सरकार भी न! अजीबोगरीब कायदे-कानून बनाती रह्ती है. एक नियम बना कर पाबंदी लगा दी कि सरकारी नौकरियों में अधिकतम दो बच्चों को ही जन्म दिया जा सकता है. पाबंदी इस अर्थ में कि इन नौकरियों को करनेवाले कर्मचारियों को सरकार की ओर से दी जानेवाली सुविधाएं केवल दो बच्चों तक ही सीमित रहेंगी. मगर हमारे लोग बडे उदारमना हैं. वे दो संतान से खुश नहीं होते. सात-आठ भाई-बहनोंवाले देश के लोगों से आप दो की संख्या पर ही खुश होने को कहते हैं? जैसे सात-आठ रोटियां खानेवाले से आप दो रोटियों में ही संतुष्ट हो लेने को कहें. लेकिन लोग सरकार की बात मानते हैं. आखिर नौकरी का सवाल है. इसलिए दो पर खुश रहने की कोशिश करते हैं, अगर वे दोनों अगर बेटे हों. मगर ईश्वर की नाराज़गी से अगर दोनों संतानें बेटियां हो गईं, तब तो मरने के किनारे तक भी आपका निस्तार नहीं, कुछ इस लोकगीत की तरह कि “ऐ बांझिन, तेरी तो मौत में भी मुक्ति नहीं”. दो बेटियों की मां होना बांझ से कमतर नहीं.
तब लोग सरकार को और उनके नियम, कायदे, कानून को भी धता बताने से बाज नहीं आते. बेटे की इस चाहत के पीछे शिक्षित- अशिक्षित का कोई भेद-भाव नहीं. छम्मकछल्लो का मन प्रसन्न हुआ कि चलो, इसमें तो कम से कम पढे-अनपढ का कोई भेद-भाव नहीं. आखिर कुल का नाम सभी को रोशन करना है. सभी को अपना अंतिम संस्कार अपने बेटे से करवाना होता है.
छम्मकछल्लो एक बहुत बडे अधिकारी के पास बैठी हुई थी. बडे अधिकारी अपने एक अपेक्षाकृत कम उम्र के अधिकारी से मिल रहे थे. स्नेहवश पूछ लिया कि “कितने बाल-बच्चे हैं?” उसने जवाब दिया कि “दो बेटियां हैं.” देश में मुफ्त के सलाहकार भरे पडे हैं. सो इन्होंने तपाक से सलाह दे डाली कि “भाई, दो बेटियां हैं. समाज, घर सभी ताने दे-देकर मार देंगे. एक बेटा पैदा कर लो. यू आर स्टिल यंग. डोंट लूज अपोर्चुनिटी.” वह बिचारा कहने लगा कि “हमारे घर में ऐसा कोई भेद-भाव नहीं है.” तो वे तपाक से कहने लगे कि “अरे, नहीं है तो क्या हुआ? गांव-घर तो जाते होगे ना! वहां तो लोग सुनाते ही होंगे ना. और तुम्हें क्या! तुम तो आदमी हो. सुनाते तो होंगे तुम्हारी पत्नी को. सोचो, बेचारे कैसे यह सब सहती होगी? और इतना कमाते हो. सपोज कि तीसरी अगर फिर से बेटी ही हो गई तो पाल लेना. इतने तो पैसे मिलते हैं.”
आप अगर बेटियों के समर्थक हैं तो सर धुनते रहिए. छम्मकछल्लो भी बेटे के ना होने का अफसोस आजतक सुनती है, जब गांव घर जाती है. लेकिन अगर लोग यह कहें कि कौआ कान लेकर उडा जा रहा है तो कौए के पीछे भागें कि अपने कान देखें? भई, ऐसी क्या खराबी है बेटी में? आपके ही जिगर का तो अंश है वह भी? उसके हाथ का खाते-पीते हैं कि नहीं? तो उसके नाम से कुल खानदान चल गया या उसने हमें मुखाग्नि दे दी, तो कौन सा ज़ुल्म हो गया? हर बात के लिए सरकार को कोसनेवाले हम क्या कभी अपने-आपको कोसने की ज़हमत उठाएंगे? सरकार तो नियम-क़ायदे-क़ानून ही बना सकती है. लेकिन उसे मानेंगे तो हम ही ना! यह प्रजातांत्रिक देश है तो हम सभी अपने अपने स्तर पर सरकार और व्यवस्था हुए कि नहीं? अगर नहीं तो कीजिए तीसरी-चौथी संतान पैदा. कहनेवाले तो इसके लिए भी दलील दे ही देते हैं कि “भई, यही संतान तो अपनी है, बाकी दोनों तो सरकारी हैं.” छम्मकछल्लो के कई सहकर्मी यही दलील दे-देकर तीसरी संतान पैदा कर चुके हैं. संयोग से उनकी वह तीसरी संतान बेटा हुई. बेटी होती तो शायद चौथी की भी सोच लेते. और मन में कोई मलाल मत लाइए. जी हां, ये इस देश के पढे-लिखे लोगों के विचार और कार्य हैं. सरकार अगर इससे दुखी होकर पढने-लिखने की योजना पर कुठाराघात करने लगे तो? तो फिर ये पढे-लिखे ही सरकार की लानत-मलामत उठाने से बाज़ ना आएंगे. आखिर क्या करे सरकार?
6 comments:
सही कहा आपने ........
“भई, यही संतान तो अपनी है, बाकी दोनों तो सरकारी हैं.” :)
एक और सुंदर पोस्ट....
दो कहानियाँ तो मैंने देखी है, जिसमें बेटे की चाहत में 5-6 बेटियाँ पैदा कर ली, और जब लाड़ला आया तो उसकी बहनें इंटर में पढ़ रहीं थीं|
महिलाएँ भी इस में बराबर की भागीदार हैं| ज्यादातर तानें/सलाह वहीं आपस में देतीं है|
सही कजा आपने साची. मगर इसके लिए महिलाओं को दोष देने के पहले उनकी उस मानसिक्ता को समझिए, जिसमें उन्हें बेटे के प्रति आग्रही और बेटियों के प्रति दुराग्रही बना दिया गया है.
जिस समाज के ढकोसले के चलते बेटाबाज़ी चली आ रही है, वही समाज किसी को एक वक़्त का खाना देने के नाम दुम दबा कर भाग खड़ा होता है. अपने परिवार को अपने दम पर अपने आप ही पालना होता है. संतान केवल संतान होती है.
धन्यवाद काजल! काश कि सभी ऐसा समझ पाते. जो समझते हैं, उन्ही के बल पर दुनिया कायम है.
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