आज अंगारिका चतुर्थी है, हिन्दुओं के लिए पावन दिनों में से एक और। वैसे इस पर्व के बारे में महाराष्ट्र में ही आ कर मालूम पडा। यह तीन संयोगों को मिला कर बना दिन है- कृष्णपक्ष के मंगलवार को पडी चतुर्थी का दिन। साल में यह दो या तीन बार आता है। इस साल यह पहली बार आया है और दूसरा शायद सितम्बर में आयेगा।
छाम्माक्छाल्लो के ऑफिस जाने के रास्ते में मुम्बई का मशहूर मन्दिर सिद्धि विनायक आता है। छाम्माक्छाल्लो पिछले १४ सालों से यह मन्दिर रोज आते-जाते देखती है। इस मन्दिर और इस मन्दिर में आनेवाले भक्तों के बदलाव को भी देखती आ रही है। पहले यहाँ इतनी भीड़ नही होती थी। मंगलवार या किसी ख़ास दिन तनिक भीड़ हो जाती थी। गणपति के दूध पीनेवाले दिन भी यहाँ खूब भीड़ जमा हुई थी।
पर अब यह भीड़ आपको हमेशा दिखेगी। पहले उम्र दराज़ लोग, घूमने आनेवाले लोग, सैलानी आदि यहाँ आते थे। पर अब तो नियमित आनेवालों की संख्या में नित नया इजाफा होता जा रहा है। अंगारिका के दिन तो भीड़ की पूछिए ही मत। एक रात पहले से ही लोग यहाँ अपना नंबर लगाना शुरू कर देते हैं। दो-तीन किलोमीटर लम्बी लाइन तो साधारण बात है। मेरी समझ से सुबह की लाइन में लगे हो तो शाम तक ही नंबर आता होगा। छाम्माकछाल्लो ने कभी भी इस लाइन का हिस्सा बनाना नहीं चाहा।
अब तो भीड़ का चेहरा भी बदलने लगा है। पहले बुजुर्ग, घरेलू महिलाएं आदि आते थे। अब तो युवक-युवतियां, स्कूल-कालेज जानेवाले बच्चे इस लाइन में अधिक नज़र आते हैं। काम से छुट्टी ले कर वे आते हैं। इसे श्रद्धा कहा जा सकता है। मगर छाम्माक्छाल्लो को यह बात पचती नहीं। भगवान कण-कण में विद्यमान हैं। पूरी श्रद्घा से आप कहीं से भी उसे पुकारें, वे आपकी मदद को दौडे चले आयेंगे। लेकिन अपने काम -काज को छोड़कर सिर्फ़ एक ख़ास दिन में इतनी लम्बी लाइन लगा कर कुछ सेकेण्ड के दर्शन से क्या मिल जानेवाला है, यह समझ में नहींं अता। यूथ, जिन पर देश का भविष्य टिका है, उनकी इस तरह की मानसिकता कभी-कभी डराती है। यह भक्ति का सैलाब है या अपनी कमजोरियों को एक अदृश्य ताकतवर के सामने ला पटकना। आत्म विशवास की कमी पीरों-दरगाहों, मंदिरों के चक्कर लगवाने लगती है। तो क्या हमारे आज के युवा, वह भी मुम्बई जैसे शहर के युवा क्या डरे हुए हैं या उनमें आत्म विशवास की कमी है? छाम्माक्छाल्लो को ऐसा कुछ नहीं लगता। मगर फ़िर भी इनकी बढ़ती संख्या चौंकाती है। छाम्माकछाल्लो इस भीड़ से यह भी पूछना चाहती है की इतना समय क्या आप किसी सामाजिक काम में या अपने ही कार्य स्थल में उतनी ही श्रद्घा से देने की इच्छा रखते हैं? आस्था का यह कौन सा और कैसा स्वरूप है?
3 comments:
आपका प्रश्न वाजिब है कि भीड़ और भक्तों का चेहरा क्यों बदल रहा है, दरअसल लोग समझते हैं कि मंदिर में घंटी बजाने से उनकी आत्मा को शांति मिलेगी व मन प्रसन्नचित रहेगा पर अगर वो भगवान को समझेंगे तो सबको ज्यादा शांति मिलेगी व मन निर्मल रहेगा।
जब तक हम अरबी में 'अल-हम्द-उल-लिललाह' -(Praise be to Allah, Lord of the Worlds), लैटिन में 'soli Deo gloria' ( Glory to God alone) और संस्कृत में 'त्वदीय वस्तु गोविंदा, तुभ्यम् समर्पयामि' ( तुम्हारी दी हुयी वस्तु, हे इश्वर, तुम्ही को समर्पित करता हूँ) जैसे संस्कार नयी पीढी को देना बंद नहीं करेंगे, तब तक ऐसा ही होता रहेगा.
यह एक विस्तृत विश्लेषण का विषय है.
भयजनित आस्था और श्रद्धा का विषय है.
द्वितीय शक्ति का आसरा खोते हुये तृतीय शक्ति पर आश्रित होने का विषय है.
तकनीक पर आधारित विवेक के सामने स्व-विवेक के बौने होने का विषय है.
यह एक दर्शन का विषय है, जिसे चन्द पंक्तियों में नहीं समेटा जा सकता.
आने वाले समय में इस भीड़ में आपको वृद्धि ही दिखाई देगी, कमी आने की कोई गुन्जाइश नहीं.
आज कल ये सोकॉल्ड बाबा, गुरु, स्वामी यूँ ही नहीं चल निकले हैं.
आपने विषय अच्छा चुना है, बात को और विस्तार में जाँचें, बहुत कुछ है इस भीड़ के होने में.
Post a Comment