बात बहुत पुरानी है। तब छाम्माक्छाल्लो शायद पांचवी या छठी क्लास में पढ़ती थी। वह अपनी माँ के साथ देवघर गई थी। पहली बार और अचानक यह कार्यक्रम बना था। छाम्माक्छाल्लो जिद करके गई थी। सबसे छोटी संतान होने के कारण शायद उसकीजिद मान भी ली गई।
मन्दिर में घुसाने के पहले छाम्माक्छाल्लो को माँ ने सिखाया की कोई पूछे की तुम्हारी जाती क्या है तो बोल देना की कायस्थ हूँ। "क्यों?' माँ ने तब की माँओं की तरह जवाब दे दिया "ऐसे ही." वहा तो खैर यह नौबत नही आई की कोई जाती पूछता और मुझे कुछ बताना पङता।
बात आई-गई हो गई। मगर उसी साल या अगले साल दशहरे के समय इस सवाल से वास्ता पड़ ही गया। छाम्माक्छाल्लो के शहर में हर साल दुर्गा बिठाई जाती हैं। उस समय उनकी पूजा करनेवालों की भीड़ खूब होती है। सप्तमी का दिन था- दुर्गा की आँखें खुलने का दिन। लोगों की भीड़ थी। बच्चों की तो सबसे ज़्यादा। छाम्माक्छाल्लो भी अपनी एक बहन के साथ दुर्गा के मंडप के पास खडी थी और दुर्गा जी की आँखें खुलने की राह तक रही थी। तभी एक महिला वहां आईं। उनके पास पूजा का सामान था, सो जाहिर था की वे पूजा कराने आई हैं। उनहोंने छाम्माक्छाल्लो को एक नज़र देखा, छाम्माक्छाल्लो शायद तब बड़ी गरीब दिखती थी। (अभी भी वही हालत है)। उनकी नज़र में पूरी हिकारत थी। उनहोंने छाम्माक्छाल्लो से दूर हटने के लिए कहा। न जाने क्यों उसे बड़ा गुस्सा आया। शायद जिस जगह वह खडी थी, वहा से उसे दुर्गा की प्रतिमा थोडी बहुत दिख रही थी। वह यह जगह खोना नहीं चाह रही थी। न जाने कैसे छाम्माक्छाल्लो उनके कहने का आशय समझ गई और छूटते ही कहा की "क्यों जाऊं, मैं तो कायस्थ हूँ।" आर्श्चय की इतना कहते ही महिला के तेवर बदल गए और वह सामान्य हो गई। छाम्माक्छाल्लो को बड़ी खुशी हुई। उसकी बहन ने उससे पूछा की तुमने ऐसा क्यों कहा की तुम कायस्थ हो? छाम्माक्छाल्लो ने उसे धीरे से चुप रहने को कहा। बाद में उसे समझाया की देखा नहीं, कायस्थ बोलने से उसने हटाने के लिए नही कहा।
छाम्माक्छाल्लो बचपन में एक गीत गाती थी- गप्प सुनो, भाई गप्प सुनो। अरे गप्पी मेरा नाम, गई, चढी खजूर पर और खाने लगी अनार। चींटी मारी पहाड़ पर खींचन लागे चमार, कैसे जूते बन गए, बचपन के हज़ार। " अभी जब वह एक नाटक बच्चों के लिए लिख रही थी तो यह गीत डालने की ज़रूरत पडी। उसके एक हितैषी ने समझाया की जाती सूचक शब्द हटा दें। छाम्माक्छाल्लो ने पूछा, क्यों? और जवाब पाने से पहले ही जवाब समझ में आ गया। नाटक अधूरा रह गया।
एक जाती बोलो, तो सर गर्व से ऊंचा हो जाता है, एक बोलो तो हंगामा हो जाता है। माँ ने अपने वैश्य जाती के होने की बात छुपानी चाही। प्रिंसिपल हो कर भी सामाजिक तनाव व् दवाब कुछ तो ऐसा रहा ही होगा। वह अब छाम्माक्छाल्लो की समझ में आ रहा है। इस जाती-पाती के चक्कर में हम राजनीति खेल रहे हैं, सबकुछ डाव पर लगा रहे हैं, केवल यह समझाने से इनकार कर रहे हैं की किसी भी जाती में कोई भी पैदा हुआ हो, है तो वह इंसान ही। लेकिन नहीं, जिस बात पर हमारा कोई बस नही, (किसी ख़ास घर में, खास माँ-बाप के यहाँ जन्म लेना), उस पर तो हम नाज़ करते हैं और जो हमारे अपने बस की बात है, (अपनी सोच को विक्सित करना), उस पर कोई तवज्जो देना पसंद नहीं करते।
वैसे बात में से बात निकली है तो छाम्माक्छाल्लो बता दे की बचपन में जिस कायस्थ होने की बात कही थी, उसे यह नहीं पाता था की एक दिन उसकी नियति कायस्थ परिवार की बहू बन जाना है।
6 comments:
विभा रानी जी
हम आपकी पोस्ट "कायस्थ तो बोलो, मगर चमार नहीं" पर आपको बधाई इस लिए भी देना चाहते हैं कि आपने कितने सरल तरीके से इस जातिगत बुराई की बात उठाई और ये भी बता दिया कि बाद में वही कायस्थ बहू भी बनी .
अच्छा लगा .
- विजय
विभाजी
बहुत सही जी...........
आभार
मुम्बई टाईगर
हे प्रभु यह तेरापन्थ
bahoot khoob,
कहीं किसी वक़्त बात करते करते मेरे मुंह से किसी एक बच्चे के लिए निकल पड़ा कि 'फलां फलां का illegitimate child (अवैध संतान) है'. मेरे बड़े भाई ने टोका 'बच्चा illegitimate (अवैध) है या उसके माँ बाप?..ख़बरदार जो कभी किसी बचे को illegitimate (अवैध) कहा.' बात घर कर गयी. किसी अबोध को क्या मालूम अपने अस्तित्व में आने का कारण और परिस्थितियाँ.... फिर भी सामाजिक प्रथानुसार उससे सारी उम्र जताया जाय कि वो अवैध है, ये कहाँ तक उचित है....? चलिए इसी सन्दर्भ में अब आते हैं जाती प्रथा पर. आये दिन सुनने में आता है कि 'फलां बच्चा मुसलमान है' या 'फलां बच्चा हिन्दू या इसाई है'. क्या उस बच्चे को ये मालूम है कि वो किस धर्म का है? उसके माँ बाप हिन्दू, मुसलमान, इसाई या किसी भी धर्म के अनुयायी हो सकते हैं, पर किसी अबोध मन पर ये बोझ डालना तर्कसंगत है? कोई बभी बच्चा, किसी भी धर्म के मानने वाले माता पिता की संतान हो सकता है, पर विज्ञान हमें बताता है कि मान्यताएं अनुवांशिक नहीं होतीं.
थोड़े से शब्दों में बहुत कुछ कह दिया। जाति व्यवस्था जाती नहीं दुगने जोश से आती नजर आ रही है।
घुघूती बासूती
waah adbhut aapne apne vicharo me smaaj vyaapta jaativaad ki choti soch ko apne shabdo me jivant kr diya hai...padh ke khusi huee tah-e-dil se
Dhanyvaad
Preetam Srivastava
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