सरकारी नौकरी के बडे नखरे हैं भाई! छम्मक्छल्लो भी कभी सरकारी नौकरी में थी. मगर तब वह छोटी थी, उसे समझ में नही आते थे ये नखरे या उसे करना नहीं आता था. यह अनभिज्ञता अभी तक बरकरार है. ख़ुदा करम करें कि यह बनी रहे.
छम्मक्छल्लो अभी भोपाल गई थी. वहां उसकी पहचान के एक कहानीकार हैं. नाम है, इनाम है, इकराम है, सभी बडे साहित्यकार उन्हें जानते हैं, पहचानते हैं, मानते हैं, इसलिए बड़ी भी हैं. सभी बडी पत्रिकाओं में छपते हैं, सभी बड़े प्रकाशक उन्हें छापते हैं. देश से विदेश तक सभी उन्हें पुरस्कारों से नवाज़ते हैं. तो यह छम्मक्छल्लो का सौभाग्य ही था कि ऐसे लोग उसे ना केवल सम्मान देते थे, बल्कि उसे बहन भी कहकर बुलाते थे. छम्मक्छल्लो की आदत का क्या कहिये कि किसी ने किसी को बहन बोल दिया तो बस जी, उसमें और अपने सगे भाई में वह कोई फर्क़ ही नहीं कर पाती. इस चक्कर में वह कैयों से धोखा भी खा चुकी है, एकदम फिल्मी स्टाइल में. एक भाई ने एक लडकी को न केवल बडी दीदी कहा, बल्कि छम्मकछल्लो के सामने सालो-साल उससे राखी बन्वाता रहा. छम्मक्छल्लो उनके इस भाई-बहन के प्यार पर बलिहारी जाती रही कि अचानक उसने सुना कि वे दोनों शादी करने जा रहे हैं. जी, पुरानी बात है, मगर आज का यथार्थ यह है कि वे अब पति-पत्नी हैं. ऐसे बहुत से हादसे हुए हैं उसके साथ.
यह भी एक हादसा ही था. छम्मक्छल्लो हाल ही में भोपाल गई ठीक अपने इसी ब्लॉग के लिए यूएनएफपीए-लाडली मीडिया अवार्ड लेने के लिए. हमेशा की तरह उसने लपक कर अपने उस लेखक भाई को फोन किया, उत्साह से अपने आने का कारण बताया, आने का अनुरोध किया. तो जी, स्वर में ऐसा ठंढापन कि जाने किस कम्बख्त ने फोन कर लिया. आने की बात पर कहने लगे कि "अब मैं ऐसा-वैसा तो हूं नहीं कि जो जहां भी कहे, बुलाए, मैं सडक छाप कवियों की तरह मुंह बाए चला जाऊं." छम्मक्छल्लो की समझ में नहीं आया कि वह इस बात पर क्या प्रतिक्रिया दे? आखिर यह एक सम्माननीय कार्यक्रम था और मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री इस पुरस्कार को देने आनेवाले थे.
लेकिन तभी छम्मक्छल्लो के ध्यान में यह बात आई कि अब उस पर सरकारी अधिकारी के रुतबे का तमगा लग चुका है. यह तमगा अपना मन, मिजाज़, बोली, भाव सब बदल देता है. अगर आप भी इस श्रेणी में हैं तो बधाई आपको. कभी याद कीजिए कि क्या आपके इस व्यवहार से कभी किसी का जी दुखा है? अगर अभी तक इस साए से बचे रहे हैं तो भगवान ही मालिक है आपका. लोग तो कहेंगे ही कि देखी लो जी, अफसर भी बन गए और गऊ के गऊ ही बने रहे.
8 comments:
गिरगिट.
ha ha ha abhi to ye jalebi chakhi nahi...koshish jaari hai....
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
ये सरकारी अधिकारी नुमा कवि ऐसे ही होते हैं -नकचढ़े मगर गधे भी ...उन्हें तो आपको लेने आना था .....
हा हा! सच में भगवान मालिक है.
सच कहा है किसी ने कि जब किसी का असली चेहरा देखना हो तो उसके हाथों में शक्ति दे दो , ताकतवर ओहदा दे दो , फ़िर देखो क्या होता है । आपने देख भी लिया और हमें भी दिखा बता दिया । विभा जी यही आज का सच है । बहरहाल , बधाई एक बार फ़िर से ,पार्टी तो अजय भाई और आपसे फ़िर कभी ले ही लेंगे
"...उस पर सरकारी अधिकारी के रुतबे का तमगा लग चुका है. यह तमगा अपना मन, मिजाज़, बोली, भाव सब बदल देता है...."
मैं भी ऐसे सरकारी विभाग में काम कर चुका हूँ जहाँ घोर अफसरशाही रहती थी, और अधिकारी नाहक ही अपने रुतबे में घनघोर डूबे रहते थे. पर, मैंने देखा और पाया है कि जैसे ही इनका सरकारी ओहदा खत्म होता है, ऐसे लोगों की हालत बेहद गई बीती हो जाती है. क्योंकि इन्हें फिर कोई कुत्ता भी नहीं सूंघता... :)
बहुत सही चित्रण.
दिलीप, अच्छा है, चख लें. अजय जी, आपका नाम भी अजय ही है. तो पहली पार्टी आप से ही? रवि जी, अनुभव ज्यादा मुखर होता है.
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