रहो शहर की चादर। हम इहां इस गांव की रजाई में भूर (छेद) कर रहे हैं... हे लक्ष्मी माई! बड़ी
हो तुम मायाविनी! इस राड़-मसोमात, बांझिन के पास घुसी चली जाती हो। हमरे पास आओ!
हमको रति बनाओ- कामदेव बुलाओ- वसंत मदमाओ... जोड़ा छागर चढ़ाएंगे ओ माई!’
‘रुनकी-झुनुकी मैया खेलेले अंगनवा
भगत करे ले चीत्कार, गे माई!’
दोमुहां तेलिया सांप होता है- सतेन्दर बाबू
तिमुंहा बन गए- चौमुंहा बनते, ब्रह्मा जैसा सिरजने
लगते। सिरजन की ताकत पर रोक लगाने वास्ते हरदम उनका पॉकेट फूला रहता– सुगनी, राधा, सिया– तीनों के लिए तीन
अलग-अलग पैकेट... अलग बेबस्था, अलग इंतजाम, अलग सुगंध, अलग रंग – केसर, गुलाब, बेला! अब सुगनी का चरदिनुका झंझट भी नहीं, जिसके कारण सतेन्दर बाबू को उत्ते दिन सुगनी से अलग रहना होता। अब राधा-सिया दोनों हैं - हरदम तैयार- बड़ी देर तक भाँजनेवाली दुधारी तलवार।
लोग-बाग के मुंह में
जाभी लगी. ये दोनों खुले आम भचभचाने लगीं- ‘सोचिए, कितना भला हो रहा है! इधर-उधर जाने से बच गए न! कोनो बीमारी उठा लाते
तो? ऊ- एचआईभी! अम्मा तो है नहीं कि कोढ़ी- कुष्ठ मरद को भी तार दे...। शुकर मनाइए, आपकी बहू-बेटी बच गई! और सबके ऊपर– घर का धन घरे में, घर का जन घरे में, घर की मांग घरे में, घर की धार घरे में?’
‘हर-हर गंगे, पाप तरंगे
पुण्य हमारे घर, पाप तुम्हारे दर!’
सुगनी मुस्काती- ‘खाओ सब- खखोरी (दूध के पतीले की तलछट)!’ वह जानती है – सोना, जमीन और सबसे ऊपर सतेन्दर बाबू का दिल-दिमाग और
उससे भी बढ़कर उनकी देह! देह पर चींटी के ससरने से देह चींटी
की गुलाम हो जाएगी? देह को सूंतना पड़ता है- तेल पिला-पिलाकर। मन को मथना पड़ता है- देह की मथानी में। तभी निकलती
है सुगनी सी चिकनी मलाई!
समय बदलता है। सतेन्दर बाबू की देह ढीली हो
गई है। सुगनी की देह तनी हुई है– देह के उठान से,
मनवां की तान से, गांठ के मचान से। दोनों कनियाइनें कचकचाती हैं-
‘जाने कौन बरहम बाबा से आसीरबाद लेकर आई है। मरती भी नहीं कि
पाप छूटे।‘ सुगनी मुसकाती है। सच ही है– ‘नारी न मोहे नारी के रूपा... ’
राधा और सिया रानी
को सुगनी डराती भी है, मोहती भी है। भीतर से गारी, ऊपर से नचारी...!
‘हमु नहि आज रहब एहि आंगन
जौ बुढ़ होयत जमाय, गे माई!’
पार्वती नहीं है राधा और सिया! मगर सतेन्दर
बाबू महादेव हैं – औघड़दानी! बस, उनकी देह के सांप के
बिसबिसाते दांत को अपनी फेन बाहर निकालने के मौके मिलते रहें, बस!
सुगनी चमक उठी, राधा-सिया झमग उठी– सुगनी की कसी-गठी देह पर छूटती है सतेन्दर बाबू की विषधार और बन उठती है सुगनी की देह- सोने का झिलमिल हार! राधा-सिया मोबाइल और आई पॉड के की-पैड जैसी चमकती हैं, झलकती हैं.... उस झलक में एकाध चेन, एकाध अंगूठी
चमकती है... बाकी धार तो धार है – पैसे की हो, विष की हो, दूध की हो, लार की हो– सब निर्मल है– सब धार है– गंगा जी
के निर्मल धार की तरह! भूपेन हजारिका के गान की तरह नहीं - ‘निर्लज्जो तुमि... ओ गोंगा बोहेछो कैनो?’ गंगा कल भी बहती थी, गंगा आज भी बहती है, गंगा कल भी बहेगी– लहर दर लहर, बहर दर बहर! बहो हे गंगा! कोई भी पूछे कि ‘बोहेछो कैनो’ तो कोई भी जवाब मत दो। बस बहती रहो,
बहती रहो- अविकल, निर्मल, निश्छल! ###
1 comment:
ग्रामीण समाज और परिस्थिति का अच्छा चित्रण किया... सधी हुई कहानी।
Post a Comment