जगदंबा प्रसाद दीक्षित हमारे बीच नहीं रहे। फिल्म निर्माता, निर्देशक महेश भट्ट ने उन्हें याद किया है अपने तरीके से। जगदंबा प्रसाद दीक्षित बहुत अच्छे वक्ता थे, एक्टिविस्ट थे, उम्दा दरेजे के लेखक थे। 1999 में देश में राजभाषा की स्वर्ण जयंती मनाई जा रही थी। कई आयोजनों के बीच लेखकों से मिलिए कार्यक्रम भी रखा गया था, जिसके लिए हमारे दफ्तर की ओर से उन्हें बुलाया गया। कार्यालयीन भाषा की बात थी। जाहिर है, अनुवाद पर सवाल उठे। दीक्षित जी ने कहा कि औद्योगीकरण इस देश की देन नहीं है। इसलिए हमारे पास उद्योगों के लिए मौलिक शब्द नहीं हैं। शब्द वहाँ से बनते हैं, जहां से काम शुरु होता है। हमारे यहाँ दूसरे काम हुए, उनके शब्द हमारे पास हैं, जैसे योग और उससे बने योगासन, प्राणायाम आदि। उनके अनुवाद नहीं हो पाते। वे बोले, "बाहर के शब्दों को लेने से कभी भी हिचकिचाना नहीं चाहिए। इससे हमारा ही विस्तार होता है।"
"मुरदाघर" जब पढ़ा तो भीतर तक हिल गई। ऐसी भदेस भाषा और उनके भीतर दबा हुआ इतना सारा दर्द कि आँसू भी छलकने ना दे और मन अवसाद से भर जाए।
ये बातें दीक्षित जी को सोचते हुए याद आ गईं। आप यहाँ चवन्नीचैप से लिया गया महेश भट्ट का संस्मरण और श्रद्धांजलि पढ़ें।
http://chavannichap.blogspot.in/2014/05/blog-post_30.html
श्रद्धांजलि - मेरे शिक्षक और लेखक जय दीक्षित
-महेश
भट्ट
महेश भट्ट की ‘सर’,‘फिर तेरी कहानी याद आई’,‘नाराज’,‘नाजायज’ और ‘क्रिमिनल’ जैसी फिल्मों के लेखक जय दीक्षित हिंदी के मशहूर लेखक जगदंबा प्रसाद दीक्षित का फिल्मी नाम था। उनके उपन्यास ‘मुर्दाघर’ और ‘कआ हुआ आसमान’ काफी चर्चित रहे। पिछले हफ्ते मंगलवार को जर्मनी में उनका निधन हो गया। उन्हें याद करते हुए महेश भट्ट ने यह श्रद्धांजलि लिखी है।
कहते हैं कि अगर आप नहीं चाहते कि मरने के साथ ही लोग आप को भूल जाएं तो पढऩे लायक कुछ लिख जाएं या फिर लिखने लायक कुछ कर जाएं। मेरे शिक्षक, लेखक, दोस्त जय दीक्षित ने दोनों किया।
मेरे सेलफोन पर फ्रैंकफट में हुई उनकी मौन की खबर चमकी तो यही खयाल आया। जय दीक्षित की मेरी पहली याद अपने शिक्षक के तौर पर है। वे कक्षा में शुद्ध हिंदी में पढ़ा रहे थे। उनका सुंदर व्यक्तित्व आकर्षित कर रहा था। यह सातवें दशक की बात है। वे सेंट जेवियर्स कॉलेज में फस्र्ट ईयर के छात्रों को हिंदी पढ़ा रहे थे। उनमें एक अलग धधकता ठहराव था। बहुत बाद में समझ में आया कि वे दूसरे अध्यापकों से क्यों भिन्न थे? एक दिन अखबार में मैंने खबर पढ़ी कि सेंट जेवियर्स कॉलेज के एक प्रोफेसर को राष्ट्रद्रोह के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया है। इस खबर ने मुझे चौका दिया था। मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि जय दीक्षित नक्सल थे।
फेड आउट ़ ़ ़ फेड इन ़ ़ सालों बाद। सुंदर व्यक्तित्व के मेरे प्रोफेसर ‘एक बार फिर’ के निर्देशक विनोद पांडे के साथ एक दिन मेरे घर आए। उनकी स्थिति अच्छी नहीं दिख रही थी। वे मुझे ‘अर्थ’ की बधाई देने आए थे। ‘क्या मुझे पहचान पाए?’ उन्होंने पूछा। उनकी आवाज में स्नेह और आदर दोनों था। ‘आपने मुझे हिंदी पढ़ाया था। आप को कैसे भूल सकता हूं,’ मैंने कहा था। ‘लेकिन यह बताएं कि आप जैसा क्रांतिकारी मनोरंजन की दुनिया में क्या कर रहा है?’ मैंने सुना था कि वे विनोद पांडे की अगली फिल्म के संवाद लिख रहे हैं। उनका जवाब था। ‘यह लंबी कहानी है। क्रांति मर चुकी है और वह व्यक्ति भी मर गया। जरूरतों ने मुझे सीधा कर दिया है।’
कुछ सालों के बाद उनका फोन आया, ‘मैं आप का शिक्षक जय दीक्षित बोल रहा हूं। सॉरी,मैं आपका समय ले रहा हूं, लेकिन कुछ जरूरी बात करनी है। क्या आप मुझे कोई काम दे सकते हैं, कोई भी। मैं अभी हताशा के भंवर में फंसा हुआ हूं।’ उनकी आवाज ऐसी लरज रही थी कि मैं कांप गया। मैंने तुरंत उन्हें काम सौंपा। फिर लंबे समय तक हम ने साथ काम किया। वे प्राय: कहा करते थे, ‘ये रहा मेरा छात्र, जो अभी मेरा शिक्षक है। अगर इन्होंने साथ नहीं दिया होता तो मैंने आत्महत्या कर ली होती।’ हमलोगों ने कई फिल्में एक साथ कीं। उनमें से एक ‘सर’ थी, जिसके लिए उन्हें संवाद लेखन का फिल्मफेअर पुरस्कार मिला था। पर उससे भी अधिक उनके संग-साथ की याद के लिए दो अविस्मरणीय पुस्तकें हैं। यूजी कृष्णमूर्ति पर लिखी दो पुस्तकों - ‘न खत्म होने वाली कहानी’ और ‘सारांश’ के अनुवाद उन्होंने ही किए थे।
उनकी अंतिम याद उनके एक जन्मदिन की है। उनके एक दोस्त ने उनके जन्मदिन समारोह के लिए विशेष तौर पर मुझे आमंत्रित किया था। मुझे उस दिन मुंबई से बाहर जाना था, लेकिन जय दीक्षित सर के लिए मैंने अपने कार्यक्रम में बदलाव किया। उस शाम मैंने अपने जीवन में उनके योगदान को रेखांकित किया था। मेरी बातें सुन कर उनका चेहरा किसी उपलब्धि के एहसास से दीप्त हो उठा था। मैंने बताया था कि मेरे व्यक्तित्व के निर्माण में उनकी क्या भूमिका रही है?
वे कहा करते थे, ‘मुझे मौत से डर लगता है।’ मेरा जवाब होता था, ‘मौत से कौन नहीं डरता दीक्षित साहब, यहां तक कि जो ईश्वर,अगली जिंदगी और स्वर्ग की धारणा में विश्वास करते हैं, उनहें भी मृत्यु से डर लगता है। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि जिस ने मौत की सच्चाई को अंगीकार कर लिया हो, वह जिंदगी जीने लगता है।’ उन्होंने कहा था, ‘अपने बारे में तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन आपकी जिंदगी देख कर खुशी होती है।
’
जय दीक्षित, मेरे शिक्षक, मेरे दोस्त, मेरे लेखक और अनुवादक की जिंदगी कुछ दिनों पहले पूरी हो गई। वे अपनी मातृभूमि से कोसों दूर थे। चूंकि मैं स्वर्ग और मृत्यु के बाद के जीवन में यकीन नहीं करता, इसलिए उनसे दोबारा मुलाकात की कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन सर, आप बेहिचक मेरे सपनों में मुझ से मिलने आएं। कहीं भी और कभी भी आप से मिलने में खुशी होगी।
जय दीक्षित, मेरे शिक्षक, मेरे दोस्त, मेरे लेखक और अनुवादक की जिंदगी कुछ दिनों पहले पूरी हो गई। वे अपनी मातृभूमि से कोसों दूर थे। चूंकि मैं स्वर्ग और मृत्यु के बाद के जीवन में यकीन नहीं करता, इसलिए उनसे दोबारा मुलाकात की कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन सर, आप बेहिचक मेरे सपनों में मुझ से मिलने आएं। कहीं भी और कभी भी आप से मिलने में खुशी होगी।